Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/123
विधियों एवं आवश्यक कृत्यों का परिपालन भी निर्दोष रीति पूर्वक कर सकता है। इन सामाचारियों का प्रयोग साधुजीवन में दैनन्दिन होता है तथा इनका परिपालन मुनि जीवन के लिए कितना उपयोगी व महत्त्वपूर्ण है यह उक्त वर्णन से सुस्पष्ट है। ज्ञातव्य हैं कि इस कृति में विधि-विधान जैसा अलग से कोई विवरण नहीं है किन्तु इन सामाचारियों का निर्वहन विधि-विधानपूर्वक ही होता है। साधुविधिप्रकाशप्रकरण
'साधुविधिप्रकाश' नामक यह कृति, खरतरगच्छीय वाचक अमृतधर्मगणि के शिष्य क्षमाकल्याणोपाध्याय' द्वारा विरचित है। यह कृति संस्कृत गद्यभाषा में रची गई है। इस कृति का रचनाकाल १६ वीं शती का पूर्वार्ध माना जाता है। यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार साधुचर्या की आवश्यक विधियों एवं दैनिक कर्त्तव्यों का निरूपण करने वाला है तथा प्राचीन विधि-विधानात्मक ग्रन्थों के आधार पर रचा गया है। इसका प्रमाण यह हैं कि प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रारम्भ में विधिमार्गप्रपा एवं सामाचारीशतक के आधार पर कुछ विधियों को विवेचित किये जाने का उल्लेख हुआ है। इससे सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ अपनी परम्परा के पूर्व आचायों के ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया है। तदुपरान्त विधि-विधानों की प्रमाणिकता एवं सोद्देश्यता को उजागर करते हुए बीच-बीच में यथाप्रसंग अन्य प्राचीन ग्रन्थों के संदर्भ भी दिये गये हैं।
इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण एवं ग्रन्थ रचना के प्रयोजन को स्पष्ट करने वाला एक श्लोक है, उसमें तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थकर भगवन्तों को नमस्कार किया गया है। उसके बाद विधि-विधानों को निरूपित करने का प्रयोजन बताते हुए यह कहा है कि प्राचीन शास्त्रों का अवलोकन करके, स्व
और पर कल्याण के निमित्त 'साधुविधिप्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना की जा रही है साथ ही इस कृति के आधारभूत ग्रन्थों का स्मरण कर इसकी प्राचीनता सिद्ध की है। प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति के रूप में चार श्लोक दिये गये हैं, उनमें ग्रन्थकार ने इस कृति के महत्त्व का वर्णन किया है, साथ ही कृति का रचनाकाल, कृति रचना का स्थल, कृति के प्रेरक एवं अपने गुरु का नामोल्लेख करके अपने नाम का उल्लेख किया है। प्रशस्ति के अन्त में कहा गया है कि मोह के वशीभूत होकर इसमें आगम और परम्परा के विरुद्ध जो कुछ भी लिखा गया हो तो
' खरतरगच्छ की संविग्नपक्षीय सुखसागर समुदाय की वर्तमान परम्परा में आपका नाम विशिष्ट रूप से जुड़ा हुआ है। इस समुदाय में दीक्षा नामकरण संस्कार के समय उद्घोषित किया जाता है- 'कोटिकगण, वजशाखा, चन्द्रकुल, खरतरविरुद, महो. क्षमाकल्याणजी की वासक्षेप, सुखसागरजी का समुदाय, वर्तमान आचार्य......... आदि।"
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