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संयम बिन घडिय म इक्क जाह
लिए झूठ, चोरी आदिक भेद वर्णित किये गये हैं । इस दृष्टि से समष्टिको भाषामें हिंसा ही पाप है और अहिंसा ही धारिल तथा साधनाका मार्ग है ।
आध्यात्मिक भाषामें रांगादिक विकारोंकी उत्पत्तिको हिंसा और उनके अप्रादुर्भावको अहिंसा काहा है । व्यावहारिक भाषामें मनसावाचा-कर्मणा संकल्पपूर्वक ( Intentionally ) स जीवोंका ( Mobile creatures ) न तो स्वयं पात करता है, न अन्यके द्वारा घात कराता है एवं प्राणिपातको देखन आन्तरिक प्रशंसा द्वारा अनुमोदना ही करता है वह गृहस्थकी स्थूल अहिंसा है । प्राथमिक साधन इस अहिंसा-अणुवतके रक्षार्थ मद्य, मांस और मधुका परित्याग करता है । इसीलिए यह शिकार भी नहीं खेलता और न किसो देवी-देवताके आगे पशु आदिका बलिदान ही करता है। किंतनो निर्दयताको बात है यह कि अपने मनोदिनोट अथवा पेंट करने के लिए भयको साकारमूर्ति, आश्रय-विहीन, केवल परीररूपी सम्पत्तिको धारण करनेवालो हरिणी तकको शिकारी लोग अपने हिंसाके रस में मारते हुए जरा भी नहीं सकुचाते और न यह सोचते कि ऐसे छीन प्राणीके प्राणहरण करनेसे हमारा आत्मा कितना कलंकित होता जा रहा है । आचार्य गुणभद्रने आत्मानुशासनमें लिखा है
"भीतमूर्तिः गतत्राणा निर्दोपा देहवित्तिका ।
दन्तलग्नतृणा नन्ति मृगीरन्येषु का कथा ।।२२।।" जूबा (द्यूत) अनुचित तुष्णा तथा अनेक विकारोंका पितामह होने के कारण साधकके लिए सतर्कतापूर्वक सम्म अथवा भद्र रूप में पूर्णतया त्याज्य है। पापोंके विकासकी नस-नाड़ी जाननेवालोंका तो यह अध्ययन है कि यह सम्पूर्ण पापॉका द्वार खोल देता है। आमतचर स्वामी इसे सम्पूर्ण अनर्थों में प्रथम, पवित्रताका विनाशक, मायाका मन्दिर, चोरी और बेइमानोका अड्डा बताते हैं।
द्यूतके अवलम्बनसे यह प्राणी कितना पतित-चरित हो जाता है इसे सुभाघितकारने एक होगी साधुरो प्रश्नोत्तरके रूपमें इन शब्दोंमें बताया है । पूछते है
"भिक्षी, मांसनिषेवनं प्रकुरुषे ? कि तेन मद्यं विना | मद्यं चापि तव प्रियम् ? प्रियमहो वारांगनाभिः सह ।। वेश्या द्रव्यरुचिः कुतस्तद धनम् ? धूतेन चोर्येण वा ।
चौर्य द्यूतमपि प्रियमहो नष्टस्य कान्या गतिः ।।" द्यूतके समान साधक चोरीकी आदत, वेश्या-सेदन, परस्त्रीगमन सदृश व्यसन नामधारी महा-पापोंसे पूर्णतया आरम-हत्या करता है । सापको स्मृतिपपमें पे व्यसन सदा शत्रुके रूप में बने रहना चाहिए