Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/91
अध्याय - ३ साध्वाचार सम्बन्धी विधि-विधानपरक साहित्य
अनगारधर्मामृत
___ इस ग्रन्थ के रचयिता पं. आशाधर जी है। यह ग्रन्थ' दो भागों में विभाजित है। प्रथम भाग 'अनगारधर्मामृत' के नाम से है और दूसरे भाग का नाम 'सागार धर्मामृत' है। प्रस्तुत रचना संस्कृत के ६५४ पद्यों में निबद्ध है। इसका रचनाकाल विक्रम की १४ वीं शती है। यह दिगम्बर साधुओं की आचार विधि का प्रतिनिधि ग्रन्थ माना जाता है। इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में यह कहा गया है कि इससे पूर्व में साधु धर्म का वर्णन करने वाले दो ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा में अतिमान्य रहे हैं- मूलाचार और भगवती-आराधना दोनों ही प्राकृत गाथाबद्ध हैं। उनमें भी मात्र एक मूलाचार ही साधु आचार का मौलिक ग्रन्थ है इसमे प्रायः जैन साधु की आचार विधि वर्णित है। भगवती-आराधना का तो मुख्य प्रतिपाद्य विषय संलेखना या समाधिमरण है। उसमें प्रसंगवश साधु आचार वर्णित है। तदनन्तर आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार के अन्त में तथा उनके पाहुड़ों में भी साधु का आचार निर्दिष्ट हुआ है। उसके बाद तत्त्वार्थसूत्र के नवम अध्याय तथा उसके टीका ग्रन्थों में भी साधु का आचार - गुप्ति, समिति, दसधर्म, बारह अनुप्रेक्षा, परीषह, चारित्र, तप, ध्यान आदि का वर्णन है। चामुण्डराय के छोटे से ग्रन्थ 'चारित्रसार' में भी संक्षेपतः साधु के आचार का उल्लेख है। इन्हीं सबको आधार बनाकर आशाधरजी ने अनगारधर्मामृत की रचना की है।
कुछ भी हो, दिगम्बर परम्परीय ग्रन्थों का अवलोकन करने से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि उत्तरकालीन आचार विषयक ग्रन्थ निर्माताओं में आशाधरजी ही ऐसे ग्रन्थकार है जिन्होंने श्रावकधर्म के पूर्व मुनिधर्म पर ग्रन्थ रचना की और एक तरह से मूलाचार के बाद अनगारधर्म पर यही एक अधिकृत ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा में है।
' (क) अनगारधर्मामृत और ज्ञानदीपिका (पंजिका) का हिन्दी अनुवाद पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने किया है। (ख) अनगारधर्मामृत और भव्यकुमुदचन्द्रिका का हिन्दी अनुवाद 'हिन्दी टीका' के नाम से पं. खूबचन्द ने किया है। यह ग्रन्थ खुशालचन्द पानाचन्द गाँधी ने सोलापुर से सन् १६२७ में प्रकाशित किया है। (ग) 'ज्ञानदीपिका' नामक संस्कृत पंजिका तथा हिन्दी टीका सहित यह ग्रन्थ 'भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,, नयी दिल्ली' से सन् १६७७ में प्रकाशित हुआ है।
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