Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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उसके प्रयोजन, फल और विधि के मूलभूत समस्त तत्त्व इस ग्रंथ में संग्रहीत हैं। इसमें दर्शन के गहनतम विषय से लेकर चारित्र की सूक्ष्मतम प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
विमलभक्ति
जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 153
यह एक संकलित कृति' है। इसमें दिगम्बर परम्परानुसार दैवसिक, रात्रिक एवं पाक्षिकादि प्रतिक्रमण की विधियों का उल्लेख हुआ है। इस कृति की यह विशेषता है कि इसमें प्रतिक्रमण विधि के सभी सूत्र - पाठ अन्वयार्थ और भावार्थ सहित दिये गये हैं। इन सूत्र - पाठों का हिन्दी अनुवाद आर्यिका स्याद्वादमती माताजी ने किया है। इस कृति में साधु एवं श्रावक दोनों प्रकार की प्रतिक्रमण विधियाँ कही गई है।अन्त में ईर्यापथभक्ति, सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, लघुचैत्यभक्ति, श्रीश्रुतभक्ति, श्रीचारित्रभक्ति, श्रीयोगभक्ति, आचार्यभक्ति, पंचमहागुरूभक्ति, शान्तिभक्ति, समाधिभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वर - भक्ति आदि के पाठ उल्लिखित किये हैं।
यह उल्लेखनीय है कि दिगम्बर परम्परा में उक्त भक्तिपाठों का विशेष महत्त्व है ! सामायिक हो या प्रतिक्रमण, पूजा हो या परमात्मदर्शन सभी प्रकार की क्रिया - विधियों में यथानिर्धारित भक्तिपाठ बोले ही जाते हैं। प्रस्तुत संग्रह कई दृष्टियों से उपयोगी है। इसका अपर नाम 'विमलज्ञान प्रबोधिनीटीका' है।
षडावश्यक बालावबोधवृत्ति
षडावश्यक बालावबोधवृत्ति नामक यह ग्रन्थ प्राचीन गुजराती गद्य साहित्य की एक विशिष्ट रचना है। इसके रचनाकार खरतरगच्छ के एक प्रभावशाली तरूणप्रभ नामक आचार्य रहे हैं। खरतरबृहद्गुर्वावली के अनुसार प्रथम जिनचन्द्रसूरि ( मणिधारी दादा) की परम्परा में होने वाले द्वितीय जिनचन्द्रसूरि' इस ग्रन्थ कर्त्ता तरूणप्रभ के दीक्षा गुरू थे। प्रस्तुत ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने अपने कथनों की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु संस्कृत और प्राकृत भाषा में रचित अनेक ग्रन्थों की ६४६ कारिकाएँ एवं गाथाएँ उद्धृत की है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १५ वीं शती का पूर्वार्ध है।
यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार मुनि एवं गृहस्थ के षट् कर्त्तव्यों से सम्बन्धित है। इसकी रचना बाल जीवों अर्थात् जैन धर्म के प्राथमिक स्तर के
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इसका प्रकाशन 'भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वद् परिषद्' ने किया है
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द्वितीय जिनचन्द्रसूरि, तृतीय दादागुरु नाम से विख्यात जिनकुशलसूरि के चाचा गुरु थे। ३ देखिये, जैन गुर्जर कवियों भा. ६, पृ. २१
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