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जेनशासन
रक्षक कोइ न पुरन है जब, आयु अंत की बेला। फूटत पार बंधत नहीं जैसे, दुदर-जल का ठेला ।। २ ॥ तन धन जोबन दिनसि जात ज्यों, इंद्रजालका खेला। भागचंद इमि लखकर भाई, हो सतगुरुका चेला ।। ३ ।"
अजर अमर-पदकी हुयो भाकाला फारसेवामा साधक यही चितन करता है। कि अब मेरो अविद्या दूर हो गई। जिन-हासन के प्रसादसे सम्यक्-ज्ञानज्योति प्राप्त हो गई। अब मैंने अपने अनंत शक्ति, ज्ञान तथा आनन्दके अक्षय भंडाररूप आत्मतत्त्वको पहचान लिया, अतः शरीरके नष्ट होते हुए भी मैं अमर ही रहूंगा। कितना उद्बोधक तथा शान्तिप्रद यह पद्य है
"अब हम अमर भए न मरेंगे। या कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों कर देह धरेंगे ।। टेक | रागद्वेष जग बन्ध करत हैं, इनको नाश करेंगे। मरयो अनन्त काल ते प्राणी, सो हम काल हरेंगे ॥ १ ॥ देह विनासी हों अविनासी, अपनी गति पकरेंगे। नासी नासी हम थिरवासी, चोखे हो निखरेंगे ।। २ ।। मरयो अनन्तबार बिन समझो, अब दुःख-सुख बिसरेंगे।
'आनन्दधन' 'जिन' ये दो अक्षर, नहि सुमरे सो मरेंगे ॥३॥"" इस प्रकार जैनवाङ्मयका परिशीलन और मनन करनेपर अत्यन्त दीप्तिमान तत्त्व-रूम निधियोंकी प्राप्ति होगी। तार्किक अलंक जैनवाङ्मयरूप समुद्रको हो विश्व के रत्नोंका आकर मानते है । आज अज्ञान, पक्षपास, प्रमाद आदिके कारण विश्व इन रत्नों के प्रकाशसे वंचित रहा । आशा है कि अब मुज्ञजन सद्विचारोंको स्नानि जनवाङ्ममका स्वाध्याय करेंगे। आत्मसाधनाको अगाध सामग्री जैनशास्त्रों में विद्यमान है। इस वाङ्मयका सम्यक् अनुशीलन करनेवाले भगवती भारतीकी सदा अभिवंदना करते हुए हृदयसे कहेंगे
"तिलोयहि मंडण धम्मह खाणि । सया पणमामि जिणिदहवाणि ॥"
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१. यह भजन गांधीजीकी भजनाचलिमें भी संग्रहीत किया गया है।