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अरिहन्त
जो जीव पहले के तीसरे भव में निम्नोक्त २० बोलों में से किसी एक अधिक बोलों की यथोचित विशिष्ट आराधना करता है, वह आगे के तीसरे भव में रिहन्त पद को प्राप्त करता है ।
तीर्थङ्कर गोत्र उपार्जन करने के बीस बोल
अरिहन्त-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर- बहुस्सुय तवस्सीसु । वच्छलया य तेसिं, अभिक्खणाणोवोगे य ॥ १ ॥ दसरा-विराय श्रवस्सए य, सीलव्वए य निरइयारे । खणलवं तवच्चियाए, वेयावच्चं समाहीयं ॥२॥ पुव्वाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एहिं कारणेहिं, तित्थयरतं लहइ जीवो ॥३॥
अर्थ :- (१) अरिहन्त (२) सिद्ध (३) प्रवचन ( भगवान् का उपदेश ) (४) गुरु (५) स्थविर (बृद्ध मुनि) (६) बहुसूत्री पण्डित ( ७ ) तपस्वी, इन सातों का गुणानुवाद करने से (८) बार-बार ज्ञान में उपयोग लगाने से
* रि अर्थात् राग-द्वेष रूप शत्रुओं को नष्ट करने के कारण 'अरिहन्त' कहलाते हैं। सुरेन्द्र, नरेन्द्र श्रादि द्वारा पूजनीय होने से 'अर्हन्त' और कर्मकुर को समूल नष्ट करने के कारण 'अन्त' कहलाते हैं ।