Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 177
व्रतविधि एवं पूजा
यह पुस्तक' दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित हैं। इस कृति में दी गई विधियों एवं पूजाओं की रचना ज्ञानमती माताजी ने की है। यह कृति हिन्दी पद्य में है। इसमें मन्त्रों का प्रयोग बहुलता से हुआ है । इस कृति की विषयवस्तु पढ़ने से ज्ञात होता है कि इसमें वर्णित विधान तथा पूजन गृहस्थ साधकों को दृष्टि में रखकर लिखे गये हैं। प्रस्तुत कृति में निम्न पूजा विधियाँ उल्लेखित हुई हैं - १. नमस्कार महामन्त्र की पूजा विधि २. जिनगुणसंपत्तिव्रत-पूजाविधि ३. वासुपूज्य पूजाविधि ४. पंचपरमेष्ठी की पूजाविधि ५. सप्तपरमस्थान की पूजाविधि ६. णमोकार के पैंतीसी व्रत की विधि ७. जिनगुणसंपत्ति व्रत विधि एवं कथा ८. रोहिणी व्रत की विधि ६. सप्तपरमस्थान की विधि
स्वोत्कर्षसाधनाविधि
यह संकलित पुस्तिका' है। इसमें 'ज्ञानसार' सानुवाद दिया गया है। साथ ही श्री वर्धमान तप, समवसरण तप और कल्याणक तप की विधियाँ दी गई हैं। इसमें कृति नाम के अनुरूप विषयों का संकलन हुआ है। 'ज्ञानसार' आत्म उत्कर्ष की मुख्य रचना है। शेष तप विधियाँ भी आत्मशुद्धि के लक्ष्य से की जाती हैं। इन तपाराधनाओं के समय बोले जाने वाले चैत्यवन्दन, स्तुति, स्तवनादि कवीन्द्रसागरसूरि रचित दिये गये हैं। सिद्धचक्र-नवपद-आराधना विधि
यह कृति गुजराती पद्य में है। इसका आलेखन मुनि धुरंधरविजयजी ने किया है। यह कृति तीन खंडों एवं दस भागों में विभक्त हैं। नवपद सम्बन्धी चित्र भी दिये गये हैं। इसमें अपने नाम के अनुसार सिद्धचक्र नवपद आराधना विधि का उल्लेख ही नहीं है अपितु पद्मविजयजी, सकलचंद्रगणि, पं. वीरविजयजीकृत पूजाएँ भी वर्णित हैं। प्रथम खंड नवपद की आराधना विधि, स्वरूप, आवश्यक विधान आदि से सम्बन्धित है। इसमें प्रत्येक पद का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है तथा यह खंड दस भागों में विभक्त है द्वितीय खंड एवं तृतीय खंड पूजाविधि से युक्त है। इसमें नवपद के चैत्यवन्दन-स्तवन-सज्झाय- स्तुति आदि का भी संकलन किया गया है ।
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इस कृति का प्रकाशन सन् २००२ में, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर से हुआ है । यह इसका तेरहवाँ संस्करण है।
२ प्र. श्राविकासंघ, मद्रास, वि.सं. २०२२
३ यह कृति बालुभाई रुगनाथ, जमादारनी शेरी, भावनगर' से वि.सं. २००५ में प्रकाशित हुई है।
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