Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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54/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
है। इसकी श्लोक संख्या १०३ है। इसका रचना काल अज्ञात है। इसमें अधिकार विभाग नहीं है।
प्रारम्भ में सम्यक्त्व का स्वरूप और महात्म्य बताकर आठ मूलगुणों का वर्णन है। पुनः श्रावक के बारह व्रतों का निरूपण करके सप्तव्यसनों के त्याग का
और कन्दमूलादि अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण का निषेध किया गया है। तत्पश्चात् मौन के गुण बताकर चारों प्रकार के दानों को देने का और दान के फल का विस्तृत वर्णन है। पुनः जिनबिम्ब के निर्माण का, जिन पूजन करने और पर्व के दिनों में उपवास करने का फल बताकर उनके करने की प्रेरणा की गई है। अन्त में रात्रिभोजन करने के दुष्फलों का और नहीं करने के सुफलों का सुन्दर वर्णन कर धर्म-सेवन सदा करते रहने का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इसमें संक्षेप में श्रावकोचित सभी कर्तव्यों का विधान किया गया है।
इस श्रावकाचार में महापुराण, यशस्तिलक, उमास्वामिश्रावकाचार, प्रश्नोत्तरश्रावकाचार आदि के श्लोकों को 'उक्तं च' आदि न कहकर ज्यों का त्यों अपनाया गया है। पंचविंशतिगत-श्रावकाचार
‘पंचविंशतिका' नामक ग्रन्थ के रचयिता मुनिद्मनन्दी (द्वितीय) है। इस ग्रन्थ में श्री पद्मनन्दी की रचनाओं का संग्रह है। यद्यपि यह संग्रह कृति 'पंचविंशतिका' के नाम से प्रसिद्ध है तब भी उसमें २६ रचनाएँ संकलित है।' इन संकलित रचनाओं में से दो कृतियाँ श्रावकाचार से सम्बन्धित हैं (१) उपासक संस्कार और (२) देशव्रतोद्योतन। ये दोनों रचनाएँ संस्कृत पद्य में हैं। इन दोनों में क्रमशः ६२ एवं २७ श्लोक हैं। इनका रचना समय लगभग वि.सं. की बारहवीं शती है।
प्रस्तुत कृति के 'उपासक संस्कार' नामक प्रकरण में गृहस्थ के देवपूजादि षट्कर्तव्यों का वर्णन करते हुए सामायिक की सिद्धि के लिए सप्तव्यसनों का त्याग आवश्यक बताया गया है। आगे श्रावक के लिए बारह व्रतों को पालने का, वस्त्र गालित जल पीने का और रात्रिभोजन परिहार का उपदेश दिया गया है। इसी क्रम में विनय को मोक्ष का द्वार बतलाकर विनय पालन की और दया और धर्म का मूल बताकर जीवदया करने की प्रेरणा दी है।
प्रस्तुत कृति के 'देशव्रतोद्योतन' में सर्वप्रथम सम्यक्त्वी पुरुष की प्रशंसा और मिथ्यात्वी की निन्दाकर सम्यक्त्व को प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है।
' देखिए, 'श्रावकसंग्रह' भा. ४, पृ. ४६
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