Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/203
श्रमण-संघ के इतिहास का संकलन करने की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
__ इस ग्रन्थ की विषय वस्तु संक्षेप में इस प्रकार है - प्रतिलेखनाद्वार- प्रतिलेखना का अर्थ है- स्थान आदि का भलीप्रकार निरीक्षण करना। इसके दस द्वार कहे हैं- अशिव, दुर्भिक्ष, राजभय, क्षोभ, अनशन, मार्गभ्रष्ट, मन्द, अतिशय, मन्द, अतिशययुक्त, देवता और आचार्य। इन दस द्वारों में १. देवादिजनित उपद्रव को अशिव कहा गया है तथा अशिव के समय साधुजन देशान्तर में गमन करें, ऐसा निर्देश दिया गया है। २. दुर्भिक्ष होने पर गणभेद करके रोगी साधु को अपने साथ रखने का विधान बतलाया है। ३. राजा किन्हीं कारणों से कुपित होकर साधु का भोजन, पानी या उपकरण को अपहृत करने के लिए तैयार हो जाये तो ऐसी स्थिति में साधु गच्छ के साथ ही रहें। ४. किसी नगर आदि में क्षोभ या आकस्मिक कष्ट के आने पर एकाकी विहार करें। ५. अनशन के लिए संघाड़े (समुदाय) के अभाव में एकाकी गमन करें। ६. रोगपीड़ित होने पर संघाड़े के अभाव में औषधि आदि के लिए एकाकी ही गमन करें। ७. देवता का उपद्रव होने पर एकाकी विहार करें, इत्यादि सूचनाएँ दी गई हैं।
आगे विहार की विधि, मार्ग पूछने की विधि, वर्षाकाल में काष्ठ की पादलेखनिका से भूमि प्रमार्जन करने की विधि, नदी पार करने की विधि आदि का प्रतिपादन किया गया है तथा संयम पालन के लिए आत्मरक्षा को आवश्यक माना गया है। इसी क्रम में ग्राम में प्रवेश, रुग्ण साधु का वैयावृत्य, वैद्य के पास गमन आदि के विषय में बताया गया है कि तीन, पाँच या सात साधु, स्वच्छ वस्त्र धारण कर, शकुन देखकर जायें। यदि वैद्य किसी अन्य के उपचार में लगा हुआ हो तो उस समय उससे न बोलें, शुचिस्थान में बैठा हो तो रोगी का हाल सुनाये, उपचार विधि को ध्यानपूर्वक सुनें। इसके आगे भिक्षाविधि एवं वसतिविधि के बारे में विवेचन करते हुए कहा गया है कि बाल-वृद्ध साधु को इस कार्य के लिए नहीं भेजना चाहिए। वसति को पंसद करते समय, मल-मूत्र का परिष्ठापन करते समय, भिक्षा ग्रहण करते समय आस-पास के मार्गों को भलीभाँति देखना चाहिए। इसके साथ ही कौनसी दिशा में वसति होने से कलह होता हैं, कौनसी दिशा में उदररोग होता हैं, कौनसी दिशा में पूजा-सत्कार होता है- इसका वर्णन किया गया है। इसमें संथारे के लिए तृण का, अपान प्रदेश पोंछने के लिए मिट्टी आदि के ढेलों का, वसति में ठहरते समय वसति के मालिक से पूछने आदि का भी विचार किया गया है। इसी क्रम में आगे कहा हैसाधु शकुन देखकर गमन करें। किन-किन प्रसंगों में शुभ और अशभ शकुन होते है एवं उनका क्या फल होता है ? यह भी बताया गया है।
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