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जैनशासन आजकी दुर्दशाका कारण अस्टिस शुगमन्वरलाल जैनी इन मार्मिक साब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं, १. 'जड़वादके राक्षसने युद्ध और सम्पत्तिके रूपमें जगत्को इस जोरसे जकड़ लिया है, कि लोगान अपनी वास्तविकताको भुला दिया है और वे अपनी अर्ध जागृत चेतनामें स्वयंको 'आत्मा' अनुभव न कर केवल 'मंत्र' समसते हैं"। इस प्रकारकी विवेकपूर्ण वाणीकी विस्मृतिक कारण विश्वको महायुद्धोंमें अपनी बहुत कुछ बहुमूल्य आहुति अर्पण करनी पड़ी। तास्विक बात तो यह है, कि हिंसात्मक जीवन के लिए जगत् को कुछ त्याग कुछ समर्पण रूप मूल्य चुकाना होगा । जबतक विषय-लोलुपतासे मुख नहीं मोड़ा आयगा, तबसक कल्याणके मन्दिरमें प्रवेश नहीं हो सकेगा।
आदर्शचरित्र मानव वासनाओंको प्रगामांजलि अर्पित करनेके स्थान में उनके साथ युद्ध छेड़कर अपने आश्मश्चलको जगाता हुआ जयशील होता है । वह आत्माको अमरतापर विश्वास धारण करता हुआ पुण्यजीवन के रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग करनेसे भी मुस्ख नहीं मोड़ता है । सत्पुरुष सुकरात ने अपने जीवनको संकटाकुल भले ही बना लिया और प्राण परित्याग किया, किन्तु जीवनको ममतावश अनीतिका मार्ग नहीं ग्रहण किया । अपने स्नेही, साथी कीटोसे वह वाहता है, कि आदर्श रक्षणके आगे जीवन कोई वस्तु नहीं । कर्तव्य पालन करते हुए मुत्युकी गोद में सो जाना श्रेयस्कर है। ये शन्द कितने मर्मस्पर्शीं है, "हमें केवल जीवन व्यतीत करनेको अधिक मूल्यवान नहीं मानना चाहिए, बल्कि बादर्श जीवनको बहुमूल्य जानना चाहिए।" आजका आदर्शच्युत मानव अपनी स्वार्थ-साधनाको प्रमुख जान विषयान्ध बनता जा रहा है । ऐसा विकास, जिसका अंतस्तल रोगाक्रान्त है, भले ही बाहरसे मोहक तथा स्वस्थता दिखे, किंतु न जाने किस क्षण हृदय-स्पंदन रुक आनेसे चिनाशका उग्र रूप धारण कर इस जीवको चिर पश्चात्तापकी अग्निमें जलाये।
स्वतन्त्र भारतने अशोकके धर्मचक्रको राज्यचिह्न बनाया है। यदि उस धर्म चक्रकी मर्यादाका ध्यान रखकर हमारे राष्ट्रनायक कार्य करें, तो यथार्थमें देश अपराजित और संशोक बनेगा। धर्मचक्र प्रगति और पुण्य प्रवृत्तियोंका सुन्दर प्रतीक है। इसके मंगलमय संदेशको हृदयंगम करते हुए भारतीय शासन अन्य { "The monster of materialism has got such a grip of the world
in the form of mars, and mammon, that men have so for forgotten their reality and that they sub-consciously believe the
mselves to be more machines instead of souls." R. "We should set the highest value, not on living but on living
-Trial and Death of Socrates.
well."