Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/199
इसके अतिरिक्त प्रस्तुत विधि में अग्रलिखित विधानों का भी निरूपण किया गया है वे विधान ये हैं - १. ग्रह शान्ति का विधान २. नक्षत्र एवं ग्रह शान्ति-विधान ३. मूला एवं आश्लेषा नक्षत्रों की शान्ति का विधान ४. पूर्वाषाढ़ादि का शान्तिक विधान ५. स्नानादि द्वारा नक्षत्र शान्ति का विधान ६. प्रकारान्तर से ग्रहशान्ति का विधान ७. प्रकारान्तर से ग्रह पूजा का विधान ८. स्नानादि द्वारा ग्रहशान्ति का विधान और ६. सूर्यादि ग्रहों की स्तुति आदि। ३. पौष्टिकाधिकार विधि- इस अधिकर में पौष्टिक विधि का विवेचन करते हुए कहा गया है कि यह पौष्टिक कर्म आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा के समक्ष करना चाहिए। पौष्टिक कर्म को सम्यक् प्रकार से सम्पन्न करने के लिए बृहत्स्नात्रविधि के द्वारा पच्चीस बार प्रतिमा पर पुष्पांजलि का क्षेपण करना चाहिए। प्रतिमा के आगे पूर्ववत पाँच पीठ की स्थापना करनी चाहिए। प्रथम पीठ पर चौसठ सुर-असुरेन्द्र की स्थापना एवं उनका पूजन करना चाहिए। द्वितीय पीठ पर दिक्पालों की स्थापना एवं उनका पूजन करना चाहिए। तृतीय पीठ पर क्षेत्रपाल सहित नवग्रह की स्थापना और उनका पूजन करना चाहिए। चतुर्थ पीठ पर सोलह विद्यादेवीयों की स्थापना एवं उनका पूजन करना चाहिए तथा पंचम पीठ पर षट्द्रह देवीयों की स्थापना और उनकी पूजन विधि करनी चाहिए। इस विधि के अन्तर्गत पौष्टिक दण्डक (पाठ) का वर्णन करते हुए कहा गया है कि पौष्टिक कलश को पूर्ण करने तक कम से कम तीन बार पौष्टिक दण्डक का पाठ करना चाहिए तथा कलश पूर्ण हो जाने पर कलश के जल से पौष्टिककर्म करने वालों का कुश द्वारा अभिसिंचन करना चाहिए। इसके साथ ही पौष्टिक कर्म करने योग्य स्थानों पर भी विचार किया गया है। ४. बलिप्रदान विधि- इस अधिकार में बलिशब्द का अर्थ बताया गया है। इसके साथ ही इसमें तीन प्रकार के बलिविधान का वर्णन किया गया है १. जिन प्रतिमा के समक्ष चढ़ाने योग्य बलि २. विष्णु, रुद्र के निमित्त चढ़ाने योग्य बलि और ३. पितृ-व्यवहार के निमित्त चढ़ाने योग्य बलि। ५. प्रायश्चित्तदान विधि - इस अधिकार में प्रायश्चित्त से सम्बन्धित अनेक विषयों पर विवेचन किया गया है हम विस्तारभय से उल्लिखित विषयों का मात्र नामोल्लेख कर रहे हैं। सर्वप्रथम १. प्रायश्चित्त के हेतु २. प्रायश्चित्त का आचरण ३. प्रायश्चित्त देने वाले गुरु के लक्षण ४. प्रायश्चित्त करने वाले के लक्षण ५. आलोचना ग्रहण करने का काल ६. प्रायश्चित्त न करने पर होने वाले दोष ७. प्रायश्चित्त करने पर होने वाले लाभ और ८. प्रायश्चित्त ग्रहण विधि का सम्यक्
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