Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/139
आवश्यकनियुक्ति
जैन आगम-ग्रन्थों में आवश्यकसूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें छ: अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन का नाम सामायिक है। शेष पाँच अध्ययनों के नाम चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान है। आवश्यकनियुक्ति सामायिक आवश्यकसूत्र पर रची गई प्राकृत भाषा की पद्यात्मक व्याख्या है। इस नियुक्ति की कुल १६१२ गाथाएँ हैं। यह नियुक्ति भद्रबाहु या आर्यभद्र रचित मानी जाती है। यह साधु एवं गृहस्थ के लिए अवश्य करने योग्य आवश्यक रूप विधि-विधानों का प्रतिपादक ग्रन्थ है। भद्रबाहु कृत दस नियुक्तियों में आवश्यकनियुक्ति की रचना सर्वप्रथम हुई है। यही कारण है कि यह नियुक्ति सामग्री शैली आदि सभी दृष्टियों से अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का विस्तृत एवं व्यवस्थित निरूपण किया गया है। आगे की नियुक्तियों में पुनः उन विषयों के आने पर संक्षिप्त व्याख्या करके आवश्यक नियुक्ति की ओर संकेत कर दिया गया है। इस दृष्टि से दूसरी नियुक्तियों के विषयों को ठीक तरह से समझने के लिए इस नियुक्ति का अध्ययन आवश्यक है।
__आवश्यकसूत्र के सामायिक अध्ययन से सम्बन्धित एक भाष्य विस्तृत व्याख्या रूप में लिखा गया है जो विशेषावश्यकभाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। इस भाष्य की भी अनेक व्याख्याएँ हुई हैं इसके प्रारम्भ में उपोद्घात है। इसे ग्रन्थ की भूमिका रूप समझना चाहिये। यह उपोद्घात मंगल रूप है। इसी प्रसंग पर उसमें पाँच ज्ञान की विस्तृत चर्चा की गई है।
इस नियुक्ति में सामायिक नामक प्रथम अध्ययन के सन्दर्भ में सामायिक का महत्त्व बताया गया है। सम्पूर्ण श्रुत का सार सामायिक है, सामायिक का सार चारित्र है, चारित्र का सार निर्वाण है, चारित्र का प्रारम्भ सामायिक से होता है आगम ग्रन्थों में भी जहाँ भगवान महावीर के श्रमणों के श्रुताध्ययन की चर्चा है वहाँ अनेक जगह अंग ग्रन्थों के आदि में सामायिक अध्ययन का निर्देश है, मुक्ति के लिए ज्ञान और चारित्र (क्रिया/विधि) दोनों अनिवार्य है', सामायिक का अधिकारी कौन हो सकता है? इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इसके साथ ही इसमें प्रवचन, सूत्र एवं अनुयोग के पर्याय बताये गये हैं।
'आवश्यकनियुक्ति गा. ६४-१०३ २ वही गा. १३०-१३१
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