Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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72/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
श्राद्धविधिविनिश्चय
यह कृति भी हर्षभूषणगणि द्वारा विरचित है। इसकी रचना' वि.सं. १४८० में हुई है। यह कृति हमें अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है, किन्तु कृति के नाम से प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ श्रावकचर्या सम्बन्धी विधि-विधान विषयक है। श्राद्धविधिप्रकरण
श्राद्धविधिप्रकरण नामक यह ग्रन्थ जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में है। मूल ग्रन्थ मात्र सत्रह पद्यों में निबद्ध है। यह कृति सोमसुन्दरसूरि के वंशज, भुवनसुंदरसूरि के शिष्य रत्नशेखरसूरि की है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १६ वीं शती का पूर्वार्द्ध है।
__ इस ग्रन्थ के नामोल्लेख मात्र से यह स्पष्ट होता है कि इसमें श्रावक जीवन की आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण विधियों का प्रतिपादन हुआ है। इस प्रकरण ग्रन्थ में श्रावकसामाचारी से सम्बन्धित छः द्वार कहे गये हैं। उनके नाम निम्न हैप्रथम द्वार में दिवस संबंधी कृत्य विधि कही गई हैं, द्वितीय द्वार में रात्रि संबंधी कृत्य विधि का विवेचन है, तृतीय द्वार पर्व संबंधी कृत्य विधि का वर्णन करता है, चतुर्थ द्वार में चातुर्मास संबंधी कृत्य विधियों का प्रतिपादन है, पंचम द्वार में संवत्सर संबंधी कृत्य विधियों का निरूपण हुआ है तथा षष्टम द्वार में मानव जन्म सफलीभूत करने की विधि बतायी गयी है। टीका- इस ग्रन्थ पर 'विधिकौमुदी' नामक विस्तृत स्वोपज्ञ वृत्ति वि.सं. १५०६ में लिखी गई है। उस वृत्ति में प्रत्येक द्वार के आधार पर अवान्तर विविध विधियों की चर्चा की गई हैं उनके नामोल्लेख इस प्रकार हैं - प्रथम दिवस संबंधीकृत्यविधिद्वार -
इस प्रथम द्वार में श्रावक के प्रकार, श्रावक शब्द का अर्थ, नवकारजाप की विधि. पाँच अक्षर का मंत्र गिनने की विधि, कायोत्सर्ग करने की विधि, कमलबंध गिनने की विधि, पानी गर्म करने की विधि, चौदहनियमधारण करने की विधि, प्रत्याख्यान ग्रहण करने की विधि, मल-मूत्र (लघुनीति-बडीनीति) परित्याग करने की विधि, दांतून करने की विधि, स्नान की विधि, पूजा के समय वस्त्र
' जिनरत्नकोश पृ. ३६१ २ यह कृति स्वोपज्ञ वृत्ति के साथ 'जैन आत्मानन्द सभा' ने वि.सं. १६७४ में प्रकाशित की है। मूल एवं विधि कौमुदी टीका के गुजराती अनुवाद के साथ यह 'देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था' ने सन् १६५२ में छापी है। यह गुजराती अनुवाद विक्रमविजयजी तथा भास्करविजय जी ने किया है। इसका हिन्दी भाषान्तर भी प्रकाशित हो चुका है।
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