Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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154/षडावश्यक सम्बन्धी साहित्य
साधकों को दृष्टि में रखकर की गई है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु तीन अधिकारों में विभक्त है। उसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - चैत्यवंदनविधि नामक प्रथम अधिकार - प्रथम अधिकार में नित्यक्रिया रूप प्रातः, मध्याह एवं सायंकाल की चैत्यवंदन विधि का विवेचन है। साथ ही इस सन्दर्भ में निम्न विषयों की चर्चा की गई हैं जैसे- १. श्रावक के इक्कीस गुण, २. जिनदर्शन सम्बन्धी दस त्रिक, ३. मंदिर सम्बन्धी चौरासी आशातनाएँ, ४. चैत्यवंदन के प्रकार, ५. ईर्यापथिक प्रतिक्रमण विधि, ६. इरियावहि, तस्स; अन्नत्थ; लोगस्स; णमुत्थुणं; जावंति; अरिहंतचेइयाणं; पुक्खरवदी सिद्धाणं बुद्धाणं; इत्यादि सूत्रों का विवेचन। ७. कायोत्सर्ग संबंधी दोष, ८. प्रसंगोपात्त सात प्रकार की उपधान विधि भी प्रतिपादित है।
गुरुवंदनविधि नामक द्वितीय अधिकार- इस अधिकार में प्रमुख रूप से गुरु- वंदन विधि चर्चित है। उसके साथ प्रस्तुत विधि से सम्बन्धित ये विषय भी विवेचित हुए हैं जैसे - १. मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन के पच्चीस प्रकार, २. शरीर प्रतिलेखना के पच्चीस प्रकार, ३. वन्दना के पच्चीस आवश्यक, ४. द्रव्यवंदन और भाववंदन का स्वरूप, ५. वन्दना के बत्तीस दोष, ६. वन्दना करने के आठ कारण, ७. वन्दना से होने वाले लाभ, ८. वन्दना के छः स्थान, ६. गुरु की तैंतीस आशातना इत्यादि। प्रसंगानुसार निम्न विषयों पर भी विचार किया गया है यथा- गोचरी के सैंतालीस दोष, भावना के बारह प्रकार, तप के बारह प्रकार, गोचरी गमन का क्रम, प्रायश्चित्त के दस प्रकार, स्वाध्याय के पाँच प्रकार, ध्यान के चार प्रकार, पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाएँ, श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ, भिक्षु की बारह प्रतिमाएँ, प्रत्याख्यान के दस प्रकार, काल सम्बन्धी प्रत्याख्यान के दस प्रकार पौरूषीकालज्ञापकयन्त्र, प्रत्याख्यान के बाईस आगार, प्रत्याख्यान की शुद्धि, प्रत्याख्यान का फल इत्यादि। प्रतिक्रमणविधि नामक तृतीय अधिकार - इस अधिकार में अग्रलिखित बिन्दुओं पर विचार किया गया है - १. प्रतिक्रमण के भेद, २. प्रतिक्रमण का समय, ३. सामायिक ग्रहण विधि, ४. सामायिक का फल, ५. पौषध ग्रहण विधि, ६. खरतरगच्छीय परम्परानुसार दैवसिक प्रतिक्रमण विधि, ७. गीताथों द्वारा आचरित दैवसिक प्रतिक्रमण की अवशिष्ट विधि, ८. रात्रिक प्रतिक्रमण विधि, ६. पाक्षिक-चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण विधि, १०. सामायिक पूर्ण करने की विधि, ११. पौषध पूर्ण करने की विधि, १२. प्रतिक्रमण का फल इत्यादि। इस ग्रन्थ के अन्त में अधोलिखित विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है। संयम पर्याय की अपेक्षा से
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