Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास / 147
स्पष्टता के लिए अनुक्रम से मार्ग, प्रासाद, दूध की बहंगी, विषभोजन, दो कन्याएँ, चित्रकार की पुत्री और पतिघातक स्त्री ये सात दृष्टान्त दिये हैं तथा आठवें पर्याय के बोध के लिए वस्त्र एवं औषधि के दो दृष्टान्त दिये गये हैं।
अन्त में प्रशस्ति रूप तीन श्लोकों में यह कहा गया है कि प्रतिक्रमणविधि के हेतुओं को समझते हुए प्रतिक्रमण करने वाला जीव मुक्ति रूपी लक्ष्मी को प्राप्त करता है इसमें यह भी बताया गया है कि प्रतिक्रमणविधि के हेतुओं का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के बाद जयचन्द्रगणि के द्वारा यह ग्रन्थ रचा गया है साथ ही शास्त्र के विरूद्ध कुछ भी लिखा गया हों तो मिथ्यादृष्कृत दिया गया है। उन्होंने अपने गुरू एवं अपना नाम तथा रचनाकाल का उल्लेख भी किया है।
प्रतिक्रमणवृत्ति कथानक
यह अज्ञातकर्तृक रचना है और अब तक अप्रकाशित है। देला उपाश्रय भंडार अहमदाबाद की लिस्ट में इस प्रति का नामोल्लेख है।
प्रतिक्रमणसूत्र
यह कृति आवश्यकसूत्र के आधार पर रची गई मालूम होती है। इस कृ ति में दो प्रकार की प्रतिक्रमण विधि कही गई है। प्रथम प्रकार साधु-साध्वी से सम्बन्धित है और दूसरा प्रकार श्रावक-श्राविका से सम्बद्ध है।
प्रतिक्रमण का अर्थ है अतीत के जीवन का प्रामाणिकता पूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण करना । मन की छोटी-बड़ी सभी विकृतियाँ, जो किसी न किसी रूप में पाप की श्रेणी में आती हैं उनके प्रतिकार के लिए की जाने वाली क्रिया प्रतिक्रमण है । इस कृति के रचनाकार एवं इसका रचनाकाल हमें ज्ञात नहीं हो पाया है। परन्तु इस कृति पर रची गई वृत्तियाँ, चूर्णियाँ, अवचूरियाँ, और बालावबोध आदि से सम्बन्धित कुछ जानकारियाँ अवश्य उपलब्ध हो पायी हैं वह अधोलिखित है निर्युक्ति - यह माना जाता है कि इस कृति पर भद्रबाहु द्वारा एक निर्युक्ति रची गई है, जिसमें ६१ गाथाएँ हैं।
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चूर्णि - यह चूर्णि अज्ञातकर्तृक प्राकृत भाषा में है। इसका रचनाकाल वि. सं. ११६८ है। इस कृति पर एक चूर्णि विजयसिंह द्वारा वि. सं. ११८३ की प्राप्त होती है। वृत्ति - इस कृति पर नौ-दस वृत्तियाँ लिखी गई हैं जिनमें एक वृत्ति श्री पार्श्व के द्वारा वि.सं. ८२१ में, १०६० श्लोक परिमाण में विरचित है। इस कृति पर 'पदवी' नामक वृत्ति तपागच्छीय शालिभद्र के शिष्य नेमि साधु की है, जो वि.सं. ११२२ की रचना है और १५५० श्लोक परिमाण में गुम्फित है। एक वृत्ति हरिभद्रसूरि रचित भी मानी जाती है। इस पर हुम्बड़गच्छीय सिंहदत्तसूरि के द्वारा
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