Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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जैन विधि-विधान सम्बन्धी साहित्य का बृहद् इतिहास/77
विधि की चर्चा करते हुए प्रथमदण्डक शक्रस्तव पाठ बोलने की विधि, द्वितीयदण्डक अरिहंतचेईयाणंसूत्र बोलने की विधि और कायोत्सर्ग विधि में किन दोषों का वर्जन करना चाहिए इत्यादि का निर्देश है।
छठा द्वार - इस द्वार में यह कहा गया है कि जिनप्रतिमा की द्रव्यपूजा और भावपूजा करने के बाद श्रावक को जिनबिम्ब की साक्षीपूर्वक स्वयं के द्वारा विधिवत् प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिये।
सातवाँ द्वार - इस सप्तम द्वार में मुख्य रूप से ऋद्धिमन्त श्रावक को जिनमन्दिर किस प्रकार आना चाहिये, उसकी विधि वर्णित है। आगे इसी सन्दर्भ में कहा है कि ऋद्धि एवं वैभव के साथ मन्दिर आने पर जिन शासन की महती प्रभावना होती है तथा उस प्रभावना का क्या फल है? उसको दृष्टान्तपूर्वक बताया गया है।
___ आठवाँ द्वार - इसमें जिनमन्दिर, सम्बन्धी कृत्यों पर चर्चा की गई है तथा तत्सम्बन्धी विधियों का भी वर्णन किया गया है जैसे - जिनगृह में प्रवेश करने वाले श्रावक को किन पाँच अभिगम से युक्त होना चाहिये?, जिनगृह में किस प्रकार प्रवेश करना चाहिये? प्रदक्षिणा करते हुए क्या चिन्तन करना चाहिये? गर्भग्रह (मूलगंभारा) में किस प्रकार जाना चहिए? पूजा उपचारपूर्वक भावस्नपन क्रिया किस प्रकार करनी चाहिये? इसके साथ ही आरती के अवसर पर नृत्यादि करने का दृष्टान्त सहित निर्देश किया गया है।
नवाँ द्वार- इस द्वार में तीन प्रकार की विधि का निरूपण हुआ है १. ऋद्धिमन्त श्रावक विशेष प्रकार की द्रव्यपूजा किस प्रकार करें?, २. सामान्य श्रावक जिनमन्दिर किस विधि पूर्वक आयें?, ३. गुरु को वन्दन किस प्रकार करें? इसके साथ ही सोदाहरण वन्दन का फल और वन्दन करने से प्रगट होने वले छ: गुण बताये गये हैं।
दशवाँ द्वार- इस द्वार में गुरुसाक्षी पूर्वक प्रत्याख्यानग्रहण करने का वर्णन है।
__ ग्यारहवाँ द्वार- इस द्वार में अनु बिन्दुओं पर विचार किया गया है - १. गुरु उपदेश श्रवण करने की विधि, २. किसी तत्त्व में शंका होने पर तत्सम्बधी समाधान प्राप्त करने की विधि, ३. जिनमन्दिर का जीर्णोद्धार, आदि करवाना ही गृहस्थ जीवन का सार है इस प्रकार की उपदेश विधि, ४. जीर्णोद्धार फल कथन, ५. चैत्य के सम्बन्ध में चिन्ता करते हुए देवद्रव्य, गुरुद्रव्य एवं साधारणद्रव्य का महत्त्व, इनका भक्षण करने से लगने वाले दोष एवं देवद्रव्य की वृद्धि करने का फल इत्यादि।
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