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जैनशासन
वस्तु नित्य है, कारण उसके विषयमें प्रत्यभिज्ञानका उदय होता है । दर्शन और स्मरण शानका संकलन रूप ज्ञान-विशेष प्रत्यभिज्ञान कहलाता है; जैसे वृक्षको देखकर कुछ समयके अनन्तर यह कथन करना कि यह वही वृक्ष है जिसे हमने पहिले देखा था। यदि वस्तु नित्य न मानी जाय, तो वर्तमानमें वृमको देखकर पहले देखे गये वृथा सम्बन्धी ज्ञान के साथ समिश्रित ज्ञान नही पाया जायगा ।
यह प्रत्यभिज्ञान अकारण नहीं होता; उसका अविच्छेद पाया जाता है । दूसरी दृष्टिसे अवस्थाको दृष्टिसे) तत्त्वको क्षणिव. मानना होगा, कारण वही प्रत्यभिज्ञान नामक ज्ञानका पाया जाना है । क्षणिक तत्त्वको माने बिना वह ज्ञान नहीं बन सकता । कारण इसमें कालका मेद पाया जाता है। पूर्व और उत्तर पर्यायमै प्रवृत्तिका कारण कालभेद अस्वीकार करनेपर बुद्धिमें दर्शन और स्मरणकी संकलनरूपताका अभाव होगा । प्रत्यभिज्ञानमें पूर्व और उत्तर पर्याय वृद्धिका संचरण कारण पड़ता है।
मुवर्णको दृष्टिसे कुण्डलका कंकणरूपमें परिवर्तन होते हुए भी कोई अन्तर नहीं है । इसलिए स्वर्णकी अपेक्षा उक्त परिवर्तन होत हुए भी उसे नित्य मानना होगा । पर्याय (modification) की दृष्टि से उसे अनित्य कहना होगा, क्योंकि कुंडल पर्यायका क्षय होकर कांकण अवस्था उत्पन्न हुई है । इसी तत्त्वको समझाते हुए 'आप्तमीमांसा में स्वर्णके घटनाश और मुकुटनिर्माणरूप पर्यायोंकी अपेक्षा अनित्य मानते हुए स्वर्णकी दष्टि से उसी पदार्थको नित्य भी सिद्ध किया है । साप्समोमांसाकारके शम्द इस प्रकार है
"घटमौलिस्वार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।।५।" अद्वैत तत्त्वका समर्थक 'एक ब्रह्म, द्वितीयं नास्ति' कथन द्वारा द्वैत तत्त्वका निषेध करता है । इस विषयपर विचार किया जाय तो इस पक्षकी दुर्बलताको जगत्का अनुभव स्पष्ट करता है । मदि सर्वत्र एक ब्रह्म ही का साम्राज्य हो, तब जब एकका जन्म हो, उसी समय अन्यका भरण नहीं होना चाहिए । एकके दुःखो होनेपर उसी समय दूसरेको सुखी नहीं होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । जब किसीका जन्म है उसी समय अन्यका मरण आदि होता है।
"यदेवकोऽश्नुते जन्म जरां मृत्यु सुखादि का। तदेवान्योन्यदित्यंग्या भिन्नाः प्रत्यंगभंगिनः ।।"
-अनगारधर्मामृत, १० १०६ ।