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जैन-तत्व प्रकाश
सिद्धाणं णमो किच्चा
सिद्ध भगवान् दो प्रकार के होते हैं:-१) भाषक सिद्ध अर्थात बोलने वाले सिद्ध और (२) अभाषक सिद्ध । अरिहन्त भगवान् भाषक सिद्ध कहलाते हैं । वे धर्मोपदेश देते हैं, इस कारण भाषक हैं और सन्निकट भविष्य में ही उन्हें मुक्ति प्राप्त होती है तथा वे जीवन्मुक्त या कृतकृत्य होते हैं, इस कारण सिद्ध कहलाते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के नौवें अध्ययन में नमिराजजी को संसार-अवस्था में 'भगवान्' शब्द से कहा है । 'जाई सरित्तु भयवं' अर्थात् उन भगवान् ने जाति (जन्म) का स्मरण किया। इसी सूत्र के १७वें अध्ययन में मृगापुत्र को 'जुवराया दमीसरे' अर्थात् युवराज पद भोगते हुए भी दमीश्वर, ऋषीश्वर कहा है। यह कथन भावी भाव को वर्तमान रूप में कथन करने वाले द्रव्य-निक्षेप की अपेक्षा से है। इसी प्रकार अरिहन्त भगवान् भविष्य में सिद्ध होने वाले हैं, इसी कारण (द्रव्यनिक्षेप से ) उनको भी सिद्ध कहा है।
सर्व कार्य को सिद्ध कर, सर्व कर्म-कलंक से रहित निजात्मस्वरूपी सच्चिदानन्द (सत्-चित्-आनन्द) रूप पद को जो प्राप्त कर चुके हैं, वे अभाषक (बिना बोलते) सिद्ध कहलाते हैं।
इन दोनों प्रकार के सिद्ध भगवंतों का विस्तारपूर्वक वर्णन आगे क्रम से अलग-अलग प्रकरणों में किया जाएगा।