Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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116/ साध्वाचार सम्बन्धी साहित्य
की निर्दोष विधि' बतायी गई है। सत्यमहाव्रत के सम्बन्ध में 'सदोष सत्य त्याग' करने का कारण और उसका विधान प्रस्तुत किया है । 'सत्यमहाव्रत की सफलता' किसमें है उसका मार्ग बताया गया है। पंचमहाव्रत ग्रहण करने के विषय में पंचमहाव्रतों का स्वरूप एवं पंचमहाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ निर्दिष्ट की गई है।
'अहिंसा विधि' का परिपालन सम्यक्रूपेण हो, इस दृष्टि को ध्यान में रखते हुए अहिंसा के ६० नाम कहे गये हैं और उन नामों के स्वरूप को व्यापक रूप से स्पष्ट किया गया है। स्पष्टतः इस आगम में विधि-विधान का प्रारम्भिक रूप दृष्टिगत होता है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। मूलायार (मूलाचार)
इस ग्रन्थ के प्रणेता श्री वट्टकेराचार्य है। यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा की १२४३ गाथाओं में निबद्ध है तथा बारह अधिकारों में विभक्त है। इसका रचनाकाल लगभग पाँचवी - छठी शती माना जाता है। इस ग्रन्थ में दिगम्बर आम्नाय के मुनिधर्म एवं तद्विषयक आचार-विचार - साधना - विधि-विधान आदि का सोद्देश्य प्रतिपादन हुआ है । अचेल मुनियों के आचार की प्ररूपणा करने वाला यह अद्वितीय ग्रन्थ है। आचारसार, भगवती आराधना, मूलाचारप्रदीप और अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थ इसी के आधार पर रचे गये हैं।
जैसा कि इस कृति के नाम से सूचित होता है कि इसमें मुनियों के मूल + आचार कहे गये हैं अतः इसे आचारांग भी कहते हैं। सकल वाङ्मय द्वादशांग रूप है। उनमें प्रथम अंग का नाम आचारांग है और यह सम्पूर्ण श्रुतस्कंध का आधारभूत है। तीर्थंकर भगवान् की दिव्यध्वनि को सुनकर गणधरमुनि प्रथमसूत्र 'आचारांग ' नाम से रचते हैं। इनके मत में आचारांग का विच्छेद होने के कारण तथा उपचार सम्बन्धी ग्रन्थ होने के कारण इसे ही आचारांग का स्थानीय माना जाता है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मूलगुणों में विशुद्ध सभी मुनियों को नमस्कार करके इहलोक और परलोक के लिए हितकर ऐसे मूलगुणों का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की गई है। आगे की गाथा में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, अचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त इन अट्ठाईस मूलगुणों के नाम कहे गये
, प्रश्नव्याकरण, सू. ११०
२ वही, सू. १०७
३
यह कृति पूर्वार्ध एवं उत्तरार्ध दो भागों में, वसुनन्दिकृत आचारवृत्ति एवं टीकानुवाद सहित 'भारतीय ज्ञानपीठ- नई दिल्ली' से, सन् १६४४ में प्रकाशित हुई है। इसका टीकानुवाद आर्यिक ज्ञानमतीजी ने किया है। इसके अन्य संस्करण भी निकले हैं।
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