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जनशासन
जानता कि युक्तिका आश्रय ले अतत्त्वको तस्व अथवा अपरमार्थको परमार्थ-सत्य सिद्ध करनेवाले व्यक्तियोंका इस युगमें बोलबाला दिखायी देता है। जैसे द्रव पदार्थ अपने आधार गत वस्तुओंके आकारको धारण करता है, उसी प्रकार तर्क भी वयक्तिकी वासना, स्वार्थ, शिक्षा-दीक्षा आदिसे प्रभावित हो कभी तो ऋज और कभी वक्र मार्गक्री और प्रवृत्ति करनेसे मुख नहीं मोड़ता। इसलिए तर्क सदा ही जीवन-नौकाको व्यामोहकी चट्टानोंसे बचाने के लिए दीप-स्तम्भका कार्य नियमसे नहीं करता।
कदाचित् धर्म-ग्रंथों के आधार पर ईश्वर-जैसे गम्भीर तथा कठिन तत्त्वका निश्चय किया जाये तो बडी विचित्र स्थिति उतन हुन रहे । 17, उन धर्म-प्रन्यों में मत-भिन्नता पर्याप्त मात्रामें पद-पद पर दिखायी देती है। यदि मात-भिन्नता न होती तो आज जगत में धार्मिक स्यर्गका साम्राज्य स्थापित न हो जाता? जो धर्म-ग्रन्थ अहिमाको गुणगाया गाने में अपनेको कृत-कृत्य मानता है वही कभी-कभी जीव-वको आत्मकल्याणका अथवा आध्यात्मिक विकासका विशिष्ट निमित बतानेमें तनिक भी संकोच नहीं करता । ऐसी स्थितिमें घबड़ाया हुआ मुमुक्षु कह घंठता है-भाई, धर्म तो किसी अंधेरी गुफाके भीतर छुपा है, प्रभावशाली अथवा बुद्धि आचरण आदिसे बलसम्पन्न व्यक्तिने अपनी शक्तिके नरूपर जो मार्ग सुझाया, भोले जोन उसे ही जीवन-पथ-प्रदर्शक दिव्य ज्योति मान बैठते हैं । कविने ठीक कहा है
"तर्कोऽप्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्नाः नंको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गतः स पन्थाः ।।" गम्भीर चिन्तनसे समीक्षक इस निष्कर्षपर पहुंचेगा कि पूर्वोक्त विचार-शैलीने अतिरेकपूर्ण मार्गका अनुसरण किया है । सुन्यवस्थित तर्क सर्वत्र सर्वदा अभिवन्दनीय रहा है, इसीलिए पशुजगत्से इस मानवका पृषककरण करने के लिए जानवानोंको कहना पड़ा कि -Man is a rational bring-मनुष्य तकंणासील प्राणी है । पह विशिष्ट विचारकता ही पशु और मनुष्य के बीचको विभेदक रेखा है । जिस नैसगिक विशेषतासे मानव-मूर्ति विभूषित है उस तककी कभी-कभी असल प्रवृत्तिको . देख तर्कमात्रको विष खिला मृत्युके मुखमें पहुंचानेसे हम मानव-जीवनकी विशिष्टतासे वंचित हो जाएंगे। जैसे कोई विचित्र आदमी यह कहे कि मैं श्वास तो लेता हूँ किन्तु श्वास लेनेके उपकरण मेरे पास नहीं हैं। इसी प्रकार सारा जीवन तर्कपर प्रतिष्ठित रहते हुए मानवके मुखसे तर्क-मात्रके तिरस्कारकी बात