Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 187
सामान्यतया इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में चार श्लोक दिये गये हैं प्रथम श्लोक में बताया गया है कि यह लोक तत्त्व ज्ञानमय है तथा इस लोक में जिन्होंने आचार को प्रणीत किया है उन योगियों को नमस्कार करता हूँ, उसके बाद सोलह संस्कारों के नाम कहे गये हैं। संस्कार सम्पन्न कराने वाले गुरु के लक्षण बताये गये हैं। तत्पश्चात् अनुक्रमशः सोलह संस्कार सम्पन्न करने की विधियाँ प्रतिपादित की गई हैं वे संक्षेप में निम्नोक्त हैं -
१. गर्भाधान - संस्कार विधि - इस प्रथम उदय में गर्भाधान संस्कार को सम्पन्न करने की विधि कही गयी है इसके साथ ही यह बताया गया हैं कि यह संस्कार स्थापित गर्भ के संरक्षण के लिए किया जाता है तथा गर्भधारण को पाँच मास पूर्ण हो जायें तब किया जाता है।
इसके साथ ही प्रस्तुत संस्कार सम्पन्न करने सम्बन्धी शुभमास दिन- तिथि- वार- नक्षत्रादि की चर्चा की गई है इतना ही नहीं संस्कार सम्पन्न होने पर कुलाचार की विधि से कुलदेवता, गृहदेवता एवं नगरदेवता का पूजन करना भी अनिवार्य बताया गया है। प्रस्तुत संस्कार विधि के अन्तर्गत शांतिदेवी मंत्र, शांतिदेवी का स्तोत्र, ग्रंथियोजन मंत्र, ग्रंथिवियोजन मंत्र, जैन वेदमंत्रों की उत्पत्ति एवं जैन ब्राह्मण की उद्भव कथा भी दी गई है।
२. पुंसवन संस्कार विधि - इस दूसरे उदय में पुंसवन संस्कार सम्पन्न करने की विधि प्रदर्शित की गई है। यह संस्कार गर्भाधान के पश्चात् गर्भ से पुत्र की प्राप्ति हो, इस हेतु किया जाता है। वह कर्म जिसके अनुष्ठान से 'पुं- पुमान्' अर्थात् पुरुष का जन्म हो वह पुंसवन संस्कार है।
प्रस्तुत कृति में लिखा है कि- यह संस्कार गर्भ के आठ मास व्यतीत होने पर तथा सर्व दोहद पूर्ण होने के बाद गर्भस्थ शिशु के अंग- उपांग पूर्णतः विकसित होने पर किया जाता है। इस संस्कार को सम्पन्न करने के लिए शुभ दिन-वार-नक्षत्रादि का उल्लेख किया गया है। मुख्यतः पति के चन्द्रबल में यह संस्कार आयोजित करना चाहिए, ऐसा कहा गया है।
३. जन्म - संस्कार विधि - इस उदय में वे विधि-विधान कहे गये हैं जो शिशु के जन्म के समय किये जाते हैं। यह संस्कार गर्भकाल के अपेक्षित मास-दिनादि की अवधि पूर्ण होने पर किया जाता है । इस संस्कार को सम्पन्न करने के लिए गृहस्थ गुरु, ज्योतिषी, बालक का पिता, दादी, दादा, चाचा आदि पात्र अनिवार्य माने गये हैं।
प्रस्तुत विधि के अन्त में यह कहा गया है कि कदाचित् बालक का जन्म आश्लेषादि नक्षत्रों में, गंडांत नक्षत्रों में एवं भद्रा नक्षत्र में हुआ हो तो वह पिता
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