Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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60/श्रावकाचार सम्बन्धी साहित्य
आठवें आश्वास में चारों शिक्षाव्रतों का वर्णन किया गया है। सामायिक शिक्षाव्रत के अन्तर्गत देवपूजा का विस्तृत विवेचन किया है। पूजन के इस प्रकरण में सोमदेव ने उसकी दो विधियों का वर्णन किया है- एक तदाकार मूर्तिपूजन विधि और दूसरी अतदाकार सांकल्पिक पूजन विधि। प्रथम विधि स्नपन और अष्टद्रव्य का विधान होने से अर्चनाप्रधान है और द्वितीय विधि आराध्यदेव की आराधना, उपासना या भावपूजा प्रधान है। उन्होंने त्रिसन्ध्य-प्रजन का समन्वय करने के लिए कहा है कि सामायिक का काल तीनों सन्ध्याएँ हैं अतः उस समय गृहस्थ गृहकार्यों से निवृत्त होकर अपने उपास्यदेव की उपासना करे, यही उसकी सामायिक है।
सोमदेवसूरि ने इस पूजन प्रकरण में गृहस्थों के लिए कुछ ऐसे कार्य करने का भी निर्देश किया है जिन पर ब्राह्मण धर्म का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है जैसे- बाहिर से आने पर आचमन किये बिना घर में प्रवेश करने का निषेध
और भोजन की शुद्धि के लिए होम और भूतबलि का विधान आदि। इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र, शान्ति आदि कई भक्तियों का भी उल्लेख हुआ है। गृहस्थ के दैनिक षट् आवश्यकों का वर्णन हुआ है।
इस समग्र चर्चा से ज्ञात होता है ग्रन्थकार ने श्रावकधर्म के सभी आवश्यक कृत्यों को अल्पशब्दों में समेटने का अद्भुत प्रयास किया है। इतना ही नहीं गृहस्थ के दैनिक षट् कर्त्तव्यों का जैसा विस्तार से वर्णन किया है वैसा अन्य श्रावकाचार में मिलना असंभव है। सोमदेवसूरि 'स्याद्वादाचलसिंह', 'तार्किकचक्रवर्ती', 'वाक-कल्लोल पयोनिधि' आदि उपाधियों से विभूषित थे। इनके नीतिवाक्यामृत, अध्यात्मतरंगिणी आदि कई ग्रन्थ और भी है। रयणसारगत श्रावकाचार
यह कृति आचार्य कुन्दकुन्द की है। कुछ इतिहासज्ञ ‘रयणसार' को कुन्दकुन्द की कृति नहीं मानते हैं। इसमें श्रावक और मुनिधर्म का वर्णन किया गया है। उसमें श्रावकधर्म का वर्णन प्राकृत के ७५ पद्यों में निबद्ध है। इसमें श्रावकधर्म सम्बन्धी अनेक विषय चर्चित हुए हैं उनमें सम्यक्त्व के चवालीस दोष, शील आदि अनेक प्रकार का तपश्चरण, सम्यग्दर्शन का माहात्म्य आदि विशेष हैं। इसमें और भी कई विशेष बातें कही गई है; जैसे कि १. श्रावकधर्म में दान और जिनपूजन प्रधान है और मुनिधर्म में ध्यान एवं स्वाध्याय मुख्य है। २. जीर्णोद्धार, पूजा-प्रतिष्ठादि से बचे हुए धन को भोगने वाला मनुष्य दुर्गतियों के दुःख भोगता है। ३. इन्द्रियों के विषयों से विरक्त अज्ञानी की अपेक्षा इन्द्रियों के विषयों में आसक्त ज्ञानी श्रेष्ठ है। ४. गुरुभक्ति-विहीन अपरिग्रही शिष्यों का तपश्चरणादि ऊसर भूमि में बोये गये बीज के समान निष्फल है। ५. उपशमभाव पूर्वोपार्जित
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