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साधकके पर्व
होनेसे 'कारण-भावना' कहते हैं । इनमें प्रथम भावना प्रधान है । जब कोई पवित्र मनोवृत्तिवाला तत्त्वज्ञ साधक जिनेन्द्र भगवान के साक्षात् सान्निध्यको प्राप्त कर यह देखता है कि प्रभुकी अमृत तथा अभय वाणीके द्वारा सभी प्राणी मिथ्यात्वभावको छोड़ सच्चे कल्याणके मार्ग में प्रवृत्त हो रहे हैं, तब उसके हृदय में भी यह बल-- प्रेरणा जागृत होती है कि भगवन्, मैं भी पापपंकने निमग्न दीन दुःखी पथभ्रष्ट प्रालियों को कल्याणक मा में समर्थ है। माऊँ. मैं अपनेको सौभाग्यशाली अनुभव करूंगा । इग प्रकार विश्व कल्याणकी सच्ची मावना द्वारा यह सारक ऐसे कर्मका संचय करता है, कि जिससे वह आगामी कालमें तीर्थकरके सर्वोच्च पदको प्राप्त करता है। सम्राट् बिम्बसार श्रेणिकने भगवान महावीर भुके समवशरण में इस भाव नाके द्वारा तीर्थकर प्रकृतिका सातिशय बंध किया और इससे वे आगामी कालमें महापा नामक प्रथम तीर्थकर होंगें।
इन सोलह कारण भावनाओंके प्रभावपर जनपूजा घामतरायजी ने इस प्रकार प्रकाश डाला है
"दरस विसुद्धि धरै जो कोई । ताको आवागमन न होई । विनय महा धारे जो प्रानी । शिव बनिता तसु सखिय बखानी। शील सदा दुद जो नर पाले । सो औरनकी आपद टाले । ज्ञानाभ्यास कर मन माहीं । ताके मोह-महातम नाहीं। जो संवेग भाव विसतारे । सुरंग मुकति पद आप निहारे । दान देय मन हरष विशेख । इह भव जस परभव सुख देखें । जो सप सपै खप अभिलाषा । चुरे करम-शिखर गुरु भाषा । साधु समाधि सदा मन लावें । तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावे। निसि दिन वयावृत्य करेया । सो निहचे भव-सिंधु तिरैया । जो अरिहन्त भगति मन आने । सो जन विषय कषाय न जाने। जो आचारज भगति करे हैं । सो निरमल आचार घरे हैं । बह-श्रुत-बन्त भगति जोकरई । सो नर संपूरन श्रुत धरई। प्रवचन भगति करें जो ज्ञाता । लहै ज्ञान परमानंद दाता । षट् आवश्यक काल जो साधे । सो ही रत्नत्रय आराधे। धरम प्रभाव करें जो ज्ञानी । तिन शिव मारग रीति पिछानी । वत्सल अंग सदा जो ध्यावे । सो तीर्थंकर पदवी पावे ॥९॥
एही सोलह भावना, सहित घरै व्रत जोय ।
देव-इन्द्र-नर-बन्ध पद, 'द्यानत' शिवपद होय ।।" संपूर्ण भाद्रपदमें भावनाओंका व्रत सहित अभ्यास किया जाता है। इन भावनाओंके अंतस्तलपर दृष्टि डालनेसे विक्षिप्त होता है, कि अत्यन्त महिमापूर्ण