Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानदिवाकर, मर्यादा शिष्योत्तम, प्रशांतमूर्ति आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज की स्वर्णजयंती वर्ष के उपलक्ष में : जैनशासन लेखक विद्वत्रत्न धर्म दिवाकर पं० सुमेरुचन्द दिवाकर शास्त्री, न्यायतीर्थ, B.A.LLB., सिवनी [ चारित्र चक्रवर्ती. तीर्थकर, आध्यात्मिक ज्योति, महाश्रमण पहावीर, अध्यात्मवाद की मर्यादा. तात्त्विक चिन्तन, सैद्धान्तिक चर्चा . निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर, चंपापुरी, विश्वतीर्थ श्रमणवेलमाला, भ्रमणसज आचार्य देशभूषाण महाराज, Religion & Peace, Glimpses of Jainism. Mahavira and Jain Thought आदि के लेखक, महानन्ध के सम्पादक तथा कषायपाहुडसुन के अनुवादक, भूतपूर्व सम्पादक जैन गजट] * महयाः श्री विपलचन्दजी गोधा, कफ परेड, बम्बई भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् पुध्य संख्या - १०६ आचार्यश्री भातसागर जी महाराज की स्वर्णजयंती पुष्ट संख्या - 3: आशीर्वाद : आचार्यश्री भरतसागर जी महागज स्वर्णजयंती वर्ष निर्देशन : आर्यिका स्याद्वादमती माता जी · : जैनशासन ग्रन्थ लेखक : पं० सुमेरुचन्द्र दिवाकर सर्वाधिकार सुरक्षित : भा० अ० वि० परि० संस्करण : प्रथम . वीर नि० सं० २५२४ सन् १९९८ पुस्तक प्राप्ति-स्थान : आचार्य श्री 'भरतसागर जी महाराज संघ I.S.B.N. 81-8583-04-3 बाबूलाल जैन फागृल्ल महातार प्रेम. अलपुर. का फोन : ३१२८.४८. . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन भारतवासियों के अन्तःकरणमें धर्मतस्वके प्रति अधिक मादर भाव विद्यमान है। सामान्यतया धर्मोंपर दृष्टिपात ५.रें, तो उनमें कहीं-कहीं इतनी विविधता और विचिनताका दर्शन होता है, कि वैज्ञानिक दृष्टि-विशिष्ट व्यक्तिके अन्त:करणमें धर्मके प्रति अनास्थाका भाव जागृत हो जाता है। कोई कोई सिद्धान्त अपनेको ही सत्यकी साक्षात् मत्ति मानकर यह कहते हैं, तुम हमारे मार्ग पर विश्वास करो, तुम्हारा बेडा पार हो जायगा । कार्य तुम्हारा कुछ भी हो, केवल विश्वासके कारण परमात्मा तुम्हारे अपराधको क्षमा करेगा, और अपनी विशेष कृपाके द्वारा तुम्हें कृतार्थ करेगा। इस सम्बन्ध में तर्कको तर्मनी उठाना महान पाप माना जाता है । ऐसी धार्मिक पद्धतिको विचारक व्यक्ति अन्तिम नमस्कार करता है और हृदयमें सोचता है कि यदि धर्ममें सत्यको सत्ता विद्यमान है, तो उसे अग्मि परीक्षासे भय क्यों लगता है ? ___ कोई लोग धर्मको अस्पस्त गंभीर सूक्ष्म बता सकते है कि धर्मफा समाना 'टेढ़ी खीर' है । जिस व्यक्ति के पास विवेक पक्ष विद्यमान है, वह टेली खीरकी चातको स्वीकार नहीं कर सकता। वह तो अनुभव करता है, कि धर्म टेडा पा वक्र नहीं है। हृदय और जीवन की वक्रता वा कुटिलताको दूरकर सरलताको प्रतिष्ठित करना धर्मका प्रथम कर्तव्य है। इस युगका जीवन इतना कृत्रिम, कुटिल तथा थोथा हो गया है कि उसके प्रभावसे नोति, लोकम्यवहार, धर्माचरण आदि सबमें कृषिमताका अधिक अधिवास हो गया है। अनुभव और विवेकके प्रकाशमें यथार्थ धर्मका अन्वेषण किया जाय, तो विदित होगा कि आत्माकी असलियत, स्वभाव, प्रकृति अथवा अकृत्रिम अबस्था. को हो धर्म कहते है अथवा कहना चाहिये । हम कहते है 'आपसमें लड़ना, झगसना कुप्सोंका स्वभाव है, मनुष्यका धर्म नहीं है।' इससे स्पष्ट होता है कि धर्म 'स्वभाव' को घोषित करता है। विकृति, कृत्रिमता, विभावको अधर्म कहते हैं। जिस कार्यप्रणालीसे आत्माके स्वाभाविक गुणोंको छुपानेवाला विकृतिका परदा दूर होता है और अस्मिाके प्राकृतिक गुण प्रकाशमान होने लगते हैं, उसे भी धर्म कहते है। मोहरूपी भिम्न-भिन्न रंगवाले कांचोंसे धर्मका दर्शन, विविध रूपमे होता है। मोहमयी कांचका अवलम्बन छोड़कर प्राकृतिक दृष्टिसे देखो, तो यथार्थ धर्म एक रूपमें उपलब्ध होता है। राग, द्वेष, मोह, अचान, मिथ्यात्व आदिके कारण मारमा अस्वाभाविकताके फन्देमें फंसी हुई है। इनके जालवश ही Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पराधीन, दीन हीन, दुःखी बनी हुई संसारमें परिभ्रमण किया करती है। इन विकृतियों का अभाव हुए बिना पपार्थ धर्मकी जागृति असंभव है। विकारोंके अभाव होनेपर यह आत्मा अनसशक्ति, अनंतज्ञान , अनन्त आनन्द सदृश अपूर्व गुणोंसे आलोकित हो जाती है। विकारोंपर विजय प्राप्त करनेका प्रारंभिक उपाय यह है कि यह आत्मा अपनेको दोन, हीन, पतित न समझे । इसमें यह अखण्ड विश्वास उदित हो कि मेरो मात्मा ज्ञान और कानन्दका सिन्धु है। मेरी आत्मा अविनाशी तथा अनन्तशक्ति-समन्धित है 1 विकृत जड़-शक्तियों के संपर्कसे आत्मा जड़ सा प्रतीत होता है, किन्तु यथार्थमें वह चैतन्यका पुज है । अज्ञान मसंयम तथा अविवेकके कारण यह जीव हतबुद्धि हो अनेक विपरीत कार्य कर स्वयं अपने कल्याणपर कुठाराघात किया करता है। कभी-कभी यह कल्पित शक्तियोंको अपना भाग्यविधाता मान मानवोचित पुरुषार्थ तथा आत्मनिर्भरताको भी भुला देता है । बड़ी कठिनतासे सल्समागम द्वारा अथया अनुभव के द्वारा इसे पह दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है कि जीव अपने भाग्यका स्वयं निर्माता है। यह हीन एवं पापाचरण कर किसीकी कृपासे उच्च नहीं बन सकता । श्रेष्ठ पद प्राप्ति निमित्त इसे ही अपनी अधोमुखी संकीर्ण प्रवृत्तियोंका परित्याग कर आलोकमय भावनाओं तथा प्रवृत्तियोंको प्रबुद्ध करना होगा। जीवनमें उच्चताको प्रतिष्ठित करने के लिए साधकको उचित है कि वह संयम तथा सदाचरणको अधिकसे अधिक समाराधना करे । असंयमपूर्ण जीवन में आरमा शक्तिका संचय नहीं कर सकता । विषयोन्मुख बननेसे आत्माम दैन्य परायलम्बनके भाव पैदा होते हैं। इसमें शक्तिका क्षय होता है संग्रह नहीं । संयम (Self control) और आत्मावलम्वन (Self reliance) के द्वारा यह मामा विकासको प्राप्त होता है । इससे आत्मामें अद्भुत शक्तियोंकी जागृति होती है । अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें करने के कारण साधक तीन लोकको वशमें कारने योग्य अपूर्व शक्तिका स्वामी बनता है। इतना ही क्यों, इन सवृत्तियोंके द्वारा यह परमात्मपदको प्राप्त कर लेता है । जिस प्रकार सूर्यको किरणें विशिष्ट कांच द्वारा केन्द्रित होनेपर अग्नि उत्पन्न कर देती है. इसी प्रकार सदाचरण, संयम सदृश साधनोंके द्वारा चित्तवृति एकाग्र होकर ऐसी विलक्षण शक्ति उत्पन्न, करती है कि जन्म-जन्मान्तरके समस्त विकार तथा दोष नष्ट हो जाते हैं और यह आत्म स्फटिकके सदृश निर्मल हो जाती है। आज पश्चिम तथा उसके प्रभावापन्न देशोंमें जड़वाद (Materialisun) का विशेष प्रभुत्व है। इसने आत्माको अन्धासदृश बना दिया है, इस कारण Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर और इन्द्रियों की भाषाज्ञ नो पद-पद पर सुनाई देती है. किन्तु अग्तरात्माकी पनि तनिक भी नहीं प्रतीत होती । म स्वामी है। इन्श्यिादिक उसके सेवा है। आत्मा अपने परको भूलकर सेवकों की आज्ञानुमार प्रवृत्ति करता है। अदबावके जगन्में आत्या अस्तित्वहीन सा बना है। उसे इंद्रियों तथा शरीरका. दासानुदास सदृश कार्य करना पड़ता है। जदयायको भौषपर प्रतिष्ठित शानिक विकासमी वास्तविकता पूरोपके प्रांगण में खेले गये महायुद्धोंने दिखा दी। इसमें सन्देह नहीं विज्ञानमे हमें बहुत कुछ बाराम और आभन्दप्रद सामग्री प्रदान की, किन्तु अन्त में उसने ऐगे घातक पदार्थ देना शुरू किया कि उन्हें देश मनुष्य सोचता है कि जितना हमें प्राप्त हमा, उसकी अपेक्षा अलाभ अधिक हला । किसी व्यक्तिने एक बालाको सुमधुर भोजन खिलाया, बोर मनोरंजक सामग्री दो; किन्तु अन्तम उस बालकके प्राण मे । है कि युद्धके पूर्व विज्ञानने बड़ी-बड़ी मोहक तपा आनन्दप्रद सामग्री प्रदान की और अन्त में 'अाधम' सदृश प्राणान्तक निधि अर्पण को, जिसने जापानको लाखों जनताचे प्राणोंका तथा राष्ट्रकी स्वाधीनताका स्वाहा अत्यन्त, अल्प काल में कर दिया। राष्ट्र रक्षा, विजय, विश्व शान्ति सुरक्षा आदिके गागपर शानिक मस्तिष्क कैस-मे पातक यंत्र, गोले, गैस आदिक निर्माणमें अपने अमूल्य मनुष्यभाषको स्यय करता है. और समय जगतकै हारा संगृहीत, मिमित तथा सुरक्षित अमूल्य अपूर्व तथा दुर्लभ सामग्रीका क्षणमा त्रमै म कर देता है। विज्ञानके कार्योपर विचार करें, तो जात होगा कि इसमें निर्माण तथा प्यंसकी सामग्री समान रूपसे प्राप्त हो सकती है। अदि इस विज्ञानको अध्यात्मवादका प्रकाश मिलता. ढो इससे दार अमर्थपूर्ण सामग्रीका निर्माण न होता । बैज्ञानिकोंका कथन है कि वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा परिज किया गया कोयला हीरा बन जाता है। इसी प्रकार यह भी कहना गंगत है कि पवित्र प्रात्मवादके वातावरणमें सुरक्षित एवं संबंधित विज्ञानमा यदि विकास हो. तो मानव-अगत्में लोकोत्तर शान्ति, समृद्धि तथा लेजका उदय होगा। जह पाने गर्भ में अनंत पगरकारोंको प्रदर्शित करनेवालो अनगन गक्तियो विद्यमान है. पिम्हे समझने तथा विक्रमित करने में अनंत-मनुष्य-ब म्यतीत ही तकर्ट है. शिम्भु प्राप्त हुआ है एक दुर्लभ नरजन्म । उनका वास्तविर और कश्याणकारी उपयोग इसमें है कि मारमा पर-पानी अपंचम पॉम अपने अमूल्य का अपव्यय न करे, प्रिन्तु अपनी गामर्थ्य-भर प्रयत्न करे, जिनसे यह आरमा मिभाव या पिरतिका दान: शनैः परित्याग कर सभागर मशील आवे । जिम जम्भ, जरा. पुको मुमीमतमें यह जगत प्रसित है, उससे वचवर ५मर जीवन और अत्यन्त सुखकी उपलब्धि करना सबसे बड़ा चमत्कार है। यह महाविज्ञान (Science of Science) है। भौतिक विज्ञान समुद्रके खारे पानीके समान है। उसे जितना-जितमा पिभोगे उतनी-उतनी प्यास बढ़ेगी। इसी प्रकार विषय भोगोंकी जितनी-गितनी भाराथना और उपभोग होगा, उतनी अशान्ति और लालसा तथा तृष्णाकी अभिवृद्धि होगी। एक आकांक्षा पूर्ण होनेपर अनेक लालसाओंका सवय हो जाता है, जो अपनी पूर्ति होनेता चितको आकुलित बनाती है। माकुलता तथा मुसीवत पूर्ण जीवनको देखकर लोग कभी-कभी सोचते है, यह साफत कहाँ से आ गई? अज्ञानवश बीर अन्यों का दोष देता है, किन्तु विकी प्रागी शान्त भावसे विचारनेपर इसका उत्तरदायी अपनेको मानता है और निश्चय करता है कि अपनी भूलके कारण ही में विपत्तिके सिन्धुमें डूबा बोलतरामजीका कपन कितना सत्य है "अपनी सुधि भूलि आप, भाप बुःख उपायो । क्यों शुक नभ चाल विसरि नलिनी सरकायो । चेतन अविवड, शुब-ब-बोधमय, विशुद्ध, सम, जक-रस-फरस-रूप पुद्गल अपनायो ।॥१॥" कवि और भी महत्त्वकी बात कहते हैं "चाह वाह वाहे, त्याने माह चाहे। समलासुमा न गाहै. 'जिन' निकट जो बतायो ॥२॥" यथार्थमे कल्याणका मार्ग ममता, विषमताका त्याग । मोह, राग, द्वेष, मद, मारसयने विषमताका जाल जगत् भर में फैला रखा है। समताने लिए इस जीगका उनका माधव पहण करना होगा, जिनकं जीवरसे राग देष मोहादिकी विषमक्षा निकल गई है । उनको हो बोतराग, जिन, जिनेन्द्र, बहन्त, परमात्मा कहते है। कर्म पाओके साम्राज्यका अन्त किए बिना साम्यको ज्योति नहीं मिलती। समताके प्रकाराने भेष, विषाद, व्यामोह मा संकीर्णताका सदभाव नहीं रहता। जीतराग, वोतमोह, दीतद्वेष बने बिना, समता-सुवाका रसास्वाद नहीं हो पाता। जो प्राणी काँ तपा गामनाओंका दास बना हुआ है, उसे संयम और समतापूर्ण श्रेष्ठ जीवनको अपना आदर्श बनाना होगा । असमर्थ साधक शक्ति तथा योग्यता को विकसित करता हुआ एक दिन अपने पूर्णता' के व्ययको प्राप्त करेगा। प्राथमिक सापक मद्य, मांसादिका परित्याग करता है, किन्तु लोक जीवन तथा सांसारिक सतरदायित्व रक्षा निमित्त बह शस्त्राविका संचालन कर न्याय पक्षाका संरक्षण करने से विमुख नहीं होता। ऐसे साधकों में समा चन्द्रप्त, बिम्बसार, संप्रति, खारवेल, अमोघवर्ष, कुमारपाल प्रभृति जैन नरेन्द्रोंका नाम Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना सबसे बड़ा चमत्कार है। यह महाविज्ञान (Science of Science) है । भौतिक विज्ञान समुद्रके खारे पानीके समान है। उसे जितना-जितमा पियोगे उतनो-उतनी प्यास बढ़ेगी। इसी प्रकार विषय भोगों की जितनी-जितनी आरावना और उपभोग होगा, उतनी मशान्ति और लालसा तथा तृष्णाकी अभिवृषि होगी। एक आकांक्षाके पूर्ण होनेपर अनेक लालसाओंका उदय हो जाता है, जो अपनी पूति होनेतक चितको आकूलित बनाती है । माकुलता तथा मुसीबत पूर्ण जीवतको देखकर लोग कभी-कभी सोचते है, यह आफत कहां से आ गई ? अज्ञानवश जीव अन्योंका दोष देता है, किन्तु विकी प्राणी शान्त भावसे विचारनेपर इसका उत्तरदायी अपने को मानता है और निश्चय करता है कि अपनी भूलके कारण ही मैं विपत्तिके सिन्धुमें डूबा हूँ। बलतरामजीका कपन कितना सत्य है "अपनी सुधि लाप, आप तुःख पायो । ज्यों शक नभ चाल बिसरि नलिनो लटकायो ।। चेतन अविचट, शुख-रव-चोखमय, विशुद्ध, तम, अह-रस-रस-रूप पुद्गल अपमायो |११||" कवि और भी महत्वकी बात कहते हैं--- "चाह वाह वाहे, स्पागे न पाह पाहै। समसासुमा न गाहें, 'जिम' निकट जो बसायो ॥२॥" यथार्थ कल्माणका मार्ग है समप्ता, विषमताका त्याग । मोह, राग, द्वेष, मद, मात्सर्यने विषमताका जाल जगत् भर में फैला रखा है। समताके लिए इस जीवका उनका आश्रय प्रण करना होगा, जिनमें जीवनसे राग द्वेष मोहादिकी विषमता निकल गई है । उनको हो वोतराग, जिन, जिनेन्द्र, अहम्त, परमात्मा कहते हैं । कर्म शत्रुओंके साम्राज्यका अन्त किए बिना भाभ्यको ज्योति नहीं मिलती। समताके प्रकाराने भई, विषाद, व्यामोह मा संकीर्णताका सद्भाव नहीं रहता । वीतराग, वीतमोह, पीतद्वेष बने बिना, समता-सुवाका रसास्वाद नहीं हो पाता। जो प्राणी कर्मों तथा वासनाओंका दास बना हुआ है, उसे संयम और समतापूर्ण श्रेष्ठ जीवनको अपना आदर्श बनाना होगा 1 असमर्थ साधक शक्ति तथा योग्यता को विकसित करता हुआ एक दिन अपने 'पूर्णता' के व्ययको प्राप्त करेगा। प्राथमिक साधक मद्य, मांसादिका परित्याग करता है, किन्तु लोक जीवन तथा सांसारिक उत्तरदायित्व रक्षण निमित्त वह शस्त्रादिका संचालन कर न्याय पक्षका सरवण करने से विमुख नहीं होता। ऐसे साधकोंमें सम्राट चन्द्राप्त, बिम्बसार', संप्रति, खारबेल, अमोत्रवर्ष, कुमारपाल प्रभृति जैन नरेन्द्रोंका नाम Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मानपूर्वक लिया जाता है। उनके शासनकालमें प्रजा सुखी हो । उसका नैतिक जीवन भी आदरणीय था। इन नरेशोंने शिकार खेलना, मांस भक्षण सदृश संकल्पी हिंसाका त्याग किया था, किन्तु अधितजनोंके रक्षणार्थ तथा दुष्टोंके निग्रहाई अस्त्र शस्त्रादिके प्रयोगमें तनिक भी प्रतिद्वन्ध नहीं रखा था । अन्यायको दमन मिस इतना जगमा यहार हो । भगवत् जिनसेन स्वामीके शब्दों में इसका कारण यह पा "प्रजाः पारामा मास्य म्यायं अपरथमः ॥" --महापु० १६॥२५२१ यदि दण्ड धारण नरेश शंथिल्य दिखाते, तो प्रजामें मारस्य न्याय (बड़ी मछली छोटी मछलियोंको खा जाती है. इसी प्रकार बलवान्के द्वारा दुर्यलोंका संहार होना मात्स्य न्याय है) की प्रवृत्ति हो जाती । कुशल गृहस्थ जीवनमें असि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प आदि कर्माको विवेकपूर्वक करता है। आसक्ति विशेष न होने के कारण वह मोही, अज्ञानी जीवके समान दोषका संचय भी नहीं करता। इस वैज्ञानिक युगके प्रभावधश शिक्षित वर्ग में उदार विचारोंका उदय हमा है और वे ऐसी धार्मिक दृष्टि या विचारधाराका स्वागत करनेको सैयार है, जो तर्फ और अनुभवसे अबाधित हो और जिससे आत्मामें शान्ति, स्फूति तथा नव चेतनाका जागरण होता हो । जैनधर्मका तुलनात्मक अभ्यास करनेपर विदित होता है कि जैनधर्म स्यय विज्ञान (Science) है। उस प्राध्यात्मिक विज्ञानके प्रकाश तथा विकाससे जड़वादका अन्धकार दूर होगा तथा विश्वका कल्याण होगा। जैन-शासनमें भगवान् वृषभदेव आदि तीर्थकरोंने सर्वाङ्गीण सत्यका साक्षात्कार कर जो तात्त्विक उपदेश दिया था, उसपर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। जैन ग्रन्छोंका परिशीलन आत्मसाधनाका प्रधास्त मार्ग तो बतायगा ही, उससे प्राचीन भारतको दार्शनिक तथा धार्मिक प्रणालीके विषयमें महत्त्वपूर्ण बातोंका भी बोध होता है । स्व. जर्मन विद्वान शा० कोनोमे यह बात दृढतापूर्वक प्रतिपादित की है कि जैनधर्म पूर्णतया मौलिक तथा स्वतन्त्र है तथा अन्य घोंसे पपा है । इसका अभ्यास प्राचीन भारतके दर्शन और धार्मिक जीवन के अवशोशर्ष भावश्यक है "'In conclusion let me assert my convicton that Jainism is an original Ayatria, quite distinct, and independent from all otca and that therefore, it is of gicat importance Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ for the study of Philosophical thought and religious life in ancient India.'" भाशा है विचारक बन्धु इस पुस्तकको ध्यानपूर्वक पढ़ेंगे, और अपने अनुभवमे मिलान करते हुए विधारेंगे, कि इसमें उनके कल्याणको कितनी सामग्री है । 'बाहावाक्यं प्रमाणम्' का प्रतिबन्ध विचारकोंके सत्यको शिरोधार्य करने में समक्ष नहीं आता । धर्म आत्मा और उसके विश्वासको वस्तु है । उसके यथार्थ स्वरूप तथा उपलब्धिपर आत्माका यथार्थ कल्याण अवलम्बित है । अतः आशा है, सहृदय विचारक उदार दृष्टि से जैवशासनका परिशीलन करेंगे। -सुमेरुचन्द्र दिवाकर 1. Originally published in the Transactions of the third Informational Congress for History of Religions, Vol II PP. 59-66, Oxford 1908 and reprinted in the Jain Antiquary of June 1944, Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन शान्तिकी ओर इस विशाल विश्यपर जब हम दृष्टि डालते हैं, तब हमें सभी प्राणी किसीन-किसी कार्य में संलग्न दिखाई देते हैं। चाहे वे कार्य शारीरिक हों, मानसिक हों earer आध्यात्मिक | उनका अन्तिम ध्येय आरमाके लिए आनन्द अथवा शान्तिको खोज करना है। लेकिन ऐसे पुरुषों का दर्शन प्रायः दुर्लभ है, जो प्रामाणिकता - पूर्वक यह कह सके कि 'हमने उस आनन्दको अक्षय निधिको प्राप्त कर लिया है ' हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि विश्व में पाये जानेवाले पदार्थ कुछ भी आनन्द प्रदान नहीं करते, कारण, अनुकूल शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यास्मिक पदार्थको पाकर प्राणी संतुष्ट होते हुए पाये जाते हैं और इसीलिए लोग कह भी ई-फाई का बड़ा बान् आह आनन्द स्थायी नहीं रहता । मनोमुग्धकारी इन्द्र-धनुष अपनी छटा प्रेक्षकोंके चित्तको आनन्द प्रदान करता है; किन्तु अल्प काल के अनन्तर उस सुरचापका विलीन होना उस आनन्दको धाराको शुष्क बना देता है। इसी प्रकार विश्वकी अनन्त पदार्थमालिका जीवको कुछ सन्तोष तो देती है, किन्तु उसके भीतर स्थायित्वका अभाव पाया जाता है । उम भौतिक पदार्थसे प्राप्त होनेवाले बानन्द में एक बड़ा संकट यह है कि जैसे-जैसे विशिष्ट आनन्ददायिनी सामग्री प्राप्त होती है, वैसे-वैसे इस जीव की तृष्णाकी ज्वाला अत्यधिक प्रदीप्त होती जाती है। और वह यहां तक बढ़ जाती है कि सम्पूर्ण विश्व के पदार्थ भी उसके मनोदेवताको पूर्णतया सकते । परितृप्त नहो कर तृष्णाका गड्ढा भषि गुणभद्र लिखा है कि- "जगत्के जीवोंकी आशा बहुत गहरा है- इतना गहरा कि उसमें हमारा सारा विश्व अणुके समान दिखायी देता है | तब भला, जगत् के अगणित प्राणियोंको आशाको पूर्ति इस एक विश्वके द्वारा करें तो एक-एक प्राणीके हिस्से में इस जगत्का कितना-कितना भाग आएगा !” १. "आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कि कस्य कियदायाति बुमा को विषयषिता । 1" - आत्मानुशासन इलो० ६६ । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शासन विश्वके बैभव आदिसे आत्माकी प्यास बुझाना यह अज्ञ जीव मानता है । किन्तु, वैभव और विभूतिके बीच में विद्यमान व्यक्तियों के पास भी दीन-दुस्खी जैसो आत्माकी पौड़ा दिखायी देती है । देखिए न, आमका धन-कुबेर माना जानेवाला हेनरी फोर्ड कहता है कि-"मेरे मोटरके कारखाने में काम करनेवाले मजदूरों का जीवन मुझसे अधिक आनन्द-पूर्ण है। उनके निश्चित जीवनको देखकर मुझे ईया-सी होती है कि यदि मैं उनके स्थानको प्राप्त करता तो अधिक सुन्दर होता।" कैसी विचित्र वात यह है कि धन-हीन गरीव भाई आशापूर्ण नेत्रोंसे धनिकोंकी ओर देखा करते हैं, किन्तु वे धनिक कभी-कभी सतष्ण नेत्रोंसे उन मरीत्रों के स्वास्थ्य, निराकुलता आदिको निहारा करते हैं। इसीलिए योगीराज पूज्यपाद ऋषि भोगी प्राणियोंको सावधान करते हुए कहते हैं-"कठिनतासे प्राप्त होनेवाले, कष्ट-पूर्वक संरक्षण योग्य तथा विनाश-स्वभाव वाले धनादिके द्वारा अपने आपको सुखी समझनेवाला व्यक्ति उस ज्वरपीड़ित प्राणीके समान है जो गरिष्ठ धी निर्मित पदार्थ खाकर क्षण-भरके लिए अपने में स्वस्थताकी कल्पना करता है।" भौतिक पदाघोंसे प्राप्त होनेवाले सुस्त्रोंकी निस्सारताको देखने तथा अनुभव करने वाला एक तार्किक कहता है-'हे भाई, अगत्की वस्तुओंसे जितना भी आनन्दका रस खोंचा जा सके, उसे निकालने में क्यों चूको ? शून्यको अपेक्षा अल्प लाभ क्या दुरा है।' इस तार्किकने इस बातपर दृष्टिपास करने का कष्ट नहीं उठाया कि जगत्के क्षण-स्थायी भानन्दमें निमग्न होनेवाले तथा अपनेको कृतकृत्य मानने वाले व्यक्तिको कितनी करुण अवस्था होती है, जब इस आस्माको वर्तमान शरीर तथा अपनी कही जानेवाली सुन्दर, मनोहर, मनोरम प्यारी वस्तुओंसे सहसा नाता तोड़कर अन्य लोक की महायात्रा करने को बाध्य होना पड़ता है। कहते हैं। सम्राट सिकन्दर जो विश्वविजयके रंगमें मस्त हो अपूर्व साम्राज्यसुखके सुमधुर स्वप्न में संलग्न था, मरते समय केवल इस बातसे अवर्णनीय आन्तरिक व्यथा अनुभम करता रहा था कि मैं इस विशाल राज-वैभवका एक कण भी अपने साथ नहीं ले जा सकता । इसीलिए, जब सम्राट्का शव बाहर निकाला गया, तब उसके साथ राज्यको महान् वैभवपूर्ण सामग्री भी साथमें रली गयी थी । इस समय सम्राट्के दोनों खाली हाथ बाहर रखे गये थे जिसका यह तात्पर्य था कि विश्वविजयको कामना करने वाले महत्त्वाकांक्षी तथा पुरुषार्थी ६. "दुरज्यनासुरक्ष्येण नश्वरेण धनादिना ! स्वस्थम्मन्यो जनः कोऽपि स्वरवानिव सपिंषा ।। १३ ॥" -इष्टोपदेश Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिकी ओर इस प्रताप पुरुषने इतना बहुमूल्य संग्रह किया जो प्रेक्षकोंके घिसमें विशेष व्यामोह उत्पन्न कर देता है। किन्तु फिर भी यह शासक कुछ भी सामग्री साथ नहीं ले जा रहा है । ऐसे सजीव तथा उद्बोधक उदाहरणसे यह प्रकाश प्राप्त होता है कि बाह्य पदार्थोंमें सुखको धारणा मूलमें ही भ्रमपूर्ण है । प्यासा हरिण ग्रीष्ममें पानी प्राप्त करने की लालसा मा भमिमें बिजी दौन नहीं जाता. किन्तु मायाविनी मरीचिकाके भुलाधेमें फंसकर वृद्धिगत पिपासासे पीड़ित होता है और प्यार पानी के पास पहुँचनेका सौभाग्य ही नहीं पाता-उसकी मोहिनीमूरत ही नयम-गोचर होती है. पुरुषार्थ करके ज्यों-ज्यों आगे दौड़ता है, वह नयनाभिराम वस्तु दूर होती जाती है । इसी प्रकार भौतिक पदार्थों के पीछे दौड़नेवाला सुखाभिलाषी प्राणी वास्तविक आनन्यामृत के पानसे वंचित रहता है और अन्त में इस लोकसे विदा होते समय संग्रहीत ममताकी सामग्रीके वियोगव्यथासे सन्तप्त होता है। ऐसे अवसरपर सत्-पुरुषों की मार्मिक शिक्षा हो स्मरण आती है "रे जिय, प्रभु सुमिरन में मन लगा लगा। लाख करोर की धरी रहेगो, संग न जइहै एक तगा।" इस प्रसंगमें विद्या प्रेमी नरेश भोजका जीवन-अनुभव भी विशेष उद्योधक है । कहते हैं, जब महाराज अपनी सुन्दर रमणियों, स्नेही मित्रों, प्रेमी बन्धुओं, हार्दिक अनुरागी सेवकों, हाथी-घोहे आधिको अपूर्व सवीगीय आनन्ददायिनी सामग्रोको देखकर अपने विशिष्ट सौभाग्यपर उचित अभिमान करते हुए अपने महाकविसे हृदय की बातें कर रहे थे, तब महाराज भोजके भ्रमको भगानेवाले तथा सत्यकी तहतक पहुंचनेवाले कवि के इन शब्दोंने उनको आँख खोल दी-''ठीक है महाराज, पुण्य-उदयसे आपके पास सब कुछ है, लेकिन यह तबतक ही है जबतक आपके नेत्र खुले हुए हैं। नेत्रोंके बन्द होने पर यह कहाँ रहेगा।" महाकवि भूषरवास मोकी निम्न पंक्तियो अन्तस्तल तक अपना प्रकाश पहुँचा वास्तविक मार्ग-दर्शन करातो हैं"तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतंग खरे ही। दास खवास अवास अटा धन, जोर करोरन कोश भरे ही ।। ऐसे भये तो कहा भयौ हे नर ! छोर चले जब अंत छरे ही । धाम खरे रहे काम परे रहे, दाम गरे रहे ठाम धरे ही ।।" -जनशतक ३३ । १. "तोहरा युवतयः सुहृदोऽनुकूलाः, सद्दान्धवाः प्रणयगर्भगिरश्च भृत्याः । वलान्ति दन्तिनिवहा तरलास्तुरंगाः, सम्मीसित नयनयोनहि किञ्चिदस्ति ।" Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनशासन ऐसी ही गंभीर चिन्तनामें समुज्वल दार्शनिक विचारोंका उदय होता है । पश्चिमके तर्कशास्त्री प्लेटो महाशय कहते हैं-Philosophy begins in wonder-दर्शन-शास्त्रका जन्म आश्चर्य में होता है । इसका भाव यह है कि जब विचित्र घटना-चक्रमे जीवनपर विशेष प्रकारका आघात होता है, तब तात्विकताके विचार अपने आप उत्पन्न होने लगते हैं। गौतमकी आत्मा में यदि रोगी, वृद्ध तथा मृत व्यक्तियों के प्रत्यक्ष दर्शनसे आश्चर्य की अनुभूति न हुई होती तो वह अपनी प्रिय यशोधरा और राज्यले पूर्णतया निर्मम हो बुद्धत्वके लिए सावनापथपर पैर नहीं रखते। वास्तविक शान्तिकी प्यास जिम आत्मामें उत्पन होती है, वह सोचता है"मैं कौन है; में कहाँसे भाया; मेरा क्या स्वभाव है, मेरे जीवनका ध्येय क्या है, उसकी पूर्तिका जपाव वया है ?" पश्चिमी पण्डित ऐकल (Hackel) महाशय कहते हैं-"Whence do we come ? What are we ? Whither do we go?" से प्रश्नों का समाधान कर जश रात्पुरुषने सवारपसापूर्वक प्रयत्न किया वही महापुरुषोंमें गिना जाने लगा और उस महापुरुषने जिस मार्गको पकता वही भोले तथा भूले भाइयों के लिए कल्याणका मार्ग समझा जाने लगा-'महाजनो येन गतः स पन्थाः ।। भाजके उदार जगत्से निकट सम्बन्ध रखनेवाला व्यक्ति सभी मार्गोको आनन्दका पथ जान उसकी आराधना करने का सुझाव सब के समक्ष उपस्थित करता है । वह सोचता है कि शान्त तथा लोक-हितकी दृष्टिवाले व्यक्तियोंने जो भी कहा वह जीवन में आचरणयोग्य है । तस्व के अन्तस्सलको स्पर्श न करनेवाले ऐसे व्यक्ति 'रामाप स्वस्ति' के साथ-हो-साथ 'रावणाय स्वस्ति' कहने में संकोच नहीं करते । ऐसे भाइयोंको तर्कशास्त्रके द्वारा इतना तो सोचना चाहिए कि सद्भावना आदिके होते हुए भी सम्यक् ज्ञानको ज्योति के बिना सन्मार्गका दर्शन तथा प्रदर्शन कैसे सम्भव होगा । इसलिए अज्ञानता अथवा मोहकी प्रेरणासे तत्त्वज्ञोंको रावणको अभिवन्दना छोड़कर रामका पदानुसरण करना चाहिए । जीबन में शाश्वत तथा यथार्थ शान्तिको लानेके लिए यह आवश्यक है कि कूपमण्डूकवृत्ति अथवा मतानुगरिकता की अज्ञ-प्रवृत्तिका परित्याग कर विवेककी कसौटीपर सत्त्वको कसकर अपने जीवनको उस ओर झुकाया जावे । १. "कोऽहं कोदग्गुणः मयत्यः किं प्राप्यः किनिमित्तकः ।" -वादीमसिंह सूरिकृत सत्रचूडामणि १-७८ । २. "तातस्य कूपोऽयमिति बुवाणाः क्षारं जलं कापुरुषाः पिबन्ति ।" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म के नामपर धर्मके नामपर आत्म-साधना द्वारा कल्याण मंदिर में दुःखी प्राणियोंको प्रविष्ट कराने की प्रतिज्ञापूर्वक प्रचार करनेवाले व्यक्तियोंके समुदायको देखकर ऐसा मालूम होता है कि यह जीव एक ऐसे बाजार में जा पहुँचा है जहाँ अनेक विज्ञ विक्रेता अपनी प्रत्येक वस्तुको अमूल्य-कल्याणकारी बता उसे बेंचनेका प्रयत्न कर रहे हैं । जिस प्रकार अपने मालकी ममता तथा लाभके लोभवश व्यापारी सत्य सम्भाषणकी पूर्णतया उपेक्षा कर वाक् चातुर्य द्वारा हतभाग्य ग्राहकको अपनी ओर आकर्षित कर उसको पठिषः प्रकास करते है, सवार प्रतीत होता है कि अपनी मुक्ति अथवा स्वर्गप्राप्ति आदिकी लालसावश भोले-भाले प्राणियों के गले में साधनामृतके नामपर न मालूम क्या-क्या पिलाया जाता है और उसकी श्रद्धा-निधि मूल की जाती है। ऐसे बाजार में बोखा खाया हुआ व्यक्ति सभी विक्रेताओंको अप्रामाणिक और स्वार्थी कहता हुआ अपना कोप व्यक्त करता है । कुछ व्यक्तियों की अप्रामाणिकताका पाप सध तथा प्रामाणिक व्यवहार करनेवाले पुरुषोंपर लादना यद्यपि न्यायकी मर्यादाके बाहरकी बात है, तथापि उगाया हुआ व्यक्ति रोपवश यथार्थ का दर्शन करने में असमर्थ हो अतिरेकपूर्ण कदम बढ़ाने से नहीं रुकता । ऐसे ही रोष तथा आन्तरिक व्यथा को निम्नलिखित पंक्तियों व्यक्त करती हैं ५ "ने मनुest feaना नीचे गिराया, कितना कुकर्मी बनाया, इसको हम स्वयं सोचकर देखें | ईश्वरको मानना सबसे पहले बृद्धिको सलाम करना है । जैसे शराबी पहला प्याला पीने के समय बुद्धिकी बिदाईको सलाम करते है, वैसे हो खुदा माननेवाले भी बुद्धिसे बिदा हो लेते हैं। धर्म ही हत्या की जड़ है । कितने पशु धर्म के नामपर रक्त के प्यासे ईश्वरके लिए संसार में काटे जाते हैं, उसका पता लगाकर पाठक स्वयं देख लें । समय आवेगा कि धर्मकी बेहूदगी से संसार छुटकारा पाकर सुखी होगा और आपसकी कलह मिट जाएगी। एक अत्याचारी, मूर्ख शासक खुदमुख्तार एवं रही ईश्वरकी कल्पना करना मानो स्वतन्त्रता, न्याय और मानवधर्मको तिरस्कार करके दूर फेंक देना है। यदि आप चाहें कि ईश्वर आपका भला करें तो उसका नाम एकदम भुला दें फिर संसार मंगलमय हो जाएगा । "वेद, पुराण, कुरान, इंजील आदि सभी धर्मपुस्तकोंके देखनेसे प्रकट है कि सारी गाथाएँ वैसी हो कहानियाँ है जैसी कुपक बूढ़ी दादी-नानी अपने बच्चों को सुनाया करती हैं। बिना देखे सुने, अनहोने, लापता ईश्वर या खुदाके नामपर अपने देशको, जातिको, व्यक्तित्व और मन-सम्पत्तिको नष्ट कर डालना, एक ऐसी Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन मूर्खता है जिसकी उपमा नहीं मिल सकती। यदि हम मनुष्य जातिका कल्याण चाहते हैं तो हमें सबसे पहले धर्म और ईश्वरको गद्दीसे उतारना चाहिए।" इस विषय में अपना रोष व्यक्त करनेवालोंमें सम्भवतः रूसने बहुत लम्हा कदम उठाया है। यह शोसला कारने होंता ईश्वरका बहिष्कार तक किया गया, वेचारे धर्म की बात तो जाने दीजिए । रूसी लेखक दास्तोइवस्की एक कदम आगे बढ़ाकर लिखता है-'ईश्वर तो मर चुका है, अब उसका स्थान खाली है।" पूर्वोक्त कथनमें अतिरेक होते हुए भी निष्पक्ष दृष्टिसे समीक्षकको उसमें सत्यताका अंश स्वीकार करना ही होगा। देखिए, श्री विवेकानन्द अपने राज-योगमें लिखते हैं-"जितना ईश्वर के नामपर खूनखच्चर हुआ उतना अन्य किसी वस्तुके लिए नहीं ।" जिसने रोमन कयोलिक और प्रोटेस्टेंट नामक हजरत ईमाके मानने वालोंका रक्त-रंजित इतिहास पढ़ा है अधवा दक्षिण-भारतमें मध्य-युग में शेष और लिंगायतोंने हजारों जैनियों का विनाशकर रक्तकी वैतरणी बहायी तथा जिस चातकी प्रामाणिकता दिखानेवाले चित्र मदुराके मीनाक्षी नामक हिन्दू मन्दिरमें उक्त कृत्य के साक्षी स्वरूप विद्यमान है, ऐसे धर्मके नामपर हुए फर-कृत्योंपर दृष्टि डाली है, वह अपनी जीवनको पवित्र श्रद्धानिधि ऐसे मागोंके लिए कैसे समर्पण करेगा? घन्धिोंकी विवेक-हीनता, स्वार्थ परता अथवा दुर्बुद्धिके कारण हो धर्मकी आजके वैज्ञानिक जगतमै अवर्णनीय अवहेलना हुई और उच्च विद्वानों ने अपने आपको ऐसे धर्म से असम्बद्ध बताने में या समझने में कृतार्थता समसी । यदि धर्मान्धोंने अमर्यादापूर्ण तथा उच्छखलतापूर्ण भाचरण कर संहार न किया होता तो धर्मक विरुद्ध ये शब्द न सुनायी पड़ते । ऐसी स्थिति में इस बातकी आवश्यकता है कि नमकी भंवर में फंसे हुए जगत्का उद्धार करनेवाले सुख तथा शान्तिदाता धर्मका ही उद्धार किया जाय, जिससे लोगोंको वास्तविकताका दर्शन हो । १. प्रपञ्चपरिचय ५०२१७-२० । २. देखो, जर्मन डॉ० वान् ग्लेग्नेसका जन-धर्मसम्बन्धी ग्रन्छ । -Jainimus P.64 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 j धर्म ओर उसकी आवश्यकता धर्म और उसकी आवश्यकता साम्यवाद सिद्धान्तका प्रतिष्ठापक तथा रूसका भाग्य विधाता लेनिन धर्मकी ओटमें हुए अत्याचारोंसे व्यथित हो कहता है कि विश्वकल्याण के लिए धर्मकी कोई आवश्यकता नहीं है। उसके प्रभाव में आये हुए व्यक्ति धर्मको उस अफीमको गोलीके समान मानते हैं, जिसे खाकर कोई अफीमची क्षण भरके लिए अपने में स्फूर्ति और' शक्तिका अनुभव करता है। इसी प्रकार उनकी दृष्टिसे धर्म भी कृत्रिम आनन्द अथवा विशिष्ट शान्ति प्रदान करता है । यह दुर्भाग्यकी बात है कि इन असन्तुष्ट व्यक्तियोंको वैज्ञानिक धर्मका परिचय नहीं मिला, अन्यथा ये सत्यान्वेषी उस धर्म की प्राण-पणसे आराधना किये बिना न रहते। जिन्होंने इस महान् साधना के साधनभूत मनुष्यजन्मकी महत्ताको विस्मृत कर अपनी आकांक्षाओं की पूर्तिको हो नर-जन्मका ध्येय समझा है, वं गहरे भ्रम ऐसे हुए हैं और उन्हें इस विश्वकी वास्तविक स्थितिका बोध नहीं प्रतीत होता । सम्राट् अमोघवर्ष अपने अनुभव के आधारपर मनुष्य जन्मको हो असाधारण महत्वको वस्तु बताते हैं। अपनी अनुपम कृति प्रश्नोत्तर रत्न- मालिकामे उन्होंने कितनी उद्बोधक बात लिखी है -- " किं दुर्लभ ? नृजन्म प्राप्येदं भवति किं च कर्तव्यम् ? आत्महितमहितसंगत्यागो रागश्च गुरुवचने || " इस मानव जीवनकी महत्तापर प्रायः सभी सन्तोंने अमर गाथाएं रची हैं । इस जीवन के द्वारा ही आत्मा सर्वोत्कृष्ट विकासको प्राप्त कर सकती है। कबीर बासने कितना सुन्दर लिखा है "मनुज जनम दुरलभ अहै, होय न दूजी बार | पक्का फल जो गिर गया, फेर न लागे डार ॥" वैभव, विद्या, प्रभाव आदिके अभिमानमें मस्त हो यह प्राणी अपनेको अजरअमर मान अपने जीवनकी बोलती हुई स्वर्ण-घड़ियोंकी महत्ता पर बहुत कम ध्यान देता है । वह सोचता है कि हमारे जीवनको आनन्द गंगा अविच्छिन्न रूपसे बहती 1. Religion, to his master, Marx, had been the "Opium of the people" and to Lenin it was "a kind of spiritual cocaine in which the slaves of capital drown their human perception and their demands for any life worthy of a human being." - Fulop Miller, Mind and Face of Bolshevism p. 78. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन ही रहेगी, किन्तु वह इस सत्यका दर्शन करने से अपनी आँखोंको मीष लेता है कि परिवर्तनके प्रचण्ड प्रहारसे बचना किसी के भी दशकी बात नहीं है। महाभारतमें एक सुन्दर कया है-पौतों पर तपित हो एक मरोयसर पानी पीने के लिए पहुंचे। उस जलाशयके समीप निवास करनेवाली दिव्यात्माने अपनी वांकाओंका उत्तर देने के पश्चात् ही जल पीने की अनुज्ञा दी । प्रश्न यह था कि जगत् में सबसे बड़ी आश्चर्यकारी बात कौन-सी है ? भीम, अर्जुन आदि भाइयों के उत्सरोंसे जब सन्तोष न हुआ, तब अन्त में धर्मराज युधिष्ठिरने कहा "अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति ययमन्दिरम् । ... शेषा जीवितुमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ॥"" ___ इस सम्बन्धमे मुणभद्राचार्घकी उपित अन्तस्तलको महान् आलोक प्रदान करतो है । वे कहते हैं-अरे, यह आत्मा निद्रावस्था द्वारा अपने में मृत्यकी आशंका को उत्पन्न करता है और जागनेपर जीवन के आनन्दकी झलक दिखाता है । अब यह जीवन-मरणका खेल आत्माकी प्रतिदिनको लीला है, तब भला, यह आरमा इस शरीरमें कितने काल तक ठहरेगा ? मोहकी नोंदमें मग्न रहनेवालोंको गुरु नानक जगाते हुए कहते हैं: जागो रे जिन जागना, अब आगनिकी बार । फेरि कि जागो 'नानका', जब लोवर पांव पसार ॥ आजके भौतिक वायके भवरमें फंसे हुए व्यक्तियोंमसे कभी-कभी कुछ विशिष्ट आत्माएँ मानव-जन्यनकी आमूल्पताका अनुभव करती हुई जीवनको सफल तथा मंगलमय बनाने के लिए छटपटाती रहती है। ऐसे ही विचारों से प्रभावित एक भारतीय नरेश, जिन्होंने आइ० सी० एस० को परीक्षा पास कर ली है, एक दिन कहने लगे-"मेरो आरमामे बड़ा दर्द होता है, जब मैं राजकीय कागजातों आदिपर प्रभातमे सन्ध्यातक हस्ताक्षर करते-करते अपने अनुपम मनुष्य-जीवनके स्वर्णमय दिवसके अवसानपर विचार करता हूँ ! क्या हमारा जीवन हस्ताक्षर करने के जड़पनर के तुल्य है ? क्या हमें अपनी भात्माके लिए कुछ भी नहीं करना है ? मानो हम शरीर ही हों और हमारे आत्मा ही न हो। कभी-कभी आत्मा बेचैन हो सब कामोंको छोड़कर वनवासी बननेको लालायित हो उठता है।" १. प्रतिदिन प्राणी मरकर बम-मन्दिर में पहुँचले रहते हैं। यह बड़े व्याश्चर्यकी बात है कि शेष व्यक्ति जीवनकी कामना करते है-(गानों यमराज उनपर दया कर देगा । २. "प्रसुप्तो मरणाशंका प्रबुद्धो जीवितोत्सवम् । प्रत्यहं जनयस्येष तिष्ठेत् कार्य कियश्चिरम् ।।८२॥" Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और उसकी आवश्यकता मैंने कहा, इस तरह घबराने कार्य नहीं चलेगा। यदि सत्य, संयम, अहिंसा आदिके साथ जीवनको मलंकृत किया जाय, तो अपने लौकिक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने में कोई बाधा नहीं है । आप धज्ञानिक धर्मके उज्ज्वल प्रकाशमें अपनेको तथा अपने कर्तव्यों को देखनेका प्रयत्न कीजिए। इससे शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत होगा तथा मनुष्य-जीवनकी सार्थकता होगी। गौतमबद्ध ने अपने भिक्षओंको धर्म के विषय में कहा है 'देसेन भिलवे धम्म आधिकल्ला म फलाण परियोसानकल्लाण'भिक्षुओ, तुम आदिकल्याण, मध्यकल्याण तथा अन्त में कल्याणवाले धर्मका उपदेश दो। आचार्य गुणभन्न आत्मानुशासनमें लिखते हैं कि-'धर्म सुखका कारण है। कारण अपने कार्यका विनाशक नहीं होता। अतएव आनन्दके विनाशके भयसे तुम्हें धर्मसे विमुख नहीं होना चाहिए।" इससे यह बात प्रकट होती है कि विश्व में रक्तपात, संकीर्णता, कलह आदि उत्पातोंका उत्तरदायित्व धर्मर नही । धर्मको म प काले मामिला का ही यह फलंकभम कारनामा है । अधर्म या पापसे उत्तना अहित अथवा विनाश नहीं होता, जितना धर्मका दम्भ दिखाने वाले जीवन अपना सिद्धान्तोंसे होता है । व्याघ्रको अपेक्षा गोमख न्यानके द्वारा जीवन अधिक संकटापन्न बनता है। लाई एवेबसने ठोक ही कहा है कि "विश्व शान्ति तथा मानवोंके प्रति सद्भावनाका कारण धर्म है, जो घृणा तथा अत्याचार को उत्तेजित करता है, उसे शब्दशः वर्म भले ही कहा जाय. किन्तु भावकी दृष्टि से यह पूर्णतया मिया है ।"3310 भगवानवातका फपन है-*"सल्तनतों और कूटनीतिकी बादी बनकर साइंसने मजहबसे कहीं ज्यादा मारकाट की है, पर यह सब झगड़ा न सच्ची साईसका नतीजा है और न सच्चे शर्म या मजहब का । यह नतीजा है हमारे अन्दरके शंतान, हमारी खुदी, हमारे स्वार्थ और हमारे अहंकारका । हम अपनी छोटी झूठी और चंदरोजा गरजोंके लिए साइंस और मजहब दोनोंका गलत -- .. . - - - १. महावग्ग विनम-पिटक । २. "धर्मः सुरवस्य हेतुः हेतुन विराधकः स्वकार्यस्थ । तस्मात् सुखभंगभिया मा भूः धर्मस्य विमुखस्त्वम् ।।२०।" 3. "Religion was intended to living peace or earth and good-will towards men; whatever tends to hatred and persecution, however correct in the letter, must be utterly wrong in the spirit." ४. विश्ववाणी अंक ४८ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन उपयोग करते हैं और दोनोंको बदनाम करते हैं । मजहबके नामपर झगड़े दुनियामें हुए है और होंगे, पर इन झगड़ोंकी वजहसे मजहबको दुनियासे मिटानेकी कोशिश ऐसी है जैसे रोगको दूर करने के लिए शरीरको मार डालनेकी कोशिश । जबतक दुनियामें दुःख और मोत है तबतक लोगोंको धर्मकी जरूरत रहेगी ।"" ___ यायमूर्ति नियोगो महाशयने धर्मतत्त्व के समर्थनमें एक बहुत सुन्दर बात कही थी-'यदि इस जगत्में वास्तविक धर्मका वास न रहे तो शान्तिके साधनरूप पुलिस आदिके होते हुए भी वास्तविक शान्तिकी स्थापना नहीं की जा सकती। जैसे पुलिस तथा सैनिकमलके कारण साम्राज्यका संरक्षण घातक शक्तियों से किया जाता है उसी प्रकार धर्मानुशासित अन्तःकरणके द्वारा भात्मा उच्छ'खल तथा पापपूर्ण प्रवृत्तियों से बचकर जीवन तथा समाज-निर्माणके कार्यमें उद्यत होता है।" ___ उस धर्म के स्वरूपपर प्रकाश डालते हुए ताकिकचूड़ामणि आचार्य समातभद्र कहते है-"जो संसारके दुखोंसे बचाकर इस जीवको उत्तम सुख प्राप्त करसवे, वह धर्म है।" वैविक दार्शनिक कहते है-''जिससे सर्वांयीण उदय-समृद्धि तथा मुक्तिकी प्राप्ति हो, वह धर्म है।" श्री विवेकामन्द मनुष्य में विद्यमान देवत्यकी अभिव्यक्तिको धर्म कहते हैं ।" राधाकृष्णन् 'सत्य तथा न्यायकी उपलबिचको एवं हिंसाके परित्यागको धर्म मानते है । इस प्रकार जीवन में 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' को प्रतिष्ठित करनेवाल धर्म विषय और को सिवानों के अनुभव पदन में आस हैं । कार्तिकेय आचार्य, धर्मपर व्यापक दृष्टि डालते हुए लिखा है-'वस्थुसहायो पम्मी"-आत्माकी स्वाभाविक अवस्था धर्म है-इमे दूसरे शब्दोंमें कह सकते हैं कि स्वभाव-प्रकृति (Nature) का नाम धर्म है। विभाव, विकृतिका नाम अधर्म है । इस कसौटीपर लोगोंके द्वारा आक्षेप किये गये हिंसा, दम्भ, विषय-तृष्णा आदि धर्म नामधारी पदार्थको कसते हैं तो दे पूर्णतया खोटे सिद्ध होते हैं। कोच, मान, १. "देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्त्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे ।। २॥"-रत्नकरण्डनावकाचार २. "पतोऽभ्युदर निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ।"-वैशेषिकदर्शन १२ 3. Religion is the manifestation of divinity in man. 4. "Religion is the pursuit of truth and justice and abdication of violence." ५. "चारित्तं खलु धम्मो घम्मो जो सो समो ति णिदिको । मोहनखोहविहीणो परिणामो अपणो धम्मो " [ चारित्रको धर्म कहते है। समता, परिणाम, (राग-द्वेषसे रहित संतुलित मनोवृत्ति), मोह तया सोमसे विहीन परिणति धर्म है। ] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और उसकी आवश्यकता माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, आदि जघन्य वृत्तियोंके विकाससे आत्माकी स्वाभाविक निर्मलता और पवित्रताका विनाश होता है । इनके द्वारा आरमामे विकृति उत्पन्न होती है जो आत्माके आनन्दपवनको स्वाहा करती है । नहाप कुंदकुछ सदाचारको धर्म कहते हैं। अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदिकी अभिवृद्धि एवं अभिव्यक्तिसे आत्मा अपनी स्वाभाविकताके समीप पहुँचते हुए स्वयं धर्म-मब बन जाता है । हिंसा आदिको जीवनोपयोगी अस्त्र मानकर यह पूछा जा सकता है कि अहिंसा, अपरिग्रह आदिको अथवा उनके साधनोंको धर्म संज्ञा प्रदान करनेका क्या कारण है ? राग-द्वेष-मोह सादिको यदि धर्म माना जाय तो उनका आत्मामें सदा सद्भाव पाया जाना चाहिए । किन्तु, अनुभव उन क्रोधादिकोंके अस्थायित्व अतएव विकुतपनेको ही बताता है। अग्नि के निमित्तसे जल में होनेवाली उष्णता जलवा स्वाभाविक परिणमन नहीं कहा जा सकता, उसे नैमित्तिक विकार कहेंगे । अग्निका सम्पर्क दुर होनेपर वही पानी अपनो स्वाभाविक शीतलताको प्राप्त हो जाता है। शीतलताके लिए जैसे अन्य सामग्रीकी आवश्यकता नही होती और वह सदा पायी जा सकती है, उसी प्रकार अहिंसा, मृदुता, सरलता आदि गुण क्त अवस्थाएँ खात्मामें स्थायी रूपमें पायी जा सकती है। इस स्वाभाविक अवस्थाके लिए बाह्य अनात्म पदार्थकी आवश्यकता नहीं रहती, क्रोधादि विभावों अथवा विकारों की बात दूसरी है। इन विकारोंको जाग्रत तथा उत्तेजित करने के लिए बाह्य सामग्रीको आवश्यकता पड़ती है। बाह्य साधनोंके अभाव में क्रोधादि विकारों का विलय हो जाता है। कोई व्यक्ति चाहनेपर भी निरन्तर क्रोधी नहीं रह सकता। कुछ कालके पश्चात् शान्त भाबका आविर्भाव हुए बिना नहीं रहेगा । आरमाने स्वभावमें ऐसो बात नहीं है । यह धात्मा सदा क्षमा, ब्रह्मचर्य, संयम आदि गुणोंसे भूषित रह सकता है। इसलिए, क्रोध-मान-माया-लोभ, राग-द्वेष-मोह आदिको अथवा उनके कारणभूत सापनोंको अधर्म कहना होगा । आत्माफे क्षमा, अपरिग्रह, आर्जव आदि भायों तथा उनके साधनोंको घर्म मानना होगा, क्योंकि वे आत्माओ निजी भाव है।' सात्त्विक आहार-विहार, सत्पुरुषोंकी संगति, वोरोपासना आदि कार्यों १, भारतीय धर्मोका अथवा विश्वके प्रायः सभी धोका अध्ययन करनेसे झात होगा कि उन घमौकी प्रामाणिकता का कारण यह है कि परमात्मानं उस धर्म के माम्य सिद्धान्तोंको बतानेवाले अन्यकी स्वयं रचना की है। जब परमात्मा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनशासन से आत्मीय पवित्रताका प्रादुर्भाव होता है इसलिए उन्हें भी उपचारसे धर्म कहा जाता है । यहाँ धर्म के माधनों में साध्यरूप धर्मका उपचार किया जाता है । उस पारम-धर्मको अथका उस आत्म-निर्मलताकी उपलब्धि के लिए आत्माको अनन्त-शक्ति, अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्दके विषयमें अस्व आत्मश्रद्धा', अनात्मपदार्थीम आत्मज्योतिका विश्लेषण करनेवाला आरम-बोध तथा अपने स्वाभाविक आनन्द-स्वरूपमें तल्लीनता रूप आत्मनिष्ठाकी हमें मितान्त आवश्यकता है । इन तीन गुणोंके पूर्ण विकसित होने पर यह आत्मा सम्पूर्ण दुःखोंसे मुक्त हो जाता है । इस अवस्थाको हो निर्वाण या मुक्ति कहते हैं। महापण्डित आशापरने बड़े मार्मिक शब्दोंमें धर्म के स्वरूपको चित्रित किया है "धर्मःपुसो विशुद्धिः सा च सुद्गवगमचारिखरूपा" आत्माकी विशुद्ध मनोवृत्ति-मत्य श्रद्धा, सत्य-शरन तथा सत्यापरण रूप परिण -धर्म है।' अनगारघामृत १,९०) धर्म के नामसे रुष्ट होनेवाले व्यवितोंको इस आत्म-निर्मलता रूप पुण्प तथा परिपूर्ण जीवनकी और व्यक्ति तथा रामाजको पहपाने वाले धर्मके विरुद्ध आवाज जसे परम आदर्शमें अपनी पुस्तक द्वारा कल्याणका मार्ग बताया, तब उसे ब-प्रामाणिक कहने का कौन साहस करेगा ! हां, एक प्रबल तक इस मान्यताकी जड़को शिथिल कर देता कि कति रमाने नाशाय इतर दो या भेजी तो उन पुस्तकों में पूर्णतया परस्पर सामंजस्य होना चाहिए था । ईश्वरकृत रचनामों में निष्पक्ष अध्येताओंको सहज सामंजस्य नहीं दीखता । इसीलिए तो ईश्वरका नाम ले-लेकर और उनकी कथित पुस्तकके अवतरण देकर एक दूसरेको झूठा कहते हुए अपनेको सध्या समझकर संतुष्ट होते हैं । ईश्वरके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश हम आगे स्वतन्त्र अध्यायमें डालेंगे । दुर्भाग्यसे अथरा कल्पनाके सहारे यदि कोई चिन्तक विश्व-नियंता निमित पुस्तकोंके ध्यंत अथवा अभावकी अवस्थाका अनुमान करे तो उसे यह जानकर आश्चर्य होगा कि ग्रन्थोंसे सम्बन्धित "किताबी" कहे जाने वाले धोको बहुत बड़ी संख्या अदृश्य हो जायेगी, उनका अस्तित्व नहीं मिलेगा। किम्मु 'वस्तु-स्वभाव' रूप सुदृढ़ शिलापर अवस्थित धर्म सदा अपना अस्तित्व बनाये रहेगा 1 कदाचित् इसका सारा साहित्य स्लुप्त हो जायें, तो भी प्रकृति की अविनाशी पुस्तक को पढ़कर विवेकी मानव इस प्राकृतिक रूप वर्म के मनोरम मन्दिरको क्षणमात्रमें पुननिर्माण कर सकेगा। इसलिए कहना होगा कि ऐसे प्रकृति की गोदमें पले हुए धर्मको कालबलि कभी भी कोई क्षति नहीं पहुंचा सकता। यथार्थ में सनातनत्वके सच्चे चीज ऐसे धर्म में ही मानना तर्क-संगत होगा। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मको आधारशिला - आत्मत्व १३ उठाने का कोई कारण नहीं रहता। ऐसा धर्म जिस आत्मायें, जिस जातिमें, जिस देशमें अवतीर्ण होता है, वहाँ आनन्दका सुत्रांशु अपनी अमृतमयी किरणोंसे समस्त सन्तापको दूरकर अत्यन्त उज्ज्वल तथा आह्लाद प्रद अवस्थाको उत्पन्न करता है । ऐसे धर्मको अवस्थिति में शत्रुता नहीं रहती । स्वतन्त्रता, स्नेह, समृद्धि, शान्ति सभी आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक आदि सर्वतोमुखी अभिवृद्धिसे वह व्यक्ति अथवा राष्ट्र पवित्र होता है। जब इस पुण्य भू भारतमें धर्ममय जीवनबाली विभूतियोंकर विहार होता था, तब यही भारत सर्वतोमुखी उन्नतिका क्रमस्थल बना हुआ था और मनके शब्दों में इम देशकी गुणगाथा देवता भी गाया करते थे । धर्मकी आधारशिला-- आत्मत्व भारतीय दर्शनों में चार वाक् अर्थात् मधुर-भाषी चार्वाक सिद्धान्त अपना निराला राग आलापता है। इस दर्शनको दृष्टिमें वे ही बातें मान्य हैं जो प्रत्यक्ष ज्ञानका विषय बनती हैं। सुकुमार- बुद्धि तथा भोग-लोकुपी लोगोंको विषयोंमें प्रवृत्त कराने में यह ऐसी तर्कपूर्ण सामग्री प्रदान करता है कि लोग इसके चक्कर में उसी प्रकार फँस जाते हैं, जिस प्रकार मधुके नावूर्यसे आकर्षित मक्षिका मधु पुत्रजमें रसपान करते करते अन्तमें कष्टपूर्वक प्राणोंका विर्सजन कर बैठती है । इस चाकी प्रत्यक्षकी एकान्तमान्यता अनुमान प्रमाणको माने बिना टिक नहीं सकती । कमसे कम अपने सिद्धान्तके समर्थन में वह कुछ युक्ति सो देगा, जिससे प्रत्यक्ष में प्रामाणिकता पायी जाए। उस युक्ति से यदि पक्षसमर्थन किया तो 'साधनात् साध्यविज्ञानम्' रूप अनुमानप्रमाणसे चावकिकी 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण है' इस मान्यताका मूलोच्छेद हुए बिना न रहेगा' । इस विचार प्रणालीबाले धर्मका उपहास करते हुए कहते है- बांके बिना जैसे बांसुरी नहीं बनती, उसी प्रकार आत्मतत्त्वके अभाव मे धर्मको अवस्थिति भी कैसे हो सकती है। ऐसी स्थितिमें धर्म द्वारा उस काल्पनिक आत्माके लिए १. प्रत्यक्षं प्रमाणम् अविसंवादित्वात् अनुमानादिकमप्रमाणं विसंवादित्वादिति लक्षयतोऽनुमानस्य बलात् व्यवस्थितेनं प्रत्यक्षमेकमेव प्रमाणमिति व्यवतिष्ठते ।" अष्टसहस्री विद्यामन्दि १० ९५ । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जेनशासन शान्ति तथा सुखको साधनसामग्री एकत्रित करना ऐसा ही है जैसे किसी कविका यह कहना-"देखो, वंध्याका पुत्र चला आ रहा है'.उसके मस्तकपर आकाशपुष्पोंका मुकुट लगा हुमा है, उसने मृग-तृष्णाके जाल में स्नान किया है, उसके हाथमें खरगोशके सींग का बना धनुष है ।" । ___ इसलिए आधिभौतिक पण्डित इन्द्रियोंको सन्तुष्ट करते हुए जीवन व्यतीत करने की सलाह देते हैं । जब म रशके उपरान्त शरीर भस्म हो जाता है, तब आत्माके पुनरागमनका विचार व्यर्थ और कल्पनामात्र है ।' अतएव, यदि पासमें सम्पत्ति न हो तो भी "ऋणं कृत्वा प्रतं पिबेत' कर्जा लेकर भी घी पियो । स्व. लोकमान्य तिलकने पश्चिमी आधिभौतिक पवितोंको लक्ष्य करके 'घृतं पिबेत्' के स्थान पर 'सुरा पिवत' का पाठ सुझाते हुए यूरोपियन लोगोंकी मद्य-लोलुपताका मधुर उपहास किया है । पाश्चात्य दार्शनिक कांट (Kant) के विषय में कहा जाता है कि एक बार पर्यटन करते हुए घोखसे उसकी छड़ी एक भद्र पुरुषको लग गई । उसने इस प्रमादपूर्ण वृत्तिको देख पूछा-महाशय आप कौन है ? उत्तरमें काटने कहा-"If I owned the whole world, I would give you one-half, if you could answer that question for mc""कदाचित् मैं सम्पूर्ण जगत् का स्वामी होता, तो मैं तुम्हें आघी दुनियाका अधिवि, बता दे, मार तुम स प्रश्नका उत्तर स्वयं दते, कि 'मैं कौन हूं।" भ्रान्तिके कारण यह जीव 'मैं' को नहीं जानता ।। धर्म-तत्त्वके आश्रमस्वरूप यात्माको आधिभौतिक पण्डित जड़-तत्त्वों के विशेष सम्मिश्रणरूप समझते हैं । उन्हें इस मातका पता नहीं है कि अनुभव और प्रमल युक्तिवाद आत्मा सद्भावको सिद्ध करते है । ज्ञान आत्माको एक ऐसी विशेषता है जो उसके स्वतन्त्र अस्तित्वको सिद्ध करतो है । पंचाध्यायीमें लिखा है कि प्रत्येक मात्मामें जो हम्' प्रत्यय-'मैं' पनेका बोध है वह जीवके पृथक् अस्तित्वको सूचित करता है। कार्ट कहता है-"Cogito ergo Sum." I think, therefore I am- विचारता हूँ, इस कारण मेरा अस्तित्व है । प्रो० मेक्समूलर ठीक इसके विपरीत शब्दों द्वारा आत्माका समर्थन 1. "While life is yours, live joyously, None can escape Death's searching eye, When once this frame of ours they bum, How shall it e'er again return?" २. वैखो-गीतारहस्य' । ३. "अहंप्रत्ययवेद्यस्यात् जोवस्यास्तित्वमन्वयात् ।" Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकी आधारशिला - आत्मत्व करते हुए कहते हैं-'मेरा अस्तित्व है मतव मैं सोचता हूँ -- I am therefore I think. ' जीवकी प्रत्येक अवस्थामें उसका ज्ञान गुण उसी प्रकार सदा अनुगमन करता है, जिस प्रकार अग्निके साथ-साथ उष्णताका सद्भाव पाया जाता है । सोते-जागते प्रत्येक अवस्था में इस आत्मामें 'अहं प्रत्यय' - - नेका बोध पाया जाता है | यही कारण है कि निद्रा में अनेक व्यक्तियोंके समुदायमें से व्यक्तिविशेषका नाम पुकारा जानेपर वह व्यक्ति ही उटता है, कारण, उसकी आत्मामें इस बात का ज्ञान विद्यमान है कि मेरा अमुक नाम है । १५ जो व्यक्ति महुआ बादि मादक वस्तुओंके सन्धानमें विशेष उन्मादिनी शक्तिकी उद्भूति देख पृथ्वी, जल आदि तत्त्वोंके सम्मिश्रणसे चैतन्यके प्रकाशका आविर्भाव मानते हैं, वे इस बातको भूल जाते हैं कि जब व्यक्तिशः जड़ तवों में सम्यका लवलेश नहीं है, तब उनकी समष्टिमें अद्भुत चैतन्यका उदय कहाँसे होगा ? एक प्राचीन जैन आचार्यका कथन है कि आत्मा शरीरोत्पत्ति के पूर्व था एवं शरीरान्सके पश्चात् भी विद्यमान रहता है “तत्काल उत्पन्न हुए बालकमें पूर्वजन्मगत अभ्यासके कारण माताके दुम् पातकी ओर अभिलापा तथा प्रवृत्ति पायी जाती है । मरणके पश्चात् व्यन्तर आदि रूपमें कभी-कभी जीवके पुनर्जन्मका बोध होता है । जन्मान्तरका किसी किसोको स्मरण होता है। जड़-तत्वका जीवके साथ अन्वय-सम्बन्ध नहीं पाया जाता। इसलिए, अविनाशी आत्माका अस्तित्व माने दिना अन्य गति नहीं है । ว ๆ 'न्यायसूत्र' के रचयिता कहते हैं-"यदि जन्मके पूर्व में आत्माका सद्भाव न होता, तो वीतराग भाव सम्पन्न शिशु का जन्म होना चाहिए था, किन्तु अनुभवसे ज्ञात होता है कि शिशु पूर्व अनुभूत वासनाओं को साथ लेकर जन्म-धारण करता है । 112 . आत्मा के विषय में एक बात उल्लेखनीय है कि वह अपनेको प्रत्येक वस्तुका ज्ञाता के रूप में (Subjectively ) अनुभव करता है और अन्य पदार्थोंको केवल ज्ञेयरूपसे (Objectively ) ग्रहण करता है। भाषा विज्ञानको दृष्टिसे भी आत्माका अस्तित्व अंगीकार करना आवश्यक है, अन्यथा उत्तम पुरुष ( First Person) के स्थान में अन्यपुरुष या मध्यमपुरुष रूप शब्दोंके द्वारा ही लोक व्यवहार होता । अंग्रेजी भाषामें आरमाका वाचक 'I' शब्द सदा बड़े अक्षरों में (Capital letter ) लिखा जाता है। क्या यह आत्माको विशेषताकी ओर संकेत नहीं करता है ? १. " उक्तं चतुदर्ज स्तने हातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः । भूतानन्वयनात् सिद्धः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥" - प्रमेय रत्नमाला पू० १८१ २. "बीतरागजन्मादर्शनात् " - न्यायसू० ३११।२५। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन विल्याप्त वैज्ञानिक सर ओलिवर लोजने अपने गम्भीर प्रयोगों द्वारा मरणके उपरान्त मात्माके अस्तित्वको प्रमाणित किया है। हरदूलियन (Terrulian) नामक यूरोपियन पण्डित लिखता है कि आरमा एक मौलिक खण्ड-बिहीन (Simpic and indivisible) वस्तु है । अतएव उसे अविनाशी होना चाहिए। कारण अखण्ड तथा मूलभूत असंयुक्त पदार्थ बिनाया-विहीन होता है । आत्मामें जो शान उत्पन्न होता है, वह खण्ड-खण्ड रूपन होकर अखण्ड समष्टि रूपमें पाया जाता है। उदाहरणार्थ हम कहते हैं 'आम एक मधुर फल है' इस शब्दमालिकामें परस्परमें भेद होते हुए भी हमें 'मा' 'म' 'ए' 'क' आदिका पृथक पृषक बोध न होकर समष्टि रूपसे थाम वस्तुका परिमान होता है । यह ज्ञान भौतिक मस्तिष्कसे उत्पन्न नही होता । इस ज्ञानकी पुनरावृत्ति भी की जा सकती है। इस कारण, जड़तत्त्वसे भिन्न (linmaterial) तत्वका सद्भाव मानना चाहिए । मकवानल, शापन हापर, लेसिंग, हर्डर आदि पश्चिम के चिन्तकोंने आत्माको मौलिकताको एवं अविनाशिताको स्वीकार किया है । अमूर्तिक आत्माका विचार अनुभवका विषय है, वह भौतिक विज्ञानको परिधिके बाहरकी वस्तु है 1 मनोवैज्ञानिक शोधनमण्डल (Psychical Research Society) ने आत्माके अस्तित्वको स्वीकार किया है। महाकवि कालिदास अपने अभिज्ञानशाकुन्तलमें लिखते हैं-कभी कभी सुखी प्राणी भी मनोरम पदार्थोंका दर्शन, मधुर शब्दोंका श्रवण करते हुए भी अत्यन्त उत्कंठित हो जाता है। इससे प्रतीत होता है कि वह अन्तःकरणमें अंकित पूर्वअन्मक प्रेमको स्मरण करता है ।" कविका भार यह है कि अनुकल तथा प्रिय वातावरण में विद्य मान मुखी व्यक्तिको मनोवृत्ति में परिवर्तन होनेका कारण जन्मान्तरके संस्कारोंका प्रभाव है। 1. Hindustan Review, 2, A Scientific Interpretation of Christianity by Dr. Elizabeth Fraser. p. 20. 3. "The investigations of the Psychical Research Society have conclusively established the existence of the soul and in some cases even the truth of the theory of transmigration"-Key of Knowledge', ४. "रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान् पर्युस्सुकीमवति यत्सुखितोऽपि जन्तुः । सच्चेतसा स्मरसि नूनमबोधपूर्वम् भावस्पिराणि जन्मान्तरसौदानि ॥"-अंक ५, पृ० १४० । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकी आधारशिला - आत्मत्व १७ पश्चिमका सन्तकविवर्ड सवर्थ ( Wordsworth ) कहता है- "हमारा जन्म एक ऐसी निद्रित अवस्था है, जिससे पूर्व जन्म के अस्तित्वको अनुभूति विस्मृत हो जाती है । जिस आत्माका शरीर के साथ जन्म होता है वह हमारे जीवनचा एक ऐसा नक्षत्र है जो पूर्व में दूसरी जगह अस्तंगत हुआ था। और जो बड़ी दूर ले माता है ।" ड्रायडनका कथन भी बड़ा मार्मिक है-"अविनाशी आत्माका विनाश करनेकी क्षमता मृत्यु नहीं है। जब विद्यमान शरीरका मृतिकारूप गरिगमन होता है, तब आत्मा अपने योग्य नवीन आवास स्थलका अन्वेषण कर लेता है एवं अबाध गति से अन्य शरीरमें जीवन तथा ज्योति भर देता हूँ।" विमल प्रकाश प्राप्त उत्पन्न होनेवाले तार्किक-शिरोमणि अकलंङ्क स्वामोसे इस विषयमे अत्यन्त होता है। उनका युक्तिवाद इस प्रकार है- "आत्मा के विषय में ज्ञानके विषय में सभी विकल्पों द्वारा आत्माकी सिद्धि होती है। आत्माके विषय में यदि सन्देह है तो भी मानसिह होता है, क्योंकि, सन्देह अवस्तुको विषय नहीं करता । संशय ज्ञान उभय कोटिको स्पर्श किया करता है । आत्माका यदि अभाव हो तो दो विकल्पोंकी ओर झुकनेवाले ज्ञानका उदय कैसे होगा ? अनध्यवसाय ज्ञान भी जात्यन्धको रूपके समान प्रकृत में बाधक नहीं है। कारण अनादिसे आत्माका परिज्ञान होता आया है। विपरीत ज्ञानके माननेपर भी आत्माका अस्तित्व सिद्ध होता है, पुरुष को देखकर उसमे स्थाणु- रूप विपरीत बोधके द्वारा जैसे स्याणुको सिद्धि होती है, उसी प्रकार आत्माका यथार्थ दोष होगा । आत्मा के विषय में समीचीन बोध माननेपर उसका अस्तित्व अबाधित सिद्ध होता ही है।" (तस्वार्थराजवासिक रा८ ) स्वामी समन्तभद्रा युक्तिवाद इस विपयको और भी हृदय ग्राही बनाता है"जैसे 'हेतु' शब्द 'हेतु' रूप अर्थका बोध होता है, क्योंकि हेतुशब्द संज्ञारूप है, इसी प्रकार 'जीव' शब्द अपने वाच्य रूप 'आत्मा' नामक बाह्य पदार्थको स्पष्ट करता है, क्योंकि 'जोव' शब्द भी संज्ञा रूप है। संज्ञारूप वाचकका विषय-भूत 1. Oar birth is but a sleep and a forgetting, The soul that rises wits us, our life's star Hath had elsewhere its setting, And cometh from afar-Ode on Intimations of immortality 2. Death had no power the immortal soul to stay. That when its present body turns to clay, Seeks a fresh hotne and with unlessened might, Inspires another frame with life and light. २ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ जैनशासन वाच्य पदार्थ होना चाहिए। जैसे 'प्रमाण' शब्द प्रत्यक्ष आदि प्रमाण रूप प्रमाणको बताता है, वैसे ही माया आदि भ्रान्तिपूर्ण शब्द अपने-अपने बाप-भूत माया कादि पदार्थोंका परिज्ञान कराते हैं ין स्याद्वाद - विद्यापति आचार्य विधानविका कथन है- 'यह 'जीव' शब्दका उपहार आत्मतत्त्वको छोड़कर शरीर के विषय मे प्रसिद्ध नहीं है; कारण शरीर अवेतन है और वह आत्माके भोगका आश्रयरूपसे प्रसिद्ध है, आत्मा तो भोक्ता है । इन्द्रियों में भी 'जीव' व्यवहार नहीं होता, कारण उनकी उपभोग के सावन रूपसे प्रसिद्धि है-जैसे हम कहते हैं मैं' 'आँखों' 'से' 'देखता' 'है' यहाँ 'देखना ' रूप क्रियाका साधन ने इन्द्रिय है। देखनेवाला मात्मा पृथक पदार्थ हैं। रूप-रस-गंध शब्द आदि इन्द्रियोंके विषय में 'जीव' शब्दका व्यवहार करना उचित नहीं है, कारण हे भोग्यरूपसे विख्यात है-जैसे 'में' 'पानी' 'पीता' 'हूँ' । यहां पीना क्रियाके पियमें पानों रूप भोग्य पदार्थका ग्रहण किया जाता है तथा 'मैं' शब्द कर्ता आत्माको बताता है। बतएव भोक्ता आत्मा ही 'जीव' पद चाच्य है । चैतन्यको शरीर आदिका कार्य माननेपर आत्मामें भोक्ता पनेकी बुद्धिका ओचित्य सिद्ध नहीं होता 1 " अकलंक स्वामी भाषा शास्त्रियोंके इस सन्देहका भी निराकरण करते हैं कि 'शीव' शब्द के सद्भावमें भी जीव रूप अर्थ न मानें तो क्या बाबा है ? कारण प्रत्येक शब्दका अपने वाच्यार्थ के साथ निश्चित सम्बन्ध हो, ऐसा विदित नहीं होता । इस भ्रम के निराकरण में आचार्य कहते हैं- 'जीव' शब्द से उत्पन्न होनेवाला जीव अर्थका वो अबाधित है । जैसे, धूमदर्शन से अग्निका परिज्ञान किया जाता हूँ और अबाधित होनेसे उस ज्ञान पर विश्वास किया जाता है उसी प्रकार प्रकृत प्रसंग में समझना चाहिए। मरीचिका में उत्पन्न होनेवाला जलका ज्ञान बाधित होने से दोषयुक्त हूँ। जो ज्ञान अबाधित है उसे निर्दोष मानना होगा। इस नियमानुसार 'जीव' शब्द वास्तविक 'जीव' अर्थको घोषित करता है । उस जो की हर्ष-विषाद आदि अवस्थाएं हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति के अनुभवगोवर है और प्रत्येक शरीर में पृथक-पृथक अनुभव में आता है। इस अनुभव का परित्याग भी नहीं किया जा सकता । यहाँ अनुभव अपना निषेध करनेवाले १. "जीवशब्दः सबाह्यर्थः सशास्वात् हेतुशब्दवत् । मायादिभ्रान्तिसज्ञाश्च मायाद्यैः स्वैः प्रयोवितवत् ||" -आप्तमीमांसा श्लो० ८४ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-निर्माता भ्यक्तिको स्वयं अपना परिचय कराता है । इस प्रकार युक्ति, अनुभव आदि जिस आत्म-तत्त्वको सिद्ध करते हैं, उसके धर्म आदिकी अभिव्यक्ति करने में प्रयत्नशील होना प्रत्येक चिन्तक तथा समीक्षकका परम कर्तव्य है। विश्व निर्माता मात्मा नामक पदार्थ के स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होनेपर चित्त में यह सहज शंका उद्भुत होती है, कि आत्मत्व अथवा पैतन्यकी दृष्टि से जब सब आत्माएं समान है, सब उनमें दुःख-सुखका तरतम भाव अथवा विविध वृत्तियां क्यों दृष्टि गोचर होती है ? यदि इस समस्याको सुलझाने के लिए लोक-मतका संग्रह किया जाए तो प्रायः यह उत्तर प्राप्त होगा-''जीवोंका भाग्य ईश्वरके अधीन है, वही विश्व-नियन्हा उन्हें उत्पन्न करता है, रक्षण करता है तथा अपने-अपने कर्मानुसार विविध योनियोंमें भेज उन्हें दण्डित का पुरस्कृत करता है।' वेदव्यास महाभारतमें लिखते हैं-'यह जीव बेचारा अमानी है, अपने दुःख-सुख के विषयमें स्वाधीन नहीं है, यह तो ईश्वरकी प्रेरणानुसार कभी स्वर्ग में पहुंचता है, तो कभी मरकमें 1 . एक ईश्वर-भक्त अपने भाग्य निर्माणके समस्त अधिकार उस परमात्माके हाथमें सौंपते हुए लोगोंको शिक्षा देता है दुनियाके कारखाने का खुदा खुद खानसामा है। न कर तू फिक्र रोटोकी, अगर्चे मदंदाना है ।। १. "भावश्चात्र हर्षविषादाद्य नेकाकारविवर्तः प्रत्यास्मवेदनीयः, प्रतिशरीरं भेदात्मकोऽप्रत्याख्यानाहः प्रतिक्षिपन्तमात्मानं प्रतिबोधयतीति कृतं प्रयत्नेन ।" -अष्टशतो २, "अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःस्वयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत स्वर्ग का स्वभ्रमेव वा ।।" महाभारत वनपर्व ३०१२८ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन इस विचारधारा अकर्मण्यताकी पुष्टि देख करने में प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है। हो, कर्मो के दाताका कार्य करता है । २० कोई चिन्तक सोचता है कि जब जीव स्वेच्छानुसार कर्म करने में स्वतन्त्र है और इसमें परमात्मा के सहयोगको आवश्यकता नहीं है तब फलोपभोग में परमात्माका अवलम्बन अंगीकार करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता। एक दार्शनिक कवि कहता है को काको दुख देत है, देत करम झकझोर | उरले-सुरझे आपही ध्वजा पवनके जोर || 'भैया' भगवतीदास | 1 कोई कोई यह कहते है कि कर्म फल- विभाजन में परमात्मा न्याय अध्यात्म रामायण में कहा है- सुख-दुःख देनेवाला कोई नहीं है। दूसरा सुखदुःख देता है यह तो कुबुद्धि ही है- "सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।" I इस प्रकार जीवके भाग्य निर्णय के विषयमें भिन्न-भिन्न धारणाएँ विद्यमान है । इनके विषय में गम्भीर विचार करनेपर यह उचित प्रतीत होता है कि अन्य विषयोंपर विषार स्थानमें पहिले परमात्मा के विषय में ही हम समीक्षण कर लें कारण, उस गुल्मीको प्रारम्भ में सुलझाए बिना दस्तुत्तस्वकी तहतक पहुँचने में तथा सम्यक् चिन्तनमें बड़ी कठिनाइयां उपस्थित होती हैं । विश्वको ईश्वरको क्रीड़ा-भूमि अंगीकार करनेपर स्वतन्त्र तथा समीचीन चिन्तनाका लांत सम्यक्रूपसे तथा स्वच्छन्द गति से प्रवाहित नहीं हो सकता। जहाँ भी तर्कणाने आपत्ति उद्यायी वहाँ ईश्वरके विशेशधिकारके नामपर सब कुछ ठीक बन जाता है क्योंकि परमात्मा के दरबार में कल्पनाकी बटन दबायी कि कल्पना और तर्कसे अतीत तथा affese arer परीक्षण में न टिकनेवाली बातें भी यथार्थताकी मुद्दासे अंकित हो जाती हैं । १. "ईश्वरा सिद्धेः ।" ईश्वरको विश्वका भाग्य-विधाता जैन दार्शनिकोंने न मानकर उसे ज्ञान, आनन्द, शक्ति आदि अनन्य गुणका पुञ्ज परम आत्मा (परमात्मा ) स्वीकार किया है। इस मौलिक विचारस्वातन्त्र्य के कारण महान् दार्शनिक चिन्तनकी सामग्रीके होते हुए भी वैदिकदार्शनिकोंने षट्दर्शनोंकी सूची में जैन दर्शनको स्थान नहीं दिया । अस्तु, प्रसिद्ध षट् दर्शनों में अपना विशिष्ट स्थान रखनेवाला सांख्यदर्शन ईश्वर-विषयक जैन- विचार - शैलीका समर्थन करता है'। सेश्वर सांख्य सांख्य བྷ॰ ० ११९२ । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-निर्माता २१ नामसे विख्यात योगदर्शन भी ईश्वरको जगत्‌का कतई नहीं मानता। वह क्लेश कर्मविपःकाय असम्बन्चित पुरुष-विशेषको ईश्वर कहता है'। न्याय और वैशेषिक सिद्धान्तने मूल परमाणुओं आदिका अस्तित्व मानकर ईश्वरको जगत्वा उपादान कारण न मान निमित्तकारण स्वीकार किया है । पूर्वमीमांसा दर्शन भी निरीश्वर सांख्य के समान कर्त्तावाद निरोध करता हुँ । उत्तर-मीमांसा अर्थात् वैशन्त में भी ईश्वर कतृत्वका तत्त्वतः दर्शन नहीं होता है । उस दर्शन में इस विश्वको ब्रह्मका अभिव्यक्त विवर्त माना है 1 इस प्रकार, त्रान्त भावसे दार्शनिक वाङ्मयका परिशीलन करनेपर विदित होता है कि जैनदर्शन के कर्तृत्व सिद्धान्त में बहुतमे दार्शनिकोंने हाथ बंटाया है । फिर भो, यह देखकर आवचयं होता है कि केवल जैन दर्शन पर ही नास्तिकताका दोष लादा गया है। इसका वास्तविक कारण यह मालूम होता है कि जैनधर्मऋग्वेदादि वैदिक वाङ्मयको अपने लिए पत्र प्रदर्शक नहीं मानता। शुद्ध अहिंसात्मक विचारप्रणालीको अपनी जोवनिधि माननेवाला जैन तत्वज्ञान हिसात्मक बलि- विमान के प्रेरक वैदिक वाङ्मयका किस प्रकार समर्थन करेगा ? इसका क यह नहीं है कि जैनदार्शनिक वेद (ज्ञान) के विरोधी हैं। धर्म प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप अपने अहिंसामय विशिष्ट ज्ञानपुञ्जका आराधक है । भगवजिनसे ने अहिंसामय निर्दोष जेनधर्म में वर्णित द्वादशांगमय महाशास्त्रों को ही वेद माना है । - (आदिपुराण) जैन दर्शन क्रोध मान-भाया - लोभ, हास्य, भय विस्मय आदि विकारोंसे रहित वीतराग, सर्वज्ञ परम आत्माको ईश्वर मानता है । वह विश्वकी क्रीड़ा में किसी प्रकार भाग नहीं लेता । वह कृतकृत्य है, विकृतिविहीन है तथा सर्व प्रकारको पूर्णताओं से समन्वित है। उसी परमात्माको राग, द्वेष, मोह, अज्ञान आदिसे अभिभूत व्यक्ति अपनी भावना और अध्ययनके अनुसार विचित्र रूपसे चित्रित करते है । आत्मत्वकी दृष्टि से हममें और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है, केवल इतना ही भेद है कि हममें देवी शक्ति प्रसुप्त स्थिति में हैं और उनमें उन गुणोंका पूर्ण विकास होनेसे आत्माएँ एकीस बन चुकी हैं इतनी निर्मल और प्रकाशपुर्ण है कि उनके आलोकमें हम अपना जीवन उज्जवल और दिव्य बना सकते हैं। विद्यावारिधि बैरिस्टर सम्पतरायजोने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'को ऑफ नॉलेज' (Key of Knowledge ) में लिखा है - १. क्लेशकर्म विपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर:" योगसूत्र ११२४॥ India — P. 189-191, २. देखो - मुक्तावली, The cultural Heritage of Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन Man-Passions = God, God + Passions = Man. अति मनुष्य--वासनाएँ - ईश्वर, ईश्वर + वासनाएं - मनुष्य । जन दार्शनिकोंने परमात्माका पद प्रत्येक प्राणीके लिए आत्मा-जागरण द्वारा सरलतापूर्वक प्राप्तब्य बतलाया है। यहाँ ईश्वरका पद किसी एक व्यक्ति विशेषके लिए सर्वदा सुरक्षित नहीं रखा गया है । मनन्त आत्माओंने पूर्णतया आरमाको विकसित करके परमात्मपदको प्राप्त किया है तथा भविष्यमै प्राप्त करती रहेंगी । सच्ची साधनावाली आत्माओंको कोन रोक सकता है ? वास्तविक प्रयत्न-शून्य दुर्बल अपवित्र आत्माओंको किसी विशिष्ट शक्तिकी कृपा द्वारा मुक्ति में प्रविष्ट नहीं करनाया जा सकता । जैन दर्शनके ईश्वरवादको पत्ताको हृदयंगम करते हुए एक उदारचेता विद्वान्ने कहा था-''यदि एक ईश्वर माननेके कारण किसी दर्शनको 'आरितक' संज्ञा दी जा सकती है, तो अनन्त आत्माओं के लिए मुक्तिका द्वार उन्मुक्त करने वाले जैन-दर्शनमें अमन्त गुणित आस्तिकता स्वीकार करना न्याय प्राप्त होगा ।" परमात्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति तथा अनन्त दर्शन आदि गुणोंका भण्डार है। वह संसार-चक्रमें परिभ्रमण कर अन्मजरा-मरणकी यन्त्रणा नहीं उठाता । उस ज्ञान, आनन्द, बीतराग, मोह-विहीन, वीस-द्वेष, निभीक, प्रशान्त, परिपूर्ण परमात्माका विश्वके मुख दुःख-दान में हस्तक्षेप स्वीकार करनेपर वह आत्मा राग-द्वेष , मोह आदि दुर्बलताओंसे पराभूत हो साधारण प्राणीको श्रेणी में आ जाएगा। जब, परमात्मामे परम करुणा, त्रिकालज्ञता और मर्यादातीत शक्तिका भण्डार विद्यमान है, तब ऐसे समर्थ और कुशल व्यक्तिक तत्त्वावधान या सहयोगसे निर्मित जगत् सुन्दरता, पूर्णता तथा पवित्रताको साकार प्रतिमा बनता और कहीं भी दुःस और अशान्तिका लय-लेश भी न पाया जाता । कदाचित् परिस्थितिविशेषवश कोई पथ-भ्रष्ट प्राणी विनाशकी ओर झुकता, तो वह करणा-सागर पहिले ही उस पय-भ्रष्टको सुमार्गपर लगाता और तब इस भूतलका स्वरूप १, हो • वासुदेव शरण अग्रवाल ने ९-१०-६४ के पत्र में लिखा या जैनधर्म ईश्वरमे विश्वास रखता है। इस आधारपर उसे आस्विक मानने में कोई आपत्ति नहीं है। मूर्धन्य साहित्यकार माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा था 'मैं तो जनधर्म को आस्तिक मानता हैं, क्योंकि वह ईश्वर और परलोकको स्वीकार करता है।" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-निर्माता दर्शनीय ही नहीं, सर्वदा वन्दनीय भी होता । विश्वके विधान में विधाताका हस्तक्षेप होता, तो एक कविके शनोंमें सुवर्ण में सुगन्ध, इन में फल, चन्दनमें पुष्प, विद्वान्में घनाठ्यता और भूपतिम दीर्घजीवनका अभाव न पाया आता। प्रभकी भक्ति में निमान पुरुष निर्मल आकाश, रमणीय इन्द्रधनुष, विशाल हिमाचल, अगाध और अपार सिन्धु, मुगन्धित तथा मनोरम पुष्प आदि आकर्षक भामग्रीको देखकर प्रभु की महिमाका गान करते हुए उन मुन्दर पदार्थों के निर्माणके लिए उस परम पिताके प्रति हार्दिक श्रद्धांजलियां अर्पित करता है। किन्तु जब उमी भक्तकी दृष्टिमें इस जगतकी भीषण गन्दगी. बाह्य तथा आन्तरिक मा अनर नियतः गाही . मला पदार्थोसे परमात्माका न्यायप्राप्त सम्बन्ध स्वीकार करने में उसकी आत्माको अत्यधिक ठेस पहुँचती है । कौन ज्ञानवान् मांस-पीप-रुधिर-मल-मूत्र सदश बीभत्स घस्तुओंमें जीवोंकी उत्पत्ति करनेके कौशल प्रदर्शनका श्रेय सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् परमानन्दमय परमात्माको प्रदान करनेका प्रयत्न करेगा! शान्त भावसे विचार करने पर यह शंका प्रत्येक त्रिन्तकफे अन्तःकरणमें उत्पन्न हुए बिना नहीं रहेगी कि उस परम प्रवीण पिताने अपनी श्रेष्ठ कृति रूप इस मानव-शरीरको 'पल-रुधिर-राध-मल थैली, कोकम वसादित मैली' बनानेका कष्ट क्यों चटाया ? यदि विचारक व्यक्ति परमाता के प्रयत्नके बिना अपवित्र तथा घणित पदार्थों का सद्भाव स्वीकार करने का साहस करता है, तो उसे अन्य पदार्थोंके विषय में भी इसी न्यायको प्रदर्शित करनेका सत्-हाहस दिखानेमें कौन-सी भाषा है। __ 'असहमत संगम' 'Confluence of opposites में इस काका समाधान किया है कि जगत रूप कार्य का कर्ता ईश्वर को क्यों नहीं माना जाय ? जगतका बनानेवाला ईश्वर है, तो ईश्वर का बनानेवाला अन्य होगा, उसका भी निर्माता १. 'गन्धः सुवर्ण फलमिनु कापडे, नाकारि पुष्प खस्नु चन्दनेषु । विद्वान धनी भूपतिदीर्घजीवी धातुः परा कोऽपि न युद्धिदोऽभूत् ।।" 2. "It is certainly not an universal truth that all things require a maker, What about the food and drink that are converted in the human and animal stomach into urine, faeces ard Alth? Is this the work of a God? | shall never believe that a God gets into the human and animal stomach and intestines and there employs himself in the manufacture, storage and disposal of fith, Now if this dirty work' is not done by a God or Goddess, but by the operation of different Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनशासन कोई अन्य मानना पड़ेगा। इस प्रकार बढ़नेवाली अनवस्था के निवारणार्थ यदि ईश्वरका सद्भाव बिना अन्य कर्ता के स्वीकार किया जाता है, तो यही नियम जगत्के विषय में भी मानना होगा । कमसे कम ऐसी बात तो नहीं स्वीकार की जा सकती कि परम आत्मा मनुष्य या पशुके पेटमें अपनी शक्ति द्वारा मलमूत्रादिका निर्माण करता रहता है। यदि भौतिक और रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा पेटमें उपरोक्त कार्य होता है, ऐसा अंगीकार करनेपर यह धारणा, कि प्रत्येक पदार्थका निर्माता होना ही चाहिए, धराशायी हो जाती हैं । प्रभुको महिमाका वर्णन करते हुए राम भक्त कवि तुलसी कहते हैं— 'सीयराममय सब जग जानी' दूसरा कवि कहता है- 'जले विष्णुः यले विष्णुः शाकाशे विष्णुरेव च " - इन भक्तजनोंकी दृष्टि में विश्व के कण-कण में एक अखण्ड परमात्माका बास है। सुनने में यह बात बड़ी मधुर मालूम होती है, किन्तु तर्कको कसोटीपर नहीं टिकती। यदि सम्पूर्ण विश्व में परमात्मा ठसाठस भरा हुआ हो तो उसमें उत्पाद व्यय गमनागमन आदि क्रियाओंका पूर्णतया अभाव होगा। क्योंकि, व्यापक वस्तु परिस्पन्दन रूप क्रियाका सद्भाव नहीं हो सकता । अतः अनादिसे प्रवाहित वेतन के प्राकृतिक संयोग-वियोग रूप इस जगत्के पदार्थों में स्वयं संयुक्तवियुक्त होनेकी सामर्थ्य है, तब विश्व विधाता नामक अन्य शक्तिको कल्पना करना तर्कसंगत नहीं है । वैज्ञानिक जूलियन हक्सले कहता है-" इस या क्या है ? जहाँ तक हमारी दृष्टि जाती है, kinds of elements and things on one another, in other words bodily products be the result of purely of physical and chemical process going on in the stomach, intestines and the like it is absolutely untrue to say that it is a rule in nature according to which every thing must have a maker or manufacturer. The argument is also self-contradictory with respect to the maker of that supposed world-maker of ours, for on the supposition that every thing must have a maker, we should have a maker of the maker and another maker of this maker's maker and so forth. There is no escape from this difficulty, except by holding that the world-maker is self-existent. But if nature could produce an 'unmade' maker, there is nothing surprising in its producing a world that is self-sufficient and capable of progress and evolution." -Confluence of Opposites p, 291. विश्वपर शासन करनेवाला कौन यहाँ तक हम यही देखते हैं कि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-निर्माता २५ freet for स्वयं अपनी ही शक्ति हो रहा है । यथार्थ में देश और उसके शासकको उपमा इस विश्वके विषयमें लगाना मिथ्या है।" कर्तुत्व पक्षवालोंके सहझ यह युक्ति भी उपस्थित की जाती है कि जब कर्त्ताके अभाव में प्रकृतिसिद्ध सनातन ईश्वरका सद्भाब रह सकता है और इसमें कोई आपत्ति या rouser नहीं आती है, तब यहो न्याय जगत्के अन्य पदार्थोके कवके विषय में क्यों न लगाया जाए ? ऐना कोई प्रकृतिका बटल नियम भी नहीं है कि कुछ वस्तुओंका कर्त्ता पाया जाता है, इसलिए सब वस्तुओंका कर्सा होना चाहिए। ऐसा करनेसे तर्कशास्त्रभत अल्प-पदार्थ-सम्बन्धी नियमको सार्वत्रिक पाया जानेवाला नियम मानने रूप दोष (Fallacy) आयेगा | इस प्रसंग में 'की ऑफ नॉलेज'की निम्न पंक्ति उपयुक्त हैं "सृष्टिकर्तृत्व के विषयमें यह प्रश्न प्रथन उपस्थित होता है कि ईश्वर ने इस विश्वका निर्माण क्यों किया ? एक सिद्धान्त कहता है कि इससे उसे आनन्दकी उपलब्धि हुई, तो दूसरा कहता है कि वह अकेलेपन का अनुभव करता था और इसलिए उसे साथी चाहिए थे। तीसरा सिद्धान्त कहता है कि बहू ऐसे प्राणियोंका निर्माण करना चाहता था जो उसका गुणगान करें तथा पूजा करें। चौथा पक्ष कहता है कि यह विनोदवश विश्वनिर्माण करता है। इस विषय में यह विचार उत्पन्न होता है कि विश्वकर्त्ता की ऐसा जगत् निर्माण करनेको इच्छा क्यों हुई जिसमें बहुत बड़ी संख्या में प्राणियोंको नियमतः दुःख और शोक भोगने पड़ते हैं ? उसने अधिक सुखी प्राणो क्यों नहीं बनाए जो उसके साथ में रहते 1. Who and what rules the Universe? So far as you can see, it rules itself and indeed the whole analogy with a country and its ruler is false.-Julian Huxley. 2. "The first question, which arises in connection with the idea of creation is, why should God make the world at all? One system suggests, that he wanted to make the world, because it pleased him to do so, another, that he felt lonely and wan ted company, a third, that he wanted to create beings who would praise his glory and worship; a fourth, that he does it in sport and so on. Why should it please the creator to create a world, where sorrow and pain are the inevitable lot of the majority of his creatures? Why should he not make happier beings to keep him company ?"-Key of Knowledge P. 135. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनशासन कत्तु त्वका परमात्मामें आरोप करनेसे वह इन्दनीरा विमति राग-द्वेष मोड़ आदि विकारयुक्त बन साधारण मानयके धरातलपर आ गिरेगी और ऐसी स्थिति में वह दिव्यामंदके प्रकाशसे वंचित हो पवित्र आत्माओंका आदर्श भी न रहेगी। कर्तृत्वयुक्त परमात्माके विरुद्ध विवेकके न्यायालयमें बैरिस्टर वापतापजोका यह भारोप विशेष आकर्षक तया प्रभाबक मालूम होता है-"जिसने मलिनताकी मूर्ति अत्यन्त बीभत्स मल-मूत्रकी खानि स्वरूप शरीर में इस मानवको उत्पन्न करके उस शरीरके ही भीतर इसे कैद कर रखा है, वह परम-पिता, परम-दयालु, बुद्धिमान परमात्मा जैसी पवित्र वस्तु नहीं हो सकती। ऐसो कृति तो निर्दयता एवं प्रतिशोधक दुर्भावको स्पष्टतया प्रमाणित करती है।" पं. जवानरलाल नेहरू अपने आत्म-चरित्र 'मेरी कहानी' में अपने हृदय के मामिक उद्गारोंको ध्यक्त करते हुए लिखते है.--"परमात्माको कृपालुतामें लोगों की जो श्रद्धा है, उस पर कभी-कभी आश्चर्य होता है कि किस प्रकार यह श्रद्धा चोटपर-चोर खाकर जीवित है और किस तरह घोर विपत्ति और कृपालुताका उल्टा सुयूत भी उस श्रद्धाकी दृढ़ताकी परीक्षाएं मान ली जाती है।" जे० राई हापकिन्सकी ये पंक्तियाँ अन्तःकरण में गूंजती है''सचमुच तू न्यायी है स्वामी, यदि मैं कल विवाद, किन्तु नाथ मेरी भी है. यह न्याय-युक्त फरियाद । फलते और फूलले हैं क्यों, पापी कर-कर पाप, मझे निराशा देते हैं क्यों सभी प्रयत्म कलाप । है प्रिय-बन्धु, साथ मेरे यदि तू करता रिपुका व्यवहार, तो क्या इससे अधिक पराजय, औ बाधाओंका करता वार । अरे उठाई गीर वहाँ वे मद्य और विषयोंके दास, भोग रहे थे पड़े मौज में हैं जीवनके विभव विलास | 1. Thou art indeed just, Lord if I contend With thee, but, sir, so what I plead is just, Why do sinner's ways prosper 7 and why must Disappointment all I endeavour end ? Wert thou my enemy, O, thou my friend, How woudst thou worse, I wonder, than thou dost Defeat, thwart me? Oh, the sots and thrills of lust Do in spare hours more thrive than I that spend Sir, life upon thy cause......... -नेहरूजीको पुस्तक 'मेरी कहानी से Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-निर्माता और यहाँ मैं तेरो खातिर काट रहा हूँ जीवन नाथ, हां, तेरे पथपर ही स्वामी घोर निराशाओं के साथ ।" विश्वका ऐसा अस्त-व्यस्त चित्र विन्तकको चकित बना कत्तृत्वकी ओरसे पराङ्मुख कर देता है। विहारकै भूकम्पपीडित प्रदेशमें पर्यटन द्वारा दुःखी व्यक्तियों का प्रत्यक्ष परिचय प्राप्तकर पंडित नेहरूजी लिखते है-''हमें इसपर भी ताज्जुब होता है, कि ईश्वर ने हमारे माय ऐसी निर्दयतापूर्ण दिल्लगी क्यों की कि पहिले तो हमको बुटियोंसे पूर्ण बनाया, हमारे चारों ओर जाल और गड्ढे free दिये, इपारे लिए कोर और द:खपूर्ण मंमारकी रचना कर दी, चौता भी बनाया और भेड़ भी । और हमको सजा भी देता है।" धर्म के विषय में नेहरू बोके विचारों से कितनी ही मतभिन्नता क्यों न हो, किन्तु निष्पक्ष विचारक पक्तिकी आत्मा उनके द्वारा आन्तरिक तथा सत्यतास पूर्ण विचारधाराका समर्थन किए बिना न रहेगा। देखिए, मृत्युकी गोदमें जाते-जाने पंजाय क्षेसरों लाला लापतराय कितनी सजीव और अमर बात कह गमे है-"क्या ममीबतों, विषमताओं और करताओंसे परिपूर्ण यह जगत् एक भद्र परमात्माकी कृति हो सकता है ? जब कि हजारों मस्तिष्कहीन, विचार तथा विधे कान्य, अनैतिक, निर्दय, अत्याचारी, जालिम, लुटेरे, स्वार्थी मनुष्य दिलासिसाका जीवन बिता रहे हैं और अपने अधीन व्यक्तियोंको हर प्रकारसे अपमानित, पद-दलित करते हैं और मिट्टी में मिलाने हैं, इसना ही नहीं, चिढ़ाते भी हैं। ये दुःखी लोग अवर्णनीय कष्ट, घृणा तथा निर्दयतापूर्ण अपमानसहित जीवन व्यतीत करते है, उन्हें जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक वस्तुएं भी नहीं मिल पाती । भल:, ये सच विषमताएँ क्यों है? क्या ये न्यायशील और ईमानदार ईश्वरके कार्य हो सकते है ।" आगे चलकर पक्षाब केसरी कहते हैं-'मुझे बतायो-सुम्हारा ईश्वर कहाँ है मैं तो इस निस्सार जगसमें उसका कोई भी निशान नहीं पासा' " 1. "Can this world full of miseries, inequalities, cruelities & barbar rities be the handiwork of a good God, while hundreds and thousands of wicked people, people without brains, without head or heart, immoral and cruel people, tyrant, oppressors, explor iters and selfish people living in luxury, and in every possible way insulting trampling under foot, grinding into dust and alsu mocking their victims, these latter are lives of untold misery, degradation, disgrace of sheer want? They do not Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ . जेनशासन स्व. लालाजीके अमर उद्गारों के विरुद्ध शायद कोई यह कहें कि यह तो सफल राजनीतिज्ञकी जोशभरी वाणी है, जो प्रशान्त दार्शनिक चिन्तनके विमल प्रकामा बहुत दूर है। ऐसे व्यक्यिोंको पाश्चात्य तक-विद्याके पिता अरस्तू महाशय जैसे शान्त, विषारयान् चिन्तककी निम्नलिखित पंक्तियोंको पर विचार करना चाहिए- "ईश्वर किसी भी दृष्टिसे विश्वका निर्माता नहीं है । सब अविनाशी पदार्थ परमाथिल है। सूर्य चन्द्र तथा दाममान साकाश सब सक्रिय है। ऐसा कभी नहीं होगा कि उनकी गति अवरुद्ध हो जाए । यदि हम उन्हें परमात्माके द्वारा प्रदत्त पुरस्कार मानें तो हम जमे अयोग्य न्यायाधीश अपया अन्यायो न्याय-कर्ता बना डालेंगे । यह बात परमात्माके स्वभावके दिण्ड है । जिस आमम्दकी अनुभूति परमात्माको होती है वह इतना महान है कि हम उसका कभी रसास्वादकर सकत हैं । वह आनन्द आश्चर्यप्रद है।'' ईदवर-कर्तृत्व के मम्वन्धमें अत्यन्त आम-र्षक युक्ति यह उपस्थिति की जाती है-"क्या करें, परमात्मा तो निष्पक्ष न्याय-नाता है, जिन्होंने पापकी पोटली बाँध रखी है, उनके कर्मासुमार वह दण्ड देता है । दयाकी अपेक्षा न्यायका आसन ऊंचा है।" ऐसे व्यक्तिको सोचना चाहिए, कि अनन्तज्ञान, अनन्तशक्ति तथा अनन्त करुणापूर्ण परमपिता परमात्माके होते हुए दीन-प्राणो पापोंके संनयमें प्रवृत्ति करे उस समम तो यह प्रभु चुपचाप इस दृश्यको देखता रहे और दण्ड देनेके समय सतर्क और सावधान हो अपने भाषण न्यायास्त्रका प्रयोग करने के लिए उद्यत हो उठे। यह बढ़ी विचित्र बात है ! क्या सर्वशक्तिमान् परमात्मा अनर्थ अश्वा अनीतिके मागमें जानेवाली अपनी सन्ततिसमान जीवराशिको पहिलेसे नहीं रोक सकता ? पदि ऐसा नहीं है तो सर्वशक्तिमान् क्या अर्थ रखता है ? even get the necessities of life. Why all this inequality ? Can this be the handiwork of a just and true God? "Where is thy God? I find no trace of hio in this absurd world, Lala Lajpatarai in Mahratta 1933. 1. God is in no sense the Creator of the universe. All imperish able things are actual sen, moon, while visible hcaven is always active. There is no time that they will stop. If we attribute these gifts to God, we shall nake him either an incompetent judge or an anjust one and it is alien to his nature, Happiness which God enjoys is as great as that, which we can enjoy sometimes. It is marvellous. -Aristotle. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-निर्माता २९ बड़े मार्मिक Bankruptcy of Religion' - 'धर्मका दिवालियापन' अंग्रेजी ग्रन्थ में परम उपकारी परमात्मा होते हुए विश्व में जीवों की कष्ट पूर्ण अवस्था के सद्भावपर आलोचना की गयी है। पापके फलस्वरूप युद्धका प्रचण्ड दण्ड ईश्वर प्रदत मानना अत्यन्त जघन्य तथा महान् प्रतिहिंसात्मक कार्य है । एक शक्तिशाली पिता अपनी कन्या पर अत्याचारको चुपचाप देखता है और पीछे यह कहता है कि इस लड़कोने मेरे गौरवपर पानी फेर दिया है। ऐसे पिताके समान ईश्वरका भी कार्य माना जाएगा। समर्थ एवं परोपकारी महान आत्मा पहले ही अनर्थको रोकने का उद्यम करेगा जिससे पश्चात् दण्डदानकी अप्रिय स्थिति उत्पन्न न हो' । गांधीजी द्वारा अत्यन्त पूज्य गुरुतुल्य आदरणीय माने गये महानुभाव शताघाती रामचंद्रजी लिखते है-जगत्कर्त्ताने ऐसे पुरुषोंको क्यों जन्म दिया ? ऐसे नाम डुबानेवाले पुत्रको जन्म देनेकी क्या जरूरत थी जो विषयादिकों में निगमन हो अपनी आत्मा को ईश्वरीय प्रकाशसे प्रयतया वंचित रखने के प्रयत्न में संलग्न रहता है े ?'' I. "We should like to see this supreme benevolence that feeds ravens making some mark in the human order helping or halting wisdom to lessen the world old flow of tears and blood guarding the innocent from pain and privation, snatching the woman and child from war-drunk brute; or what would be simpler and better preventing the birth of the brute or the germination of his impulses. just this has always been the supreme difficulty of the theologician......... Even today we gaze almost helplessly upon the wars, the diseases, the poverty, the crimes, the narrow-minds and stunted natures, which darken our life. And God, it seems, was busy gilding the sun-set or putting pretty eyes in peacock's tails: Religious writers say that God permitted the war on account of sin. The motive matter little. Such 'perrnission' is still vindictive punishment of the erudest order. **** "What would you think of the parent, who would stand by and see his daughter out-raged, while fully able to prevent it? And would you be reconcoiled, if the father proved to you that his daughter had offended his dignity in some way pr -Bankruptcy of Religion p. 30-34. २. श्रीमद्राजचन्द्र पु० ९६ १ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनशासन इस प्रकार बहुजन-समाज-सम्मत जगत्-कत्तु स्वकी मान्यताके विरुद्ध तर्फ और अनुभवों के आधार पर विषयका विवेचन किया जाए तो वह एक स्वतन्त्र प्रम्य बन जाएगा और प्रस्तुत रचनाको समस्त परिधिको आत्मसात् कर लेगा । विशेष जिज्ञासुओंको प्रमेयकालमात पड', अष्टसहली, सातपरीक्षा आदि जैन न्याय तथा दर्शनके ग्रन्थोंका परिशीला करना चाहिए ! दान दोगः निगार होता है कि कर्तवादी साहित्यका भी सम्यक् प्रकार मनन और चिन्तन किया जाये तो उसीमें इस बातको सिद्ध करनेवालो परप्ति सामग्री प्राप्त होगी कि परमात्मा सत + चित + आनन्द स्वरूप है। जगत्का उद्धार करने और धर्म का संस्थापन करने के लिए अवतार धारण करनेवाले, कवि वेषभ्यासकी गीताके प्रमुख पुरुष श्रीकृष्णचन्द्रको वाणीसे ही यह सत्य प्रकट होता है कि-"परमात्मा न लोकका फर्सा है, और न कम अथवा कम फलोंका संयोग करानेवाला है; प्रकृति ही इस प्रकार प्रवृत्ति करती है, वह परमात्मा पाप या पुण्यका अपहरण भी नहीं करता। ज्ञानपर अशानका आवरण पड़ा है इसलिए प्राणी विमुग्ष बन जाते हैं।" प्रकाण्ड ताकिक जैनाचार्य अकालंकने अपने अकलंकस्तोत्रमें न्यायकी कसौटी पर कसी गयी पूजनीय विभूति परमात्मापर प्रकाश डालते हुए उन्हें महान् देवताके १. अनुभवके आधारपर साषचेतस्क कवि भूधरदासको वाणीसे क्या हो सुन्दर तक विधाताके सम्मुख उपस्थित हुआ है सज्जन जो रचे तो सुधारस सौ कौन काज, दुष्ट जोव किये काल-कूट सों कहा रही । दाता निरमापे फिर थापे क्यों कल्पवृक्छ, याचक विचारे लघु तृण सही ॥ इष्ट के संयोग ते न सीरो घनसार कछु, जगत को स्याल इन्द्रजाल सम है वही । ऐसी दोय दोय बात दीख विधि एक ही सी, काहे को बनाई मेरे घोखो मन है यही ।।८०|| -जनशतक २. तार्किक प्रभाचन्द्राचार्य । ३. आचार्य विद्यानन्दि । ४. "न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । R कर्मफलसंयोगे स्वभावस्तु प्रवर्तते ।। नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।"-गोता ५-१४,१५ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा और सर्वज्ञता ३१ रूपमें मान इन उद्घोषक शब्दों में निर्दोष, वीतराग परमात्माको प्रणाम किया है"लोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकितम् साक्षात् येन यथा स्वयं करतले रेखाश्रयं सांगुलि । रामद्वेषभयामयान्तकजरालोलत्वलोभादयो नालं यत्पदलंघनाय स महादेवो मया वन्द्यते ' ॥" - जो त्रिकालयत लोक तथा अलोकके समस्त पदार्थोंका हस्तगत अंगुलियों तथा रेखाओंके समान साक्षात् अवलोकन करते हैं तथा राग-द्वेष, भय, व्याधि, मृत्यु, जरा, चंचलता, लोभ आदि विकारोंसे विमुक्त हैं, उन महादेव - महान् देवकी मैं वन्दना करता हूँ । पूज्यपाद महर्षि कहते है यस्य स्वयं स्वभावाप्तिरभावे कृत्स्नकर्मणः तस्मै संज्ञानरूपाय नमोस्तु परमात्मने । जिनके मोहादिविकारप्रद समस्त कर्मोंका क्षय हो जानेसे शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्राप्ति हुई है, उन सभ्यग्ज्ञानमय परमात्माको मेरा प्रणाम है । परमात्मा और सर्वज्ञता परमात्मा कविको त्रिविध दोष-मालिकासे प्रसित देख कोई-कोई विचारक परमात्मा के अस्तित्वपर ही कुठाराघात करने में अपने मनोदेवता को आनन्दित मानते है । वे तो परमात्मा अथवा धर्म आदि जीवनोपयोगी तत्वोंको मानव बुद्धि के परेको वस्तु समझते हैं। एक विद्वान् कहता है। जिस तर्कके सहारे तत्त्वव्यवस्था की जाती है वह सदा सन्मार्गका हो प्रदर्शन करता हो, यह नहीं है। कौन नहीं १. जय सरवय्य अलोक लोक इक उडवत देखें । हस्तामल ज्यौ हाथलीक ज्यों, सरब जिसे ॥ छह दरम गुन परज, काल त्रय वर्तमान सम । दर्पण जैम प्रकास, नास मल कर्म महातम |1 परमेष्ठी पांचों विधनहर, मंगलकारी लोक में । मन वच काय सिर लाय भुवि आनन्द सौ द्यों धोक में ॥१॥ न्यानतराय, चर्चाशतक । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनशासन जानता कि युक्तिका आश्रय ले अतत्त्वको तस्व अथवा अपरमार्थको परमार्थ-सत्य सिद्ध करनेवाले व्यक्तियोंका इस युगमें बोलबाला दिखायी देता है। जैसे द्रव पदार्थ अपने आधार गत वस्तुओंके आकारको धारण करता है, उसी प्रकार तर्क भी वयक्तिकी वासना, स्वार्थ, शिक्षा-दीक्षा आदिसे प्रभावित हो कभी तो ऋज और कभी वक्र मार्गक्री और प्रवृत्ति करनेसे मुख नहीं मोड़ता। इसलिए तर्क सदा ही जीवन-नौकाको व्यामोहकी चट्टानोंसे बचाने के लिए दीप-स्तम्भका कार्य नियमसे नहीं करता। कदाचित् धर्म-ग्रंथों के आधार पर ईश्वर-जैसे गम्भीर तथा कठिन तत्त्वका निश्चय किया जाये तो बडी विचित्र स्थिति उतन हुन रहे । 17, उन धर्म-प्रन्यों में मत-भिन्नता पर्याप्त मात्रामें पद-पद पर दिखायी देती है। यदि मात-भिन्नता न होती तो आज जगत में धार्मिक स्यर्गका साम्राज्य स्थापित न हो जाता? जो धर्म-ग्रन्थ अहिमाको गुणगाया गाने में अपनेको कृत-कृत्य मानता है वही कभी-कभी जीव-वको आत्मकल्याणका अथवा आध्यात्मिक विकासका विशिष्ट निमित बतानेमें तनिक भी संकोच नहीं करता । ऐसी स्थितिमें घबड़ाया हुआ मुमुक्षु कह घंठता है-भाई, धर्म तो किसी अंधेरी गुफाके भीतर छुपा है, प्रभावशाली अथवा बुद्धि आचरण आदिसे बलसम्पन्न व्यक्तिने अपनी शक्तिके नरूपर जो मार्ग सुझाया, भोले जोन उसे ही जीवन-पथ-प्रदर्शक दिव्य ज्योति मान बैठते हैं । कविने ठीक कहा है "तर्कोऽप्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्नाः नंको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ।।" गम्भीर चिन्तनसे समीक्षक इस निष्कर्षपर पहुंचेगा कि पूर्वोक्त विचार-शैलीने अतिरेकपूर्ण मार्गका अनुसरण किया है । सुन्यवस्थित तर्क सर्वत्र सर्वदा अभिवन्दनीय रहा है, इसीलिए पशुजगत्से इस मानवका पृषककरण करने के लिए जानवानोंको कहना पड़ा कि -Man is a rational bring-मनुष्य तकंणासील प्राणी है । पह विशिष्ट विचारकता ही पशु और मनुष्य के बीचको विभेदक रेखा है । जिस नैसगिक विशेषतासे मानव-मूर्ति विभूषित है उस तककी कभी-कभी असल प्रवृत्तिको . देख तर्कमात्रको विष खिला मृत्युके मुखमें पहुंचानेसे हम मानव-जीवनकी विशिष्टतासे वंचित हो जाएंगे। जैसे कोई विचित्र आदमी यह कहे कि मैं श्वास तो लेता हूँ किन्तु श्वास लेनेके उपकरण मेरे पास नहीं हैं। इसी प्रकार सारा जीवन तर्कपर प्रतिष्ठित रहते हुए मानवके मुखसे तर्क-मात्रके तिरस्कारकी बात Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारमा और ससा सत्यकी मर्यादाके बाहर है तथा विवेको व्यक्तियों के लिए पर्याप्त विनोदप्रद है । इसलिए हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि जहां कुतर्क गन्दे जलके सदृश मलिनता तथा अशुद्धताको बढ़ाता है, वहाँ ममीचीन तर्क जीवनकी महान विभूति है । और उसका रस पिए बिना मानवका क्षणभर व्यतीत होना भी कठिन है । मसत्यके फेर में फंसे हुए सत्यको विश्लेषण करनेका तथा उसकी उपलब्धि करानेका श्रेय समोपीन तर्कको ही तो है; अतः समीचीन तक्रके द्वारा हमें परमात्मा और उसके स्वरूपके विषय में वह प्रकाश मिलेगा जिससे अम्बषक की आत्मा में नवोन विचारोंका जागरण होगा । ममीचीन तक अग्नि-परीक्षणमें विश्वनियन्ता परमात्माकी अबस्पिति नहीं रहती। किन्तु, उसी परीक्षणसे परमात्माका शान, आनन्द, शान्त, वीतराग स्वरूप अधिक विमल बन विश्व तथा वैज्ञानिक विषारकोंको अपनी ओर विवेकपूर्वक आकर्षित करता है। स्वामी समन्तभद्र परमात्माकी मीमांसा करते हुए लिखते हैं-"विश्व के प्राणियों में रागादि दोष तथा जानके विकास और 'ह्रासमें तरतमताका सद्भाव पाया जाता है-कोई आत्मा राग-द्वेष-मोह-अज्ञानसे अत्यधिक मलीन होता है तो किसीमें उन विकारोंकी मात्रा होयमान तघा अल्पतर होती जाती है। इससे इस तर्कका सहज उदय होता है कि कोई ऐसा भी आत्मा हो सकता जो राग, द्वेष, मोह आदि विकारोंसे पूर्णतया विमुक्त हो, वीतराग बन सर्वज्ञताकी ज्योतिसे अलंकृत हो । खानिसे निकाला गया सुवर्ण किट्टकालिमादिसे इतना मलिन दीखता है, कि परिशुस सुर्वणका दर्शन करनेवालेका अन्तःकरण उस मलिन अपरिष्कृत सुवर्णमें सु-वर्णवाले सोनेके अस्तित्वको स्वीकार नहीं करना चाहता। यह तो उस अग्नि आदिका कार्य है, जो दोषोंको नष्ट कर नयनाभिराम बहुमूल्य सुवर्णका दर्शन या उपलब्धि कराती है । इसी प्रकार तपश्चर्या, विवेकपूर्वक अहिंसाकी साधना, आत्म-विश्वास तथा स्वरूपदोषसे समन्दित आत्मा अपनी अनादिकालीन राग-द्वेष, मोह. अज्ञान आवि विकृतिका विध्वंस कर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त मुख और अनन्त पाक्तिसम्पन्न परिशुद्ध आत्माकी उपलब्धि करता है । ऐसे पतन्य, मानन्द शादि अगणित विशेषताओंसे अलंकृत श्रेष्ठ आत्माको परमात्मा कहते हैं। समीचीन तर्कवालोंकी दृष्टि में यही ईश्वर है, यही भगवान है । यही परमपिसा, महादेव, विष्णु, बुद्ध, घिधाता, शिव आदि विभिन्न पुण्य नामोंसे संकीर्तित किया जाता है । इसी दिव्य ज्योति के आदर्श प्रकाशमें अनन्त दुःखी आत्माएं अपनी आत्मशक्तियोंको केन्द्रित करती हुई अपनी आत्मामें अन्तहित परमात्मत्वको प्रकट करनेका समर्थ और सफल प्रयास कर सच्ची साधना द्वारा एक समय कृतकृत्य, परिशुद, परिपूर्ण बन जाती है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकरको यह धारणा है कि-इस परम-पवित्र, परिपूर्ण, परिशुद्ध पर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनशासन मात्माको ही विविध साम्प्रदायिक दृष्टिमाले अपनी-अपनी मान्यतानुसार पूजा करते हैं। क्या घवलवर्णका वस्त्र विविध काचकामलादि रोगदालेको अनेक प्रकारके रंगोंवाला नहीं दिखाई देता ? भारतीय दार्शनिकों में तत्व-मीमांसासे अधिक ममत्त्व द्योतित करने के लिए ही अपने को मीमांभक बहनेवाला इग़ परमात्मतत्वकी गुत्थी को सुलझाने में अक्षम बन, उसे सर्वज स्वीकार करने में अपने आपको अममर्थ पाता है। आज भी उस दार्शनिक विचारधारासे प्रवाहित पुरुष कह बैठते हैं कि परम पवित्र, परिशुद्ध आत्माको हम परमात्मा सहर्ष स्वीकार करते हैं, किन्तु, उसकी सर्वज्ञता-युगपत् त्रिकाल-त्रिलोकदर्शीपने की बात हृदयको नहीं लगती। यह हो सकता है कि तपश्चर्या, आत्मसाधना, आत्मोत्सर्ग आदिके द्वारा कोई पुरुष अपने में असाधारण ज्ञानका विकास पान, किन्तु बाल विकास एक मागत्कार करने की बात तो कवि-जगत्की एक सु-मधुर कल्पना है जो तर्कको तीक्ष्ण ज्वालाको सहन नहीं कर सकती । जिस प्रकार कोई आदमी चार गज कूद सकता है तो दूसरा इसमें कुछ अनिकता कर सकता है। परन्तु, किसी आदमीके हमार मील एक क्षणमें कूदनेकी बात स्वस्थ मस्तिष्कको उद्भप्ति नहीं कही जा सकती। उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्वके चर-अचर अनन्तानन्त पदार्थोंके परिज्ञाताकी बात तीन कालमें भी सम्भव नहीं हो सकती । क्योंकि, जीवन अत्यल्प है। उसमें अनन्त और अपार तत्वोंका दर्शन नहीं हो सकता। ऐसे मीमांसकोंका तर्क साधारणतया बड़ा मोहक मालूम पड़ता है, किन्तु, समीचीन विचार-प्रणालीसे इसकी दुर्बलताका स्पष्ट बोध हो जाता है। शरीरसे होनाधिक कूदने-जैसी कल्पना अभौतिक, अमर्यादित, सामर्यसम्पन्न आरमाके विषय में सु-संगत नहीं है । जिसने अन्धलोकमें रह केवल जुग नके प्रकाशका परिचय पाया है वह त्रिकालमें भी इसे स्वीकार करने में असमर्थ रहेगा कि सूर्य नामकी प्रकाशपूर्ण कोई ऐसी भी वस्तु है जो हजारों मीलोंके अन्धकारको क्षणमात्रमें दूर कर देती है । जुगनू-सदृश आत्मशक्तिको ससीम, दुर्बल, प्राणहोन-सा समाननेवाला पज्ञानताके अन्यलोकमें जन्मसे विचरण करनेवाला अज्ञ व्यक्ति प्रकाश. मान तेजपुन मात्माकी सूर्य-सदृश शक्ति के विषयमें विकृत धारणाको कैसे परिवर्तित कर सकता है, जबतक कि उसे इसका (सूर्यका) दर्शन न हो जाए। १, "स्वामेव वोतसमस परवादिनोऽपि नूनं प्रभो हरिहरादिधिया प्रपन्नाः । कि कायकामलिमिरीश सित्तोऽपि शंखो हो गएते विविषवर्णविपर्ययेण ।। १८॥"-कल्याणमन्दिर । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा और सर्वज्ञता ३५ इस रहस्यको हृदयंगम करनेके पूर्व मीमांसकको कमसे कम यह तो मानना होगा ही कि विश्वको सम्पूर्ण आत्माएँ समान हैं। जैसे खानिसे निकाला गया सुवर्ण केवल सुवर्णको दृष्टिसे अपने से विशेष निर्मल अथवा पूर्ण परिशुद्ध सुबर्णसे किसी अंशमें न्यूनशक्ति वाला नहीं है। यदि अग्नि आदिका संयोग मिल जाए तो वह मलिन सुवर्ण भी परिशुद्धताको प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार इस जगत्का प्रत्येक आत्मा राग, द्वेष, अज्ञान आदि विकारोंका नाशकर परिशुद्ध अवस्थाको प्राप्त कर सकता है। ऐसी परिशुद्ध आत्माओं में उनकी निजातियाँ आवरणोंके दूर होने से पूर्णतया प्रकाशमान होंगी। जो तत्त्व या पदार्थ किसी विशिष्ट आत्मामें प्रतिविम्बित हो सकते हैं, उन्हें अन्य आत्मामें प्रतिबिम्बित होनेमें कोनमी बाघा आ सकेगी ? यह तो विकृत भाविकवादित तथा साधनों का अत्याचार है- अतिरेक है जो आत्मा में विषमता एवं भेद उपलब्ध होता है, अन्यथा स्वतन्त्र, विकासप्राप्त आत्माके गुणोंकी अभिव्यक्ति समान रूपसे सब आत्माओं में हुए विना न रहती । इस सम्बन्ध में यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि विश्वक पदार्थोके अस्तित्वका बोध आमाकी ज्ञानशक्ति द्वारा होता है । जो पदार्थ ज्ञानकी ज्योति में अपना अस्तित्व नहीं बताता उसका अभाव मानना ही न्यायसंगत होगा। हर्बर्ट स्पेन्सरके समान 'अज्ञेयवाद का समर्थन नहीं किया जा सकता । भला उस पदार्थ सद्भावको कैसे स्वीकार किया जाए जो इस अनन्त जगत् में किसी भी आत्माके ज्ञानका विषयभूत नहीं हुआ, नहीं होता है अथवा अनन्त भविष्य में भी नहीं होगा । पदार्थोके अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है, कि में विज्ञान ज्योति के समक्ष अपने स्वरूपको बताने में संकोच न खाएँ। अन्यथा उन पदार्थोंको रहनेका कोई अधिकार नहीं है । यों तो पदार्थ अपनी सहज शक्तिके बलपर रहते ही हैं, उनके भाग्य - विधानके लिए कोई अन्य विधाता नहीं है, किन्तु उनके सद्भाव के निश्चयार्थ ज्ञानज्योति प्रतिविम्बित होना आवश्यक है। इसका तात्पर्य यही है कि प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी जाता के ज्ञानका ज्ञेय अवश्य या है तथा रहेगा । जब पदार्थों में ज्ञान के विषय बननेको दाक्ति है, आत्मा में पदार्थों को जानने की सहज शक्ति है और नब आत्म-साधना के द्वारा चैतन्य-सूर्यका पूर्ण उदय हो जाता है तब ऐसी कौनसी वस्तु है जो उस आत्मा के अलौकिक ज्ञानमें प्रतिबिम्बित न होती हो और जिसे स्वीकार करने में हमारे ताकिकको कठिनाई होती है। जिस तरह चलने-फिरने दौड़ने में शरीरकी मर्यादित शक्ति बाधक बन मर्यादा तोत शारीरिक प्रवृत्तिको रोकती है, उस तरहका प्रतिबन्ध ज्ञानशक्तिके विषय में नहीं है 1 पदार्थोंका परिज्ञान करने में परम आत्माको कोई कष्ट नहीं होता । जैसे, बाधक सामग्रीविहीन अग्निको पार्थीको भस्म करने में कोई रुकावट नहीं होती, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसासन उसी प्रकार राग-मोहादि माषक-सामग्रीविहीन आत्माको समस्तः पदायोंको एक ही क्षणमें साक्षात्कार करने में कोई आपत्ति नहीं होती। सर्वज्ञताक सम्बन्धमे बैज्ञानिक धर्मका अन्वेषण करने में प्रयत्नशील और अन्तमें जनधर्मको स्वीकार करनेवाली अंग्रेज बहिन डॉ. एलिनाशेष फ्रेशरने बड़े सरल शब्दोंमे मार्मिक प्रकाश वाला है । उनका कहना है कि ""सर्वज्ञता विगु आत्माका गुण है । इसे सिद्ध करना सरल बात है। 1. The argument that proves omniscience to be an attribute of the pure soul is very simple. It is based on the uniformity of nature, as all science is. Nature is constant; so that the attributes ard properties of substances cannot vars, they are always the same. It is a natural lay that all things Lelonging to the saine species, cla-s, genus etc. have a common mature, Gold, for instance, will always be found to be gold. That is to say, 0110 piece of gold is always like any other piece of gold. There are no difference in the pure matter. This is the case with all substances. The soul being a substance cannot be an excep tion to the law. Therefore, the properties of the soul—the intelligent substances are alike it every case; so it must be that alt souls are alike in respect of their knowing capacity. This is tantamount to saying that every soul has within itself the ability to manifest the entirety of knowledge. The soul can know all things and all conditions of things, of all places, of all tisnes, for what one soul knows or knew or will ever know, can be known by any other soul. All knowledge acquired by me on in the past can be known by any one living today, Similarly all knowledge Xnown by any onc living and a! the knowledge which will be ever acquired by any knowing living being in the future can be known by every one of us. Thus knowledge of the three periods of times is possible for all. Now can localisation in space set a limit to our knowledge....? that every soul in short is capable of omniscience......? Many things remain uuknown at the present time. That does not mean that it is to be inferred that they will always remain Unknown. It is indisputable that what can never be known buy capable minds engaged in investigating the truth will never be proved to have an existence, and is therefore' non. existant. - A Scientific Interpretation of Christianity, p. 44-45 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ परमात्मा और सर्वज्ञता इसका मूल आधार इतर विज्ञानोके समान प्रकृतिको एकविधता ( - Uniformity of Nature) है। प्रकृति अविनाशी है क्योंकि पदार्थोके गुण-धर्म नहीं बदलतं, वे सदा से हो रहते है 1 यह प्रकृतिका नियम है कि एकजातीय पदार्थों में सर्व-अनुगत-समान धर्म पाया जाता है। जैसे सोना मदा 'सोना' रूप ही में पाया जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि मोना एक एकता सोने के नारे एक के समान सदा होगा। शुद्ध पदार्थ में भिन्नता नहीं पायी जाती । सर पदाओंमें यही नियन है । आत्मा भी एक दृष्य है, अतएव वह इस नियमके वाहर नहीं है । इस कारण ज्ञानात्मक आत्म-द्रव्य के गुण प्रत्येक अवस्थामें समान है 1 इससे शानशक्तिकी अपेक्षा सब आरमाएँ समान हैं । इसका यह तात्पर्य हया कि प्रत्येक आत्मामें इस प्रकारकी शक्ति है कि सम्पूर्ण ज्ञानको अभिव्यक्त करे। आत्मा सर्व जगत् और सर्वकालके पदार्थों को तथा उनकी अवस्थाओं को जान सकता है, जो विषय कोई एक आत्मा जानता है, अतीतमें जिसे जाना था, अश्वा भविष्य में जिसे जानेगा, उमे दूसग आत्मा भी जान सकता है। भूतकाल में किसी एक्ने जितना ज्ञान प्राप्त किया होगा उसे कोई भी आज विद्यमान प्राणी जान सकता है । इसी प्रकार वर्तमान में किमीके द्वारा माना गया पुर्णज्ञान तथा भविष्य में किसी प्राणो के द्वारा ज्ञानकी विस्य-भूत बनायी जाने वाली वस्तुको हम में से कोई भी जान सकता है। इस प्रकार कालत्रयसम्झम्धी जान सब आत्माओं में सम्भय हो सकता है। क्या आकाश हमारे ज्ञानको मर्यादित कर सकता है ? संक्षेपमें कहना होगा कि सर्वज्ञ बननेकी ममता सब आस्माओंमें है-वर्तमान कालमें अनेक पदार्थ अज्ञात रहते है पर इसका अर्थ यह नहीं है कि वे सदा अज्ञात ही रहेंगे 1 यह निर्विवाद है कि जो पदार्थ सत्यान्वेषी समर्थ हृदयों में प्रतिभासित नहीं होते हैं, उनका मस्तित्व कभी भी सिर नहीं किया जाता और इसीलिए उनका अभाव हो जायगा ।" उपयुक्त अवतरणसे आरमाकी सकल पदार्थोको साक्षात् ग्रहण करने की शति स्पष्ट होती है । त्रिकालवी अनन्त पदार्पोको क्रम-क्रम से जानना असंभव है, अतः सर्वज्ञताके तत्वको स्वीकार करनेपर युगपत् ही सर्व पदार्थोफा ग्रहण स्वीकार करना होगा। मर्यादापूर्ण क्रमवी अल्पज भी विशेष आत्मशक्ति के बल पर स्व० राजपाव भाई के समान शतावधानी एक साथ मौ बातोंको अवधारण करनेकी जन्म क्षमता दिखाता है, तब सम्पूर्ण मोहनीय तया ज्ञानावरणादि विकारों के पूर्णतया क्षय होने से यदि आत्म-माक्ति पूर्ण विकसित हो एक क्षणमें कालिक समस्त पदार्थको जान लें तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। हाँ, आत्मशक्ति और उसके वैभव को भूलकर मोह-पिशाचसे परतन्त्र किये गये प्राणियों की दुर्बलताकी छाप (छाया) समर्थ आत्माओंपर लगाना यथार्थमें पापचर्यकारी है। मौनिकताके Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन भयंकर भारसे अभिभूत जगत् जहाँ आत्मतत्वके अस्तित्वको स्वीकार करने में कठिनताका अनुभव करता है, वहां त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थोक्को युगपत् ग्रहण करनेकी बात उसके अन्त:करणमे बहे कस्टसे प्रविष्ट हो सकेगी। किन्तु सूक्ष्म चिन्सक और यौगिक साधनाओंके बलपर चमत्कारपूर्ण आत्मविकासको स्वीकार करनेवाले सताको सहज गिरोधार्थ कर उसे जीवनको चरम लक्ष्य स्वीकार करेंगे । इस सर्वज्ञता (Omniscience) के उत्पन्न होने के पूर्व भारमास राग, द्वेष, क्रोध, मान, माशा, संवाद विक्रम पूर्णतया विनाश हो जाना आवश्यक है। बिना इनके पूर्ण विनाश हुए आत्माका विकास नहीं हो सकता । निर्विकार परमज्योति परमात्मा अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य सदश गणोंसे अलंकृत होता है । वह मंसारके राग-द्वेषमय प्रपंचसे पृथक रह स्वरूपमें निमग्न रहने हुए प्रेक्षकका कार्य करता है। सन्मागका प्रकाशन ऐसी आत्माके द्वारा विशेष समय पर होता है। उनका जीवन हो विश्वके लिए प्रमंका महान् उपदेष्टा होता है। जगदुद्धारके लिए यह परमात्मा मानव रूपमें अवतार धारण करने आता है यह मान्यता चिसनीय है । कारण, यदि जगत्फे प्रति तनिक भी मोह रहा तो सर्वज्ञताका परम प्रकाश उस परम आत्माको नहीं मिलेगा । अवतारवादके विषयमें यह बात जाननी चाहिए कि विशेष परिस्थितिमें आवश्यकतानुसार धर्मसंस्थापन तथा अधर्म-उन्मूलन के लिए कोई सच्ची लगनवाला साधारण मानव अपनी आत्मशवित्तयोंका विकासकर विश्वोपदेष्टाका कार्य करता है और उसी समर्थ एवं पूर्ण आत्माको जगतु दिव्यात्माके रूपमें देखता है, मानता है तथा अर्चना करता है। देखिए, आचार्य अमिताति कितने मार्मिक शब्दों में ऐसे स्वपुरुषार्थ के द्वारा बने परमात्माका मंगलमय स्मरण करसे है और जिससे जनधर्मके माम्य परमात्मम्वरूपका भी स्पष्टीकरण सुन्दर रूपमें प्रत्यक्ष हो जाता है "यः स्मयंते सर्वमुनीन्द्रवृन्दर्य: स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः । यो गीयते वेदपुराणशास्त्रः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। १२ ।। यो दर्शनज्ञानसुखस्वभाव समस्तसंसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। १३ ।। निषूदते यो भवदुःखजाल निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १४ ।। विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युठ्यसनाद्यतीतः । त्रिलोकलोको विकलोऽकलंकः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १५ ॥ क्रोडीकृताशेषशरीरिदर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः। निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। १६ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व स्वरूप यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तेः सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्धः । ध्यातो धुनीते सकल विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ।। १७ ।।" भावनाद्वाविंशतिका विश्व-स्वरूप जो विश्व सर्वज्ञ, बीतराग परमात्माकी ज्ञान-ज्योत्तिके द्वारा आलोकित किया जाता है उसके स्वरूपके सम्बन्धमें विशेष विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। अन्न तत्त्व-ज्ञानके उदय तथा विकासके लिए साविक भावापन्न व्यक्ति यह सोचता है.. "को मैं ? कहा रूप है मेरा ? पर है कौन प्रकारा हो ? को भव-कारन ? बंध कहा ? को आस्रव-रोकनहारा हो ? खिपत बंध-करमन काहे सों? थानक कौन हमारा हो?" कविवर भागचन्द्र तब आत्म-स्वरूपके साथ-साथ जगत् के अन्तस्तलका सम्यक परिशीलन भी अपना साधारण महत्त्व रखता है। साधारणतया सूक्ष्म चर्चाको कठिनतासे भीत ध्यस्ति तो यह कहा करता है कि विश्वके परिचयमें क्या घरा है, अरे लोकहित करो और प्रेमके साथ रहो; इसी में सब कुछ, । ऐसे व्यक्तियोंको पथप्रदर्शक यदि माना जाय तो जगहमें ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल आदिके विकासादिका अभाव होगा। यह सत्य है कि कृतिमें पवित्रताका प्रवेश हुए बिना परमधामकी प्राप्ति नहीं होती; किन्तु उस कृतिके लिए सम्पक ज्ञानका दीप आवश्यक है, जो मज्ञान-अंधकारको दूर करे ताकि मार्ग और अमार्गका हमें सम्यक्वोघ हो । जगतकी विशालता और उसके रंगमंचपर प्रकृति नटीकी भांति-भांतिकी लीलाओंके अन्य यनसे सम्यक् आचरणको जितना बल और प्रेरणा प्राप्त होती है, उतनी अन्य उपायोंसे नहीं । रेलका इंन्जिन जिस तरह वाष्प के बिना अवरुद्ध-गति हो जाता है, उसी तरह विश्व क्या है, उसमें मेरा क्या और कौन-सा स्थान है? आदि समस्याओं के समाधानरूपी घसके अभावमें जोवनकी रेल भी मुक्ति-पषमै नहीं बढ़ती। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन जिस प्रकार आजका शिक्षित भौतिक शास्त्रोंके विषय में सूक्ष्मसे सूक्ष्म गोषणा और शोधका कार्य करता है तथा अपने कार्यमें अधिक संलग्नताके कारण वह अपने प्राणोंका खेल करनेसे भी मुख नहीं मोड़ता, यदि उस प्रकारको निष्ठा और तत्परता आत्म-विकासके अंगभूत विश्व के रहस्य-दर्शन के लिए दिक्षाए तो कितना हिरो समय किया विचित्र पूझ सके सच्चे कल्याण की बात सोचने-समझने के मार्गमें उपस्थित की जाती है । किन्तु आत्माको विषयभोगोंमें फंसा परतन्त्र और दुःखी बनानेवाली सामग्रीका संग्रह करना अश्या चर्चा में समस्त जीवनको आहुति करना भी जीवनका सव्यय समझा जाता है-- कैसी विचित्र बात है यह। यदि इस विषयका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाव तो विदित होगा कि दृश्य-जगत्में सघेसन सत्त्व (इसे उपनिषदोंमें 'आत्मा' कहा गया है) और अपेतन तत्त्वोंका सदुभाव है। 'सत्यं ब्रह्मा, जगन्मिध्या'--एक ब्रह्म हो तो सत्य है और शेष जगन काल्पनिक सत्य है-स्पष्ट शब्दोंमें मिथ्या है, यह घेदान्तियोंकी मान्यता वास्तविकतासे समन्वय नहीं रखती । आत्म-तत्त्वका सद्भाव जितने रूपमें परमार्थ है, उसने ही रूपमें अचेतन तत्त्व भी वास्तविक है। दार्शनिक विश्लेषणकी तुलनापर सत्य की दृष्टिसे सचेतन-अचेतन' दोनों तत्त्य समान है । अतः जगत्को मिथ्या मनिनेपर ब्रह्मकी भी वही गति होगी। __तत्त्वमें उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश स्वभाव पाया जाता है । ऐसी कोई समात्मक वस्तु नहीं है, जो केवल स्थितिशील ही हो तथा उत्पत्ति और विनाशके चक्रसे बहिर्भूत हो । जन सूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने लिखा है कि-"उपायव्ययधोक्युक्तं सत्" । इस विषय में पधाध्यायोकार लिखते है जि- 'तत्त्वकालक्षण सत् है। अभेद दृष्टिसे तत्वको सत्स्वरूप कहना होगा। यह सत् स्वतः सिख है-इसका अस्तित्व अन्य वस्तुके अवलम्बनको अपेक्षा नहीं करता। इसी कारण, यह तत्त्व अनादि निधन है-स्वसहाय और विकल्प-रहित भी है। ___ साधारण दृष्टिसे एक ही वस्तुमें उत्पत्ति-स्थिति-श्ययका कथन असम्भव पातोंका भण्डार प्रतीत होता । किन्तु मूक्ष्मविचार भ्रमका क्षणमात्र में उन्मूलन किये बिना न रहेगा। यदि 'आम' को पदार्थ (तत्त्व) का स्थानापन्न समझा जाए, तो कहना होगा कि कच्चे आममें पकने के समय हरेपनका विनाश हुआ, पीले रंग १. पं० राहुलजोने इस विषयको असत्य रूपसे 'दर्शन-दिग्दर्शन' में लिखा है। २. तस्वार्थमूत्र ५। ३01 ३. "तत्त्वं सस्लामणिक सन्माचं या यतः स्वतः सिद्धम् । तस्मावनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्प च" Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ विश्व-स्वरूप बाली पकी अवस्थाका उसी समय प्रादुर्भाव हुआ और इन दोनों अवस्माओंको स्वीकार करनेवाले आमका स्थायित्व धोव्यत्व बना रहा। यह तो उस 'सत्' के दर्शनको दृष्टिका भेद है जो एक सत अथवा तत्व विविध रूपसे ज्ञान-गोचर बनता है । वामको पीली अवस्थापर दृष्टि डालनेसे सत्का उत्पाद हमारे दृष्टि-बिन्दुमें प्रधान बनता है। विनाश होनेवाले हरे रंगको लक्ष्य-गोचर बनानेपर रात्का विनामा हमें दिखता है। आम-सामान्यपर दृष्टि डालनेपर न तो उत्पाद मालूम होता है और न व्यय । इस आमके समान विश्व सम्पूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय तथा धोव्य युक्त है । तार्किक समातभाने इसी लिए तस्वको पूर्वोक्त त्रिविधताओं से समन्वित स्वीकार किया है-"तस्मात तवं यात्मकम् |" इम त्रिविध तत्त्वष्टिमै किन्हींको तीव्र विरोधका दर्शनरूपी तर्काभास चैन नहीं लेने देता। उन्हें इस बातको ध्यानमें रखना होगा, कि तत्त्व-दर्शनको तीन दृष्टियों के परिणामस्वरूप वह सत् श्यात्मक प्रतीत होता है। विरोध तो तब हो जब एक ही दृष्टि से तीनों बातोंका वर्णन किया जाए | नवीन पर्यायकी अपेक्षा उत्पाद कहा है और पुरातन पर्याय की दृष्टि से व्यय बतलाया है । नवीन पर्यायकी दृष्टिसे उत्पादके समान व्यय कहा जाए अथवा पुरातन पर्यायकी अपेक्षासे ही व्ययके ममान उत्पाद माना जाए अथवा धोयला स्वीकार की जाए तो विरोध तत्वको अवस्थितिको संकटापन्न बनाए बिना न रहेगा । स्याद्वादकी सरजीवनीके संस्पर्शको प्राप्त करनेपर विरोधादि विकारोंका विष तत्वका प्राणापहरण न कर उसे अमर जीवन प्रदान करता है। इस स्यावाद विधाके विषयमें विवाद विवेचन आगे किया जाएगा । इस प्रसंगमें इतनी बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कोई वस्तु एकान्तसे स्थितिकील उत्पत्ति अथवा विनाशात्मक नहीं पायी जाती । अतएव वेदान्तियोंका ब्रह्म जितना अधिक सत्य है, उतने ही अन्य तत्व भी है। विज्ञान-विचारसम्पन्न दार्शनिकचिन्सन तो यह बताता है कि सम्पूर्ण विश्व पर्याय अबस्था (Modification) को दृष्टि से क्षण-क्षणमें परिवर्तनशील है । इस दृष्टि से तत्वको क्षणिक विनाशी अश्या मसतरूप धारण करनेवाला भी कह सकते हैं। यदि उस तत्त्वपर द्रव्य (Substance) की अपेक्षा विचार करें तो तत्त्वको आदि और अन्तरहित अंगीकार करना होगा। सर्वथा असत् या अभावरूप होनेवाली वस्तुको आधुनिक-विज्ञानका पण्डित भी तो नहीं मानता । यस्तु कितने ही उपायों द्वारा मृत्यु अथवा बिनाशके मुख में प्रविष्ट करायी जाए, उसका समूल नाश न होकर मूलभूत तत्त्व अवश्य अवस्थित रहेगा। इस महान सत्यको स्वीकार करनेपर विश्व-निर्माण कर्ता ईश्वरको म मानते हुए भी जगसको सुव्यवस्था १. आप्तमीमांसा क्लो. ६०। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनशासन आदिमें बाधा नहीं पड़ती, क्योंकि यह जगत् सतस्वरूप होनेसे अनादि और अनिधन-अनन्त है। भला, जिन तत्वोंको अवस्थिति के लिए स्वयंका बल प्राप्त है, दूसरे शब्दों में जो स्वका अवलम्बन करनेवाले मात्म-शक्तिका आश्रय तथा सहयोग प्राप्त करनेवाले है, उनके भाग्य-निर्माणको बात अन्य विजातीय वस्तुफे हाथ सौंपना अनावश्यक हो नहीं, वस्तु स्वरूपी दृष्टि से भयंकर अत्याचार होगा। एक द्रव्य जो स्वयं निसर्गतः समर्थ, स्वावलम्बी, स्वापजीवी है, उसपर किसी अन्य शक्तिका हस्तक्षेप होना न्यायानुमोदित नहीं कहा जा सकता । वास्तव में देखा जाए तो जगत् पदार्थोंके समुदायका ही नाम है, पदार्थपुञ्जको छोड़ विश्व नामकी और कोई वस्तु ही नहीं जो अपने स्रष्टाका सहारा चाहे । वस्तुका स्वाभाविक स्वरूप ऐसा है कि उसे अन्य भाग्य-विधाताको कोई आवश्यकता नहीं है, जिसकी इच्छानुसार वस्तुको विविध परिणमनरूप अभिनय करने के लिए बाध्य होना पड़े। विघाताके भवतोंके मस्तिष्क में आदि तथा अन्तरहित स्रष्टाके लिए जिस युक्ति तथा श्रद्धाके कारण स्थान प्राप्त है वही औदार्य अन्य यस्तुओंको अनादि निधन माननेमें प्रदर्शित करना चाहिए । इस प्रकार जब विश्व अनादि-निवन है, तब बाइबिलको यह मान्यता कि "परमात्माने ब्रह दिन सम्पूर्ण भताने काम गहरके सारो ना फंक मारकर उसम रूह पैदा कर दी, इस महान कार्यके करनेसे थान्त होनेके कारण रविवारको यह विश्राम करता रहा," ताकिकताको कसोटीपर अथवा दार्शनिक परीक्षणमें अग्निमें नहीं टिक पाती। जिस प्रकार सचेतन तत्व अनादिनिधन है, उसी प्रकार अचेतन तत्त्व भी है। ब्रह्मरूप अण्डसे विश्वकी उत्पत्ति जिस तरह एक मनोहर कल्पना मात्र है, उसी तरह पश्चिमके पण्डित लाप्सास महाशयका यह कहना है कि-"पहिले जगत्में सचेतन-अचेतन नामकी यस्तु नहीं यो; न पशु-पक्षी थे, न मनुष्य थे और न दृश्यमान पदार्थ हो । पहिले सम्पूर्ण सौर-मंडल प्रकाशमान गैस रूपमें पिण्डित था, जिसे नेबुला (NEbola) कहते हैं। धीरे-धीरे शीतके निमित्तसे वह वाष्प द्रव और दृढ़ पदार्थ बन चला, उसका ही एक अंश हमारी पृथ्वी है ।" सचेतन जगत्के विषयमें कल्पनाका आश्रय लेनेवाले यह पश्चिमी विद्वान् कहते हैं कि 'अगोवा' नामक तत्त्व विकास करते हुए पशु-पक्षी, मनुष्य आदि रूपमें प्रस्फुटित हुआ । एक ही उपादानसे बननेवाले प्राणियोंकी भिन्नता का कारण बारबिन अकस्मात्यादको बताता है, किन्तु ले मार्कका अनुमान है कि बाह्य परिस्थितिमोंने परिवर्तन और परिवर्धनका कार्य किया है, जिसमें अभ्यास, आवश्यकता, परम्परा आदि विशेष निमित्त बनते हैं। विकास सिद्धान्तके महान् पण्डित हारविन महाशयने हो यह नवीन तत्त्व खोजकर बताया, कि मनुष्य बन्दरका विकास Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-स्वरूप ४३ युक्त रूप हैं। प्रतीत होता है कि यूरोपियन होनेके कारण डारविनको सन्तुलनके लिए अपने देशवासी बन्दर और मनुष्यों में भिन्तुना करनी पड़ी होगी । इसीलिए विनोद-शील शायर अकबर कहते हैं "बकौले डारविन हरजते आदम थे बुजना (बन्दर) | ही कों हमको गया यूरोपक इंसा देखकर " यह बताया जा चुका है कि विश्वमें सचेतन-अचेतन तत्वोंका समुदाय विश्वविविधता तथा ह्रास अथवा विकासका कार्य किया करता है। आत्मतत्वके स्वतंत्र अस्तित्व के विषयमें पर्याप्त विचार हो चुका; अतः जड़तत्त्वके विषयमें विशेष जिस जड़ तत्त्वका हम स्पर्शन, रसना, घ्राण, यक्षु तथा कर्ण इन पाँच इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण अथवा उपभोग करते हैं, उस अड़सत्त्व विचार करना आवश्यक | रस, गन्ध तथा वर्ण को जैन दार्शनिकों ने 'पुद्गल' संज्ञा दी है। जिसमें स्पर्श, पाये जाते हैं उसे पुद्गल ( Matter) या मैटर कहते हैं । सांख्य दर्शन के शब्दकोशका 'प्रकृति' शब्द पुद्गल को समझने में सहायक हो सकता है । अन्तर इतना है कि प्रकृति सूक्ष्म है और जिस प्रकार पुद् गलका प्रत्येकको अनुभव होता है इस प्रकार प्रकृतिका बोध तबतक नहीं होता जब तक कि यह महत् अहंकार आदि रूपमें विकसित होती हुई वृहत् मूर्तिमान् रूपको धारण न कर ले | पुद्गलमें रूपर्श, रस, गन्ध तथा वर्णका सद्भाव अवश्यम्भावी है'। ये चारों गुण प्रत्येक पुद्गलके छोटे-बड़े रूपमें अवश्य होंगे। ऐसा नहीं है कि किसी पदार्थमें केवल रस अथवा गन्ध आदि पृथक-पृथक हों । जहाँ स्पर्श आदिमेंसे एक भी गुण होगा, वही अन्य गुण प्रकट या अप्रकट रूपमें अवश्य पाये जायेंगे । वैशेषिक दर्शनकारकी दृष्टि में वायुमें केवल स्पर्श नामका गुण दिखाई देता है। यथार्थ बात यह है कि पवन में स्पर्शके समान रस, गन्ध, वर्ण भी हैं, पर वे अनुभूत अवस्थामें है । यदि केवल स्पर्श ही पवनका गुण माना जाए तो हाइड्रोजन ऑक्सीजन नामको पवनोंके संयोगसे उत्पन्न जरुहमें भी पवनके समान रूपका दोष नहीं होना चाहिए था। जब जलपर्याय में रूप आदिका बोध होता है तब बीजरूप पवनमें भी स्पर्श आदिके समान रूप आदिका भी सद्भाव स्वीकार करना चाहिए। इसी प्रकार जड़-तत्त्वके विषयमें अनेक दार्शनिकोंकी भ्रान्त धारणाएं हैं । वस्तुत: देखा जाए तो पुद्गल अगणित रूपसे परिवर्तनका खेल दिखाकर जगत्‌को चमत्कृत करता है । चार्वाकके समान पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुरूप भूतचतुष्टय पृथक अस्तित्व नहीं रखते । जो पुद्गल -परमाणु पृथ्वीरूपमें परिषत होते है, अनुकूल सामग्री पाकर उनका जल पदनादिरूप परिवर्तन हुआ करता है । दृश्यमान जगत् में १. "स्पर्श रसयन्ववर्णवन्तः पुद्गला : " तस्वार्थसूत्र, अ०५ सू० २३ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन जो पोद्गलिक खेल है उसके आधारभूत प्रत्येक 'पुद्गल में स्पर्श, रस, गन्ध, वण पाया जाएगा। वैशेषिक दर्शन अग्निके तेजस्वी रूपके समान वर्णके तेअपूर्ण वर्णको देख उसमें अनुभूत अग्नि तत्त्वकी अद्भुत कल्पना करता है । यदि शक्तिकी अपेक्षा कहा जाय तो जलीय परमाणुओं तकमें अग्निरूप परिणत होने की भी सामर्थ्य है । इतमा ही क्यों, यह तो अनन्त प्रकारकापरलमान दिखा भवाते है । ईलो स्थिति में सुवर्णमें अनुभूस अग्नितरदसदृश विचित्र वैशेटिक मान्यताएँ सत्यको भूमिपर प्रतिष्ठा नहीं पाती। ___ सांख्यदर्शन जड़ प्रकृतिको अमूर्तिक मान मूतिमान् विश्वको सृष्टिको उसकी कृति स्वीकार करता है । पर धैज्ञानिकोंको इसे स्वीकार करनेमें कठिनता पड़ेगी कि अमूतिकमे मूतिककी निष्पत्ति किस न्याय से सम्भव होगी ? जैन दार्शनिक पुद्गलके परमाणु तकको मूर्तिमान् मानकर मूर्तिमान जगके उद्भवको बताते हैं । रेडियो, ग्रामोफोन, अणुबन आदि जगत्को चमत्कृत करनेवाली वैज्ञानिक शोध और कुछ नहीं पुदगलकी अनन्त शक्तियोंमेंसे कतिपय शक्तियोंका विकास मात्र है । वैज्ञानिक लोग एक स्थानके संवादको 'ईयर' नामके काल्पनिक माध्यमको स्वीकार कर सुदूर प्रदेशमे पहुंचाते हैं। इस विषयमें हजारों वर्ष पूर्व जैन वैज्ञानिक ऋषि यह बता गये हैं कि पुद्गल पुञ्ज (स्कन्ध) की एक सबसे बड़ी महास्कन्ध' नामकी सम्पूर्ण लोकब्यापी अवस्था है। वह अन्य भौतिक वस्तुओं के समान स्थल नहीं है । उस सूक्ष्म किन्तु जगत्म्यापी मान्ममके द्वारा सुदूर प्रदेशक संवाद आदि प्राप्त होते है । शम्द उस पुद्गल को हो परिणति है। आज भौतिक विज्ञान के पण्डितोंने शब्दका संग्रह करना, यम्बोंके द्वारा घटाने बढ़ाने आदि कार्योसे उसे मौतिक या पौद्गलिक माननेका मार्ग सरल कर दिया है, अन्यथा वैशेषिक दर्शनवालोंको यह समझाना अत्यन्त कठिन था कि शम्दको आकाशका गुण कहने वाली उनकी मान्यता संशोधनके योग्य है । शम्दको अनादि आकाशका गुण मान १. "भेदात् संघातात् भेदसंघाताम्यां च पूर्यन्ते गलन्ते वेति पूरणमलनात्मिका क्रियामन्तर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थः".... -तत्त्वार्थराजवातिक पृ० १९० ५ ० ५ सू० ११ । २. "सुवर्ण तेजसम्, असति प्रतिबन्धकेऽत्यन्ताग्निसंयोगेऽपि अनुच्छिमाम द्रव स्वाधिकरणत्वात्"-तर्कसंग्रह पृ० ८। . ३. "तत्रान्त्य (स्यौल्यं) जगद्व्यापिनि महास्कम्र्थे ।" -पूज्यपादः सपिसिधि ५-२४ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-स्वरूप मीमांसक लोग भी वेदको अपौरुषेय सिद्ध करनेमें एडीसे चोटी तक पसीना बहाया करते थे । इस तरह शब्दको पुद्गलकी पर्याय माननेपर अनेक पुरातन भारतीय दार्शनिकों की भ्रान्त धारणाएँ धराशायी हो जाती है। पुद्गलकी अचिन्त्य शक्ति जैन सन्तोंके प्रकृति के सूक्ष्म अध्ययनका परिणाम है। पार्थिव पत्थरका वोयला अग्निरूप परिणत होते देखा जाता है, सौपके आधारको पाकर जलबिन्दुका पार्थिव मोतीरुपम परिशमन होता है। इस प्रकार विचित्र पोद्गलिक परिणतिका हदयंगम करते हुए दर्शनशास्त्रको भूल-भुलैयासे मुमुक्षुको अपती रक्षा करनी चाहिए । इस पुद्गलसे सम्बद्ध श्रीव अगतमें अगणित रूप धारण करता है । ज्ञान और आनन्दस्वरूप आत्माको पोद्गलिक शक्तियां ही इस शारीररूपी कारागारमें बन्दी बना अपनी विचित्र शक्तिका प्रदर्शन करती हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वृक्ष, पचन आदि शरीरोंको धारण कर यह जीव पृथ्वी आदि नामसे पुकारा जाता हैतस्वतः सब आत्माएं समान है । यह पुद्गलकी पोशाक ही जनमें पार्थक्ष्यको प्रतीति कराती है । पृथ्वी, जल आदि रूपमें पुद्गलके निमित्तसे जीवकी परिणति जानकर तथा उसका यथार्थ रहस्य न समझ कुछ शोधक विद्वान्' यह विचित्र धारणा कर बैठे कि जैनियोंते सम्पूर्ण पृथ्वी, जल, पवनरूप स्वतन्त्र एक-एक जीवात्मा स्वीकार किया है । उन्हें मालूम होना चाहिए कि पाषाण, मृत्तिका, जल, हिम, अग्नि आदिमें धनन्त विकास अन्य आत्माओंका सद्भाव जैन दार्शनिकोंने माना है। सररामचरित्रमें वर्णित देवी सीताका पृथ्वी माताकी गोदमें समा जानेवाली बात यहां नहीं स्वीकार की गयी है । इस विशाल पृथ्वीको पुद्गलकी स्थूल पर्याय मात्र माना गया है। उसमें मातृत्व अथवा देवीपने को कल्पना अन वैज्ञानिकोंने स्वीकार नहीं की। इस पुद्गलका सबसे छोटा अंश जिसका दूसरा भाग न हो सके परमाणु कहलाता है । यह परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म होता है । अब स्निग्धता और अक्षताके 1. "This doctrine is...entirely misunderstood by oriental scholars. who go to the extent of attributing to Jain Philosophy a prinitive doctrine of animism, that earth, water, air, etc. have their own souls." ___Prof. A. Chakravarty in the Cultural Heritage of India' -P. 202. २. "पृथ्वी-एहि वत्से पवित्रीकुरु रसातलम् । रामः-हा प्रिये ! लोकान्तरं गता हि । सीता-येद् में अप्तणो अंगेसु विल अम्बा । ण सम्हि इंघिस जोशलोअपरिवतं अणुभविद् ।"....सप्तांक पृ० १८६, १८७ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनशासन कारण दो या अधिक परमाणु मिलकर बंधते हैं, तब पुंजीभूत परमाणु पिण्डको 'स्कन्ध' कहते हैं। वैशेषिक दर्शन अपनी स्थूल दृष्टि से सूर्यके प्रकाशम चलते फिरते धूलि आदिके कणों को परमाणु समझता है । ऐसे कथित कथा विभागरहित कहे जानेवाले वैशेषिकके परमाणुओंके वैज्ञानिकोंने विद्युत शक्तिकी सहायतासे अनेक विभाग करके अणुबोक्षण यन्त्रसे दर्शन किए है। जन दार्शनिकोंकी सूक्ष्मचिन्तना तो यह बताती है कि किसी भी यन्त्र आदिकी सहायतासे परमाणु हमारे नयन गोबर नहीं हो सकता । जो पदार्थ चक्षु-गुन्द्रियके द्वारा गृहीप्त होते हैं, वे अनन्त परमाणुओंके पिण्डीभूत स्कन्ध है। वैज्ञानिक जिसे परमाणु कहेंगे, जन दार्शनिक उसमे अनन्त स क्म परमाणुओंका सद्भाव बताएंगे। इसका कारण यह है कि सम्पूर्ण विकृतिका नाया का नया सबंख परमानाको दिव्य ज्ञानज्योतिसे प्रकाशित तत्त्वोंका उन्हें बोध प्राप्त हुआ है। इसीलिए वैज्ञानिकोंने जो पहिले लगभग सात दजनसे भी अधिक मूल तत्त्व (Elements) माने थे और अब जिनकी संख्या बहुत कम हो गयी है, उनके विषयमें जैनाचार्योने कहा है कि स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले अनेक तत्त्व नहीं है । एक पुद्गल तत्व है जिसने बड़ेबड़े दार्शनिकों तथा वैज्ञानिकोंको भूलभुलयामें फंसा अनेक मूल तत्त्वके माननको प्रेरित किया । वैशेषिकदर्शनकी नौ द्रन्यवाली' मान्यसापर विचार किया जाए, तो कहना होगा कि पृथ्वी, अप, तेज, वायु नामक स्वतंत्र तत्वों के स्थान पर एक पुदुमलको ही स्वीकार करनेसे कार्य बन जाता है क्योंकि उनमें स्पर्शादि पुदगल के गुण पाये जाते है । दिक् तत्त्व आकाशसे भिन्न नहीं, आदि । जीव तथा पुद्गलमें क्रियाशीलता पायी जाती है । इनको स्थानसे स्थानान्तररूप क्रियामें सामान्य रूपसे तथा उदासीन सहायक रूपमें धर्म द्रव्य (Medium of Mution) नामके माध्यमका अस्तित्व माना गया है। इसके विपरीत जीव और पुद्गलको स्थिति में साधारण सहायक माध्यमको अधर्म द्वन्य (Medium of Rest) कहा गया है। ये धर्म और अधर्म द्रव्य जैन दर्शनके विशिष्ट तत्त्व है । जगत-प्रख्यात सत्कर्म-असत्कर्म, पुण्य-पाप मघवा सदाचार-हीनाचारको सूचित करनेवाले धर्म-अधर्मसे ये दोनों द्रश्य पूर्णतया पृथक् है। ये ममन अथवा स्थिति कार्य में प्रेरणा नहीं करते, उदासीनतापूर्वक सहायता देते हैं । मछलियोंको जल में विचरण करने में सरोवर का पानी सहायक है, बल पूर्वक प्रेरणा नहीं करता । धान्त पथिकोंको अपनी छायामें विश्रामनिमित्त वृक्ष सहायता करते हैं, प्रेरणा १. पृभिव्य तेजोलाम्बाकाशकाल दिगास्ममनांसि नवैव" तर्कसंग्रह सू०२ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-स्वरूप ४७ महों । इसी प्रकार धर्म-अधर्म नामक द्रव्योंका स्वभाव है और यही उनका कार्य है । जीव आदिमें नवीनसे प्राचीन बननेस्प परिवर्तनका माध्यम 'काल' (Time) नामका द्रव्य स्वीकार किया गया है। सम्पूर्ण जीच, पुद्गल, धर्म, अधर्म, कालको अवकाश स्थान देने (Localisc) वाला आकाश व्य(Medium of Space) माना गया है । धर्म,अधर्म, आकाश ये अस्खण्ड द्रव्य है। जीव अनन्त है । पुद्गल द्रव्य अनन्तामन्त है । कालद्रश्य असंख्पात अणुरूप है । कालको छोड़ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश (अस्तिरूप) सत्तायुक्त होकर काय अर्थात्, शरीरके समान बहुत प्रदेशवाले हैं, इसलिए, इन्हें अस्तिकाय कहते है । काल द्रव्यको अस्तिकाय नहीं कहा है, क्योंकि वह परस्पर असम्बद्ध पृथक-पृथक् परमाणुरूप है। धर्म, अधर्म और आकाश तथा काल में एक स्थानसे दूसरे स्थान में गमनागमन रूप क्रियाका अभाव है इसलिए इन्हें निष्क्रिय कहा है' आकाशके जिस मर्यादित क्षेत्र में जीवादि द्रव्य पाये जाते हैं, उसे 'लोकाकाश' कहते हैं और शेष आकाराको 'अलोकाकाश' कहते है । एक परमाणु द्वारा धेरै गये आकाशके अंशको प्रदेश कहते हैं । इस दृष्टिसे नाप करनेपर धर्म, अधर्म तथा एक जीपमें असंख्यात प्रदेश बताये गये है। जीवका छोटे-से-छोटा शरीर लोकके असंख्यात्तथें भाग विस्तारवाला रहता है । जैसे दीपककी ज्योति छोटे-बड़े क्षेत्रको प्रकाशित करती है अर्थात् जो ढंका हुआ दीपक एक घड़ेको मालोकित करता है, वही दीपक आवरणके दूर होने पर विशाल कमरेको भी प्रकाशयुक्त करता है। इसी प्रकार अपनी संकोच-विस्तार-शक्तिके कारण यह जीव चिउँटो-जैसे छोटे और गज-जैसे विशाल शरीरको धारण कर उतना संकुचित और विस्तृत होता है। यह बात प्रत्यक्ष अनुभवमें भी भाती है कि छोटे-भरे शरीर में पूर्णरूपसे आत्माका सद्भाव रहता है। अत : यह दार्शनिक मान्यता कि-या सा जीवको परमाणु के समान अत्यन्त अल्प-विस्तारवाला अथवा आकाश के समान महत्-परिणामदाला स्वीकार करना चाहिए, अनुभव और युक्तिके प्रतिकूल है। उन लोगोंकी ऐसी धारणा है कि आत्माको यदि अणु और महतपरिमाणवाला न माना गया तो वह अविनाशीपमेकी विशेषतासे रहित हो जाएगा। इस विचारधाराकी आलोचना करते हुए जैन दार्शनिकोंने कहा है कि अणु १. "गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोपकारः"-तं. सूत्र ५-१७ । २. देखो, त० सूत्र (मोक्षशास्त्र अध्याय ५ सूत्र २२, १८, ६। ३. वहीं सूत्र ४। ४. अनंतवीर्य-प्रमेवरत्नमाला-१० १०७,८ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन या महत् परिमाणवाला पदार्थ ही नित्य हो, अविनाशी हो और मध्यम परिमाणबाले पदार्थ विनाशशील हों, ऐसा कोई परिमाणकृत नित्यानित्यत्वका नियम नहीं पाया जाता। जब एकान्त नित्य अथवा अनित्य स्वरूप वस्तु ही नहीं है तब अनित्यताकी आपत्तिवश अनुभवमें आनेवाली आत्माकी मध्यमपरिमाणताको सुलाकर प्रतीति और अनुभवविरुद्ध मात्माको प्रणुपरिमाण या महत्परिमाणवाला मानना तर्कसंगत नहीं है। ऐसा कोई अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है कि मध्यमपरमानवाला अनित्य ही हो और अन्यपरिमाणवाला नित्म | अतः तस्वार्थ सूत्रकारने ठोक लिखा है कि- प्रदीपके समान प्रदेशोंके संकोच विस्तार के द्वारा जीव लोकाकाश होनाधिक प्रदेशोंको व्याप्त करता है | 4 ४८ जी, जैन दार्शनिकोंके द्वारा वणिजय काग, काल नामक प्रव्यों की मान्यता के विषयमें अनेक दार्शनिकोंकी सहमति प्राप्त होती हूँ । feng धर्म और अधर्म नामक द्रव्योंका सद्भाव जैनदर्शन की विशिष्ट मान्यता है और जिसे माने बिना दार्शनिक चिन्तना परिपूर्ण नहीं कही जा सकती । गम्भीर विचार करनेपर विदित होगा कि जिस प्रकार अपने स्थानपर रहते हुए पदार्थ में नवीनता - प्राचीनतारूपी चक्रका कारण काल नामक द्रव्य माना है और सम्पूर्ण द्रव्योंकी अवस्थिति के लिए अवकाश देनेवाला आकाश द्रव्य स्वीकार किया है, उसी प्रकार क्षेत्र क्षेत्रान्तर जाने में सहायक तथा स्थितिमें सहायक (mediura ) धर्म-अधर्म नामक द्रश्योंका अस्तित्व अंगीकार करना तर्कसंगत है। ये जीवादि छह द्रव्य कभी कम होकर पाँच नहीं होते और न बड़कर सात होते हैं । जिस प्रकार समुद्र में लहरें उठा करती हैं। विलोन भी होती हैं, फिर भी जलकी अपार राशिवाला समुद्र विनष्ट नहीं होता उसी प्रकार परिवर्तनकी भँवर में समस्त द्रव्य घूमते हुए भी अपने-अपने अस्तित्वको नहीं छोड़ते । इस द्रव्यसमवायमेसे अपने आत्मतत्वको प्राप्त करने का ध्येय, प्रयत्न तथा साघना मुमुक्ष मानवकी रहा करती है । विश्वका वास्तविक रूप समझने और विचार करनेसे यह आत्मा भ्रम से बचकर कल्याणकी ओर प्रगति करता हूँ । इस विश्वके वास्तविक स्वरूपका विचार करते-करते आत्मा विषयभोगोंसे विरक्त हो विलक्षण प्रकाशगुफ्त दिव्य जीवनको ओर झुकता है । देखिए, एक कवि कितने उद्बोधक शब्दोंसे मानव आकृतिबारी इस लोक और उसके द्रव्योंका विचार करता हुआ आत्मोन्मुख होने की प्रेरणा करता है--- १. प्रदेश संहार विसर्पाम्यां प्रदोषवत् । " ० सूत्र ५। १६ । २. "नित्यावस्थितान्यरूपाणि "--त० सूत्र ५-४ | Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म जागरणके पथपर 1 लोक अलोक अकाश माहि थिर, निराधार जानो । पुरुष रूप कर कटी भये षट्द्रव्यन सों मानो ॥ इसका कोई न करता. हरता अमिट अनादी है । जीव रु पुद्गल नाचे यामें, कर्म उपाधी है। पाप-पुण्य जीव प्रगत में मिल मुख दुआ लरखा । धरता ॥ अपनी करनी आप भरे सिर औरत के मोह कर्मको नाश, मेटकर सब जनकी निज पदमें थिर होय, लोकके सीस करो वासा ॥ आसा | ४९ कविवर मंगत राय- बारह भावना आत्म- जागरणके पथपर इस विश्वको वास्तविकसासे सुपरिचित मानव गम्भीर चिन्तुनामें निमग्न हो सोचता है, जब मेरा आत्मा जड़-पुद्गल आकाश आदि गुण-स्वभाव आदिको अपेक्षा पूर्णतया पृथक है तब अपने स्वरूप की उपलब्धिनिमित्त क्यों न मैं समस्त सांसारिक मोहजालका परित्याग कर परम निर्वाण के लिए प्रयत्न करूँ ? भगवान् महावीरके समक्ष भी ऐसा हो प्रश्न था जब सारण्य श्रीसे उनका शरीर अलंकृत या और उनके पिता महाराज सिद्धार्थ उनसे विवाह बन्धनको स्वीकार कर राजकोय भोगोंकी मोर उनकी चित्तवृत्तिको खींचने के प्रयत्न में तत्पर थे 1 भगवान् महावीरका आमा सर्वप्रकार समर्थ एवं परितुष्ट था इसलिए उसने मकड़ीकी तरह अपना जाल बुनकर और उसीमें फेंस जीवन गवाने की चेष्टा न की, किन्तु सम्पूर्ण विकारोंपर विजय पर परिपूर्ण आत्मत्वको पानेके लिए दुर्बलताओं के वर्धक संकीर्ण गृहवासको तिलांजलि ने दिगम्बर मुद्रा धारण कर आत्मसाधनानिमित्त अन्तः बहिः सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अचौर्य का प्रशस्त पथ स्वीकार किया और अपनी सच्ची और सुदृढ़ साधना के फलस्वरूप उन्होंने कर्म- राशिको चूर्ण कर अनन्त आनन्द, अनन्तज्ञान, अनन्त-शक्ति अविनाशी जीवन आदि अनुपम विभूतियोंका अधिपतित्व प्राप्त किया। लेकिन एकदम महावीर बनने के कठिन और लोकोत्तर मार्गपर चलने की क्षमता मोही और विषयों में फँसे हुए वासनाओंके दासों में कहाँ है ? जो बात्मा कर्मशत्रुओंका हस्तक बन अपने आत्म Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैनशासन रवको भूल महाकवि बनारसीदास मी शब्दों में "ब्रह्मघाती मिथ्यासी महापातकी" के नामसे पुकारा जाता है, वह भला कैसे आत्मजागरणके उज्ज्वल पथपर एकदम चल सकता है ? रोगाक्रान्त नेत्र जिम प्रकार प्रकाशको देख पीड़ाका अनुभव करते हुए आँखोंको मोच अंधेका अनुकरण कराते हैं, इसी प्रकार मोह-रोगसे पीड़ित अविवेकी प्राणी विषय-भोगकी लालसासे आकर्षित हो सम्यक्ज्ञानके प्रकाशपूर्ण जीवनके महत्त्वको भुला भोगी और विषयासक्तको जिन्दगीको हो अपने जीवनका आदि तथा चर्म लक्ष्य समझता है । संत समागम, पवित्र ग्रंथोंका अनुशीलन और सुदैवसे आत्मनिर्मलता के योग्य सुदिन के आनेपर किसी सौभाग्यशालीकी मोहावकार - निमग्न आत्मा में निर्मल ज्ञानसूर्यके उदयको सूचित करनेवाली विवेक- रश्मियाँ अपने पुण्य प्रकाशको पहुँचा जीवनको अलोकित करने लगती हैं। उस समय वह आत्मा निर्वाण सुख के लिए लालायित हो अपना सर्वस्व माने जानेवाले धन-वैभव आदि परिकरको क्षणभरमें छोड़नेको उद्यत हो जाता है। ऐसा ही प्रकाश जैन सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्यको ब्रह्म केवल भद्रबाहु मुनीन्द्रके सन्निध्य में प्राप्त हुआ था। इसीलिए उन्होंने अपने विशाल भारतके साम्राज्यको तृणवत् छोड़कर आत्म-संतोष और ब्रह्मानन्दके लिए दिगम्बर अकिंचन गुद्रा धारणकर श्रमणबेलगोलाकी पुण्य वीथियोंको अपने पदचिन्हों पवित्र किया था । जिस प्रकार लौकिक स्वाधीनताका सच्वा प्रेमी सर्वस्वका भी परित्याग कर फाँसी के तहको प्रेम से प्रणाम करते हुए सहर्ष स्वीकार करता है, उसी प्रकार निर्वाणका सच्चा साधक और मुमुक्षु तिल-तुष मात्र भी परिग्रहसे पूर्णतया सम्बन्ध - विच्छेद कर राग-द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकृतियोंका पूर्णतया परित्याग कर शारीरिक आदि बाधाओंकी और तनिक भी दृष्टिपात न कर उपेक्षा वृत्तिको अपनाकर आत्मविश्वासको सुदृढ़ करते हुए सम्यक् ज्ञानके उज्ज्वल प्रकाश में अपने अचिन्त्य तेजोमय आत्म-स्वरूपकी उपविषनिमित्त प्रगति करता है । आत्मशक्तिकी अपेक्षा प्रत्येक आत्मा यदि हृदयसे चाहे और प्रयत्न करे, तो वह अनन्त शान्ति, अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान आदिसे परिपूर्ण आत्मत्वको प्राप्त कर सकता है। किन्तु मोह और विषयोंकी आसक्ति आत्मोद्धार की ओर इसका कदम नहीं बढ़ने देती । मोहके कारण कोई-कोई मात्मा इतना अंष और पंगु बन जाता है कि यह अपनेको ज्ञान ज्योतिबाला आत्मा न मान जड़तत्त्वसदृश समझता है 1 यह शरीर में आत्मबुद्धि करके शरीर के ह्रासमें आत्माका ह्रास और उसके विका समें आत्म-विकासकी यज्ञ कल्पना किया करता है । प्रबुद्ध कषि बलरामजी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-ज्जागरणके पपपर ऐसे बहिष्टि आत्म-विमुख प्राणीका चित्रण करते हुए कहा है कि यह मूर्ख प्रायः सोचा करता है "मैं सुखी दुखी मैं रंक राव । मेरे गृह षन मोधन प्रभाव ॥ मेरे सुत तिय में सबल-दोन । वेरूप सुभग मूरख प्रवीन !। तन उपजत अपनी उपज जान । तन नसत आपको नाश मान ॥ रागादि प्रकट ये दुःख दैन । तिनही को सेवत गिनत चैन || शुभ अशुभ बंधके फल मझार । रति अरति कर निजपद विसार ।।" -छहडाला इस प्रकार अपने स्वरूपको मूलनेवाला 'बहिरात्मा' मिध्यादृष्टि' अथवा 'अनात्मान' शब्दोंसे पुकारा जाता है । अनात्मीय पदार्थों में आत्मबुद्धि धारण करने की इस दृष्टिको अविद्या कहते हैं । अष्णरमरामायगमें बताया है "दहोऽहमिति या वृदिरविद्या सा प्रकीर्तिता। नाह देहश्चिदात्मेति बुद्धिर्विद्येति भण्यते ।।" मैं शरोर हूं' इस प्रकार शरीरमें एकत्वबुद्धि अविद्या कही गयी है । किन्तु 'मैं शारीर नहीं हूँ', 'चैतन्यमम आत्मा हूँ' यह बुद्धि विद्या है-- ऐसा अविद्यावान्, अज्ञानी, मोही प्राणी जितने भी प्रयत्न करता है, उतना हो वह अपनी आत्माको बंधन में डालकर दुःखकी वृद्धि करता है । यद्यपि शब्दोंझे वह मुक्ति के प्रति ममता दिखाता हुआ कल्याषाकी कामना करता है, किन्तु मपाम उसको प्रवृत्ति आत्मत्वकै लासकी ओर हो जाती है । मुक्तिके दिव्यमन्दिर में प्रवेश पाकर शाश्चतिक शान्तिको प्राप्त करनेकी कामना करनेवालेको साधनाके राज्चे मार्गमें लगना आवश्यक है । इसके लिए आत्माको पात्र बनानेको आवश्यकता है। इस पात्रताका उदय उस विमल तत्त्वज्ञानीको होता है, जो पारीर आदि अनात्मीय वस्तुओंसे शान-आनन्दमय आत्माका अपनी श्रद्धासे विश्लेपण करनेका सुनिश्पर करता है। इस पुपयनिश्चय अथमा श्रद्धाको सम्यक दर्शन (Right Belief) कहते हैं। स्व-परके विश्लेषण करनेकी इस शक्तिसे सम्पन्न जीवको अन्तरात्मा कहते हैं । उसको वृत्ति कमलके समान रहा करती है । जिस प्रकार जलके बी बमें सदा विद्यमान रहनेवाला कमल जल-राशिसे वस्तुतः अलिप्त रहता है, उसी प्रकार वह तत्त्वज्ञ भोग और विषयों के मध्यमें रहते हुए भी उनके प्रति आंतरिक आसक्ति नहीं धारण करता 1 मरे शब्दोंमें कमलके समान वह अलिप्त रहता है। जैन संस्कृतिमें जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंके नीचे कमलोंकी रचनाका वर्णन पाया जाता है। कमलासनपर विराजमान जिनेन्द्र इस बातके प्रतीक है कि वे Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैनशासन विषयभोग मादि भौतिक विभूतियों से पूर्णतया अलिप्त है । इस प्रकार आत्म शक्ति और उसके वैभवकी प्रगान श्रद्धासम्पन्न व्यक्तिका ज्ञान पारमाधिक अथवा सम्यकुजान कहा गया है, और उसकी आत्मकल्याण अथवा विमुक्ति के प्रति होनेवालो प्रवृत्तिको जैन ऋषियोंने सम्यक् चारित बताया है । बीस साहित्यमें इसे 'सम्यकम्यायाम' कहा है। ___हन आत्म-श्रद्धा, आत्म-बोध तथा प्रात्म-प्रवृत्तिको उन वाइमय में रत्नश्रयमार्ग कहा है। तत्वार्थ मूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने अपने मोक्षशास्त्र के प्रथम सूत्र में लिखा है-- 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" इस रत्नत्रयमार्ग में श्रद्धा, ज्ञान तथा आचरणका सुन्दर समन्वय विद्यमान है। इस समन्वयकारी मार्गको उपेक्षा करने के कारण हिन्दू धर्म में विभिन्न विचारधाराओंकी उदाति हुई है। कोई प्राद्धामे अपना भक्तिदोही संसारसंतरणका सेतु समझता है. तो ज्ञान-दृष्टिघारी 'ऋते ज्ञानान्न मुक्ति'-ज्ञानके निना मुक्ति नहीं हो सकती--कहता है । अर्थात ज्ञानको ही सब कुछ कहता है। इसने ही ज्ञान-योग नामको विचारधाराको जन्म दिया। इसका अतिरेक इतना अधिक हो गया, कि ज्ञान-योग की ओट में सम्पूर्ण अनर्थों और पाप-प्रयत्तियोंका पोषण करते हुए भी पुष्यचरित्र साधुओंके सिरपर सवार होनेका स्वप्न देखता है 1 कोई-कोई ज्ञानको दुर्वलताको हृदयंगम करते हुए क्रियाकांडको ही जीवनको सर्वस्थ निधि बताते हैं। तुलनात्मक समीक्षा करनेपर साधनाका मार्ग उपर्युक्त अतिरेकवादकी उलझनसे दूर तीनोंके समन्वयमें प्राप्त होता है। एक ऋषिने लिखा है-कर्मशूपका ज्ञान प्राणहीन है, अविवेकियोंकी क्रिया निःसार है, श्रद्धाविहीन बुद्धि और प्रवृत्ति सच्ची सफलता प्राप्त नहीं करा सकती । अंधे, लंगड़े और बालसो-जैसी बात है "अंध पंगु अरु आलसो जुधे जरै दव लोय ।" साधनका सच्चा मार्ग वही होगा, जहां उपर्युक्त तीनों बातोंका पारस्परिक मैत्रीपूर्ण सद्भाव पाया जाय। उस दिन महावीरजयन्तीके जैन महोत्सवके अध्यक्ष के नाते नागपुर हाईकोर्ट के जस्टिस का सर भवानीशंकर नियोगीने उपयुक्त रत्नत्रयरूप साधनके मार्गका सुन्दर शब्दों में वर्णन करते हुए कहा था-The unity of heart, head and hand leads to liberation'-अक्षाका प्रतीक हृदय, ज्ञानका आसार मस्तिष्क तथा आचरणका निदर्शक हस्तके ऐक्यसे मुक्ति प्राप्त होती है। शान्तिसे विचार करनेपर समरीक्षकको स्वीकार करना Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ आत्म-जागरणके पथपर होगा कि आगिनी बिहडा, - और तदनुरूप प्रवति करनेपर ही साधक साध्यको प्राप्त कर सकेगा । दुनिभि पत्र प्रकारकी वस्तु या विभूतिया सरलताम उपलब्ध हो सकती है। किन्तु आत्मोद्धार की विद्याको पाना अत्यन्त दुर्लभ हैं। किनी विरले भाग्यशालीको उरा वितामणिरत्न तुल्या परिशुद्ध दृस्टिकी उपलब्धि होती है। अपने पारम राणमें कवियर भूधरदासजी भगवान् सानायके पुर्व भोंकावर्णन करते समय वज्रयन्त चक्रवर्तकी मानताका चित्रण करने हु" कहते है-- "धन कन कञ्चन राजसुख, संबहि सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ।। इस प्रकार की दिवायोति अथवा मैदानिक दृष्टि गम्वित गायककी जीवनलीला मोही. बहि टि. मिश्यान ना जानेवाले प्राणोंगे जुभी होती है। वह माधक योगी, अंपो. मोही अविनको भगवान् मानकर अभिवन्दना करनेको उद्यत नहीं होता। कारण वह एगे कार्यको दधतासम्बन्धी मनता माझता है। वह भोगो, बन-दौलत आदि मामग्री धारण करनेवाले तथा हिंगा आदिकी ओर raf बग्नेवाले समार-मागरमें इबा हा व्यक्ति जो गुफ नहीं मानसा, क्योंकि वह भलीभांति समझता है कि वे तो 'जन्म जल उपल नाव' के समान रासारसिन्धुम हुनाने वाले कुगुम हैं । वह समीक्षक नदी, तालाब आदिमें स्नान करनेको कोई आप्रातिपक यदुत्व न दे, उसे लोक-पढ़ता मानता है। वह जान, कुल, जाति, बल, वैभव, मन्मान, गरीर, तपस्या आदिके कारण अनिभान नहीं करता: क्योंकि उसवी तत्व-ज्ञान ज्योतिम मब भात्मायें रामान प्रतिभासित होती है। मह गुणवान्का असाधारण आदर करता है । तात्विक दृष्टि सम्पन्न चाण्डाल तो क्या, पण तवका वह देवतामे अधिक सम्मान करता है। क्योंकि शरीर अथवा बाह्य वैभव मध्यमे विद्यमान जीवपर अपने तत्वज्ञान की एक्स-रे नामक किरणोंको डालकर बह सम्यक्-बोधरूपी गुणको जानता है और बाह्य मोंद या वैभवके द्वारा दिमुग्ध नहीं बनता । अपनी पवित्र श्रज्ञाकी रक्षाके लिार भय, प्रेम. लालच अयश आशावत हो स्वप्नमे भी रागी-देषी दव, हिमादिके पोषक शस्त्ररूप शास्त्रों तथा पापमय प्रवृत्ति करनेवाले पानंही तपस्वियोंको प्रणाम, अनुनय बिनम आदि नहीं करता । सर्वज्ञ, वीतराग, हितोपदेदी प्रभुको वाणीमें उसे अटल श्रद्धा रहती है । संसारके भैगोंको काँके अधीन, नश्वर, दुःखमिथित और पाएका बीज जाम यह उनकी आकांक्षा नहीं करता । आत्मत्य की उपलब्धिको देवेन्द्र या चक्रवर्ती आदिके धैभबसे अधिक मूल्यकी आंकता है । वह शरीरके सौंदर्यपर मुग्ध नहीं होता, कारण कविवर दौलतरामजी की भाषामें शरीरको Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन "पल रुधिर राधमल थेली कीकस बसादि तें मेली ।" समझता है । और जानता है कि यह यथार्थमें कैसी है "मत कीज्यो जी यारी, घिनगेह देह जड़ जानके, मात तात रज-वीरज सौ यह उपजो मल- फुलवारी । अस्थि, माल, पल, नसा-जालकी, लाल-लाल जल क्यारी ॥ मत० ॥ कर्म-कुरंग थली- पुतली यह, मूत्र- पुरोष धर्म-मढ़ी रिपुकर्म घड़ी, धन-धर्म जे जे पावन वस्तु जगत में, ते इन स्वेद, मेद, कफ क्लेदमयी बहु मद गद व्याल पिटारी ॥ जा संयोग रोग भव तोल, जा वियोग शिवकारी । भंडारी चुरावन हारी ||मल ॥ सर्व बिगारी | बुध तासों न ममत्व करें - यह मूढ़ मलिन को प्यारी || मत || जिन पोषी ते भये सदोषी तिन पाये दुख भारी । जिन तप ठान ध्यानकर शोषी तिन परनी शिवनारी ॥ मत || सुर-धनु, शरद-जलद, जल बुदबुद, त्यों झट विनशन हारी । या भिन्न जान निज चेतन 'दौल' होह शमधारी ॥ मत कोज्यो जी यारो, घिनगेह देह जड़ जानके ।' इसलिए शरीर के प्रति आदर न करते हुए भी गुणोंसे विशिष्ट शरीरको वह अमूल्य वस्तु मानता है । गुणवान् वीतराग, निस्पृह, करुणामूर्ति मुनीन्द्रोंके दुर्बल, मलीन, क्षोण शरीरको वह सौन्दर्य के पुंज मोही प्राणियोंके देहकी अपेक्षा अधिक आकर्षक और प्रिय मान उसको अभिवंदना करता है। उस तत्त्वज्ञकी इस दृष्टिको 'निर्विचिकित्सा' कहते हैं। वह अविद्या मार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले बड़े-बड़े साक्ष को स्वरूप बोध न होनेके कारण अपनी श्रद्धा एवं प्रशंसाका पात्र नहीं मानता | अध्यात्मके प्रशस्त मार्ग में जिनके पाँव आत्मीक दुर्बलताके कारण डग मगाते हैं और कभी-कभी जिनका आदर्श मार्गके स्खलन भी हो जाता है, जिनकी अपूर्णताओंको यह जगत् में प्रकाशितकर उन आत्माओंके उत्साहको नहीं गिराता है, कारण यह जानता है कि रागादि विकारोंके कारण किससे भूल नहीं होती ? भूलको दूर करने का उपाय निंदा करना या जगत् भरमें ढोल पीटते फिरना नहीं है, बल्कि त्रुटिको सार्वजनिक रूपमें प्रदर्शित न करके उस आत्मा के दोषोंका एकांत में परिमार्जन करनेका प्रशस्त प्रयत्न करना है । कुसंगति, अल्प अनुभव अथवा विशिष्ट ज्ञानियोंके सम्पर्क न मिलने के कारण सम्यकुज्ञानके मार्ग शिवलित होते हुए व्यक्तिको अथवा सदाचरण से आत्म दुर्बलताओं के कारण डिगते हुए व्यक्तिको अत्यन्त कुलतापूर्वक यह सन्मार्ग में पुनः स्थापित करता है। जबकि Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत् ५५ अहंकारी प्राणी गिरते हुएको ठोकर मार और भी जल्दी पततके मुखमें प्रविष्ट कराता है, तब यह मानव प्रकृतिका अध्येता, कमके विचित्र विपाकका विचार करते हुए डिगते हुए मुमुक्षुको सत्साहस, सविवार, सहयोग, सहायता आदि प्रदान कर समुन्नत करने में अपनेको कृत कार्य मानता हूँ | जिस प्रकार गाय अपने बछड़ेपर अत्यन्त प्रेम धारणकर उसकी विपत्तिका निवारण करती है, उसी प्रकार यह साधक साधनाके मार्ग में उद्यत अन्य साधक बंधुओं के प्रति वात्सल्य सच्चे प्रेमको धारण करता है। यह पवित्र विज्ञान ज्योतिको प्रकाश में लानेवाली जिनेन्द्रकी वाणी और उसके द्वारा प्रतिपादित सत्य एवं उसके अंगोपांगोंको विश्वकल्याण निमित्त दिव्य धर्मोपदेश, पुण्याचरण, लोकसेवा आदिके द्वारा विश्व में प्रकाशित करता है, जिससे उत्पथमें फेंगे हुए चीन-दुःखी मनका परिश्रण हो और वे यथार्थ साधना पथके पथिक बने। इस तत्त्वप्रकाशन के प्रशस्त उद्देश्य निमित्त समय तथा परिस्थिति के अनुसार वह प्रत्येक उचित और वैध मार्गका अवलम्बन कर विश्वकल्याण के क्षेत्र में अग्रसर होता है । इस पुण्य कार्यों को करने में उस साधकको अवर्णनीय और अचिन्त्य आनन्द प्राप्त होता है | भला, भोगों में लिप्स विषयोंके द्वारा उस तत्त्वज्ञानी के आत्मानन्दका क्या अनुमान कर सकते हैं ? मिश्रोकी मिष्टता, वाणी की नहीं, अनुभवको वस्तु है । इस प्रकार परमार्थतः आत्मानुभवका रस अनुभूतिकी ही वस्तु है एक आचार्य लिखते है - "सम्यक्त्वं वस्तुतः सूक्ष्ममस्ति वाचामगोचरम् ।" सम्यक्त्व आत्मानुभव यथार्थमें बहुत सूक्ष्म है और वह दाणी के परे है । यह जोन मोहकी मदिरा पीनेके कारण उन्मत्त हो अज्ञानसे उस वास्तविक आनंद से वंचित रहता है। जिस प्रकार एक कुत्ता मुखी हड्डियोंके टुकड़ों को अपनी दाढ़में घर चबाता है और अपने मुखरो निकलनेवाले रक्त को चाटकर कुछ are लिए आनन्दका अनुभव करता है और पश्चात् अपनी अज्ञ चेष्टाके कारण व्यथित हो दीखा करता है, उसी प्रकार विषयासक्तिमें कृत्रिम सुखकी झलक देख अनारमज मस्त हो अपने आपको भूल जाता है और अपने स्वाभाविक, प्राकृतिक ज्ञान, आनन्द, शक्ति तथा स्वरूपको विस्मृत कर बैठता है तथाविरुद्ध प्रवृति करनेके कारण दोन-हीन बनता है । उसकी अवस्था बनारसीदासजीके शब्दों में बबरुले पत्ते -जैसी हो जाती है "फिरे डांवाडोल सो, करमकी कलोलनि में, ह्व' रही अवस्था बनरूले जैसे पातकी ।" Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन प्रकृति भक्त कवि बई सवर्थको निम्न पंक्तियाँ इस प्रसंगमें उद्बोधक प्रतीत होली है *The world is too much with us; late and soon, Getting and spending, we lay waste our powers, Little we see in Nature that is ours; We have given our hearts away, a sordid Doon? नारि हम माननिकाला लोकपा मग हूँ । व्यापार आदिके लेन-देनके हेतु हम प्रातः शीघ्र ही उठले हैं और रात्रि में देरसे मोते है। इस प्रकार हम अपनी शक्तिको नष्ट कर रहे हैं। हमें 'प्रकृति के लिए कुछ भी चिन्ता नहीं है; यद्यपि वह हमारी स्वयंको वस्तु है। हमने हुदरको कहीं दूसरी जगह फंसा रखा है । वास्तवमै यह मलिन वरदान बन गया है । फंसी विचित्र बात है कि यह आरमा अनन्त अनात्मपदार्थोकी ओर चक्कर मारने अथवा दौडधूप करनेके वैभाविक कार्यको स्वाभाविक मानता है और साधनाके सच्चे भार्गरूप अपने स्वरूपकी उपलब्धिको भार रूप अनुभव करता है। स्वामी कुन्दकुन्द बताते हैं "सुदपरिचिदाणुभूदा सव्यस्सवि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुवलभो णबरि ण सुलभो विहत्तस्स ॥१४॥" समयसार काम और भोग सम्बन्धी कथा इस जीवने अनन्त बार मुनी, उसका अनन्त बार परिचय पाया और अनन्त बार अनुभव भी किया। यह जीव, अमृत संद्राचार्यके शब्दोंमें 'महता मोहग्रहेण गोरिय वाह्यमानस्य' बलवान् मोहरूपी पिशाचसे बलके सदृश जोता गया है। इसलिए काम-भोग सम्बन्धी कथा सुलभ मालम पड़ती है, किन्तु कर्मपुजसे विभक्त अपने आत्माका एकपना न तो कभी सुना, न परिचयमें आया और न अनुभवमें आया; इसलिए यह अपना होते हुए भी कठिन मा लूम पड़ता है। ___ कर्म-भार हलका होनेपर, वीतराग बाणीका परिशीलन करनेपर और संतजनोंके समागमसे सायकको वह विमल दृष्टि प्राप्त होती है, जिसके सद्भावमें नारकी जीव भी अनन्त दुःखोंके बीच में रहते हा विलक्षण आस्मीक शान्तिके कारण अपनको कृतार्थ सा मानता है और जिसके अभाव में अवर्णनीय लौकिक सुखोंके सिंधुमें निमग्न रहते हुए भी देवेन्द्र अथवा पक्रवर्ती भी वास्तविक शांतिलाभसे वंचित रहते हैं । पंचाध्यायीकार कितने बळके साथ यह बताते है-- Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-जागरणके पथपर "शकचक्रधरादीनां केवलं पुण्यशालिनाम् । तृष्णाबीजं रतिस्तेषां सुखबाप्तिः कुतस्तनी ।'' ऐसे साधककी मनोवृत्ति के विषयमें अध्यात्म साधना के पथमें प्रवृत्त साधकवर बमारसोवाप्तजी अपने नाटक समयमार में लिखते हैं जैसे निसि बासर कमल रहै पक ही मैं, पंकज कहावे पे न बाके ढिग पंक है । जैसे मंत्रवादी विषधर सौं गहावे गात, की संगति वा विदा चिनक है। जैसे जीभ गहै चिकनाई रहे रूखे अंग, पानीमें कनक जैसे कायसौं अटक है । तेसे ज्ञानवंत नाना भौति कति ठाने, किरिया तें भिन्न माने यात निकलंक है ।। योगविद्याको अनुभूति करभेवाले योगिराज पूज्यपाद आत्मबोधको भवयाघियोंको उन्मूलन करनेमें समर्थ औषध बतलाते हैं--- "मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः त्यक्त्वेनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापतेन्द्रियः' ।। १५॥" ___ संसारपरिभ्रमणका कारण पूज्यशद स्वामी की दृष्टि में शरीर में आत्माकी भावना करना है विदेहत्व-निर्वाणका बीज आत्मामें आत्म-भावना है "देहान्तरगतेबीजं देहेऽस्मिन्नात्मभावना। बीजं विदेहनिष्पत्तः, आत्मन्येवात्मभावना ॥७४।।" इस आत्म-दृष्टिके वैभवसे संपन्न साधकके पास किसी प्रकारको भौति नहीं रहती। उसको दृष्टि सदा अमर जीवन और अविनाशी आनन्दकी ओर लगी रहती है। उसकी श्रद्धा तो महषि कुन्दकुन्दके शब्दोंमें यह बात टंकोस्कोर्णसी हो जाती है कि-मेरा बाल्मा एक है, ज्ञानदर्शन-समन्वित है, बाकी सब बाह्य पदार्थ है- सम संयोगलक्षणवाले हैं, आत्माके स्वरूप नहीं है “एगो मे सासदो आदा, गाणदसणलक्षणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोग-लपखणा॥" - भावपाहरु जब ऐस उज्ज्वल विचार मात्मामें स्थान बना लेते हैं, तब मृत्युसे भेंट करानेवालो मुसीबत भी उस ज्ञानज्योतिर्मय सारमाको संतप्त नहीं करती। इसका यह १. समाधिशतक । २. समाधिशतक। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. नशासन : . . .. . ... अखण्ड विश्वास रहता है, कि मेरा मारमा जन्म, जरा, मृत्यु आदिकी आपदाओंसे परे है । इनका खेल शरीर अथवा जड़ पदार्थों तक ही सोमित है । आत्मसाधक पूज्यपालस्वामी तो अंतरात्माके लिए प्रबोधपूर्ण यह सामग्री देते हैं "न में मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा। नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ॥" - इप्टोपदेश २९ जब मेरी मृत्यु नहीं है, तब भय किस बातका ? जब मेरा आत्मा रोगमुषत है तम व्यथा कैसी ? अरे, न तो मैं वाला है, न वृद्ध है और न तरुण ही है...यह सब पुद्गलका खेल है। इस प्रसंगमें अमतचन्द्रसूरिके ये शब्द बड़े मार्मिक तथा उद्योधक है जिन मुमुक्ष ओंका अन्त करण संसार, शरीर तथा भोगोंसे निस्पह है उन्हें वह सिद्धान्त निम्चित करना चाहिये कि 'मैं' सर्वदा शुद्ध, चैतन्यमय, अखण्ड, उत्कृष्ट ज्ञान-ज्योति-स्वरूप हैं। जो रागादिरूप भिन्मलक्षण वाले भाव पाये जाते है, उन रूप 'मैं' नहीं हूँ, कारण वे सभी मरेसे भिन्न द्रध्य रूप है।" ऐसे मुमुक्षुकी चित्तवृत्तिपर बनारसीदासजी इस प्रकार प्रकाश डालते हैं :जिन्हकै सुमति जागी, भोगसो भए दिनागि, परसंगत्यागि जे पुरुष त्रिभुवनमें रागादिक भावनिसों जिन्हको रहन न्यारी. कबहूँ मगन ह न रहे धाम धनमें जे सदेव आपके विचारे सरवांग शद्ध जिन्हके विकलतान च्यापे कछ मनमें । तेई मोक्षमारगके साधक कहावे जीव, भावे रहो मन्दिरमें भाने रहो वनमें ॥" इस आत्म-विद्या में यह भलौकिकता है कि-यह वित्तिको दुर्दैवकी कृपा मानती है कि यह मारमा पूर्वबद्ध कर्मका कार्ज विपत्ति के बहाने चुकाकर ऋणमुक्त हो जाता है। मर्यादापुरुषोत्तम महाराज रामचन्द्र प्रभातमें साकेत साम्राज्पके अधिपति बननेका स्वरन देख रहे थे, कि दुर्दैवने कैकेयीको घाणीके रूपमें अन्तराय मा पटका और रामको दनकी और जाना पड़ा । इस भीषण परिवर्तनको देख आत्मज्ञ राम सत्पपसे विचलित नहीं होते । चित्तमे प्रसादको स्थान देते हुए वे अपने इष्टजनोंको कितने मधुर शब्दोंमें अपने बनवासके बारेमे सुनाते है 'राज्ञा मे दण्डकारण्ये राज्यं दत्तं शुभेऽखिलम् ।'' ---- "सिद्धान्तोऽयमदात्तचित्तपरितोक्षाधिभिः सेम्यताम् । शुद्ध चिन्मयमकमेव परमं ज्योतिः सदवारम्यहम् ॥ एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग लक्षणाः। तेऽहं मास्मि यतोऽत्र से मम परव्रज्यं समना मपि ।।" Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म जागरणके पथपर ५९ महाराज दशरथने मुझे सम्पूर्ण दण्डक वनका राज्य दिया है। इस मोहो मानवकी सम्यक्ज्ञानके प्रभावसे कैसी विलक्षण वीतरागतापूर्ण पवित्र मनोवृति हो जाती है ! नरक में शारीरिक दृष्टिसे वह अवर्णनीय यातनाओंको भोगता है, यह कौन न कहेगा ? किन्तु प्रबुद्ध कवि दौलतरामजी अपने एक पदमें कहते हैं :"वाहर नारक कृत दुख भोगत, अन्तर समरस गटागटी । रमत अनेक सुरनि सँग पे तिस, परनतिसे नित हटाहूदी ||" इस आत्मसाधनाका प्राण निर्भीकता है। जिसे इस लोक परलोक मरण आदिको चिन्ता सताती है, वह साधना मार्ग में नहीं चल सकता | इसलिए महापनि प्रत्येक कविता है । गीताके शब्दों में तो ऐसे आत्मदर्शके हृदय में यह वृढ़ विश्वास जमा रहता है- " नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापः न शोषयति मारुतः ॥ २२३ ॥ 1 इस आत्माको शस्त्र छेद नहीं सकते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल गीला नहीं करता और न पवन ही इसे सुखाता है । आत्म-शक्ति अथवा आत्माके गुणों के विषयमें यथार्थ विश्वास (सम्यक दर्शन ) और सत्यज्ञानके समान सम्यक् चारित्रकी भी अनिवार्य आवश्यकता है । साबनाकी भूमिकारूप विशुद्ध श्राद्धकी आवश्यकता है । यथार्थबोध भी निर्वाणके लिए महत्त्व - पूर्ण है। इसी प्रकार साधना के लिए शील, सदाचार, संयम आदिका जीवन भी अपना असाधारण महत्त्व रखता है। विशुद्ध आचरणकी ओर प्रवृत्ति हुए बिना आत्मशक्ति और विभूतिकी वर्षा काल्पनिक लड्डू उड़ाने जैसी बात है। मन मोदकसे भूख दूर न होगो । सभ्य वारित्रके द्वारा जीवन में लगी हुई अनादिकालीन कालिमाको निकालकर उसे निर्मल बनाता होगा । आजका भोग-प्रधान युग ज्ञानके गोल सुनकर आनन्दविभोर हो झूमने या लगता है; किन्तु बिना पुण्याचरणके यथार्थ आनन्दका निर्भर नहीं बहता आनन्दरूपी सुवाससे युक्त कमलपुष्प के नीचे फष्टकों का जाल है। उनसे डरनेवालेको पंकजकी प्राप्ति और उसके सौरभका लाभ कैसे हो सकता है ? अनन्तकालसे लगी हुई दुर्वासना और विकृतिको दूर करना सम्वक्चारित्रका सहयोग पाये बिना असम्भव है | अतः आगे साधना विशिष्ट अंगभूत आचारके विषयमें विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शासन संयम बिन घड़िय म इक्क जाह भारतीय साहित्य का एक बोधपूर्ण कारक है जिसे कसके नामांकित विद्वान् टाल्स्टापने भी अपनाया है। एक पथिक किसी ऊँचे वृक्षकी शाखापर टंगा हुआ है, उस शाखाको पवल और कृष्ण वर्णनाले यो चहं काट रहे हैं । नीचे जड़को मस्त हाथी अपनी मुंड में फैमा उस्वाइन की तैयारी है । पथिककै नीचे एक अगाध जलसे पूर्ण तया मर्प-मगर आदि भयंकर जन्तुओं से व्याप्त जलाशय है । पथिक के मुखके समीप एक मधु-मविषयों का लत्ताई जिम्मे यदा-कदा एकात्र मधु-बिन्दु टपक वर पधिकको क्षणिक आनन्दका भान कराती है। इस मधुरररासे मुग्ध हो पथिक न तो यह सोचता है कि चूहोंके द्वारा शाखाके कटनेपर भेरा क्या हाल होगा? वह यह भी नहीं सोचता कि गिरनेपर उस जलायमें वह भयंकर जन्तुओंफा ग्राम बन जागा । उसके विषयान्ध हृदय में यह भी विचार पैदा नहीं होता, कि यदि हाथीन जारका झटका दे वृक्षको गिरा दिया तो वह किस तरह सुरक्षित रहेगा ? अनेक विपत्तियोंके होते हुए भी मधुकी एक विन्दुके रस-पान की लोलुपतावश वह सब बातोंको भूला हुआ है। कोई विमानबासी दिग्यात्मा उस पघिसके संकटपूर्ण भविष्यक कारण अनुकम्पायुक्त हो उसे समझाता है और अपने साथ निरापद स्थानको ले जाने की इच्ची तत्परता प्रदर्शित करता है । किन्तु, मह उनकी वालपर तनिक भी ध्यान नहीं देता और इतना ही कहता है कि मुझे कुछ थोड़ा-मा मधु-रस और ले लेने दो ! फिर मैं आपके साथ चलूगा । परन्तु उस विषयान्ध पथिकको वह अवसर ही नहीं मिल पाता कि वह विमानमें बैठ जाए; कारण इस बीच में यात्राके कटने से और वृक्ष के जाखड़नेसे उसका पतन हो जाता है । वह अवर्णनीय यातनाओं के साथ मौत का ग्रास बनता है। इस रूपकमें संसारो प्राणीका सजीव चित्र अंकित किया गया है । पथिक और कोई नहीं, संसारी जोय है, जिसको जीवन शाखाको शुक्ल और कृष्ण पक्ष रूपी चूहे, क्षण-क्षण में भीग कर रहे हैं। हाघो मृत्युका प्रतीक है और भयंकर जन्तु-पूर्ण सरोवर नरकादिका निदर्शक है । मधुबिन्दु सांसारिक क्षणिक सुखको मूचिका है। दिमानवासी पवित्रात्मा सत्पुरुषों का प्रतिनिधित्व करता है। उनके द्वारा पुनः पुनः कल्याण का मार्ग-विषय-लोलुपताका त्याग बताया जाता है । किन्तु वह विषयान्ध तनिक भी नहीं सुनता । वास्तव में जगत्का प्राणी मधु बिंदु सुल्य अत्यन्त अल्प मुखाभाससे अपने आत्माकी अनन्त लालसाको परितृप्त करना चाहता है, किंतु आशाको तृप्ति Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम बिन घडिय म इक्क जाहु होनेके पूर्व ही इसको जीवन-लीला समाप्त हो जाती है । महाकवि भूषरवास मोहो जीवकी दीनतापूर्ण अवस्याफा कितना सजीव चित्रण करते हैं "चाहत हो धन लाभ किसी विध, तो सब काज सरें जियरा जी। गेह चिनाय करौं गहना कछ, व्याह सुता-सुत बांटिये भाजी ।। चिन्तत यौं दिन जाहि चले, जम आन अचानक देत दगा जी । खेलत खेल खिलारि गए, रहि जाय रुपी सतरंजकी बाजी ।।" इस मोही जीवकी विचित्र अवस्था है। बाह्य पदार्थोके संग्रह, उपयोग, उपभोगके द्वारा अपने मनोदेवता नया इन्द्रियोंशी परितृप्त करने का निरन्तर प्रयत्न करने हुए भी इसे कुछ साता नहीं मिलनी । कदापित् तीव्र पुणोदयसे अनुकूल सामग्री और सन्तोष-प्रद वातावरण मिला, तो लालसाओंकी वृद्धि उसे बरी तरह रेचन बनानी और उस अन्व यारो भइ आत्मा वैभव, विभूतिके द्वारा प्रदत्त विचित्र यातना भोगा करता है। एक बड़े धनीको लक्ष्य करते हुए हजरत अकबर कहते है.--- “सेठ जीको फिक थी एक एकके दस कीजिए। मौत आ पहुंची कि हज़रत जान वापिस कीजिए।" एक और उर्दू भाषाका कवि प्राण-पूर्ण वाणी में संसारकी असलियतको चित्रित करते हुए कहता है "किसीका कंदा नगीने पं नाम होता है। किसीकी जिंदगीका लाएज जाम होता है ।। अजब मुकाम है यह दुनिया कि जिसमें शामोशहर किसीका कूच-किसीका मुकाम होता है ।।" जब विषय-भोग और जगतकी यह स्थिति है, कि उसके सुखों में स्थायित्व नहीं है -वास्तविकता नहीं है और वह विपत्तियोंका भण्डार है, तब सत्पुरुष और कल्याण साधक उन सुखोंके प्रति अनासक्त हो जात्मीक ज्योति के प्रकाशमें अपने जीवन नौकाको ले जाने हैं, जिसमें किसी प्रकारका स्वतरा नहीं है । इस प्राणीमें यदि मनोबलको कमी हुई तो विषयवासना इसे अपना दास बना पबदलित करने में नहीं चूकती । इस मनको दास बनाना कठिन कार्य है । और यदि मन वशमें हो गया तो इन्द्रिया, वासनाएँ उस विजेताके आगे बारमसमर्पण करत ही है। यही कारण है कि सुभाषितकारको यह कहना पड़ा "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।" Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन मनो-जयके लिए आत्माको बहुत बलिष्ठ होना चाहिए । संसारकी चमकदमक और मोहक सामग्रीको पा जो आपके बाहर हो जाता है, वह आरम-विकासके क्षेत्रमें असफल होता है। मन सबपर असवार है मनके मते अनेक ! जो मन पर असवार हैं वे लाखनमें एक ।। मनो-जयकी कठिनताको चिनोदपूर्ण भाषामें एक स्वर्गीय जैन विद्वान इस प्रकार समझाते थे-“चालीस से कहा की अन होता को नो दाना भी जानता है ।" 'इसी प्रकार चालीस सेर नहीं शेर (Tiger) से अधिक आस्मीक शक्ति रखनेपर मनको जोतनेकों समर्थ हो सकता है।' साधक आत्मदर्शनके द्वारा भौतिक पदापोंकी निज स्वरूपसे भिन्नताको समझते हुए और इसी तत्त्वको हृदयंगम करते हुए अपनी आत्माको राग, द्वेष, मोह, क्रोध-मान-माया-लोभ आदि कलंकोंसे निर्मल करने के लिए जो प्रयत्न आरम्भ करता है, यथार्थमें वही सदाचार है, बहो संयम है और उसे ही सम्यक्त यारित्र कहते हैं । इसके बिना मुक्ति-मार्गके लिए मुमुक्ष पूर्णतया पंगु है । स्वामी समस्तमा कहते हैं "मोहरूपी अन्धकारके दूर होमेपर दर्शन-शक्तिको प्राप्त करनेवाला तरवज्ञानी सरपुरुष राग, द्वेष दूर करनेके लिए चारित्रको धारण करता है । रागढेषके दूर होने से हिंसादिक पाप भी अनायास छूट जाते हैं ।" वे यह भी लिखते हैं कि--हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पापके कारणोंसे जीवका विमुख होना चारित्र है ।"' आचार्य अमृतशत सम्पूर्ण पापोंके परित्यागको चारित्र कहते हैं और बताते है कि कषाविमुक्त, उदासीन, पवित्र आत्मपरिणतिस्वरूप चारित्र है । हिंसा आदिका पूर्णतया परित्याग करनेमें असमर्थ प्राथमिक साधकके लिए उनका आशिक परित्याग आवश्यक है। पुरुषार्थसिधुपायमें अमृतचन्न स्वामी कहते हैं- झूठ, चोरो मादिम आत्माकी निर्मल मनोवृत्तिके हननकी अपेक्षा समानता होने से सह पाप हिंसात्मक ही हैं । स्पष्टतया समझाने के 1. रनकरण्डश्रावकाचार ४७ । २, पारिष भवति यतः समस्तसावद्यमोगपरिहरणात् । सकलकषायधिमुवतं विशदमुदासीनमात्मरूपं सत् ॥३९॥ ३. "नात्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात्, सर्वमेव हिंसैतत् । । अमृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।।४२॥" -पुरुषार्यसिद्धधुपाय। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम बिन घडिय म इक्क जाह लिए झूठ, चोरी आदिक भेद वर्णित किये गये हैं । इस दृष्टि से समष्टिको भाषामें हिंसा ही पाप है और अहिंसा ही धारिल तथा साधनाका मार्ग है । आध्यात्मिक भाषामें रांगादिक विकारोंकी उत्पत्तिको हिंसा और उनके अप्रादुर्भावको अहिंसा काहा है । व्यावहारिक भाषामें मनसावाचा-कर्मणा संकल्पपूर्वक ( Intentionally ) स जीवोंका ( Mobile creatures ) न तो स्वयं पात करता है, न अन्यके द्वारा घात कराता है एवं प्राणिपातको देखन आन्तरिक प्रशंसा द्वारा अनुमोदना ही करता है वह गृहस्थकी स्थूल अहिंसा है । प्राथमिक साधन इस अहिंसा-अणुवतके रक्षार्थ मद्य, मांस और मधुका परित्याग करता है । इसीलिए यह शिकार भी नहीं खेलता और न किसो देवी-देवताके आगे पशु आदिका बलिदान ही करता है। किंतनो निर्दयताको बात है यह कि अपने मनोदिनोट अथवा पेंट करने के लिए भयको साकारमूर्ति, आश्रय-विहीन, केवल परीररूपी सम्पत्तिको धारण करनेवालो हरिणी तकको शिकारी लोग अपने हिंसाके रस में मारते हुए जरा भी नहीं सकुचाते और न यह सोचते कि ऐसे छीन प्राणीके प्राणहरण करनेसे हमारा आत्मा कितना कलंकित होता जा रहा है । आचार्य गुणभद्रने आत्मानुशासनमें लिखा है "भीतमूर्तिः गतत्राणा निर्दोपा देहवित्तिका । दन्तलग्नतृणा नन्ति मृगीरन्येषु का कथा ।।२२।।" जूबा (द्यूत) अनुचित तुष्णा तथा अनेक विकारोंका पितामह होने के कारण साधकके लिए सतर्कतापूर्वक सम्म अथवा भद्र रूप में पूर्णतया त्याज्य है। पापोंके विकासकी नस-नाड़ी जाननेवालोंका तो यह अध्ययन है कि यह सम्पूर्ण पापॉका द्वार खोल देता है। आमतचर स्वामी इसे सम्पूर्ण अनर्थों में प्रथम, पवित्रताका विनाशक, मायाका मन्दिर, चोरी और बेइमानोका अड्डा बताते हैं। द्यूतके अवलम्बनसे यह प्राणी कितना पतित-चरित हो जाता है इसे सुभाघितकारने एक होगी साधुरो प्रश्नोत्तरके रूपमें इन शब्दोंमें बताया है । पूछते है "भिक्षी, मांसनिषेवनं प्रकुरुषे ? कि तेन मद्यं विना | मद्यं चापि तव प्रियम् ? प्रियमहो वारांगनाभिः सह ।। वेश्या द्रव्यरुचिः कुतस्तद धनम् ? धूतेन चोर्येण वा । चौर्य द्यूतमपि प्रियमहो नष्टस्य कान्या गतिः ।।" द्यूतके समान साधक चोरीकी आदत, वेश्या-सेदन, परस्त्रीगमन सदृश व्यसन नामधारी महा-पापोंसे पूर्णतया आरम-हत्या करता है । सापको स्मृतिपपमें पे व्यसन सदा शत्रुके रूप में बने रहना चाहिए Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनशासन जवा, आमिष, मदिरा, दारी 1 आखेटक, चोरी, परनारी ।। ये ही सात व्यसन दुखदाई। दुरित मूल दुरगतिके भाई ॥ -बनारसीदास, नाटक समयसार साध्यसाधक द्वार । वह साधक धूल झूठ नहीं बोला या प्रणा कता है। स्वामी समन्तभन्न इस प्रकारके सत्य सम्भाषणको भी अपनी मूल-भूत अहिंसात्मक वृत्तिका संहार करने के कारण असत्यका अंग मानते हैं, जो अपनी प्रास्माके लिए विपत्तिका कारण हो अथवा अन्यको संकटोंसे आक्रान्त करता हो । यहाँ सत्यकी प्रतिज्ञा लेने वाले प्राथमिक साधकके लिए इस प्रकारके वचनालाप तथा प्रवृत्ति की प्रेरणा की है जो हितकारी हो तथा वास्तविक भी हो | वास्तविक होते हुए भी अप्रशस्त वषनको त्याज्य कहा है-यही सत्याणुव्रतका स्वरूप है।' सत्पुरुषोंने अचौर्याणवसमें साधकको दूसरेको रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई और बिना दी हुई वस्तुको न तो ग्रहण करनेकी और न अन्यको देनेकी आज्ञा दी है। ब्रह्मचर्याणुव्रत के परिपालन निमित्त बताया है कि-बष्ट पापसंचयका कारण होनेसे स्वयं पर-स्त्री सेवन नहीं करता और न अन्यको प्रेरणा हो करता है । गृहस्थको भाषामें इसे स्थल ब्रह्मचर्य, परस्त्रीत्याग अथवा स्व-स्त्रीसंतोष व्रत कहते हैं। __ इच्छाको मर्यादित करने के लिए वह गाय आदि धन, धान्य, रुपया-पैसा, मकान, खेत, वर्तन, वस्त्र आदिको आवश्यकताके अनुमार मर्यादा बांधकर उनसे अधिक वस्तुओंके प्रति लालसाका परित्यागकर परिग्रह-परिमाणन्नतको धारण करता है। इस वसमें इच्छाका नियन्त्रण होने के कारण इसे इच्छापरिमाण नाम भी दिया गया है। पूर्वोक्त हिंसा, मूठ, कोरी, कुशील और परिग्रन्के त्याग के साथ मद्य, मांस और मधुके त्यागको साधकके आठ मूलगुण कहे है । वर्तमान युगको उछाल एवं भोगोम्मुख प्रवृत्तिको लक्ष्य में रखकर एक आचार्यने इस प्रकार उन मूल गुणोंकी परिगणना की ई १. "स्थूलमलीक न वदति म परान वाधयति सत्यपि विपदे । यत्तद्वदन्ति सन्तः स्थूलमुपायादव रमणम् ॥" -रत्न श्रा० ५५ । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम बिन घड़िय म इक्क जाहु "मध, मांस, मा. लिभोजन और पीपल, का, क, ड्रामा कर सदृश प्रस-जीवयुक्त फलोंके सेवन का त्याग, अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु नामक अहिंसाके पथमें प्रवृत्त पंच परमेष्ठियोंकी स्तुति, जीवदया तथा पानीको वस्त्र द्वारा भली प्रकार छानकर पीना यह आठ मूलगुण हैं।' जैसे मूलके शुभ और पुष्ट होनेपर वृक्ष भी सबल और सरस होता है, उसी प्रकार मूलभूत उपर्युक्त नियमों द्वारा जीयन अलंकृत होनेपर साधक मुक्तिपथमें प्रगति करना प्रारंभ कर देता है। मद्य और मांसको सदोषता तो धार्मिक जगत्के समक्ष स्पष्ट है, किन्तु आजके युगमें अहिंसात्मक पद्धति से मक्षिकाओंका बिना विनाश किये जब मधु तैयार होता है, तब रघुत्यागको मूलगुणोंमें क्यों परिगणित किया है यह सहज शंका उत्पन्न होती है ? स्वयं गाँधीजी ऐसे मधुको अपना नित्यका आहार बनाये हुए थे। हमने १९३५ में बापूसे मषु त्यागपर उनके वर्घा भाश्रममें जब चर्चा की, तब उन्होंने यही कहा था कि पहले जीववध पूर्वक मधु बनता था, अब अहिंसात्मक उपायसे वह प्राप्त होता है, इसलिए मैं उसको सेवन करता है। इस विषयकी चर्चा जब हमने चारित चक्रवर्ती दिसम्बर जैन आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज चलायी और प्रार्थना को, कि अहिंसा महाव्रती आचार्य होने के नाते इस विषय में प्रकाश प्रदान कीजिये तव आचार्य महाराजने कहा कि "मक्खी विकलत्रय जीव है, वह पुष्प आदिका रस खाकर अपना पेट भरती है और जो वमन करती है उसे मधु कहते हैं । उसका वमन खाना कभी भी जिनेन्द्रके मार्ग में योग्य नहीं माना गया । उस में सूक्ष्म जीव राशि पायो जाती है ।" भाशा है मधुको मधुरतामें जिन साधर्मों भाइयोंका चित्त लगा हो, थे आचार्य परमेष्ठीके निर्णयानुसार अहिंसात्मक कहे जानेवाले मधु को वमन होने के कारण, अनंतजीव-पिण्डात्मक निश्चय कर सन्मार्गमे ही लगे रहेंगे। राविभोजनका परित्याग और पानी छानकर पीना-यह दो प्रवृत्तियाँ जैनधर्मके माराधकके चिन्न माने जाते हैं। एक बार सूर्यास्त होते समय मदासमें अपना सार्वजनिक भाषण बन्दकर रात्रि हा जानेके भयसे गांधोजी जब हिन्दके सम्पादक श्रीकस्तूरी स्वामी आयंगरके चाय जानेको उद्यत हुए, तब उनकी यह प्रवृत्ति देख बड़े बड़े शिक्षिसोंके चित्तमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि गांधीजी वावश्य जैनशासनके अनुयायी हैं। जैसे ईसाइयोंका चिल्ल उनके ईश्वरीय दूत हजरत मसीहकी मौतका स्मारक क्रॉस पाया जाता है अथवा सिक्खोंके केश, कृपाण, कड़ा आदि वाद्य चिह है उसी प्रकार अहिंसापर प्रतिष्ठित जैनधर्मने करुणापूर्वक वृत्ति के प्रतीक और अवलम्बनरूप रात्रिभोजन त्याग और अनछमे १. सागारधर्मामृत २०१८ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन पानीके त्यागको अपनाया है। वादक साहित्य के अत्यन्त मान्य ग्रंथ मनुस्मृति में मनु महाराय लिखते है-- 'दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।" । --०६६४६। गाने दोन नियमा अहिंसात्मक प्रवृत्ति के साथ निरोगताका भी तत्त्व निहित है । गन् १:४१ को जुलाईॐ जनजट''म पंजाबका एक संवाद छपा था कि-एक व्यक्ति के पेट में अनन्दन पानीय माथ छोटा-गा मेतकका वच्या घुस गया । कुछ समयर अनन्त र पेंट में भयंकर पीड़ा होने लगी. तब आपरेशन किया गया और २५ तोळे वजन का भेदक बाहर निकला । आज जो रोगोंकी अमर्यादित वृद्धि हो रही है, उसका कारण यह है, नि लोगोन धर्म की दृष्टि से न सही तो स्वास्थ्य रक्षण लार रात्रि-भोगना परित्याग, अनछना पानी न पीना, जिन वस्तुओंमें असजीव उलन्न हो गये हों या जो उनकी उत्पत्ति के लिए धीजभूत धन चुके हैं, ए पदार्थोक भक्षणका त्याग पूर्णतया भुला दिया है । जीभकी लोलुपता और फैशनकी मोहकताकै कारण इन बातोंको भुला देने में ही अपना कल्याण समझा है । आजकलंक बड़े और प्रतिन्डित माने जानेवाले और अहिंसाक साधकोंका अंग में बैठने वार लक्ष्मीजा और आधुनिक आधिभौतिक ज्ञान के कृपापात्र पूर्वोक्त बातोंको ढकोसला समझ यथेच्छ प्रवृत्ति करते हुए दिखाई पड़ते हैं। उन्हें यह स्मरण रखना चाहिये कि हमारी असतु प्रवृत्तियों का घड़ा भरने पर प्रकृति अपना भयंकर दण्ड-प्रहार किय शिना न रहेगी और तब पश्चात्ताप मात्र ही शरण होगा। पं० आशाधरमोन गागा मायद शास्त्र तथा अनुभवके अाधारपर जिग्या है कि रात्रिभोजर' आमकिन ठीर रागको तीनता होती है तथा व.भी मी अशात अवस्थामें अनेक गमाको उत्पन्न करने वाले विद्यले जीव भी पेट में पहुँच विचित्र रोगों को उत्पन्न कर देना है। अगर पेट में चली जाए तो जलोदर हो जाता है, मक्खीसे वमन, बिच्छूसे तालुरोग, मकड़ी भक्षणले कुष्ट आदि रोग हो जाते हैं। अखबारी दुनियावालों को इस बातका परिचय है कि कभी-कभी भोजन पकाते समर छिपकली, सर्प आदि विषैले जन्तुओंके भोजनमें गिर जानेके कारण उत्त जहरीले आहार-पानके सेवन करनेपर फुटुम्ब-के-कुटुम्ब मुत्युके मुवमें पहुँच गये है। जो इन्द्रियलोलप है ये तो सोचा करते हैं कि भोजन कैसा भी करो दिलभर १. अध्याय ४-२५ 1 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम बिन घडिय म इषक जाहु साफ रहना चाहिये । मालूम होता है ऐसे ही विचारोंका प्रतिनिधित्व करते हुए एक शायर कहता है "जाहिद शराब पीनेसे काफिर बना मैं क्यों? क्या डेढ़ चुल्ल पानीमें ईमान बह गया ?" ऐसे विचारवाले गंभीरतापूर्वक अगर सच सके, तो उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि सात्त्विक, गजस और नामम आहार द्वारा इसी प्रकार के भात्रोंकी उत्पत्ति में प्रेरणा प्राप्त होती है । आहारका हमारी मा स्थिति माथ गहरा सम्बन्ध है । इसी बात को यह कहावत मूचित करती है.-.. "जैसा खावे अन्न, तैसा होवे मन | जैसा पीये पानी, तैसो होवे बानी ।' इस सम्बन्धमें गांधीजीने अपनी आत्मकथा में लिखा है--''मनका शरीरके साथ निकट सम्बन्ध है । विकारयुक्त मन विकार पैदा करनेवाले भोजनकी ही खोजमें रहता है । विकृत मन नाना प्रकारके स्वादों और भौगोको हूँ देत। फिरता है; और फिर उस आहार और भोगोंका प्रभाव मनवे ऊपर पड़ता है । मेरे दनुभवने मुझे यही शिक्षा दी है कि जब मन संयमकी बोर झुकता है. तन्य भोजन की मर्यादा और उपवास सूब सहायक होते हैं । इनकी सहायता विना गन्नो निर्विकार बनाना असम्भव-सा हो मालूम होता है ।" (पृ० ११२-१३) । __ अपने राजयोगमें स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं-"हमें उभी आहारका प्रयोग करना चाहिए, जो हमें सबसे अधिक पवित्र मन दे । हाथी आदि बड़े जानवर शान्त और नन्न गिलेंगे। सिंह और चीतकी ओर जानोगे तो वं उत्तने हो अशान्त मिलेंगे । यह अन्तर आहार भिन्नताके कारण है ।'' महाभारतमें तो यहां तक लिखा है कि-आहार-शुद्धि न रखनेवालेले तीर्थयात्रा, जप-तप आदि सब विफल हो जाते है "मद्यमांसाशनं रात्री भोजन कन्दभक्षणम् । ये पूर्वन्ति वधा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः ।। चातुर्मास्ये तु सम्प्राप्ते रात्रिभोज्यं करांति यः । तस्थ गुद्धिर्न विद्येत चान्द्रायणशतैरपि ।" कुछ लोग मांसभक्षणके समर्थन में नहस करते हुए कहने लगते हैं कि मांसभक्षण और शाकाहारमें कोई विशेष अन्तर नहीं है। जिस प्रकार प्राणघारीका अंग बनस्पति है उसी प्रकार मांस भी जीवका शारीर है । जीव-शरीरत्व दोनोंमें समान है। वे यह भी कहते है कि अण्डा-भक्षण करना और दुग्धपानमें दोषको Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनशासन दृष्टिसे कोई अन्तर नहीं है। जिस अंडे में बच्चा न निकले उसे ; unfertiliseel gg-निर्जीव अण्डा कहनार शाकाहारके साथ उसकी तुलना करते हैं । यह दृष्टि भ्रमपूर्ण है। अण्डेके बारेमें गहरे परीक्षणके उपरान्त एक रूमो वैज्ञानिकने कहा है | life begins in egg-अण्डेमें जीवनका आरंभ होता है (रीडर्सडाइजेस्ट) अंधेका बाल श्वेत भाग अस्थि रूप है । उसके भोप्तरका रस अनेक जीवोंसे भरा हुया है। ___यह दृष्टि अतात्विक है । मांसभक्षण क्रूरताका उत्पादक है, वह सात्विक मनोवृत्तिका संहार करता है 1 वनस्पति और मांस के स्वरूपमें महान अन्तर है । एकेन्द्रियजीव जल आदिके द्वारा अपने पोषक तत्वको ग्रहणकर उसका स्खल भाग और रस भाग रूप ही परिणमन कर गाता है । रुधिर, मांस आदि रूप आगामी पर्यायें जो अनन्त जीवोका फलेदर रूप होती है, वनस्पतिमें नहीं पायी जाती । इसलिए उनमें समानता नहीं कही जा सकती। दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि अत्यन्त अशुद्ध शुक्र-शोणित रूप उपादानका मांस रुधिर आदिरूप शरीरके रूपमें परिणमन होता है । ऐसी घृणित उपादानता वनस्पतिमें नहीं है । बनस्पतिको पेशाशी न कहकर आधी कहा है । यह सकं ओक है कि प्राणीका अंग अन्नके समान मांस भी है; किन्तु दोनोंके स्वभाव समानता नहीं है । इसीलिए साधकके लिए अन्न भोज्य है और मांस अपवा अण्डा सदृश पदार्थ सर्वथा त्याज्य है। जैसे स्त्रीत्वकी दृष्टिसे माता और पलीमें समानता हो कही जा सकती है, किन्तु भोग्यत्वको अपेक्षा पली ही ग्राह्य कही गयी है, माला नहीं। "प्राण्यंगत्वे समेऽप्यन्नं भोज्यं मांसं न धार्मिकः । भोग्या स्त्रीत्वाविशेषेऽपि जर्जायव नाम्बिकाः ।।" --सागारधर्मामृत २०१० । यूरोपके मनीषी महात्मा टाल्सटाय ने मांस-भक्षणके विषयमें कितना प्रभावपूर्ण कथन किया है.--"क्या मांस खाना अनिवार्य है ? कुछ लोग कहते हैं-यह तो अनिवार्य नहीं है, लेकिन कुछ बातों के लिए जरूरी है। मैं कहता हूँ कि यह जारी नहीं है। मांस खाने से मनुष्यको पाशविक वृति बढ़ती है, काम उत्तेजित होता है, व्यभिचार करने और शराब पीने की इच्छा होती है । इन सब बातोंके प्रमाण सम्धे और शुद्ध सदाचारी नवयुवक, विशेष कर स्त्रियाँ और तरुण लड़कियाँ है, जो इस बातको साफ-साफ कहती है कि मांस खाने के बाद कामकी उत्तेजना और १. कन्चे अथवा पके माममें भी हिंसा दोष पाया जाता है, कारण उनमें सूक्ष्म जीवोंकी निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है । पु० सिखयुपाय, ६७ स्वयं मरे भंसा, बैल आदिका मांस भक्षण करना भी दोषयुक्त है ? -T० ६६ । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम बिन पडिय म इक्क जाहु ६९ अनर पाशविक वृत्तियां अपने आप प्रबल हो जाती है।" वे यहां तक लिखते है कि "मांस खापर री बना नाम है:" मी ति तो सरिधान और महापुरुष माने जानेवाले व्यक्तिको टाल्स्टाय जैसे विचारकके मतसे निरामिपभोजी होना अत्यन्त आवश्यक है। वैज्ञानिकोंने इस विषयमें मनन करके लिखा है कि मांस आदिके द्वारा दल और निरोगता मध्यादन करतेको कल्पना ठीक वैमी ही है जैसे वायकके ओरसे सुस्त घोड़ेको तेज करना । मांसभक्षण करनेवालोंमें क्रूरताको अधिक मात्रा होती है | सहनशीलता, जितेन्द्रियता और परिश्रम-शीलता उनमें कम पायी जाती है। गि० धेरेस महाशय नामक यि धुन शास्त्रजन यह सिद्ध किया है कि फल और मेवामें एक प्रकारकी विजली भरी हुई है, जिससे शरीरका पूर्णतया पोषण होता है। 'न्ययार्क ट्रिब्यून' के गंपादक श्री होरेस लिखते हैं--"मेरा अनुभव है कि मांसाहारीफी अपेक्षा शाकाहारी दग वर्ष अधिर जी सकता है। अध्यापक लारेंसका अनुभव है-"मामाहारम शरीरकी शक्ति और हिम्मत कम होती है। यह तरह-तरहकी बीमारियों का मूल कारण है। शाकाहारका साथ निर्बलता, भीरुता तथा रोगोंका कोई सम्बन्ध नहीं है।" (मांसाहारसे हानियां' से उद्धृत)। __ मांसभक्षण न करनेवाले अहिसक महापुरुषोंने अपने पौरुष और दुद्धिचलके द्वारा इस भारत भालको मदा उन्नत रखा है । अहिंसा और पवित्रताको प्रतिमा वीर शिरोमणि जैन सम्राट चन्द्रगुप्तने सिल्यूकस जैसे प्रमल पराक्रमी मांसभक्षी सेनापतिको पराजित किया था । पराक्रमको आत्माका धर्म न मानकर शरीर सम्बन्धी विशेषता समझनेवाले ही यथेच्छाहारको ग्राह्य बसलाते हैं। शौर्य एवं पराक्रमका विकास मितेन्द्रिय और आत्म-बली में अधिक होगा | राष्ट्रके उत्थाननिमित्त जितेन्द्रियता ब्रह्मचर्य-संगठन आदि सवगणोंको जागृत करना होगा । मनुष्यताका स्वयं संहार कर हिंसक पशुवृत्तिको अपनानेवाला कैसे सापनाके पथमें प्रविष्ट हो सकता है ? ऐमे स्वार्थी और विषयलोलुपके पास दिव्य विचार और दिश्य सम्पत्तिका स्वप्न में भी उदय नहीं होता । अतएव पवित्र जीवन के लिए पवित्र आहारपान अत्यन्त आवश्यक है। उस प्राथमिक साधकको जीवनचर्या इतनी संयत हो जाती है, कि वह लोक तथा समाज के लिए भार न इन, भूषण-स्वरूप होता है । वह सूक्ष्म दोषोंका परित्याग लो नहीं कर पाता किन्तु राज अयवा समाज द्वारा दण्डनीय स्थूल पापोंसे बचता है। अपने तत्त्वज्ञान आदर्शकी नवस्मृति और नव-स्फूर्ति निमित्त वह शांत, विकार रहित, परियह विहीन, वीतरागता युक्त जिनेन्द्र भगवान्की पूजा (Hero worship) करता है। वह मूतिके माबलम्ब नसे उस शान्ति, पूर्णता Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन और पवित्रता आदर्शको स्मरण कर अपने जीवनको उज्ज्वल बनानेका प्रयत्न करता है । उसकी पूजा मूर्ति (Idol) की नहीं, आदर्श की ( Ideal ) पूजा रहती है। इसलिए मूर्तिपूजा के दोष उस साधकके उज्ज्वल मार्गमें बाधा नहीं पहुंचाते । जब परमात्मा ज्ञान, आनन्द और शान्तिसे परिपूर्ण है, राग, द्वेष, मोइसे परिमुक्त है, तत्र उसे प्रसन्न करनेके लिए स्तुति गान करना ज्ञानवानका काम नहीं कहा आ सकता | वैज्ञानिक साधककी दृष्टि यह रहती है : "राग नाश करनेसे भगवन्, गुण कीर्तन में है क्या आश । क्रोध कपाय वमन करनेसें, निन्दा में भी विफल प्रयास ॥ फिर भी तेरे पुण्य गुणोंका, चिन्तन है रोधक जग त्रास कारण ऐसी मनोवृत्तिसे, पाप-पुञ्जका होता ह्रास ॥" ! अपने दैनिक जीवनमे लगे हुए दोपोंकी शुद्धिके लिए वह सत्पात्रों को मा आहार, औषधि, शास्त्र तथा अभयदान देकर अपने कृता माना है निर्भयोऽभयदानतः । ज्ञानवान् ज्ञानदानेन अन्तदानात्सुखी नित्यं निर्व्याधिः भेषजाद्भवेत् !! ७० उसका विश्वास है कि पवित्र कार्योंके करनेसे सम्पत्तिका नाश नहीं होता; किन्तु पुण्य के अयसे ही उसका विनाश होता है। आचार्य पद्मवि कहते हैं"पुण्यक्षयात् क्षयमुपैति न दीयमाना लक्ष्मीरतः कुरुत सन्ततपात्रदानम् ॥” वह उसी को सार्थक मानता हूँ जो परोपकार में लगता है । संक्षेप साधक्के गुणों का संकलन करते हुए पंडित आशाघरजी कहते हैं 1 "आदर्श गृहस्थ न्यायपूर्वक धनका अर्जन करता है, गुणी पुरुषों एवं गुणोंका सम्मान करता है, वह प्रशस्त और सत्यवाणी बोलता हूं, धर्म, अर्थ तथा काम पुरुषार्थका परस्पर अविरोध रूपसे सेवन करता है। इन पुरुषार्थोके योग्य स्त्री, स्थान भवनादिको धारण करता है, वह लज्जाशील अनुकूल आहार-विहार करनेवाला, सदाचारको अपनी जीबन-निधि माननेवाले सत्पुरुषोंकी संगति करता है, हिताहित विवार करने में वह तत्पर रहता है, वह कृतज्ञ और जितेन्द्रिय होता है, धर्मको विधिको सदा सुनता है, दयासे द्रवित अन्तःकरण रहता है, पापसे डरता है । इस प्रकार इन चौदह विशेषताओंसे सम्पन्न व्यक्ति आदर्श Terrant श्रेणी समाविष्ट होता है। ۱۱۹ १. न्यायोपात्तां यजन् गुरून् सद्गीस्वर्गं भज यानुगुणं गृहिणी स्थानालय हीमयः । युक्ताहारविहार आर्यनमितिः प्राणः कृतज्ञो नशी शृण्वन् धर्मविधि दयालुरघभी: सागारधर्म चरेत् ।। सागारधर्मामृत १ । ११ । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम बिन घडिय म इकक जाह ७१ कोई-कोई व्यक्ति, यह सोच सकते हैं कि जीवन एक संग्राम और रांघर्षकी स्थिति में है, उसमें न्याय-अन्यायकी मीमांसा करनवान्देकी मुम्बपूर्ण स्थिति नहीं हो सकती । इसलिए जैसे भी नन स्वार्थ-साधनाक कार्य में आगे बढ़ना चाहिए । यह मार्ग मुमुक्षुके लिए आदर्श नहीं है। वह अपने व्यवहार और भाचारके वारा इस प्रकार के जगतका निमांग करना चाहता है, जहाँ ईा. दुप, मोह, पंभ आदि दुष्ट प्रवृत्तियोंका प्रमार न हो । राब प्रेम और यान्तिके माध जीवनज्योतिको विकसित करते हुए निर्वाणको माधनामे उद्यत रहे. वह जगकी हार्दिक कामना रहती है। जनन्य स्वार्थापर विजय पाये बिना जुन्नतिकी कल्पना एक स्वप्नमान है । जघन्य स्वार्थ और वासनापर अबतक विजर नहीं की जाती, तबतक आत्मा यथार्य सन्नतिक पधपर नहीं पहुंचता । विश्वकवि रबीन्द्र बाबूके ये उद्गार महत्त्वपूर्ण है, "वासनाको छोटा करना ही आत्मा का बड़ा करना है।" भोग प्रधान पश्चिमको लक्ष्य बनाने हुए वे कहती हैं, "यूरोप मरने को भी राजो है, किन्तु बासनाको छोटा करना नहीं चाहता। हम भी मरनको राजी हैं, किन्तु आत्माको उसकी परमगति-परम सपसिसे वंचित करके छोटा बनाना नहीं चाहते'' साधनाके पथमें मनुष्यको तो बात ही क्या, होनहार उज्ज्वल भविष्यवाले पशुओं तकनं असाधारण आत्म-विकास और संयमका परिचय दिया है। भगवान महावीरके पूर्व भवोंपर वृष्टिपात करनेमें विदित होता है, कि एक बार के भयंकर सिंहको पर्याय में थे और एक मृगको मारकर भक्षण करने में तत्पर ही पे, कि अमितीति और अमितप्रभ नामक दो अहिंसा महासात्रयः मुनीन्द्रोंके आत्मतेज तथा ओजपूर्ण वाणोन उम निदवी स्वाभाविक क्रूरताको घोकर उसे प्रेम और काणाको प्रतिकृति बना दिया। महाकवि असगके शब्दों में ऋषिवर श्री अमितकीसिने उस मगेन्द्र को शिक्षा दी थी कि "स्व रा दशान् अवगम्य मर्दसत्त्वान्'-अपने सदृश सम्पूर्ण प्राणियोंको जानते हुए 'प्रगमरतो भव सर्वथा मृगेन्द्र'-हे मृगेन्द्र ! तू कूरताका परित्याग कर और प्रशाम्त एन । अपने शरीरको ममता दूर कर अपने अन्तःकरणको दया कर 'त्यज वापि परां ममत्वबुद्धि । कुरु करणाईमनारतं स्वचित्तम् ।' उन्होंने यह भी समाया, यदि तूने संयमारूपी पर्वतपर रहकर परिशुद्ध दृष्टिरूपी गुहाम निवास किया तथा प्रशान्त परिणति रूप अपने नखोंसे कषायरूपी हाथियोंका संहार किया, तो तू पथार्म में भव्यसिंह इस पदको प्राप्त करेगा।'-- यदि निवससि संयमोन्नताद्री प्रविमलदृष्टि गुहोदरे परिघ्नन् उपशमनखरैः कपायनागांस्त्वमसि तदा खलु सिंह ! भव्यसिंहः [महावीरचरित्र-११ सर्ग, ३८] १. 'स्वदेश' से। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है सिंहश्रेष्ठ | तू पंचपरमेष्ठियोंको सदा प्रणाम कर । यह नमस्कारण उपमातीत आनन्द प्राप्तिका कारण है और सस्पुरुष उसे इस दुस्तर संसार सिंधु संतरण निमित्त नौका सदृश बताते हैं । ४३।।' इस दिव्य उपदेशसे वह सिंह जो पहले 'मभ इव कुपितो विना निमित्त अकारण ही यमकी भांति क्रुद्ध रहता था, वह परम दयामूर्ति बन गया । इस अहिंसाकी आराधना द्वारा प्रवर्षमान होते हुए दसवें भवामें वह जीव वर्धमान महावीर' नामक महाप्रभुके रूप में उत्पन्न हुआ | उस हिंसक सिंहने शनै: शनै: विकाम करते हुए तीर्थकर भगवान महावीर के विभुवनपूजित पदको प्राप्त किया। उनके पूर्ववर्ती तीर्थकर भगवान् पाप नाप प्रभुने मदोन्मत्त हाथोकी पर्यायमें महामुनि अरविन्द स्वामी के पास अहिंसात्मक और संयमपूर्ण जीयनकी शिक्षा ग्रहण की। महाकवि भूषरशासने इसपर प्रकाश डालते हुए लिखा "अव हस्ती संजम साधे । म जीव न भूल विराधे ।। समभाव छिमा उर आने । अरि-मित्र बराबर जाने ।। काया कसि इन्द्री दण्डे । साहस धरि प्रोषध मंडे ।। सूखे तृण पल्लव भच्छे । परमदित मारग गन्छ । हाथीगन डोल्यो पानी । सो पीवे गजपति जानी ।। देखे बिन पांव न राखे । तन पानी पंक न नाले । निज शोल कभी नहीं खोये । हथनी दिशि भूल न जोवे ।। उपसर्ग सहै अति भारी । दुरध्यान तजे दुखकारी ।। अघके भय अंग न हाल । दिन धीर प्रतिज्ञा पाल । चिरलौं दुदर तप कीनों । बलहीन भयो तन छीनो । परमेष्ठि परमपद ध्यावै । ऐसे गज काल गमावे। एक दिन अधिक तिसायो । तब बेगवती तट आयो ।। जल पोवन उद्यम कोषो । कादो व्रह कुंजर बोधो ।। निह जब मरन विचारयो । संन्यास सूधी तब धारयो ।" -पार्वपुराण, दूसरा सर्ग । तिर्यञ्चोंको भी संयम साघनमें तत्तार देख सुधजनमी मनुष्योंको संयमके लिए उत्साहित करते हुए कहते है १. अनुपमसुखसिदिहेतुभूतं गुरुषु सदा फुरु पंचसु प्रणामम् । भवजलनिधेः सुदुस्तरस्य लव इति तं कृतबुझ्यो पदन्ति ॥४३॥ -महावीर चरित्र Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयम बिन घडिय म इक्क जाह ७३ "सुलझे पस उपदेस सुन, सुलझें क्यों न पुमान।। नाहर ते भये वीर जिन, पज पारस भगवान् ॥ सप्तसई गापुरूपोंका काशन है, ' मना जोवन एक महत्वपूर्ण हाट है । यहाँको विशेष निधि संग्रम है। जिसने इस बाजारमें आकर संग्रम निधिको नहीं लिया, उसने अक्षम्य भूल की ।' प्राथमिक अम्मामी साधः लिा. संयमका अभ्यास करनेके लिए आचारदास्थ महान् विधान आशापरजीने लिखा है-'जर तक विषय तुम्हारे सेवनमें नहीं आने, कम-से-कम उतने काल तक के लिए उनका परित्याग करो । कदाचित वती अवस्था में मृत्यु हुई तो दिव्य जोवन अवश्र प्राप्त होगा ।'' दूसरी बास, जितनी तुम्हारी उचित आवश्यकता हो, उसकी सीमाके बाहर विययादिक संवनका सरलतापूर्वक त्याग कर सकते हो । प्राय: अपनी आवश्यकताको भूल लालसाफे अधीन हो यह जीव मारी दुनियासे नाता जोड़ता हुआ-सा प्रतीत होता है ! अतः शान्ति और सुन्नमय जीवन के लिए आवश्यकतासे अधिक वस्तुओंका परित्याग करना चाहिए, जिससे समापश्चक पदा?क द्वारा रागपादि विकार इस आत्माको शान्तिको भंग न करें। गुणभद्र स्वामी ने आत्मानुशासन में हा है, रागडेपो माह्यार्थसंबद्धो तस्मात् तांश्च परित्यजेल-रागद्वेषका संबंध बाहरी यायोंसे रहता है, अतः सहा वस्तुओंका परित्याग करें। संग्रमका अभ्यास आन्तरिक प्रेरणाके द्वारा सुफल दिलासा है। बीमार व्यक्ति अपने चिकित्सककी आशाके अनुसार गजबूर हो जीवनकी ममताकै कारण सेब्ब पदार्थीका त्याग करता हुआ कभी-कभी बड़े-बड़े महात्माओंकी संयमपूर्ण दृत्तिका स्मरण कराता है । किन्तु , हममें यथार्थ संयमीकी निर्मलता और शान्तिका मदभाव नहीं पाया हाता । भौगोंको नि:सारता और मेरा आत्मा ज्ञान तथा आनन्दका पुंज है, उसे परावलम्बनकी आवश्यकता नहीं है। इस बाकी प्रेरणासे प्रेरित हुआ संयम अपना विशेष स्थान रखता है। महषि कुन्दकुन्दका कथन है.-"जिन तीर्थकरोंका निर्वाण निश्चित है उन्हें भी बिना संयमका आश्रय लिए मुक्ति नहीं मिल सकती।" इससे संयमका लोकोतरपना स्पष्ट विदित होता है । द्वादशांग रूप जिनेन्द्र भारती में आचारांग सूत्रका आय स्थान है, जिसमे भबमपर विशद प्रकाश डाला गया है । दर्शन अध्यात्म आदि सम्बन्धी वाइयका पश्चात प्रतिपादन किया गया है। इससे जनशासनमें संयनकी महत्ता सुविदित होती है। १. याचना मन्या विषयास्तावत्तानप्रवृत्तितः । प्रतये सती देवान्मृतोऽमुत्र सुजायते ।। -सामारधर्मामृत २ । ७ ।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनशासन यह मनुष्य जीवनकी अनुपम विभूति है जिसे अन्य पर्यायों में पूर्णरूपमै पाना सम्भव नहीं है। विषयवासनाएँ दुर्बल अन्तःकरणपर अपना प्रभाव जमा इंद्रिय तथा मनको निरंकुश करमचंद तावान रहता है । इसलिए चतुर साधक भी मन एवं इंद्रियोंको उत्सथमें प्रवृत्ति करने से बचाने का पूर्ण प्रयत्न किया करता है । ऋविधर यामतराय अपने आस्माको सम्बोधित करते हुए कहते हैं "काय छहों प्रतिपाल. पंचेंद्रिय मन बश करो। संजम रतन सम्हाल. विषय चोर बहु फिरत हैं।" अपभ्रंटा मापात्र कवि रइधु संयमको दुर्लभता और लोकोत्तरताको हृदयंगम करते हुए मोही प्रागी को शिक्षा देते हैं "संयम बिन घडिय म इबक जाह" प्रबुद्ध-साधक 'जौली देह तेरी काहू रोग सौं न घेरी जौलौं जरा नाही नेरी जासो पराधीन परिहै । जौली जम नामा बेरी देय न दमामा जौलौं माने कान रामा बुद्धि जाय ना बिगरिहै ।। तोली मित्र मेरे निज कारज सम्हाल ले रे पौरुष थकेंगे फेर पाछे कहा करिहै ।। आग के लागे जब झोपड़ी जरन लागी कुवा के खुदाये तब कहा काज सरिहै ॥२६॥" -ঈন হাবক, মুগদােয় सावकको आत्मा जब गृहस्थ जीवनकी प्रवृत्ति द्वारा संयत बन जाती है तब आयात्मिक करिकी उपर्युक्त प्रबोधक वाणी उस मुमुक्षुको संयमके क्षेत्रमें लम्बा कदम बढ़ानेको पुनः पुनः प्रेरित करती है। यथार्थमे गृहस्प जीवनका संयम और अहिंसादि धोकी परिपालना आरमीक दुर्बलता के कारण ही सगृहोंने बताया है । समर्थ पुरुषको सायन मिलते ही साधनाके श्रेष्ठ पथमैं प्रवत्ति करते विलम्ब Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक ७५ नहीं लगता। तीर्थकर भगवान के अन्तःकरणमें जब भी विषयोंसे विरक्तिका भाव जागृप्त होता है, वे त्रिभुवन चमत्कारी वैभव विभूतिको अत्यन्त निर्मम हो दृढतापूर्वक छोड़ देते हैं। ___ तत्त्वज्ञानीका आत्मा सम्पूर्ण परिग्रह आदिका त्याग कर श्रेष्ट माधक उननेको सदा उत्कण्ठित रहता है, किन्तु वासनाएँ और दुर्बलताएँ उसे प्रगतिरी बस पार करती है : जर स समारता साधक होने वा भी बह"संयम धर न सकत पै संयम धारत की उर चटापटी मी। सदननिवासी, तदपि उदासी, तात आस्रव उदाछटी मी ।।" आन्तरिक अवस्थावाला विलक्षण अफ्नि दन्ता है। वह अपने मनको गम भाते हुए कहता है-अरे मूर्ख, इन भोग और बिरयों में क्या धरा है। इन मनि सेरे अक्षय-मुखके भाण्डारको छीन लिया है । अदन्त ज्ञाननिधिको लूट रहा है और तू अनन्त बलका अधीश्वर भी है, इसका पता तक नहीं चल पाता । यदि तू स्वयं नष्ट होनेवाले विषयों का परित्याग कर दे. तो सपार-संसरण मक सकता है। बाबीसिंह सूरि सपनाते हैं.... ''अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यात् मुक्तिः संसृतिरन्यथा ।।" --भत्रचूडामणि-११६७ आध्यात्मिक कवि दौलतरामजी अपने मनको एक पद में समझाते हुए कहा है कि यह विषय तुझ अपने स्वरूपको नहीं देखने देते और 'पराधीन छिन छीन समाकुल दुर्गति विपति चलायें हैं" प्रकृति के अन्तस्तलका अन्तद्रष्टा बन कवि र कर्म अत्याचारों को ध्यान में रखते हुए सोचता है कि जब छोटे-छोटे प्राणियोंको एक-एक इन्द्रिारक पीछे अवर्णनीय यातनाओंका मामना करना पड़ता है. तब सभीका आसनिपूर्वक सेवन करनेवाले इस नरदेहधारी प्राणीका क्या भविष्य होगा "फरस विषयके कारन बारन गरत परत दुख पावं है। रसना इन्द्री वश झप जलमें क.ण्टक कण्ड छिदावे है । गंध लोल पंकज मुद्रितमें, अलि लिज प्राण गमावं है । नयन विषय वश दीप शिखामें, अंग पतंग जराव है ।। भगवान ऋषभदेवक विषय में स्वामी समन्तभदने लिया है "विहाय यः भाग-दाशि-वागम् वधूमिमां वसुधा-वधू सतीम् । मुमुक्षुरिश्वाकुकुलादिरालगवान् प्रभुः प्रववाज महिष्णुरच्युसः ।।" -स्वयम्भूस्तोत्र , । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन करन विषय वश हिरन अरनमें, खलकर प्राण लुनाव है। हे मन, तेरीको कुटेव यह करन विषयमें धा है।" एक ओर जहाँ वह विषय और भोगोंने दुष्परिणामको देखता है, तो दूसरी और के माहात्म्से उसकी मारमा प्रभावित हा बिना नहीं रहती । यह तो तृष्णा-पिशाचिनीका काम है, जो भोसकी बुंदके समान विषयभोगोंके द्वारा अनन्त सृषा शान्त करनेका जीव प्रयत्न करता है । वास्तवमें सांसारिक वस्तुओंमें सुख है ही नहीं । महात्मा लोग ठीक ही कहते हैं "जो संसार विषै सुख होता तीर्थकर क्यों त्यागे ! काहेको शिवन्नाधन करते, संयमसों अनुरागे?" यदि अपनी वास्तविक आवश्यकताओंपर दृष्टिपात किया जाए, तो समर्थ और वोतराग आत्मा मधवारो सिके द्वारा भोजन ग्रहण करते द्वार प्राकृतिक परिधानको धारण कर प्रकृतिकी गोद में बान्मीय विभूतियोंकी अभिवृद्धि कर सकता है। ऐसे व्यक्तिमे इष्ट-अनिष्ट कर्म स्वयं घबराते हैं। यदि आत्माकी दुर्बलता दूर हो जाय और उसमें पाधाविक वासनाएं न रहे, तो समर्थ आत्माको दिगम्बर वेषके सिवा दूसरी मुद्रा नहीं रुचेगी। कारण, उस मुद्रा में उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य की अय स्थिति और अभिवृद्धि होती है । आत्म-निर्भरता और आत्मनिमग्नताके लिए वह अमोघ उपाय है। उम पदसे आकर्षित हो इस ग्रुमके राष्ट्रीय महापुरुष पांधीजी कहत है--"मग्नता मुझे स्वयं प्रिय है" । आदर्श अपरिग्रह तो जसीका होगा, जो कर्मसे दिगम्बर है। मतलब यह पक्षीको भांति बिना घरके, बिना वस्त्रोके और बिना अम्न के विचरण करेगा। इस अबधृत दशाको तो बिरले ही पहुँच सकते हैं । (गांधीवाणी १० ९२) । यथार्थमें श्रेष्ठपुरुष कृत्रिम वस्त्राभूषणादि व्यर्थ की सामग्रीका परित्याग कर प्रकृतिप्रदत्त मुद्राको धारण कर शान्ति लाभ करते हैं। विषय-वासनाओंके दास और भोगोंके गुलाम स्वयंकी असमर्थता और आरम-दुर्बलताके कारण दिगम्बर मुदाको धारण करने में समर्थ न हो कभी-कभी उस निर्विकार मारविजयकी होतिनी मुद्राको लाञ्छित करने का प्रयान करते हैं। पाश्वंपुराणमें कितनी सुन्दर बात कही गयी है.... "अन्तर विषय घासना बरते, बाहर लोक-लाज भय भारी । तात परम दिगम्बर मद्रा, घर नहि सक दीन संसारी ।।" किन्तु वीर पुरुषोंकी बात और प्रवृत्ति ही निराली है। कवि इसीसे कहते हैं "ऐसी दुवर नगन परोषह, जीतें साधु शील प्रतधारी । निर्विकार बालकवत् निर्भय, तिनके पायन ढोक हमारी ॥' Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक ७७ योगवासिष्ठमें जिनेन्द्रकी दिगम्मर और शान्त परिणतिसे प्रभावित हो रामचन्द्र अपनी अन्तरंग कामना इन शब्दों में व्यक्त करते है-- "नाहं रामो न मे वाञ्छा भावेषु न च मे मनः । शान्तिमास्थामिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ।।'' भत हरि अपने घरायशतकमें अपनी आत्माकी आवाज इन शब्दोंमें व्यक्त करते हैं-"प्रभो, वह दिन फर आएगा जब मैं स्वतन्त्र, निस्पृह, शान्स, पाणिपात्रभाजी, दिगम्बर मुनि ब क नाश कला में समर्थ होऊंगा।" ____ भारतीय इतिहासके उज्ज्वल रत्न चन्द्रगुप्त, अमोघवर्ष सदृशा नरेन्द्रोंने आरमाकी निर्मलता और निराकुलताके सम्पादन निमित्त स्वेच्छासे विशाल साम्राज्योंका त्याग कर दिगम्बर साधु की मुद्रा धारण की थी। स्टीवन्सन नामक आंग्ल महिला लिखती है.--"वस्त्रोंसे विमुक्त होने के कारण मनुष्यके पास अन्य अनेक चिन्ताएं नहीं रहती । उसे कपड़े धोने के लिए पानीकी भी आवश्यकता नहीं है। निम्रन्थ लोगोंने-दिगम्बर जैन मुनियोंने भले-बुरेके भेद-भावको भुला दिया है। भला वे लोग अपनी नग्नसाको छिपाने के लिए वस्त्रोंको षयों धारण करें।" एक मुस्लिम कवि तनकी उरयानी-दिगम्बरत्वसे प्रभावित हो कितनी मधुर घात कहता है "तनको उरयानीसे बेहतर है नहीं कोई लिबास । यह वह जामा है कि जिसका नहीं उलटा सीधा ॥" शायर जलालुद्दीन रूमीने सांसारिक कार्योंमें उलझे हुए व्यक्तिसे आत्मनिमग्न दिगम्बर साधुको अधिक मावरणीय कहा है। वे कहते हैं कि वस्त्रधारी 'मात्मा के स्थानमें 'धोबी' पर निगाह रखता है। दिगम्वरत्वका आभूषण दिव्य है "मस्त बोला मुहतसिव से कामजा, होगा क्या नंगे से न ओहदायरा । है नजर धोबी पे जामापोश की, है तजल्ली जेवरे उरियांतनी।" १. एकाको निस्पृहो शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदाह सम्भविष्यामि कर्मनिम्लनक्षमः ।। Being rid of clothes one is also rid of a lot of other worries. No water is needed in which to wash them. The Nirgranthas have forgotten all knowledge of good and evil. Why should they require clothes to hide their nakedness.' Heart of Jainism (१० ३५.) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जनशासन इस प्रसंगमें यह बात विशेप रीतिसे हृदयंगम करनेकी है, कि शरीरका दिगम्बरल स्वयं साध्य नहीं, साधन है। उसके द्वारा उत्कृष्ट अहिंसात्मक दतिको उपलब्धि होती है, जो अखण्ड शान्ति और सर्वसिद्धियोंका भण्डार है। दिगम्वरत्वका प्राण पूर्ण दाणों में समर्थन करने वाले महर्षि कुन्धकुन्दने जहां यह लिखा है कि -"णग्गो हि मोर समग्गो, सेसा उभागमा सम्मे"-दिगम्बरत्व ही मोक्षका मार्ग है, शेप सब गार्ग नहीं हैं। वहां वे यह भी लिखते हैं कि शारीरिक दिगम्वरत्वके माप मानशिक दिगम्बरत्व भी आवश्यक है। यदि शरीरकी नग्नता साधन न हो, साध्य होती, तो दिगम्बरत्वकी मुद्रास अंकित पशु-पक्षी आदि सभी प्राणियोंका मुक्त होते देर न लगती । जो व्यक्ति इस बातका स्वप्न देखते है, कि वस्त्रादि होते हुए नो श्रेष्ठ अहिमा-वृत्तिका रक्षण हो सकता है और इसलिए निर्वाणका भी लाभ हो सकता है, उन्हें सोचना चाहिए कि बाहा वस्सुओंके रखने, उठाने आदिम मोह ममताका सद्भाव दूर नही किया जा सकता । एक माधुको कथा प्रसिद्ध है-पहिले तो वह सर्व परिग्रहित था, लोकानुरोधस उनने का लंगोटियां स्वीकार कर ली । चूने द्वारा एकवार वन कट गए, तब निश्चित संरक्षणनिमित्त नहेकी औपधिके लिए बिल्ली पाली गई। और, बिल्ली के दुग्धनिमित्त गौकी व्यवस्था भक्तजनों के प्रेम कारण स्वीकार कर ली गई। गायके चरान के लिए स्वान लानकी दुष्टिसे कुछ चरोजर भमि भी एक भक्तमे मिल गई। वहत है-भूमिका कर समयपर न चुकाने से साधुजीसे अजानकार राज-कर्मचारी ने उनकी बहुत बुरी तरह मान-मरम्मत की। उस समय शान्त अंतःकर गर्ने अपनी आवाज द्वारा उन्हें सर्चत किया-"भले भादमी, परिग्रह तो ऐसी आफ पुरस्कार प्रदान किया ही करता है" "कोस तनक सी तन में साल ! चाह लंगोटीकी दुख भाले । भाले न समता मुख कभी नर बिना मुनि मुद्रा धरे। धन नगन' पर सन-नगन ठाढ़े सुर-असुर पानि परे ।।" -छानतराय प्रवचनसारमें कुन्दकुन्द स्वामीने लिखा हैमनियोंके गमनागमनादिरूप चेष्टासे त्रस, स्थावर जीदोंका वध होते हुए १. पर्वत । २. "हदि वा ण नदि बंधो पदम्हि जीवैध का य पट्टम्हि 1 बंधो धुयवधी दो इदि समणा छड्डिया सम्वे ।। यहि हिरवेक्खो नागो ण हवदि भिक्खुम्स आसय-बिसुद्धी । अविस्वस्थ य चित्ते कहं णु कम्मक्खो घिहिओ। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध माघक भी कभी बंध होता है, कभी नहीं भी। किन्तु यह तो निश्चित है कि उपाधियोंवस्त्रादिपरिग्रहसे नियमसे बंध होता है। इसलिए श्रमणको सब परिग्रह छोड़ना चाहिए । त्याग निरपेक्ष नहीं होता, वस्त्रादि परिग्रह छोड़े बिना भिक्षुके चित निर्मलता नहीं होती । अ-विशुद्धचित्तके होनेपर कैसे कर्मक्षय होगा ? अतः परिग्रहके होने पर ममत्व आरम्भ अथवा असंयम क्यों नहीं होंगे ? तत्र परद्रव्यमें क्त हुआ साधु किस प्रकार आत्म-साधना कर सकेगा ? ७९ जैन गुरुओं की दिगम्बरय सम्बन्धी मान्यताको वास्तविक रूपसे न समझने के कारण कोई यह समझते है कि दिगम्बर धर्मानुयायी गृहस्थों को भी कम-से-कम आहार लेते समय दिगम्बर रहना चाहिए। इसके विपरीत जो मदा सबस्त्र रहें उन्हें स्वेताम्बर कहते हैं । इन्साइक्लोपीडिया जिल्द १५, १४ वें संस्करणके पू २८ में पूर्वोक्त भ्रम इन शब्दोंमें व्यक्त किया गया है — "The Jains themseIves have abandoned the practien; the Digambaras being sky-clad at meal time only and the Swetambaras being always completely clothed." तात्विक बात तो यह है कि दिगम्बर साधु और दिगम्बर मूर्तिको पूजने के कारण गृहस्थ दिगम्बर जैन कहे जाते हैं । सम्पूर्ण अहिता के बार जिनेन्द्रियमुनिके सिवाय गृहस्थ मुनिमुद्रा धारण नहीं करता । गृहस्थ के वस्त्र पहनने की तो बात ही क्या वह नीतिमतापूर्वक बड़े-बड़े साम्राज्य तकका संरक्षण करता है । अंग्रेजी भाषाका महाकवि शेक्सपियर अपने हेमलेट नाटक में लिखा है"Give me the stan, that is not passion's slave. " मुझे ऐसा मनुष्य बताओ जो वामनाओंका दास न हो। यदि दिगम्बर जैन मुनिका साक्षात् दर्शन अथवा परिचय महाकविको प्राप्त हुआ होता, तो उसकी यह जिज्ञामान्त हुए बिना न रहती | दिगम्बर मुनिका जीवन व्यतीत करनेके लिए महान् आत्मबल चाहिए । मानसिक कमजोरी या प्रमाद क्षणभर में इस जीवको पतित कर सकते हैं । उज्ज्वल भावनाओं और विषय विरक्तिको प्रेरणासे महान् पुण्योदय होनेपर किसी विरले माईके लालके मन में बालक निर्विकार दिगम्बर मुद्रा धारण करने की लालसा जाग्रत होती है। आचार्य गुणभद्र लौकिक वैभव, प्रतिष्ठा, साम्राज्य-लाभ कि तम्हि णत्थि मुडा बारम्भो या असंजमो तस्स । तथ परधध्वम्मि रो कषमप्पाणं साधयदि " 1. Act Ji Se II. ( अध्याय ३।१९ २० २१ ) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन आदिसे अधिक विशाल सौभाग्य मुनित्वकी ओर जानेवालेका बताते हैं। अन्यका जीवन जहाँ विषयलोलुपता के कारण पराधीनता और विपत्तिपूर्ण है, वहाँ असा मय साधुको जीवनी अभय और आनन्दका भण्डार है । गुणभद्र स्वामी अपने आश्चर्यको इन शब्दों में प्रतिबिम्बित करते हैं - "न जाने कस्येदं परिणतिरुदारस्य तपसः " ८० आत्मानुशासन ६७ | दिगम्बर साबुओं का उल्लेख अन्य सम्प्रदायोंमें भी पाया जाता है । परमहंस नामक हिन्दू मात्र नग्न रहा करते हैं। सिक्खों के यहां श्रेष्ठ रूपमें दिगम्बर साधु वर्णित हैं।" अलकासिम कोलामी मुस्लिम साधुने दिगम्बर मुद्रा धारण की थी । चल नामके उच्च मुस्लिम साधु पूर्णतया नग्न बिहार करने हैं। 3 बंबई प्रान्तके कोपरगांव नामक स्थानपर एक नर दिगम्बर मुसलिम साधुका समाधिस्थल मौजूद है । दिगम्बर जैन का पद वस्त्रमात्रका परित्यागकर स्वच्छन्द विचरण करने वालेको नहीं प्राप्त होता । उस महापुरुषका जीवन अत्यन्त संयत और सुव्यवस्थित रहता है । वे किसी भी प्राणीका बात नहीं करते, यद्यपि उनके गमनागमन, क्वासोच्छ्वास आदि प्राणघात अनिवार्य है, तथापि यथाशक्ति राग-द्वेष आदि विकारोंको दूरकर आत्म-निर्मलताका पूर्णतया रक्षण करते हैं। श्रेष्ठ रीतिसे सत्य महाव्रत, अत्रौर्यं महाव्रत, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य महाव्रतका भी परिचालन करते हैं । वे मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको सहया रोकने में असमर्थ हो, गमनागमन और भाषण के सम्बन्धमे इस प्रकार प्रवृत्ति करते हैं "परमाद तज चौ-कर-मही लख समिति ईर्ष्या तें चलें । जग हितकर सब अहित हर श्रुति सुखद सब संशय हरें । भ्रम- रोग हर जिनके वचन मुखचन्द्र लें, अमृत सरें ॥" बहार सम्बन्धी एषणा नामक समितिका वे विशेष ध्यान रखते हैं । अतः-"ख्यालीस दोष बिना सुकुल श्रावकतने घर असनको । ले तप बढ़ावन हेत नहि तन पोषते तज रसनको ॥" I. Wilson's “Religious Sects of the Hindus" P 275. 2. "Abdul Kasim Gilani discarded even lion strip and remained completely naked."-From Religious life & attitude in Islam. P. 203. 3. "The higher Saints of Islam called 'Abdals' generally went about perfectly naked."-Mysticism and Magic in TurkeyQuoted in the Digamber Saints of India. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक वे प्रेथ सदृश ब्रानको सामग्री, शोचसम्बन्धी कमण्डलु एवं जीवदया निमित मयूर पंखोंसे बनी हुई पिटीको विवेकपूर्वक अहिंसात्मक रीतिसे उठाते-घरते हैं । मलमूत्रादिका जन्तु-रहित भूमिमें परित्याग करते हैं "शुचि ज्ञान संजम उपकरन लखि के गहैं लखि के धरें। निजन्तु थान विलोकि तन मल-मूत्र-श्लेषम परिहर ।।" वे पांचों इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वैपका परित्याग करते हैं। केश बढ़नेपर मस्तकमें जूं आदिकी उत्पत्ति होती है और फेशोंको कटाने के लिए नाई आदिको आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए अर्धकी अपेक्षा होगी। केशोंको बिना कटाए जीवों का सद्भाव या तो ध्यानमें विघ्न उत्पन्न करेगा अथवा उनके खजाने आदिसे उनका घात होगा । उत्कृष्ट अहिंसा, अपरिग्रह और स्वावलम्बी जीवनके रसानिमित्त शरीरके प्रति निर्मम हो व कम-से-कम दो माह और अधिक-सेअधिक चार भावे भीतर अपने केशोंका अपने हाथोंसे लोंच करते है । आत्मधलकी वृद्धि होनेके कारण वे साधु प्रसन्नतापूर्वक अपने केशोंको घासके समान उखाड़ते हैं। इनका उद्देश्य शरीरको एक गाडीतुल्य समझ भोजनरूपी तेल देते हुए जीवनयात्रा करना रहता है । उनका बह इह विश्वास है कि शरीरका पोषण आत्माके सच्चे हितशा कार्य नहीं करेगा । आत्माका शोषण करनेवाली क्रियाएँ पारीरकी अभिवृद्धिनिमित्त होंगी। योगिराज पूज्यपाद कितनी मार्मिक नात कहते हैं "यज्जीवस्योपकाराय तदेहस्यापकारकम् । यदेहस्योक्काराय सज्जीवस्यापकारकम् ।।" ___ - इष्टोपदेश १९१ अहिंसात्मक दृष्टि और चर्या एवं शरीरके प्रति निर्ममत्व होने के कारण ये स्नान, दन्तधावन, वस्त्रधारणके प्रति विरक्त हो खड़े होकर अपने हाथरूप पात्रों में दिन में एक बार गोचरीवृत्ति द्वारा शुद्ध और तपश्चमि वृद्धि करनेवाले भोजनको अल्पमात्रामें ग्रहण करते हैं। गाय जिस प्रकार त्रास डालनेवाले व्यक्ति के सौन्दर्य आदिपर तनिक भी दृष्टि न दे अपने आहारको लेती है, उसी प्रकार यह महान साधक देवांगनासमान सुन्दरियों आदिके द्वारा भी सादर आहार अपित करने पर निर्मल मनोव सिपूर्वक आहार ग्रहण करते हैं। दाताके शरीर-सौन्दर्य मादिसे उनकी आत्मा तनिक भी रागादि विकारपूर्ण नहीं होती । उनकी आहार पर्याको मधुकरी वृति भी कहते हैं । जैसे—मधुकर--भ्रमर पुष्पोंको पीड़ा दिए बिना आवश्यक रस लाम लेता है, उसी प्रकार में सन्त-जन गृहस्थ के यहाँ जैसा भी रूखा-सूखा भोजन बना हो और शुद्ध हो, उसे शान्तिपूर्वक ग्रहण करते हैं । इनके Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन आहारनिमित्त गृहस्थको कोई कठिनाई नहीं होती। ऐसे योगियों को आहार अर्पण करने के समयको वह अपने जीवनको सुनहरी घड़ियोंमें गिनता है । कारण, इस पवित्र कार्यसे गुह्मास में घपको, दूल्हा, ऊखली, बुहारी, जल-संग्रह रूप, 'पंच-सूना' नामके कार्यों द्वारा संचित दोषोंका मोचन होता है। साघु दैन्यपूर्वक आहार ग्रहण नहीं करते । गृह अद्धा, भवित. प्रेम और आदरपूर्वक जब आहार ग्रहण करने की मुनिराजसे प्रार्थना करता है, तब वे शुद्ध, सात्त्विक तथा श्रेष्ठ अहिंसात्मक वृत्तिके अनुकूल आहार लेते है। अन्य-पंयी साधु नामधारी व्यक्तियोंके समान गांजा, समास्यू, हुक्का ग्रहण करना, मनमाना भोजन लेना, दिन और राधिका भेद न रखना नादि बातोसे ऐसे सन्त पृथक रहते हैं । कोई-कोई सोचतं है-महान् साधु को सद्ध-अशुद्ध आदिका भेद भुला जैसा भी भोजन जन्म जिसने दिया, उसे ले लेना चाहिए। यह विचार भ्रमपूर्ण है । साधुओंका विवेक सदैव सजग रहता है । उसके प्रकाशमें अहिंसात्मक वृत्तिको रक्षा करते हुए वे उचित और शुद्ध आहारको ही ग्रहण करते हैं। वेदान्त-सारमें लिखा है-यदि प्रबुद्ध तत्त्वज्ञानीके आचरणमें स्वच्छताका प्रबंश हो जाए तब तरमज्ञानी और कुत्तेकी अशुचिभक्षण वृत्तिमं क्या अन्तर रहेगा ? जैन-मुनिका केशलोंच और आहार-चर्या दर्शकके चित्तमें गहरा प्रभाव डाले बिना नहीं रहते। औरंगजेबके समयमें भारत आनेवाले शा० बनिपर अपनी पुस्तकमै लिखते है-"मुझे बहुधा देशी रियासतोंमे दिगम्बर मुनियोंका समुदाय मिलता था। मैंने उन्हें बच्ने दाहरों में बिहार करते हुए पूर्णतया नग्न देखा है और उनको ओर स्त्रियों, लड़कियोंको बिना किसी विकार-युक्त हो दृष्टिपात करते हुए देखा है । उन महिलाओं के अन्तःकरणमें थे ही भाव होते थे जो सड़कपरसे जाते हुए किसी साधुको देखने पर होते हैं। महिलाएं भक्तिपूर्वक उनको हार बहुधा कराती थीं। " एक दूसरे विदेशी यात्री टेवनियरने लिखा है-'यद्यपि १. "कुडा तसतत्त्वस्य पपेष्टाचरणं यदि । शुनां तत्त्वशां चैन को भेदोऽशुचिभक्षणे ॥" -पू०१४। 2. "I bare often met generally in the territory of some Raja bands of these tiaked Fakirs. I have seen them walk stark naked through a large town; wonen & girls looking at them without any more emotion than may be created, when a hermit passes through our streets. Females often bring them alms with devotion......" Dr. Bernier's Travels in the Mog. hul Empire, p. 317. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक it मन स्त्रिया भक्तिपूर्वक उनके समीप पहुँचती है फिर भी उनमें विकार-भावका रंचमात्र भी दर्शन नहीं होता। इसके अतिरिक्त उनका दर्शन कर तुम यह कहोगे कि वे आत्म-ध्यान में निमग्न है।'' मेकिएल नामक विद्वान् पुरातन-भारत नामक अपनी पुस्तक लिखते है-"दिगम्बर मिहार करनेवाले यह जैन मुनि कष्टोंकी परवाह नहीं करते थे । वे सबसे अधिक सम्मानको दृष्टिसे देखे जाते घे । प्रत्येक धनी व्यक्तिका घर उनके लिए उन्मुक्त था---यहांतक कि वे अन्तःपरमें भी जा सकते थे । ये समता, जिनेन्द्रस्तुति, वीतरागवन्दन, स्वाध्याय, दोषशुद्धि निमित प्रतिक्रमण तथा प्रत्यास्यानरूप छह आवश्यक कौको सावधानीपूर्वक पालते हैं । इनका चरित्र उदात्त होता है। 1. "Although the women reach them out of devotion......you do not sec in them any sign of sensuality, but on the contrary you would say they are absorbed in abstraction,"--). B. Tavernier's Travels p. 291-292. 2. "These men (Jain Saints,) went about naked manured them sc vcs to hardships and were held in highest honour. Every wealthy house is open to them even to the apartments of the women." ___Mc. Crindle's Ancient India p.71-72. ३. "सम्यक प्रकार निरोध मन-वच-काम आतम ध्यावते । तिन सु-थिर मुद्रा देखि मृग-गण उपल खाज खुजावले ।। रस-रूप-गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ-असुहावने । तिनमें न राग-बिरोब पंचेन्द्रिय जयन पद पावने । समता सम्हारै थुति उचार, वन्दना जिन देव को । नित करें श्रुत रति, धरै प्रतिक्रम, तज तन अहमेव को ।। जिनके न होन, न बन्त-धोवन लेश अंबर आवरन । भू माहि पिछली रयनि में कछ शयन एकाशन करन ।। एक बार दिन में लैं अहार खड़े अलप निज-पाणि में । कर-लोच करत न उरत परिपन सो लो निजध्यान में ।। अरि-मित्र, महल-मसान, कंचन कांच, निन्दन-युतिकरन । मीवतारन-असि प्रहारन में सदा समता धरन ।।" -छहढाला, छठवीं बाल । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन पूर्व बद्ध कर्मोंकी निर्जरा करनेके लिए तया संकट आमेपर मम्मा से अपना कदम पीछे तनिक भी न हटे इस दृढ़ता निमित्त वे भूख, प्यास आदि बाईस परीषहों (-कष्टों) को राग-द्वेष-मोहको छोड़ ग़हन करते हैं । पाश्चपुराणमें इनके नाम यों है "क्षुधा, तृषा, हिम, उष्ण, इंस-मशक दुख भारी। निराबरन-तन, भरति-खेद उपजावन हारी || चरिया, आसन, शयन, दुष्ट बाधक, बध बंधन । याचं नहीं, अलाभ, रोग, तिण-फरस निबन्धन || मल-जनित, मान-सन्मान-मः, प्रज्ञा और शाक। दर्शन-मलीन बाईस सब-सा परीवह जान नर ॥" - भूधरदास बहिरात्म-भाववाले भाई सोचते है-'बिना कोई विशेष बलवतो भावना उत्पन्न हुए साघु कष्टोंको भामम्त्रण दे प्रसन्नतापूर्वक किस प्रकार सहन कर सकता है ? पंडित आशापरजीने बताया है कि सत्पुरुष संझटके समय सोचते हैंबास्तवमें मैं मोक्षस्वतप हूँ, अविनाशी हैं, आनन्दका भण्डार हूँ, कल्याणस्वरूप है। कारण रूप है। संसार इसके विपरीत स्वरूप है । इस संसारमें मुझे विपत्तिके सिवाय और क्या मिलेगा ?' आत्माको अमरतापर अखण्ड विश्वास रख वे नश्वर जगत्के लुभावने रूपके भ्रममें नहीं फसते, सद्भावना के द्वारा कहते हैंमोह मापसे उठ रे चेतन-लनिक सोच तो "सूरज चांद छिपे निकस, रितु फिर-फिर कर आत्रे, प्यारी आय ऐसी बीते पता नहिं पावे। काल सिंहने मृग-चेतनको घेरा भव-वन में । नहीं बचावन हारा कोई, यों समझो मममें ।। मंत्र-यंत्र सेना धन-सम्पति राज-पाट छुटे । वश नहिं चलता, काल-लुटेरा, काय नार लूटै ।।" प्रबुद्ध साधक यह भी विचारता है 'जनमें मरै अकेला चेतन सुख दुखका भोगी। और किसीका क्या,-इक दिन यह, देह जुदी होगी ।। १. मोक्ष थारमा सुखं निस्पः शुभः शरणमन्यया । मवेऽस्मिन् वसतो मेन्यत कि स्यादित्यापवि स्मरेत् ॥ -सागारधर्मामुत, ५, ३० । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्धन्साधक कमला चलत न पेंड,-जाय मरघट तक परिवारा। अपने-अपने सखको रोवें पिता, पुत्र दारा॥ ज्यों मेलेमें पंथी जन, नेह धरें फिरते । ज्यों तरवर पे रैन बसेरा पंछी आ करते ।। कोस कोई, दो कोस कोई उड़ फिर, थक-थक हारे। जाय अकेला हंस, संगमें कोई न पर मार।।" संसारके विषयमें वह चिन्त बन करता है-- "जन्म मरण अरु जरा रोग से सदा दुखी रहता। द्रव्य, क्षेत्र अरु काल भाव भव परिवर्तन सहता ।। छेदन भेदन नरक पशु गति, बध बंधन सहना । राग-उदयसे दुख सुर गतिमें कहाँ मखी रहना ।। भोग पुण्य-फल हो इक इन्द्री क्या इसमें लाली। कुनवाली दिन चार फिर बही खुरपा अरु जाली ।" जरसे आत्माको भिन्न विचारता हुआ अपनो आत्माको इस प्रकार साधक सचेत करता है "मोहरूप मृग-तुष्णा-जलमें मिथ्या-अल चमके। मृग-चेतन नित भ्रममें उठ-उठ दौड़े थकथक के ॥ जल नहिं पावै प्रान गमावे, भटक भटक मरता। वस्तू पराई मान अपनी, भेद नहीं करता। तु चेतन, अरु देह अचेतन, यह जड़, तू ज्ञानी। मिल अनादि, यतन तें बिछुरें, ज्यों पय अरु पानी ।।" इस घृणित मानव देहको सड़े गन्ने के समान समझ साषक सोचता है ''काना पौंडा पड़ा हाथ यह, से तो रोवे । फल अनन्त जु धर्मध्यानकी भूमि विष बोवे ।। केशर चन्दन पुरुप सुगन्धित वस्तू देख सारी। देह परस ते होय अपाचन निस-दिन मल जारी ।।" साधनकी अनफूल सामग्रीको अपूर्व मान वे महापुरुष सोचते हैं और अपने अनन्त जीवनपर दृष्टि डालते हुए इस प्रकार विचारते है-- "लभ है निगोद से थावर अरु प्रम-गति पानी । नर-कायाको सुरपति तरसै, सो दुर्लभ प्रानी ।। उत्तम देश स-संगति दुर्लभ श्रावक-कुल पाना । दुर्लभ सम्यक् दुर्लभ संयम, पंचम गुण ठाना । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन दुर्लभ रत्नत्रय आराधन, दीक्षाका धरना । दुर्लभ मुनिवरको व्रत पालन, शुद्ध भाव करना ।। दुर्लभ-से-दर्लभ है वेतन, बोधि-ज्ञान पाना। पोकर केवल ज्ञान, नहीं फिर इस भवमें आना ||" -मंगतराय, बारह भावना विषयभोगोंमें मनुष्य-जीवनको लगाने वाले, साधककी दृष्टिमें, अशतापूर्ण काम करते है । उस अनताको बनारसीदासजी इन शब्दों में चित्रित करते है.-- "ज्यों मति-हीन विवेक बिना नर, साजि मतंग जो ईंधन ढोबे। कंचन-भाजन धूरि भरे शठ, मूढ़ सुधारस सों पग धोवै ।। बे-हित काग उड़ावन कारन, ____डारि उदधि 'मनि' मूरख रोबै ।। स्यों नर-देह दुर्लभ बनारसि, पाय अजान अकारथ खोवे ।।" -नाटक समयसार सुकवियों ने अपनी विविध शैलीसे साधकके जीवनपर बड़ा सुन्दर प्रकाश डाला है । महाकवि भनारसोबास, गृहके त्याग करनेवाले और तपोवन-यासी माधुको सद्गुणरूपी कुटुम्बसे गृहवासी बताते है । देखिए "धीरज-तात, क्षमा-जननी, परमारथ-मोत, महारुचि-मासी। ज्ञान-सुपुत्र, सुता-करुणा, मति-पुत्रवधू, समता अति भासी ।। उद्यम-दास, विवेक सहोदर, बुद्धि-कलत्र शुभोदय-दासी । भावकुटुम्ब सदा जिनके ढिग यो मुनिको कहिये गृहवासी ।।" -बनारसीविलास, २०५ । यद्यपि मुनि भूमिपर शयन करते हैं और जीवदयानिमित्त मयूरकी पिच्छी और शुचिताका उपकरण कमण्डलु रखते हैं, फिर भी कवि जन मनोहर भाषामें उनकी सामग्रीको इस प्रकार व्यक्त करते है-- "विन्ध्याद्रिनगरं गृहा वसतिकाः शय्या शिला पार्वती दीपाश्चन्द्रफरा मृगाः सहचरा मैत्री कुलीनाङ्गना। विज्ञानं सलिलं तपः सदशनं येषा प्रशान्तात्मना धन्यास्ते भवपकनिर्गमपथप्रोदेशकाः सन्तु नः ॥" -ज्ञानार्णव । शुभचन्द १. 'जे बाह्य परवत बन बसै गिरि-गुफा-महल मनोग । सिल-सेज, समता-सहचरी, शशिकिरन-दीपक जोग ।। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक अहिंसा पालनार्थ ये मुनिजन वर्षा: काल एक स्थान पर व्यतीत करते हैं । इस सम्बन्धमे 'विद्युन्माला' छन्दमें लिखा गया यह पच कितना मधुर है :जैनी जोगी वर्षाकाले । आपा ध्यावे बाधा टाले 1 कूके की मेघ ज्वाला | चोथा नच्चे विद्युन्माला || - शुन्दशतक १४ वे सन्त-जन कमौके फन्दे में फँसकर अपना अहित नहीं करने 1 कर्म के इस जगत में क्रोत्रादि कपायरूपी चोपड़ा खेल जमाना है । उस खेलके चक्कर से दिगम्बर जैन मुनि बचे रहते हैं । किन्तु जगत् के अन्य प्राणी उस खेलमें आसक्तिपूर्वक भाग लेते हैं तथा हारकर पीछे रोते- पछताते हैं। भूषरवासजी कहते हैं - "जगत जन जूवा हारि चले । काम कुटिल संग बाजी मांडी उनकरि कपट छलें ॥ चार कषायमयी जहुँ चौपरि, पांसे जोग रले । इस सरवस, उत कामिनि-कोड़ी. इह विधि झटक चले ॥ कूर खिलार विचार न कीन्हों, हृ हैं ख्वार भले । बिना विबेक मनोरथ काके, 'भूधर' सफल फले ॥" 19 जगत् के प्राणी कनक, कामिनी आदिमे अपनेको कृतार्थ मानते हैं। किन्तु, साधककी स्थिति इससे निराली है। मृत्युके नामते जहाँ दुनिया घबराती है, जीवनकी ममतावश जहाँ किये गये बड़े से बड़े अनर्थ क्षम्य माने जाते हैं, वहाँ साक मृत्युको अपना स्नेही तथा परम मित्र मान मृत्यु-कालको महोत्सव मानते हैं । मरणके समय साधक सोचता है "यह तन जीर्ण कुटी सम आतम, यातें प्रीति न कोजे । नूतन महल मिले जब भाई, तब पामें क्या छोजे ॥" आत्माकी अमरतापर विश्वास होनेके कारण अपने उज्ज्वल भविष्यका विश्वास करते हुए भावी जीवनको जीर्ण-कुटीके स्थानपर भव्य भवन मानता है । वह पूछता हूँ "मृत्यु होनेसे हानि कौन है ? - पाको भय मत लाओ । समतासे जो देह तजे तो तो शुभन्तन तुम पाओ ।। मृग - मित्र, भोजन तपमयी, विज्ञान निरमल नीर | साधु मेरे उर बसौ, मम हरहु पातक पीर ॥" -भूधरदास 1 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन मृत्यु मित्र उपकारी तेरो-इस अवसरके माहीं । जीरण तनसे देत नयो यह, या सम साह नाहीं ।। या सेती इस मुत्यु समय पर उत्सव अति ही कीजै । गलेश भाना सता भाव घरीजै ।'' अपनो आत्माको उत्साहित करते हुए साधक सोचता है "जो तुम पूरब पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई। मृत्यु-मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग-सम्पदा भाई ।। कर्म महादुठ बरी मेरो ता सेती दुख पावें। तन-पिंजरमै बन्द कियो मोहि, यासों कौन छुड़ावै ।। भूख तृषा दुःख आदि अनेकन, इस ही तनमें गाढ़े । मृत्युराज अब आय दयाकर, तन-पिंजरसों काढ़े ॥" मृत्युको वह कल्पवृक्ष मानता है । इसलिए कहता है "मृत्यु-कल्पद्म पाय सयाने, मांगो इच्छा जती। समता धरकर मृत्यु करो तो, पाओ सम्पत तेती ।।" मृत्युको महाराना कहते हैं । मरण-कालको शुभ-यात्राका अवसर मानकर शकुन-शास्त्रको दृष्टिसे प्रस्थान निमित्त शुभ-सामग्रो संग्रहके लिए कवि सरचन्दजी कितने पवित्र और उद्बोधक विचार व्यक्त करते हैं "जो कोई नित करत पयानो नामान्तर के काजे। सो भी शकुन विचार नीके, शुभके कारण साजे ।। मातपितादिक सर्व कुटुम मिलि, नीके शान बनावें । हलदी, धनिया, पुंगी, अक्षत, दूब दही फल लावें ॥ एक ग्राम आनेके कारण, कर शुभाशुभ सारे । जब परिगतिको करत पयानो, तब नहिं सोचो प्यारे॥' और भी समझाते हैं सब कुटुम्ब जब रोवन लागै, तोहि रुलावे सारे । ये अपशकुन करै सुन तोकों, तू यों क्यों न विचारें ? अब परगतिको चालत बिरियां, धर्मध्यान उर मानो। चारों आराधन आराधो मोहतनो दुःख हानों ।। मृत्यु के निधन साधक को निराली कल्पना होने के कारण अवर्णनीय विपत्तियोंके आनेपर भी वह सत्पग्रसे विचलित नहीं होता । यथार्थ में ऐसे साधकके आगे फोंको भी हार माननी पड़ती है । महाकवि गमभन इसीलिए कहते हैं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक 'जीविताशा धनाशा च येषां तेषां विधिविधिः । किं करोति विधिस्तेषां येषां आशा निराशता ॥" -आत्मानुशासन, १६३ । साकवी मनोवृत्ति मोही-जगत्से निराली होती है। महामुनि घनदोलतको तो कोई आशा नहीं करते, सन्मार्गपर अपना कदम बढ़ाने के सिवा जीवनको ममतावश कभी पीछे नहीं लौटते । अकिंचन-पना उनकी सम्पत्ति है। कर्तव्यपालन करते हुए आत्म-जागतिपूर्वक मृत्युको वे जीवन मानते हैं। भला ऐसी बलिष्ठ शानी आत्माओंका दुर्दैव क्या कर सकता है ? । आत्मानुशासनकी वाणी कितनी प्राणपूर्ण है--- "निर्धनत्वं धनं येषां मृत्युरेव हि जीवितम् । किं करोति विधिस्तेषां सता ज्ञानकचक्षुषाम् ।।१६२।।" इस प्रसंगपर कवि धूम्दावानका नयन विचारपूर्ण है:"सब जिय मिज सम नल गर्ने । निसि दिन जिनवर बेन भने । निज अनुभव रस-रीति धरै । तास कढ़ा कलिकाल करें ।" पश्चिमके विद्वान् समाधिमरणको महप्ताको न जान उसे आत्मघात (Suicide) समझते हैं। विदेशों में जैनधर्मका प्रचार करनेवाले स्वर्गीय विद्वान् बैरिस्टर चम्पतरायको विद्यावारिधिने इंगलैडो भारत लौटनेका कारण यह बताया था कि अब मेरा रोग काजू के बाहर हो गया है । पश्चिमके लोग समतापूर्वक प्राणोंका उत्सर्ग करना नहीं जानते इसलिए समाधि-मरणकी लालसासे मैं तीर्थकरोंकी भूमि स्वन्देशको लोट आया। __इस सम्बन्धमे यह जानना आवश्यक है कि जन-शासन में आत्मघातको पाप, हिसा और आत्माका अहितकारी बताया है। भात्मघातमें घबराकर मानसिक दुलप्तावश अपनी जीवन ढोर काटनेको अविबकता पाई जाती है । आत्मघाती आत्माकी अमरता और कमोंके शुभाशुभ फल भोगने के बारेमें कुछ भी नहीं सोच पाता। वह विवेक होन धन यह समझता है कि वर्तमान जीवनदीपाके बुर जानेपर मेरी जीवनसे उन्मुक्ति हो जाएगी। उसके परिणामों में मलिनता, भीति, दैन्य आदि दुईलसाएँ पाई जाती है। समाधिमरण में निर्भीकता और वीरत्वका सद्भाव पाया जाता है। राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभका परित्यागकर शुद्ध हिसात्मक वृत्तिका पालन समाधिमरणका साधक करता है । यह ठीक है कि आत्म-त्रात और समाधिमरण दोनोंमे प्राणोंका विमोचन होता है; किन्तु दोनोंमें मनोवृत्तिका बड़ा अन्तर है । आत्मघासमें जहाँ मरनेका लक्ष्य है, वहीं समाधिमरणका ध्येय, मृत्यु के योग्य अनिवार्य परिस्थिति आनेपर अपने सद्गुणोंकी रक्षा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनशासन करनेका, अपने जीवन निर्माणका है । एकका लक्ष्य जहाँ जननको विगाहना है, वहाँ दुसरेकी दृष्टि जीवनको बनाने और सम्हालनेको रहती है । पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि में इस विषयको इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि किसी गृहस्थक घरमें बहुमूल्य वस्तुएं रखी है; भीषण अग्निसे वह घर जलने लगा। यथाशक्ति उपाय करनपर बढ़ती ही जा रहे है। साधार निाितिम चतुर व्यक्ति मकानका ममत्व छोड़ अपनी बहुमूल्य सुवर्ण-रत्नादि सामग्रोको बचाने में लग जाता है । उस गृहस्थको मकानका ध्वंसक समझना ठीक नहीं है। कारण जबतक बा चला, उसने रक्षाका ही प्रयत्न किया। किन्तु जब रक्षा असम्भव हो गई, तब कुशल व्यक्ति होनेके नाले अपनी बहुमूल्य सामग्रीका रक्षण करना उसका कर्तव्य हो गया । इसी प्रकार साधक रोगादिसे हरीरादिक आक्रान्त होने पर सहसा समाधिमरणको ओर दौड़ नहीं जाता-वह तो मानव शरीरको आत्मजायतिका विशिष्ट साधन समझ अधिकसे अधिक समयत क अवस्थित देखना चाहता है। किन्तु जब ऐसी निकट अवस्था आ जाए कि शरीरकी सुधि-बुधि लेनेपर आत्माकी सुधि-बुधि न रहे, तब वह अपने सद्गुणों, अपनी प्रतिमाओं तथा अपनी आत्माको रक्षाके लिए उद्यत हो क्रोध, मान, माया, लोभादिका त्यागकर साम्यभावसे भूपित हो मृत्युराजका स्वागत करनेके लिए तत्पर हो जाता है । वह अखण्ड शान्तिका समुद्र बन जाता है । स्नेह, वर, मोह आदि उसके पास तनिक भी नहीं फटकाने पाते । ऐसी स्थिति समाधिमरण और आत्मघातमें उतना ही अन्तर है जितना आत्म-बली दिगम्बर मुनि और दुर्भाग्यवश वस्त्रादि न पाने वाले दैन्यको मति किसी दीन भिन्नारी । स्वाग समन्तभाने लिखा है--- ''उपसर्ग, दुभिक्ष, बुढ़ापा अथवा रोगके निष्प्रतीकार हो जानेपर आत्मपवित्रताके लिए शरीरका त्याग करना समाधिमरण है ।" इस विषय का विस्तृत विवेचन भगवती माराधना नामक घमणर्या समझानेवाले ग्रन्यमें किया गया है। सर्वार्थसिद्धिकी निम्न पंक्तियाँ संक्षेपमै इस विषयको भली प्रकार स्पष्ट करती है रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं ध्नतः स्वघातो भवति न सल्लेखमां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति, ततो नात्मवधदोषः ।" -सर्वार्थसिद्धि अ ७ सू० २२ । १. "उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां व निःप्रतीकारे । धमयि सविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।।" -रत्नकरण्डश्रावकाचार १२२ 1 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक विष, शस्त्र आदि उपकरणोंके प्रयोगसे राग-द्वेष मोहाविष्ट प्राणी द्वारा आत्माका बात करनेपर स्वका घात होता है। समाधिमरण को प्राप्त व्यक्ति के राग-द्वेष मोहानिक नहीं होते, इसलिए आत्म-वधका दोष नहीं होता है। दिगम्बर मुनीन्द्रोंकी शान्त, श्रेष्ठ, निरीह, निराकुल, उदात्तचर्याका जिस किसी मात्त्विक प्रकृतिवाले मानव को दर्शन हो जाता है उसकी आत्मामै यह विचार अवश्य उत्पन्न होता है. जिसे कवि भूषरवासजी इन शब्दोंमें प्रतिबिम्बित करते हैं"कब गृहवाससौं उदास होग्य बन से ऊँ, ॐ निज रूप गति रोकूँ मन करी की। रहिहौं अडोल एक आसन अन्चल अंग, सहिहौं परीसह शीत्त, घाम, मेघ-झरी की ।। सारंग समाज खान नौं खुले है आति ध्यान, दल-जोर जीतूं सेना मोह-अरी की । एकल बिहारी जथाजात लिंगधारी कब, होऊँ इच्छाचारी बलिहारी हौं वा घरी की ।" -जनशतक दिगम्बर मुनि निशानामतको पो तथा तपश्चर्यास्पो सुम्वादु बलप्रद आहारको ग्रहण कर शनैः शनै: विकास पमपर प्रगति करते हुए इतनी उन्नति करते है, कि जिसे देख जगत् चकित हो जाता है। प्राथमिक अवस्थामें दिगम्बर तपस्वियों के पास विश्वको चमत्कृत करने वाली बात भले ही न दीखें, किन्तु न जाने इममेंसे किस साधकको अखण्ड समाधिक प्रसाद रूप अपूर्व सिद्धियां प्राप्त हो जाएँ । भगवान पार्श्वनाथने आनन्द महामुनि के रूप में तीकर-प्रकृतिका बंध क्रिया था-विश्व हितकर अनुपम मात्मा बननकी साधना अथवा शक्षित संचय प्रारम्भ कर दी थी। उस समय उनके योग- लकी महिमा अवर्णनीय हो गई थी । कविने उनके प्रभावको इन शब्दों में अंकित किया है "जिस बन जोग धरै जोगेश्वर, तिस बनकी सब विपत टलें । पानी भरहिं सरोबर सूखे, सब रितुके फल-फूल फल ।। सिंहादिक जे जात विरोधी, ते सब बरी बैर तजै । हेस भुजंगम मोर मजारी, आपस में मिलि प्रीति भनें । सोहं साधु चढ़े समता रथ, परमारथ पथ गमन करें | शिवपुर पहुँचनकी उर बाँछा, और न कछु चिल चाह धरै । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन देह-विरफ्त ममत्त बिना मुनि सबसौं मंत्री भाव बहैं । आतम लीन, अदोन, अनाकुल, गुन वरनत नहिं पार लहैं।" -पार्श्वपुराण, भूरदास दिगम्बर जैन मनिका जीवन और मदा जगतको पुकार-पुकार कर जगाती हुई कहती है -क्यों मोहके फंदमें फैलकर विकृति और विपत्तिकी और दौड़े चले जा रहे हो। आओ, अकिंचनताका पाठ पढ़ो, प्रकृति के प्रकाश में आत्माकी विकृतिको धो हालो; तब तुम्हारे पास आनन्द तथा शान्तिका निझर उदभूत हो सबका कल्याण करेगा। देखते नहों, सारो प्रकृति किसी प्रकारका प्रावरण धारण नहीं करती-एक मनुष्य है जो अधिक ज्ञान मम्पन्न होते हुए भी अपने विकारों एवं अपनी दुर्बलताओंको दूर न कर उनपर सुन्दर वस्वादिका मोहक आवरण डाल अपने आप एका जगत् ।। है। क ल पसार का, हरिण पक्षो आदि सभी प्राणी दिगम्बरस्वकी मनोरम मुद्रासे अंकित है । परिग्रह आदिको आत्मदुर्बलताका अंग न मान उसके समर्थदमे लगनेवालोंके समाधान में ताकिक अलंकदेव कहते है कि अगस्त में विविध उपासकोंके अनेक उपास्वदेव हैं और उनको वैष-भुषा पृथक-पृथक् है । किन्तु जगलमें एक दिगम्बर मुद्राका ही व्यापक रूपसे प्रमार पाया जाता है "नो ब्रह्मांकित्तभूतलं न च हरे: शम्भोन मुद्रांकित नो चन्द्रार्ककरांकित्तं सुरपतेवंज्रांकितं नैव च । षड़वक्याम्बुज-बौद्ध-देव-हुतभुक्यक्षीरगनांकितं नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्रांकितम् ।।" -अकलंकस्तोत्र, ११ । अपने अन्तःकरणमें काम-भावनाका ननिक भी विकार धारण न कर मारी जाति के लिए चित्त मातृत्वको भावनाको प्रवुद्ध करनेवाले मलिन शरीर फिन्तु सुसंस्कृत पृष्य चरित्र दिगम्बर मुनिजन जिस देश में विहार करते है, वहाँके लोग सदाचार तथा सद्भावनाओंसे सम्पन्न हो सुखी रहते हैं। आज ऐसी पवित्र आत्माओंकी अत्यन्त विम्लताके कारण भारतवर्ष में श्रेष्ठ सदाचार और नैतिक जीवन में ह्रास दिखायी देता है। पुरातन भारत शान्ति समृद्धि और अभ्युदयका केन्द्र बताया जाता है। उस समय मोहारि-विजेता दिगम्बर-मुनीन्द्रोंका सर्वत्र छह संख्या में जिहार हुआ करता था। मगस्पनोज कहता है-- "जब बादशाह सिकन्दर भारत में आया था तब उस तक्षशिलामें कुछ दिगम्बर मुनियों के दर्शन किए थे।"१ प्रो. आयंगरने लिखा है कि-"ये जैन आचार्य अपने चरित्र, 1, "Wien Alexander came to India he saw some paked saints in Taxila and took one of them with him." Magesthenes. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक सिखियों और ज्ञानके कारण अलाउद्दीन और औरंगजेब जैसे मुस्लिम बादशाहोंके द्वारा वन्दित थे।'' स्मिय महाशयने अपने भारतीय इतिहासमे लिखा है कि--"ह्मएनसांग नामक चीनी यात्रीने सन ६४० ई० में दक्षिण भारतको देखा था।" यह मालकूट देशका वर्णन रू.सता कि -"वह जि. म्बर जैन मुनियों का बहुत बड़ा समुदाय था ।"२ ग्वेदमें दिगम्बर मुनियोंका उल्लेख है। विशेषज्ञ उसका सम्बन्ध दिगम्बर जैन मुनियोंसे बसाते है । उपनिषद् साहित्य भी दिगम्बर ऋषियों के विषयमें प्रकाश प्रदान करता है। उपनिषदों में छ: प्रकारके संन्यासियोंका उल्लेख है। जिनमें परमहंस. भिक्षु, परिवाजक तथा संन्यासीको नग्न रहना आवश्यक कहा है। परमहंसके विषयमें जावाल-उपनिषद्में लिखा है, "कि जो निIय दिगम्बर मुद्रापारी तथा परिग्रह रहित होकर ब्रह्माके मार्ग में सम्यक प्रकार संलग्न है, शुद्ध मनोवृत्ति वाला है, प्राण रक्षण के लिए भिक्षा द्वारा आहार ग्रहण करता है तथा लाभ अलाभमें समदृष्टि रहता है वह परमहंस है। उक्त ग्रन्थमें लिखा है कि परमहंस साधु आकाश रूपी वस्त्रको धारण करता है ।" नारद परिवाजकोपनिषद्में लिखा है कि भिक्षु अपने पुत्र, मित्र, कलत्र, कुटम्बियोंको छोड़कर दिगम्बर होता है । भिक्षुकोपनिषद्, तुरीयत्योपनिषदमें भी 1. "The Jain Acharyas-by their character, attainments and scholarship-command the respect of eyen Mohammadan soy ereigns like Allauddin and Aurangzeb Badshaha."-Prof, ___ Iyengar's Studies in South Indian Jainism Part 2nd p. 132. P. "Hieu Isang visited Southern India 640 A.D, and describes Malakuts country. "--the nude Jain saints were present in multitudes," ...Smith's His. of India p. 409, ३. "गनयो दात रशनाः पिशंगा वसते मलाः । वातस्यानु माजि यन्ति यद्देवासो अविक्षत ।।"-मंडल १०, ११, १३६ ४, ''यथाजात-रूपधरो निग्रन्थो निष्परिग्रहस्तसद् ब्रह्ममा सम्यक सम्पन्न शुद्धमानसः प्राणसंधारणार्थ""विमुक्तो भैक्षमाचरन्...,लाभालाभयोः सभो भूत्वा "सः परमहंसो नाम !" ५. ...."सः परमहंस आशाम्बरो न नमस्कारो न स्वाहाकारो, न निन्दा, न ___स्तुतिर्यादच्छिको भवेत् स भिक्षः ।" ६. "अथका यया विधिदचेज्जातरूपघरो भूत्वा स्वामित्र-कलत्र-चन्दादीनि कोपीनं दण्डमाच्छादनं च त्यक्त्वा" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन इस प्राप्तका समर्थन है। संन्यासोपनिषदा ऐसे संन्यासीको 'ज्ञान वैराग्य-संन्यासी' कहा है, जिसने सर्व परित्याग कर दिगम्बरस्वको अंगीकार किया है । मैत्रेय उपनिषदमें दिगम्न रत्वके माथ आनन्दको उद्भूतिका उल्लेख है-देशकाल-विमुक्तोऽ स्मि दिगम्बरंसुलोस्म्यहम् । पुराण माहिया भी इम सन स्तर ः मोहस्तिता नाना है । शिवपुराणमें एक कथा आई है कि शिवजीन दिगम्बर मुद्रा धारण कर देवदार बनके आश्रमका निरीक्षण किया था । उनके हाथमे मयूरपंखको पिच्छिका भी थी' | कुर्व पुराण, पद्मपुराण", में भी दिगम्ब रत्व समर्थक सामग्री उपलब्ध होती है। शकराचार्यके विवेकचूडामणि में ब्रह्मनिष्ठ योगीको स्वाधीन वृत्तिपर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि उनके वस्त्र दिशा रूपी होते हैं, जिन्हें प्रोने और सुखानेको आवश्यकता नहीं मालूम पड़ती । इस प्रकार प्राचीन भारतीय वाङ्मय का सम्यक अवगाहन करनेपर प्रचुर प्रमाणम श्रेष्ठ साधकोंक दिगम्बरत्त्वकी महिमाको बतानेवाली महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। तत्वदर्शी तो यही सोचता है कि मैं कब आशा रूपी वस्त्रोंको धारण करूंगा।" उस श्रेष्ठ अवस्था में यह जीव पूर्ण निराकुल हो ब्रह्मसाक्षात्कारका आनन्द लेने में समर्थ होता है। आत्म-निमग्नताकी स्थितिम तनश्पनको कैसे सुप रहेगी ! अपने युगके विख्यात संन्यासी स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्बन्धमें प्रकाशित "श्री श्रीरामकृष्ण कथामृत' बंगला भाषाकी रचनामें स्वामीजीकी दैनिक-चर्याकी चर्चा की गई है, कि "जग नेपर भक्तोंने देखा प्रभात हो गया है। श्री रामकृष्ण बालकके समान दिगम्बर है और कमरेके भीतर ईश्वर का नाम लेते हुए घूम रहे हैं।" (डायरी १६ मवतूबर १८८२)। थी अस्विनीकुमार दत्तने जो बंगालके विख्यात राजनैतिक नेता थे 'रामकृष्णके संस्मरण' में उनके दिगम्बरत्वको चर्चा की है। स्वयं स्वामी १. "सम्यस्य जातरूपधरो भवति स मानवैराग्यसंन्यासी ।" २. "विवेशोन्मत्तवेशश्च स्तलिगो दिगम्बर ३. "मयूरचन्द्रिकापुज्ञपिच्छका धारयन् फरे ॥-" शिवपुराण १०-८०, ८२ ४, कूर्मपुराण-उपरिभाग ३७.७ । ५. पद्मपुराण-पातालखण्ड ७२, ३६ ६. "चिन्ताशून्यमदैन्यभक्षमशन पान सरिद्वारिषु स्वातन्त्र्येण निरंकुशा स्थितिरभोनिद्रा श्मशाने वने । पस्न क्षालन-शोषणादिरहितं दिग्वास्तु शय्या मही संचारो निगमान्तवीथि विदां क्रीड़ा परे ब्रह्मणि ।।" ७. "आशावासो वसीमहि" Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक ९५ जीने उनसे कहा था कि सनौतिक वस्तु जाता है। उस समय यस्त्र भी छूट जाता है ।" बौद्ध साहित्यसे भी दिगम्बर श्रमणका सद्भाव ज्ञात होता है । "विसाख वस्युषम्मपदत्य कामें लिखा है कि एक श्रेष्ठि के भवन में ५०० दिगम्बर जैन साधुओंने आहार किया था। दीर्घनिकाय से विदित होता है कि कौशल नरेश प्रसेनजित्ने निर्ग्रन्थों' को नमस्कार किया था । महावणसे जात होता है कि वैशाली में दिगम्बर जैन श्रमणका विहार होता या 'महापरिणाण सुतं धम्म पदयका' में भी निन्योंका उल्लेख पाया जाता है । मुसलिम समाज में भी दिगम्बरत्वका सम्मान रहा है । आजसे ३०० वर्ष पूर्व मुसलिम संत सरमद शाहजहाँके राज्य में दिगम्बर के रूपमें राजधानी देहलीमें विचरण करता था। दिल्ली में लालकिले के सभी में संत सरमदका मजार है, जहाँ सदा की भीड़ लगी रहती है। उसके ये शब्द बड़े मार्मिक हैं, "जिसमें दोष देखता है उसे वस्त्र पहिना देता है, जो दोषरहित है। उन्हें नंगा ही रहने देखा है" 19 आचार्य सोमदेव यशस्तिलचम्पू में शकुनशास्त्र की दृष्टिसे दिगम्बर मुनिके विहारको राष्ट्र के लिए मंगलमय चताया है पश्चिमी राजहंसाश्च निर्ग्रन्धाश्च तपोधनाः । यं देशमुपसर्पन्ति सुभिक्षं तत्र निर्दिशेत् ॥" आज के भौतिकवादी वातावरण में किन्हीं किन्हीं व्यक्तियोंको शिष्टाचारके नामपर दिगम्बर मुनीन्द्रोंका नगरादि गमनागमन अप्रिय लगता है । किन्तु मपि वर्णन प्रकाशमें उन योगियोंकी महताको सोचने और समझनेका प्रयत्न करें तो उनका हृदय उन मुनीन्द्रोंकी मुद्रामत्ताये प्रभावित हुए विना न रहेगा । सन् १९४४ ई० के दिसम्बर में नागपुर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सर १, "Ramkrishna said I lost attention to every thing (mundare). My cloth dropped." "Reminiscences of Ramkrishna," Vol. I, p, 310 २. Historical Gleamings, 93.95, 3. (See also Sacred Books of the East Vol XXIII, 223 and XVIL 116), vide the Digambara Saints of India 75. ४. विश्ववाणी मासिक ४ ० २५१ वर्ष ८ । ५. "पोशाद लिवास हरकरा ऐवे दीक्ष । ये ऐवारा लिबासे उरियानी दाद ॥ " Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ जैनशासन भवानी शंकर नियोगी महाशयकी अध्यक्षतामें दिगम्बर मुनि श्री सुमतिसागरजी का सार्वजनिक भाषण, हजारों व्यक्तियोंकी उपस्थितिमें हुआ था। उसे सुनकर जस्टिस नियोगीजीकी आत्मा अत्यन्त प्रभावित हुई और उन्होंने कहा - आज इन मुनिराजके दर्शन कर मुझे बहुत प्रकाश मिला। कहाँ तो ये साधू जो बिना किसी परिग्रह निश्चिन्ततापू अंक जीवन व्यतीत करते हैं और कहाँ हम जो बहुत-सी सामग्री एकत्रित कर शान्तिलाभ करनेके लिये प्रयत्न करते हैं ।' देशगौरव दि० आचार्य देशभूषण महाराजके समीप स्व० प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर रोकाशी प्राप्त किया प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधीने श्रमणबेलगोला विधानन्द महाराजको अभिवंदना करते हुए या । २३ फरवरी १९८१ ई० में जैन तीर्थ में पहुँचकर दि० जैन मुनि उनसे विचार विमर्श किया था । जो व्यक्ति अपनी अपरिहार्य साम्प्रदायिक भ्रान्त धारणाओंके कारण ऐसे तपस्वियोंको देखकर क्षोभका अनुभव करते हैं वे नगर में जिन मंदिरदर्शन अथवा भोजन आदि आवश्यक कार्यदेश साधुओंको आते हुए सुन अपने मनोज्ञमुखको दूसरी ओर मोड़ सकते हैं। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि विश्ववन्द्यपदके धारण करनेवाले मुनियोंके नगरादिमें प्रवेशके विषय में शिष्टाचार के नामपर बाधा उपस्थित की जाए । प्रोवो कौन्सिलने इस बातका स्पष्टीकरण कर दिया है कि धार्मिक जुलूस शान्तिपूर्वक काम रास्ते में बिना रोक-टोक के ले जाए जा सकते हैं ।" 1. "Persons of all sects are entitled to conduct religious processions through public streets so that they do not interfere with the ordinary use of such streets by the public and subject such directions as the magistrate may lawfully give to prevent obstructions of the through-fare or breaches of public peace and the worshippers in a mosque or temples which abutted on a highroad could not compel the processionists to interfere their worship while the mosque or temple on the ground that there was continuous worship there." -Manzur Hassan vs. Md. Zaman. 23 All. L. J. 169, Privy Council, "The first question is, is there a right to conduct a religious procession with the appropriate observances along a highway? Their Lordships think the answer in the affirmative." Privy Council Idid, Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक प्राचीनताको ही सत्यकी कसौटी माननेवाले कहते हैं-दिगम्बर विचारधारा अर्वाचीन है । सवस्थ मुद्राका मार्ग सबसे प्राचीन है। यदि मनुष्य तककी दृष्टि से इसपर विचार करे तो उसे स्पष्टताकी कोई आवश्यकता नहीं है । कारण, यह तो बालक भी जानता है कि माताके उदरसे पहिले दिगम्बर-शिषु ही जन्म लेता है; पश्चात् वस्त्रादि परिधान वाला बनाया जाता है। प्रो० बलदेव उपाध्याय दिगम्बरस्वको भगवान पार्श्वनाषके सादकी वस्तु बताते हुए लिखते है-"पार्श्वनाथ वस्त्र धारणके पक्षपाती घे। पर महावीरने नितान्त साधनाफे लिए वस्त्र-परिघानका बहिष्कार कर नग्नताको ही आदर्श याचार बताया है।" (भारतीय दर्शन, पृ० १४६)। जैन-आगमकी दृष्टि में यह बात विपरीत है। भगवान ऋषभदेव आदि सभी तीर्थंकरोंने परम कल्याण प्राप्तिके लिए स्वयं अपने जीवन द्वारा दिगम्बर श्रमणमुद्राका प्रचार किया था। अडिसान्तत्त्वज्ञान और अध्यात्म-विज्ञान के प्रकाश में भी दिसम्वरत्व 'जिन' कहे जानेवालेको मावश्यक मुद्रा हो जाती है । अघतक पुरसतस्व विभाग द्वारा जो जैन मूर्तियों आदिकी उपलब्धि हुई है, उनके सूक्ष्म निरीक्षणसे ज्ञात होता है कि अत्यन्त प्राचीन मूर्ति कादि दिगम्बर-मुदासे अंकित है । शिम्बरसम्प्रदाय के विषयमें अंग्रेजी विश्वकोषकारका निम्न कमन विशेष योधप्रद है"जैनधर्म दिगम्बर और श्वेताम्बर नामक वो महान् सम्प्रदायोंमें विभक्त है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय अभीतक सम्भवतः ५वीं सदी तक का सिद्ध होता है। किन्तु, दिगम्बर-मादाय ईस्वी सन्ही ५ सभी पूर्व तक एक्के तौरपर प्रमाणित होता है। यह दिगम्बर लोग, बौद्धोंके पालो पिटकोंके अनेक उस्लेखों में "निग्गण्ठ नामसे कहे गये हैं। अतएव इन्हें कमसे कम ईसासे ६ सदी पूर्वका तो अवश्य होना चाहिये । अशोकके एक शिलालेख में निगाष्ठोंका उल्लेख आया है।" ___ सचल संप्रदायको प्राचीनताके आसनपर समासोन करनेके मोहवश निगण्ठ शब्दका अभिधेप दिगम्बर साधु न कर ऐसे सवस्य साघु करनेका श्रम उठाया 1, "The Jains are divided into two great parties Digambers or skyclad ories and the Swetambers or the white robed ones. The latter have only as yet been traced and that doubtfully as far back as the 5th century after Christ. The former are altnost certainly the same as the Niganthas, who are referred to in numerous passages of Buddhist Pati Pitatkas and must therefore be atteast us old as the oth century BC.-The Niganthas are referred to in one of Asoka's edicts" Vide Ency. Brit. Ed. Eleverith Vol. 15 p. 127. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन जाता है, जो रागद्वेषकी ग्रन्थिसे उन्मुक्त हों; उनकी मान्यताके अनुसार वस्त्रादिके धारण करते हुए, प्रक्षालनादि करते हुए रागद्वेषका अभाव और परिपूर्ण अहिंसाको साधना और निराकुलता बन सकती है । यह विचार सत्य समर्थित नहीं है । उपनिषद् साहित्यमें जातरूपधारीदिगम्बरको निर्ग्रन्थ कहा है। जाबालोपनिषद्म 'परमहंम' का स्वरूप बताते हुए उसे "यथाजासरूपश्वरो निर्ग्रन्यो निपरिग्रहः'...'कहा है। वस्त्रादि धारण करनेवाला पनि निर्गन्य पक्षी याच माना जाय, तो 'यथाजातरूपधरः' इस शब्द के साथ अर्थका समन्वय नहीं होता। ___ 'निग्गण्ठ' शब्दका प्रकट अर्थ है 'बिना गांठ बाला' । वस्तुतः दिगम्बर अथवा अचेल अबस्थामें ही यह शब्द सार्थक होता है, अन्यथा अधोवस्त्रादिकी मोठोंको धारण करते हुए निरगण्ठ कहना सत्य विरुद्ध होगा। वस्त्र धारण करते हुए अपने को 'निर्ग्रन्थाः पाश्चशिघ्याः वयं'-'हम निम्रन्थ हैं और भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य है' कहनवालोंको गौशाल कहता है-“वस्त्रादि मन्योंको घारमा करते हुए आप किस प्रकार निर्गन्ध है। यथार्थमें वस्त्रादिके परित्यागी और शरीर के विषयम भी उपेक्षा वत्ति धारण करनेवाले निग्रन्थ होते हैं। इस संक्षिप्त विवेचनसे अंग्रेजी विश्वकोपका 'निम्मण्ठ' शब्द द्वारा दिगम्बर जैनियोंका भाव अंगीकार करना सत्यके सुदृढ़ आधारपर अवस्थित दिगम्बर श्रमण के विषय में एक साधक कहता हैदेह मैली है, पर दिल उजला है प्यारे इस खाक के पुतलेमें हीरेकी कनी रहती है। ये साधक आत्म-ज्योतिके प्रकाशमें स्वयंको अनुशासित करते हैं । लौकिक व्यक्तियों द्वारा मानी गई मर्यादाएँ इन महामानवोंका पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकतीं। जड़वादीका मन्तःकरण उनकी गहराईको स्पर्श न कर सके, किन्तु शान और अनुभवके धनी सस्पुरुष इस बातको स्वीकार करेंगे कि सत्तजन ही सम्पूर्ण विश्वको अपना बन्धु मान उस बन्धुत्वका सत्यतापूर्वक संरक्षण करते है । कथन्नु यूयं निषा दस्वादिग्रन्धधारिण: 1 केवलं जीविकाहेतोरिम पाषण्डकल्पना ।। वस्त्रादिसंगरहितो निरपेक्षो वपुष्वपि । धर्माचार्यो हि यादमे नियन्धास्तादृशाः खल ।।" -Vide-Wilson's Religous Sects of the Hindus' p. 293. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबुद्ध-साधक जिस आत्मामें अहिंसाको ज्योति जग जातो है, उसका मनुष्योंके सिवाय क्रूर पशुओं तक पर आश्चर्यप्रद प्रभाव दिखता है। एक बार 'प्रबुद्ध भारत' में छपा या' कि एक एपारसन नामक अंग्रेज हाथी पर सवार हो जयदेवपुर के जंगल में शिकार खेलने गया। वहाँ एक शेरको देख हायो डरा। उसने साहबको नीचे गिरा दिया । एण्डरसनने शेरपर दो-तीन गोली चलाई, किन्तु निशाना चूक गया। इतने में शेरने पीछा किया। प्राण बदाने को वह पास की एक झोपड़ी में पहुंचा, जहाँ एक दिगम्बर साघु रहा करते थे। साधु के इशारा करते हो शेर शान्त हो गया और कुछ देर बैठकर चुपचाप चला गया। जब एण्डरसनने नागा बाबासे इस प्राश्चर्गका कारण पूछा नह गाएर कट्टा'-"जिसके निम्मे हिमाका विचार नहीं है उसे शेर या सर्प कोई भी हानि नहीं पहुँचात । तुम्हारे मनमें हिंसाका भाव है, इसलिए जंगली जानवर तुमपर आक्रमण करते हैं। उस दिनसे एण्डरसनने शिकार खेलमा छोड़ दिया और वह शाकाहारी बन गया । दाफा और चिटगोवमे बहुतोंने एण्डरसनके इस परिवर्तित रूपको देखा है । जयपुर राज्य के दीवान श्री अमरचन्द्रजी जैन बड़े जानवान और संत प्रकृतिके महापुरुष थे। एक विशेष अवसर पर राज्यके अजायब घरके भूखे शेरके सयक्ष, उन्होंने अपने अहिंसा प्रतका परम आदर करते हुए, मांस न रखवा कर मिठाई रखवाई और शेरसे कहा-''यदि तुझे भूख शांत करता है, तो यह मिठाई भी तेरे लिए उपयोगी है। किंतु यदि मांस ही खाना है तो मुलको स्वशीसे खा सकता है" इस अहिंसापूर्ण प्रेम भरी वाणीका शेरपर बड़ा प्रभाव पड़ा और उसने सबको चकित करते हुए शांत भावसे मिठाई खा ली। इस महिंसाके द्वारा जो मात्म-बल जागृत होता है उसके प्रभाषसे यह जीव अभय और आनम्बकी नवीन ज्योतिको इस अंधकारपूर्ण जगत्में प्रकाशित कर सकता है। इस श्रेष्ठ साधनाके पवित्र पथपर चलने योग्य जबतक आत्मामें बल उत्पन्न नहीं होता तबतक प्राथमिक साधकका कर्तव्य है कि वह अपने भादर्माको हृदय में रख साघुस्वसे अंकित सत्पुरुषोंको अपने जीवनका पथ-प्रदर्शक माने और उनको अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हए अन्तःकरणसे कहे __ "जमो लोए सव्यसागं" १. प्रबुद्धभारत अंग्रेजी मासिक १९३४, १० १२५-२६। । "One, who has no .Himsa, is never jujured by tigers or snakes, Because you have feeling of Himsa in your mind you are attacked by wild animals". Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनगासन अहिंसाके आलोकमें अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्' -स्वामी समन्तभद्र, दहनस्वयम्भ, ११९ पुण्य जीवनको यदि भव्य-भवन कहा जाए तो अहिंसा-तत्त्वज्ञानको उसको नींव मानना होगा। अहिंसात्मक वृप्तिके बिना न व्यष्टिका कल्याण है और न समष्टिका | साधनाका प्राण अथवा जीवन-रस अहिंसा है । आज भारतीय राष्ट्रमें अहिंसाकी आवाज खूब सुनाई पड़ती है। देशने पराधीनताके पाशसे छूटने के लिए अपनी किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में हिंसात्मक पद्धतिको एकमात्र अवलम्बन माना था । और इसीलिए रक्तसतके दिता सादनं प्रगतिके पथपर दलगतिसे अपना कदम बढ़ाया और स्वाधीन भी हो गया । फ्रांमके विश्वविख्यात विद्वान रोम्या रोलां इस अहिंसाके विषय में बहुत उपयोगी तथा प्रबोधप्रद बात कहते हैं, "Tic Rishis who discovered the Law of Nonviolence in the midst of violence were greater geniuses than Newton, grcater warriors than wellington. Nonviolence is the law of our specirs as violence is the law of the brute,"-जिन सन्तोंने हिसाके मध्य अहिंसा सिद्धान्तकी खोज की, वे न्यूटन से अधिक बुद्धिमान थे तथा चिलिगटनसे बड़े योद्धा थे ।''जिस प्रकार हिमा पशुओं का धर्म है, उसी प्रकार अहिंसा मनुष्योंका धर्म है।"१ अपनो महत्त्वपूर्ण रचना 'हिन्दुस्तानकी पुरानी सभ्यता' (१९६१३) में धुरन्धर विद्वान बटर वेमीप्रसाद ने लिखा है "सबसे केंचा आदर्श, जिसकी कल्पना मानव मस्तिाक कर सकता है, अहिंसा है। अहिंसाके सिद्धान्तका जितना व्यवहार किया जायगा, उतनी ही मात्रा सुख और शान्तिकी विश्व-मण्डलमें होगी।" उनका यह भी कथन है कि ''यदि मनुष्य अपने जीवनका विश्लेषण करे, तो इस परिणामपर पहुंचेगा कि सुख और शान्तिके लिए भान्तरिक सामंजस्मकी आवश्यकता है।" यह अन्त करण की स्थिति तन्द ही उत्पन्न होती है, जब यह जीव सब प्राणियोंके प्रति प्रेम और अहिंसाका व्यवहार करता है । जहाँ अहिंसा समत्वके सूर्यको जगाती है, वही हिंसा अपवा क्रूरता विषमताकी गहरी अंधियारीको उत्पन्न करती है, जहाँ यह अन्य जीवोंकी हत्याके साथ अपनी उज्जवल मनोवृत्तिका भी संहार करता है। संसारके धोका यदि कोई गणितज्ञ महत्तम-समापवर्तक निकाले तो उसे अहिंसा धर्म ही सर्वमान्य सिद्धान्त प्राप्त होगा। इस तस्म-ज्ञान पर जैन थमणोंने 1. Mahatına Gandhi by Roman Rolland p, 48, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा के आलोक में १०१ जितना वैज्ञानिक और तर्क संगत प्रकाश डाला है, उतना अन्यत्र देखने में नहीं आता । यह कहना मत्यकी मर्यादाके भीतर है कि जैनियोंने इतिहासातीत कालसे लेकर अहिंसा तत्त्वज्ञानका शुद्ध रोतिमे संरक्षण किया है। एक समय था, जब वैदिक युग में स्वर्गप्राप्ति के लिए लोगों मार्ग बताता था । इससे स्वार्थी व्यक्तियोंने दिया अपना भविष्य उज्ज्वल मान अगणित पशुओंका संहार किया । वैदिक साहित्य के शास्त्रों में हिसात्मक यज्ञकी पुष्टिमें विपुल सामग्री नम्मिलित की गई । उस आध्यात्मिक ज्योति-विहीन जगत् में अपने ज्ञान, शिक्षण और सेवा द्वारा जैन धर्मन अहिंसाघमको पुनः प्रतिष्ठा कराई प्रोफेसर आयंगर ने लिखा है, के पुष्प सिद्धान्तने वैदिक हिन्दू धर्मकी क्रियाओं प्रभाव डाला है। यह जैनियोंके उपदेशोंका प्रभाव है । जिससे बाप्पोन पशुबलिको पूर्णतया बन्द कर दिया था तथा यज्ञोंके लिए सजीव प्राणियोंके स्थान में आनेके पशु बनाकर कार्य करना प्रारम्भ किया। 219 लोकमान्य लिकने यह स्पष्टतया लिखा है- " अहिंशा परमो धर्मः इस उदार सिद्धान्ते ब्राह्मण धर्मपर चिरस्मरणीय पगारी हूं । पूर्व कालमें यज्ञके लिए असंख्य पशु-हिमा होती थी । इसके प्रमाण 'मेघदूत काव्य' आदि अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं । ..परन्तु उस घोर हिसाका ब्राह्मण धर्मसे बिदाई ले जानेका श्रेय जैन-धर्म के हिस्से में है ।" (मुंबई समाचार, १० - १२ - १९०४) । मेंदूत (उलो० ४५ ) में कवि कालिदास अपने मेघसे बहते हैं कि "उज्जयनी से आगे बढ़ते समय चर्मण्वती नामकी नदीका दर्शन होगा। बहू रन्तिदेव नायक नरेश द्वारा गोन्ववयुक्त अतिथियज्ञ सम्बन्धी चर्मके जलसे युक्त होने के कारण चर्मण्वती कहलाती है। उसे गोवलिके कारण पूज्य मानते हुए तुम यहाँ कुछ समय ठहरना ।" भवभूतिने उत्तररामचरितके चौथे अंक में वाल्मीकि आश्रम में सोघातकी और भाण्डायन दो शिष्यों का वार्तालाप वर्णित किया है । वसिष्ठ ऋषिको देख सीधाकी पूछता है - " भाण्डायन, आज वृद्ध साधुओं में प्रमुख वीरधारी कोन अतिथि 1. "The noble principle of Ahimsa has influenced the Hindu Vedic rites. As a result of Jain preachings animal Sacrifices were completely stopped by the Brahmans and images of beasts made of four were substituted for the real and veritable ones required in conducting yagas" (Prof. M 5. Ramswami Ayangar. M. A.) Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनशासन आए हैं? भाण्डायन उनका नाम वसिष्ठ बताता है । यह मुन सोधातकी कहता है- "मये उण जानिएं, बाघो वा थियो वा एसो ति" - मैं तो समझता था कि कोई या अथवा भेड़िया आया है। इसका कारण वह कहता है-' 'ते परावणि सावराइया कलोडिया महमाइदा जैसे ही वे आये उन्होंने एक दोन गोवंशको स्वाहा कर दिया। इसपर भाण्डायन कहता है कि घमंसूत्र में कहा है कि मधु और दधिकं साथ मांसका मिश्रण चाहिए। इसलिए श्रोत्रिय गृहस्थ ब्राह्मण अतिथिके भक्षण के लिए गाय, बैल अथवा बकरा देवे 1 इसका अत्यन्त दुःखद मल पेठ ग्राम का ता० 1 आज भी धर्म के नामपर कैसी भीषण हिंसा होती है, वर्णन इन पंक्तियों से ज्ञात होता है, "मद्रास प्रान्तके २१ जुलाई १९४९ का समाचार है कि एक पिताने अपने पाँच वर्षके बालकका सिर हथियार से इसलिए काट लिया, कि उसे पूर्व रात्रिका यह स्वप्न आया था, जिसमें उसे दैवी शक्तिने बलि देने को कहा था; यह घटना कालुकरा ग्राम में हुई ( वेंकटेश्वर समाचार २९७४९५.२.) । इस प्रसंग इतना उल्लेख और आवश्यक है कि जहाँ वाल्मीकि आश्रम में वसिष्ठके लिए गोमांस खिलाने का वर्णन है, वहाँ राजर्षि जनक को मांन-रहित मधुपर्कका उल्लेख है। इसीलिए भाण्डायन कहता है- निवृत्त मांसस्तु तत्रभवाम् मक:' ( पृ० १०५-७) । · वैदिक वाङ्मयका परिशीलन करने पर विदित होता है, कि पुरातन भारतमें हिंसा और अहिंसाकी दो विचारधाराएं शुक्लपक्ष कृष्णपक्ष के समान विद्यमान श्रीं प्रो० ए० एम० ए० मद्रास तो इस निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि कहिसाकी विचारधारा उत्तर कालमे जैन कहे जानेवालों द्वारा प्रवर्तित, जित एवं समर्पित थी । ब्राह्मण और उपनिषद् साहित्य में विदेह और मगधमें अनुप्राजहां क्षत्रिय नरेशोंका प्राबल्य मा - अहिसात्मक देशका प्रचार था। वे लोग एक विशेष भाषाका उपयोग करते थे जिसमें 'न' को 'ण' उच्चारित किया जाता था, जो स्पष्टतः प्राकृत भाषा के प्रभाव या प्रचारको सूचित करता है । पहिले तो कुरु पांचाल देश के विषगण मगध और विदेह भूमिवालोंको अहिंसात्मक यज्ञके कारण कुछ समझ उन प्रदेशको निषिद्धभूमि-सा प्रचारित करते थे, किन्तु पश्चात् केतुत्वमें अहसा और अध्यात्मविद्याका प्रभाव बढ़ा और इसलिए अपनेको अधिक शुद्ध मानने वाले कुन पांचाल देशीय विद्वज्जन आत्मविद्याकी शिक्षा-दीक्षा निमित्त विदेह बादिकी ओर आने लगे । बुद्धकालीन भारत में भी इसी प्रकारकी कुछ प्रवृत्ति दिखाई देती है। वहीं 'महाबा' में गौतम बुद्ध धर्मोपदेश देते हुए कहते हैं-- इरादा पूर्वक भिक्षुको किसी भी प्राणी - कीड़ा अथवा घोंटो तककी हिंसा नहीं करनी चाहिए, वहां Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा के आलोक में १०३ विनयपिटक' में बुद्ध यह उपदेश देते हुए पाये जाते हैं---"भिक्षुओ में कहता हूँ कि मछली तीन अवस्था में ग्राह्य है । पहिले यदि तुम उसे इम रूपमें न देखो, दूसरे यदि तुम उसे इस रूपमे न सुनो और तीसरे तुम्हारे चितमें इस प्रकारका सन्देह ही उत्पन्न न हो कि यह तुम्हारे लिए ही पकड़ी गई है।' महावग्ग में लिखा है कि- "नवदीक्षित एक मंत्रीने बारह सौ पचास भिक्षुओं सहित बुद्धको आमंत्रित किया और मांस परोसा संघने बुद्ध सहित उसे खाया ।" मुत्तनिपात में प्राणियोंकी हत्याको दोषपूर्ण बताते हुए मांस भक्षणको पाप नहीं २०१ कहा बाइबिल में हजरत मसीहने जहाँ अपने शैल प्रवचन में (Sermon on Mount ) “Thou shalt not kill" — 'तू प्राणिहत्या मत कर इस बात को सुबर्ण शिक्षा दी है वहीं बाइबिल में ईसामसीहको मारे गाँवको मछली खिलाते हुए पाते हैं । ४ 1. "I prescribe, O Bhikkus, that fish to you in three cases-if you do not see, if you have not heard, if you do not suspect (that it has been caught specially to be given to you)". The Vinaya Text XVII p. 117. २. "Newly converted minister invited Buddha with 1250 Bhikkus and gave meat too......Samgha with Buddha ate it." Mahavagga, VI- 25.2 ३. "पावामें बेदी लुहारने बुद्धको मीठा चावल, मोठी रोटियां तथा कुछ सुखा सुरका मांस खिलाया; बुद्धने उस भोजनको खा लिया, तभी से उसे अतोसार हो गया था ।" - बुद्ध और बौद्धधर्म, पृ० २२ 4. "He (Jesus) said unto them (people) Give ye them to eat. And they said 'We have no more but five loaves and two fishes; except we should go and buy meat for all these people, For they were about five thousand men'. And he said to bas disciples, make them sit down by fifties in a company. And they did so and made them all sit down. Then he took the five loaves and the two fishes and looking up to heaven he blessed them and broke and gave to the disciples to eat before the multitude. And they did eat and were all filled and there was taken up a fragment that remained to them twelve baskets." St... Luke's Gospel Chapter 9... ... XX. 13-18. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनशासन यहाँ हम इतना ही बताना चाहते थे कि अहिंसाका व्यवस्थित पूर्वापर संगत वर्णन भगवान महावीर आदि जैन तीर्थकरोंके शासन के बाहर नहीं पाया जाता । अंगरेजी विश्वकोषमे पाली साहित्यके आधारपर भगवान् महावीरको निर्गन्ध दिगम्बर माना है। आज अहिंसाका उच्च स्वरमें जरोष खूब सुनाई पड़ता है । किन्तु, ऐसे कम लोग हैं जो अहिंसाका मर्म वास्तविक रूपमें जानते हैं । विरोधीपर शस्त्रप्रहारमात्र छोड़ मनमाना विषलो वाणीका प्रयोग करना, मद्य, मांस, मधु आदि पदार्थों का सेवन करना, वेश्यासे यन, शिकार खेलना आदि कार्य करते हुए भी र अहिंसक हा रबिनं वालोंकी भी आज कमी नहीं है। जब अहिंसातत्व जानका सवागीण वगन और परिपालन जन-संस्कृतिके वजके तले हुआ है, तब जैनदृष्टिसे इस विषयपर प्रकाश डालना आवश्यक तया उपयोगी होगा। भारत में अहिंसाका हिंसाके निषेध रूप निवृत्ति परक अर्थ किया जाता है और चीन देशमे उसका विधि रूप (Positive) अर्थ प्रेम अथवा मंत्री किया जाता है । इसको चीनी भाषामें जैन (Jen) कहते हैं। निधारमा अहिंसाको 'पु है' (Pu-HAI) कहते है। अहिंसा जैनधर्म और जैन जीवनका प्राण है । उसका पर्यायवाची शब्द चीनो भाषामें 'जन' या 'जिन' होना भापाशास्त्रियोंके लिए विदोष चिन्तनीय प्रतीत होता है। करुणासे जैन धर्मका सम्बन्ध देखकर निष्पक्ष विद्वान् जहाँ भी विमल प्रेमको गंगा या उसकी शाखाको देखते हैं, वहां वे जैन प्रभावको उद्घोषित किए बिना नहीं रहते हैं। ईसाके तीन चार सदी पूर्व तपशिलामें आयुर्वेदका शिक्षण उच्चकोटिका था। वहीं पशुओंको श्रेष्ठ चिकित्साका भी प्रबन्ध श्रा । इसका कारण पं. जवाहरलाल नेहरू जैनवर्म और बौद्धधर्मका प्रभाव बताते हैं. जो अहिंसापर अधिक जोर देते हैं। अहिंसाकी विचारधाराको एक विशिष्ट मर्यादाके भीतर प्रचारित करनेवाले गांधीजी पर, वैष्णव परिवार में जन्म धारण करते हुए भी, जैनधर्मका विशेष प्रभाव था, कारण वे अपनी माताके प्रभातम घे और उनकी मातापर जैन साधु का विशेष प्रभाव था, यह बात उनकी 1. "In the third or fourth century B. C. there were also hospitals for animals. This was probal l due to the influence of Jainismi und Buddhisin with their umpi.., is 0:1 Yon-violerce," Disco very of India p. 129. . "V. K, Gandhi's another was ander Jain influence Although his inother was i Vaislinava Hindu she came much der the influence of a Jain nionk after her lusband's death."-"In the Path of Mahatma Gandhi' p. 202-by George Cation. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाके आलोकमें १०५ जीवन गाथापर प्रकाश डालने वाले विदेशी लेखकोंने विशेष रूपसे प्रकट की है। जार्ज केटलिन तो गुजरात प्रान्त मात्रको जैनधर्म के प्रभावापन मानता हुआ उस वातावरणसे गांधी जी के जीवनको अनुप्राणित-सा अनुभव करता है । बाह्य वातावरणका जीवनपर गहरा असर होता ही है । अहिंसाके उच्च समाराधक होने के कारण ही मौराष्ट्र देशने भारतीय अहिंसात्मक संग्राममें महान भाग बटाया था।' कैटलिगका कथन है कि भारतमें मांसाहारके विरोध में गुजरातका सबसे प्रमुख स्थान है तथा बनधर्मका वहाँ जितना प्रभाव है, उतना भारतके अन्य भागोंमें नहीं है। 'महात्मा गांधी' नामक अंग्रेजो पुस्तकमें श्री पोलकने गांधीजीको जम्म-भूमि गुजरात में जैनयमके महान् प्रभावको स्वीकार किया है, जिससे गांधीजीके जीवनको समाधारण प्रकाश तथा बल प्राप्त हुभा । विद्वान् लेखक टाल्सटाय आदिके प्रभावको उतना महत्त्वपूर्ण नहीं मानता है । विलावत जाते समय जो गांधीजीने जन सन्त श्रीमद् राजचन्द्र भाईमे पद्य, मांस तथा परस्त्री सेवन त्यागकी प्रतिज्ञा ली थी और जिसके प्रभावसे गांधीजी के जीवन में अहिसात्मक उज्ज्वल क्रान्तिका जागरणा हुआ था, उनकी मार विश्व विरूपात लेखक रोम्यारोला' the thrce vows of ains-'जैनों की प्रतिमात्रयो' कहते है। 1. "No where in India there was stronger feeling against meat. eating or more Jain influence than in Gujrat." Ibid p. 163. २. "Again it was reflection, his experience of life and in some degree the influence of Tolstoy that brought him to his fundamental doctrine of Ahimsa; He then went to the Hindu scriptures and to the folk poetry of Gujrat and rediscovered it there, If I may give my view briefly and bluntly on this much disputed question I think Gandhi put his claim much too high. Certainly Buddhists and Jains preached and practised Ahimsa and the Jaius' influence is still a vital force 112 bis native Gujrat The first five of Gandhis vows were the code of Jain monks during two thousand years." ___Mahatma Gandhi by H. S. L. Polak. P. 122, 3. "Before leaving India his mother made him take the three vows of lain, wbici prescribe abstcytion from wide, meat and sexual intercourse."...Mahatma Gandini by Roman Rollard p. I]. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ इस चीनी डाइरेक्टर श्रीनीभवन विश्व भारती एवं भारत स्थित चीनी सरकार के सांस्कृतिक प्रतिनिधिके महत्वपूर्ण उदगार विशेष मनन करने योग्य हैं, जो उन्होंने 'चीन-भारतीय संस्कृति में महिंसा' सम्बन्धी चिन्तनायुक्त निबन्ध में व्यक्त किये है। डा० सानका कथन है कि "अहिंसा भारतीय एवं चीनी संस्कृतिका सामान्य तथा प्रमुख अंग है । भारत में निषेधात्मक हिसाकी व्याख्या प्रचलित है और चीन में विधिरूप ।" गांधीजीने भारतीय दृष्टिकोणका स्पष्टीकरण करते हुए कहा था कि "इस देह में जीवन धारण करने में कुछ न कुछ हिंसा होती है। अतः श्रेष्ठ धर्मको परिभाषा में हिंसा न करना रूप निषेधात्मक अहिंसाको व्याख्या की गयी है ।" यह अहिंसाका उपदेश सबसे पहले विशेषतया जैन सोथंकरोंने गम्भीरता एवं सुव्यवस्थापूर्वक बतलाया और उचित रीति से प्रचारित किया। उनमें भी २४वें तीर्थंकर महावीर वर्षमान मुख्य हैं। पुनः इस अहिंसाका प्रचार बुद्धदेवने किया ।" जो लोग अंनधर्मको अहिंसाको अव्यवहार्य सोचते हैं, उनके परिज्ञानार्थ ४१० तानका यह कथन है, "मानवताका पर्याप्त विकास नहीं हो पाया है, इससे यह अव्यवहार्यं भले ही प्रतीत हो, किन्तु जब मानवताको विशेष उन्नति होगी तथा वह उन स्तरपर पहुँचेगी, तब अहिंसा विशेष व्रत सबको पालना होगा एवं सभी इसका पालन करेंगे ।" "चीन एवं भारतमें शुद्ध अहिंसा की भूमिकापर अवस्थित व्यापक संयुक्त संस्कृतिका निर्माण करने के उपरान्त हमें यह उचित होगा कि हम उसी २. जैनशासन 1. "Ahimsa is the chief characteristic of common Indian and chinese culture. Chinese prefer to use the positive form rather than the negative, while Indians prefer to use the negative one, Gandhijee said "All life in flesh exists by some violence ; hence the highest religion has been defined by a negative word "Ahimsa'..... The gospel of Ahimsa was first deeply and systematically expounded and properly and specially preached by the Jain Tirthamkaras, more prominently by the 24th Tirthamkara, the last one Mahavira Vardhamana. Then again by Lord Buddha......" ****** ..."Humanity has not yet progressed enough. When humanity has sufficiently developed and reached in certain higher stage, this law of Ahimsa should be and would be follwed by all. " Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाके आलोकमें १०७ अहिंसा के आधारपर व्यापक विश्व संस्कृतिका निर्माण करें।"' अत: हमारा आध कर्तव्य परिशुद्ध अहिंसाके स्वरूपको हृदयंगम करना है । अहिंसाका यथार्थ स्वरूप राग, द्वेष, । ध, मान, माया, लोभ, भीरुता, शोक, घृणा आदि विकृत भावोंका त्याग करना है। प्राणियों के प्राणों के वियोग करने मात्रको हिंसा समझना अयुक्त है। तात्विक बात तो यह है कि यदि राग, द्वेष, मोह, भीति आदि दुर्भा विद्यमान हैं, तो अन्य प्राणीका घात न होते हुए भी हिंसा निश्चित है । यदि रागादिका अभाव है तो प्राणिघात होते हुए भी अहिंसा है । अमृत चन्द्र स्वामी लिखते हैं "अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति । तेषामेयोत्पत्तिदिति जिनामा संक्षेपः॥" -पुरुषार्थसिद्धधुपाय, श्लो० ४४ । रागादिकका अप्रादुर्भाव अहिंसा है, रागादिकोंकी उत्पत्ति हिंसा है । यह जिनागमका सार है। तत्वार्थसूचकार आचार्य उमास्वामी लिखते हैं "प्रमत्तयोगात्मागम्यपरोपण हिसा" इस परिभाषामें 'प्रभत्तयोग' शब्द अधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि राग-द्वेष आदि हैं तो भले ही किसी जीवधारीके प्राणोंका नाश न हो, किन्तु कषायवान व्यक्ति अपनी निर्मल मनोवृत्तिका बात करता है। इसलिए स्व-प्राणघातरूप प्राणव्यपरोपण भी पाया जाता है । भारतीय दण्ड विधान (Indian Penal Code) में किसी व्यक्तिको प्राणघातका अपराधी स्वीकार फरते समय उसमें घातक मनोवृत्ति (Mens rea) का सदभाव प्रधानतया घेखा जाता है। इसी कारण आरमरक्षाके भावसे शस्त्रादि द्वारा अन्यका प्राणघात करने पर भी व्यक्ति वण्डित नहीं होता । धार्मिक दृष्टि से अहिंसाके विषयमें भी अनाचार्योंने यही दृष्टि दी है । महर्षि कुम्बकुम्ब प्रवचनसार में लिखते हैं "मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयवस्स गस्थि बंधो हिंसामित्तेण समिदस्स ॥" -20 ३, मा० १७ । 1. "We chinese and Indians the two greatest people of the world should culturally join together and mingle togetber to create, to establish, co promote a common culture called Sino-Indian Culture entirly base on Abimsa. We shall further create, establish and promote a common world culture on the same basis."-Vide Amrit Bazar Patrika p. 7 and 8, ?:-10-19, Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन जीवका घात हो अथवा न हो, नसावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करनेवालेके हिसा निश्चित है, किन्तु सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले साधुके कदाचित् प्राणघात होते हुए भी हिसानिमित्तक बन्ध नहीं होता । पं० आशाजी तर्क द्वारा समझाते हैं-"यदि भावके अधीन बन्ध भोकी व्यवस्था न मानो जाए, तो संसारका वह कौन-सा भाग होगा, जहाँ पहुँच मुमुक्षु पूर्ण अहिंसक बनने की साधनाको पूर्ण करते हुए निर्माण लाभ करेगा ? अहिंसापर अधिकारपूर्ण विवेचन करनेवाले अमृत सूरि पुरुषार्थसिद्धघुपायमें लिखते हैं १०८ "सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः । हिमायतननिवृत्ति: परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥ ४९ ॥ परपदार्थ निमित्तसे मनुष्यको हिंसाका रत्र मात्र भी दोष नहीं लगता; फिर भी हिंसाके आप मानों (शों की निवृति परिणामोंकी निर्मलता के लिए करनी चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि हिँसाका अन्वयव्यतिरेक अशुद्ध तथा शुद्ध परि मोंके साथ है। शेष परित्यागको अहिंसा और उसके सद्भावको हिया साधारणतया लोग जानते हैं । जैन ऋषि मान माया-लोभ, शोक, भय, घृणा आदिको हिंसा पर्यायवाची मानते हैं क्योंकि उनके द्वारा चैतन्यकी निर्मलवृत्ति विकृत तथा मलीन होती है "अभिमान-भय-जुगुप्सा - हास्या रति-शोक-काम- कोपाथाः । हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसन्निहिताः ॥” –पु० सिद्धघुपाय ६४ | आहार- पान आदिकी शुद्धि अहिंसक के लिए आवश्यक है। क्योंकि अशुद्ध आहार अपवित्र विचारोंको उत्पन्न करता है और अपवित्र विचारोंसे कमौका बम्ध होता है। साधकको शक्ति के अनुसार अहिंसाका न्यूनाविक उपदेश दिया गया है। अतः यह पूर्णतया व्यवहार्य है । एक दिरसार नमक भील या । उसने केवल का मांसभक्षण न करनेका नियम ले उसका सफलता के साथ पालन किया या और उन पद प्राप्त किया था। वहाँ इतना जानना चाहिए कि जितने अंश भीलने हिंसाका त्याग किया है उतने अंगमे वह अहसक था, सर्वांश में १. "विश्वरजीवचिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्ष्यत । भावसाधन बन्धमोक्ष- चेन्नाभविष्यताम् - सागार ०४, २३॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाके आलोकमें १०९ नहीं । परिस्थिति, बातावरण और शापिसको ध्यान में रखते हुए महर्षियोंने अहिसात्मक साधनाके लिए अनुजा दी है। कहा भी है "जं सक्कइ तं कीरइ ज य ण सक्काइ तहेव सद्दणं । सदहमाणो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं " जितनी शक्ति हो उतना आचरण करो, जहाँ शक्ति न चले, श्रद्धाको मागृत करो । कारण श्रद्धावान् प्राणी भी अजर अमर पदको प्राप्त करता है। अहिंसाका अर्थ कर्तव्यपगारणता है । गृहस्थस्से मुनितुल्य श्रेष्ठ अहिंसाको आशा करनेपर भयंकर अव्यवस्था उत्पन्न हुए बिना न रहेगी। इस युगकी सबसे पूज्य विभुति सम्राट भरतके पिता आदि अवतार ऋषभदेव तीर्थकरने जब महामुनिका पद स्वीकार नहीं किया था और गृहस्थशिरोमणि थे--प्रजाके स्वामो थे तब प्रजापालका नरेशके नाते अपना कर्तव्य पालन करने में उन्होंने तनिक भी हमाद नहीं दिखाया । स्वामी समन्तभनके शब्दों में उन्होंने अपनी प्यारी प्रजाका कृषि आदि द्वारा जीविकाके उपायकी शिक्षा दी । पश्चात् तत्त्वका बोध होनेपर अद्भुत जदयमुक्त उन ज्ञानवान् प्रभुने ममताका परित्याग कर विरक्ति धारण की। जब ने मुमुक्षु हुए तब तपस्वी बन गए।' इससे इस बातपर प्रकाश पड़ता है कि ऋषभदेव भगवान्ने प्रजापतिको हैसियत दीन-दुखी प्रमाको हिसाबहल खेतो आदिका उपदेश दिया कर्तव्य पालनमें वे पीछे नहीं हटे। मुक्तिको प्रबल पिपासा जाग्रत होनेपर सम्पूर्ण वैभवका परित्याग कर उन्होंने मनि-पद अंगीकार किया तथा कोको नष्ट कर डाला । __ भगजिनसेनने लिखा है कि-प्रजाके जीवननिमित्त भगवान् आदिनाथ प्रभुने गृहस्थोंको शस्त्रविद्या, लेखन-फला, कृषि, वाणिज्य, संगीत और शिल्पकलाकी शिक्षा दी थी--- "असिमषि: कृषिविद्या वाणिज्य शिल्पमेव च । कर्माणीमानि कोठा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ॥" । -कादिपुराण पर्ष १६ अहिंसक गृहस्थ बिना प्रयोजन इरादापूर्वक तुष्ट-से-तुच्छ प्राणीको कष्ट नहीं पहुंचाएगा, किन्तु कर्तव्यपालन, धर्म तथा न्यायके परित्राण-निमित्त वह यथावश्यक अस्त्र-शस्त्रादिका प्रयोग करनेमे भी मुख न मोडेगा। आचार्य सोमदेव ने शस्त्रोपजीवी क्षत्रियों को अहिंसाका व्रती इस तर्क द्वारा सिद्ध किया है१. 'प्रजापतिर्यः प्रयम जिजोविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । मुमुक्षरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रभवाज सहिष्णुरच्युतः ॥" - स्त्रयम्भूस्तोष २३ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनशासन "निरर्थकवधत्यागेन क्षत्रिया वतिनो मताः ।" शास्त्रादिग्रहण के विषय में जैन नरेन्द्रकी दृष्टिको सोमदेव यशस्तिलकमें इन शादों में प्रकट करते है "यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्याद् यः कण्टको वा निजमण्डलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति न दीन-कानीन-शुभाशयेषु ॥" जैन' नरेश उनपर ही शस्त्र-प्रहार करते हैं जो शस्त्र लेकर युद्ध में मुकाबला करता है अथवा जो अपने मण्डलका कण्टक होता है । वह दीन, दुर्बल अथवा सदभावनाबाले व्यक्तियों पर शस्य-प्रहार नहीं करते ।। गृहस्थ स्थूल-हिंसाका त्याग करता है । स्थूल वादका भाव यह है कि निरपराध पक्तियों का संकल्पपूर्ण हिसन कार्य में किया जाय । पुराणों में यह बात अनेक बार सुनने में आती है कि अपराधियोंको यथायोग्य' दण्य देनेवाले चक्रवर्ती आदि अणुव्रतो थे इसमें कोई विरोध नहीं आता । २ जो यह समझते हैं कि जैनधर्मकी अहिंसामें देश्य और दुर्बलताफा ही तत्त्व छिपा हुभा है उनको धारणा उतनी ही भ्रान्त है जितनी उस व्यक्तिकी जो सूर्यको अषकारका पिण्ड समनता है। जैन दृष्टि में न्यायको धर्मसमान महत्त्वपूर्ण कहा है। अमृतच त्यामोन पुरुषार्थ सिद्धपुपायमें स्थितिकरण अंगका वर्णन करते हुए यह बताया है-'न्याय मार्गसे विचलिप्त होने में उद्यत व्यक्तिका स्थितिकरण करना चाहिए ।" अन्यान्य ग्रन्थकारोंने जहाँ 'धर्म' इन्दका प्रयोग किया है वहाँ समतभन्न स्वामीने 'न्याय' शब्दको महणकर विशिष्ट अर्थपर प्रकाश हाला है। एक समय जब महाराज अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाका स्वयंवर हो रहा था, तब पक्रवर्ती भरतेश्वरके पुत्र अर्ककीति ने उस कन्या-रस्नका लाभ न होने के १. "दुष्टनिग्नहः शिष्टप्रतिपालनं हि राज्ञो धर्मः न तु मुण्डनं अटाधारणं प।" -सम्यक्त्यकौमुदी, पृ० १५५ "राशो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः ।। २ ।। न पुनः शिरोमुण्डन जटाधारणादिकम् ॥ ३ ॥" नीतिवाक्यामृत पृ० ४२ । २. "स्थूलग्रहणमुपलक्षणं तेन निरपराधसंकल्पपूर्वकहिंसादीनामपि ग्रहणम् । अपराधकारिषु यथाविधिदण्डप्रणेतृणां चक्रवादीमा अणुव्रताविधारणं पुराणादिषु बहुशः श्रूयमाणं न विरुध्यते ।" -सागारधर्म० ४,५ । ३. पुरुषार्थसिक्युपाय २८३ रनकरणश्रा० १६ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा के आलोक में १११ I कारण निराश हो काफी गड़बड़ी की। दोनों ओरसे रणभेरी भजी | युजमें सुलोचनाके पति भरतेश्वर के सेनापति, जयकुमारकी विजय हुई। उस समय शान्ति स्थापित होनेपर महाराज अकम्पनने सम्राट् भरत के पास अत्यन्त आदरपूर्वक निवेदन प्रेषित करते हुए अपनी परिस्थिति और अकीर्तिकी ज्यादतीका वर्णन किया । साथ में यह भी लिखा कि मैं अपनी दूसरी कन्या अकीर्तिको देने को तैयार हूँ | इस चर्चाको शात कर भरतेश्वरको अकम्पन महाराजपर तनिक भी रोष नहीं आया प्रत्युत अर्ककीर्ति परित्रपर उन्हें घृणा हुई।" उन्होंने कहाअकम्पन महाराज तो हमारे पूज्य पिता मगवान् ऋषभदेव के समान पूज्य मोर आदरणीय है । अर्कोति वास्तव में मेरा पुत्र नहीं, न्याय मेरा पुत्र है । न्यायका रक्षण कर महाराज अकम्पन ने उचित किया | उन्हें बिना संकोचके अर्क की तिको दण्डित करना था। इस कथानक से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन क्षत्रिय नरेश न्याय देवताका परित्राण और कर्तव्य पालन में कितने अधिक तत्पर रहते थे । वास्तव में "शमो हि भूषणं यतीनां तु भूपतीनाम्" यह महिकों को दृष्टि रही है। 14 दशरीर और आत्माको भेद - ज्ञान ज्योतिके प्रकाश में पृथक-पृथक अनुभव करने वाला अन्तरात्मा सम्यक्त्वी कर्त्तव्या नुरोधसे मंत्र-तंत्र-यंत्र आदिकी सहायता लेअपना सर्वस्व तक अर्पण कर वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु, धर्मके आयतन आदिको रक्षा करने में उद्यत रहता है 1 १. महाराज अकम्पन के दूत सुमुखसे चक्रवर्ती भरतेश्वरने कंपन की पुज्यताको इन शब्दों द्वारा प्रकाशित किया -- "गुरुभ्यो निर्विशेषास्ते सर्वज्येष्ठाश्च संप्रति ।। ५१ ।। गृहाश्रमे त एवार्ष्यास्तैरेवाहं च बन्धुमान् । निषेद्धारः प्रवृतस्य ममाप्यन्याय वर्त्मनि ।। ५२ ।। पुरवो मोक्षमार्गस्य गुरवो दान संततेः श्रेयाश्च चक्रिणां वृत्ते येथे हास्म्यहमग्रणीः ।। ५३ ।। तथा स्वयंवरस्येमे नाभूवन् यद्य कम्पनाः । ः । कः प्रर्तयितान्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥ ५४ ॥ कीर्तनीयामीतिषु ॥ ५९ ॥" "अर्क की तिरकी तिम "उपेक्षितः सदोषोऽपि स्वपुत्रश्चक्रवर्तिना । इतीदमयशः स्यायि व्यधायि सदकम्पनैः || ६६ ॥ इति संतोष्य विश्वेशः सौमुख्यं सुमुखं नयन् । हिस्वा ज्येष्ठं तुजं तो कमक रोम्म्यायमोरसम् ।। ६७ ।। " - महापुराण पर्व ४५ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पंचाध्यामोमें लिखा है जैनशासन "वात्सल्यं नाम दासत्वं सिद्धाविवेश्मसु । संघे तु शास्त्रे स्वामिकार्ये सुभृत्यवत् ॥ अर्थादन्यतमस्योच्चैरुद्दिष्टेषु सुदृष्टिमान् । सत्सु बोरोपaiy उत्परः स्थासदत्यये !! यहा न ह्यात्मसामर्थ्यं यावन्मन्त्रासिकोशकम् । तावद् द्रष्टुं च श्रोतुं च तदबाधां सहते न सः ॥” ८०८-१० सिद्ध, अरिहन्त भगवान्‌को प्रतिमा, जिनमन्दिर, मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका रूप घतुविष संघ तथा शास्त्रकी रक्षा, स्वामीके कार्य में तत्पर मुग्य सेवक के समान करता, वास्सत्य कहलाता है। इनमें से किसी पर घोर उपसर्ग होनेपर सम्यग्दृष्टिको उसे दूर करने के लिए तत्पर रहना चाहिए । अथवा जब तक अपनी सामर्थ्य है तथा मंत्र, शस्त्र, द्रव्यका बल है, तब तक वह तत्त्वज्ञानी उन पर आई बघाको न देख सकता है और न सुन सकता है । सोलहवें तीर्थकर भगवान् शान्तिनाथने अपने गृहस्थ जीवनमें चक्रवर्ती के रूप में दिग्विजय की थी । हाम्रो समन्तभद्रने बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र में क्या ही मार्मिक वर्णन किया है- "चक्रेण यः शत्रुभयङ्करेण जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिचक्रेग पुनजिगाय महोदयो दुर्जयमोह चक्रम् || अर्थात् जिन शान्तिनाथ भगवान्‌ने सम्राट्के रूपमें शत्रुओंके लिए भीषण चक्र अस्त्र द्वारा सम्पूर्ण राजसमूहको जीता था; महान् उदयशाली उन्होंने समाधिध्यानरूपी चक्रके द्वारा बड़ी कठिनता से जीतने योग्य मोहदलको पराजित किया । गृहस्य जीवनको असुविधाओं को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक साधक की अपेक्षा उस हिंसा के संकल्पी विरोधी, आरम्भी और उद्यमी चार भेद किये गये हैं । संकल्प निश्षय या इरावा (Intention ) को कहते हैं। प्राणघातके उद्देश्यसे की गई हिंसा संकल्प हिंसा कहलाती है। शिकार खेलना, मांस भक्षण करना सदृश कार्यों में संकल्पी हिंसाका दोष लगता है। इस हिंसा में कृत, कारित अथवा अनुमोदना द्वारा पापका संषय होता है। साधकको इस हिंसाका त्याग करना आवश्यक है। विरोधी हिंसा तब होती है, जब अपने ऊपर आक्रमण करनेवाले पर आत्मरक्षार्थ शस्त्रादिका प्रयोग करना आवश्यक होता है। जैसे अन्याय वृद्धि से परराष्ट्रवाला अपने देशपर आक्रमण करें उस समय अपने काश्रितोंकी रक्षा के लिए संग्राम में प्रवृति करना। उसमें होनेवालो हिंसा विरोधी हिंसा है । प्राथमिक साधक इस प्रकारकी हिंसा से बच नहीं सकता । यदि वह आत्मरक्षा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिसाके यालोको और अपने आश्रितोंके संरक्षपामें चुप होकर बैठ जाए तो न्यायोधित अधिकारोंकी दुर्दशा होगी। जान-माल, मातृ जातिका सन्मान आदि सभी संकटपूर्ण हो जाएंगें | इस प्रकार अन्तमें महान् धर्मका ध्वंस होगा । इसलिए साधन सम्पन्न समर्थ शासक अस्त्र-शास्त्रो गुगन्जित रहता है, अन्यायके प्रतीकारार्थ शान्ति और प्रेमपूर्ण व्यवहार के उपाय समाप्त होनेपर वह भीषण दण्ड प्रहार करनेसे विमुख नहीं होता। इस प्रसंगमें अमेरिकाके भाग्य-विधाता अग्राहमलिंकनके ये शब्द विशेष उद्बो. धक है, "मुझे युद्धसे घृणा है और मैं उससे बचना चाहता हूँ। मेरी घणा अनुचित महत्त्वाकांक्षाके लिए होनेवाले युद्ध तक ही सीमित है । न्याय रक्षार्थ युद्धका आह्वान दौरताका परिचायक है। अमेरिकात्री अखण्डताके रक्षार्थ लड़ा जानेवाला युद्ध न्यायपर अधिष्ठित है, अतः मुझे उससे दुःख नहीं है।' यह सोचना कि बिना सेना अस्त्र-शस्त्रादिके अहिंसात्मक पद्धतिसे राष्ट्रोंका संरक्षण और दुष्टोंका उन्मूलन हो जाएगा, असम्यक् है ! भावनाके आयेशमें ऐसे स्वप्न-साम्राग्य तुल्य देशको मधुर कल्पना की जा सकती है, जिसमें फौज-पुलिस आदि दण्डके मंग-प्रत्यंगोंका तनिक भी साद नहीं हो । अहिमा विद्याके पारदी जैन-तीर्थरों और अन्य सत्पुरुषोंने मानव प्रकृतिको दुघलताओंको लक्ष्य में रखते हुए दण्ड नोलिको भी आवश्यक बताया है । सागारधर्मामृतमें दिया गया यह पच जैन इष्टिको स्पष्ट शब्दों में प्रफर करता है ___ "दण्डो हि केवलो लोकमिम चामे च रक्षति। राज्ञा शत्री च पुन च यथा दोषं समं धुतः ।।" ४, ५ । राजाके द्वारा शत्रु एवं पुत्र दोषानुसार पक्षपातके बिना समान रूपसे दिया गया दण्ड इस लोक तथा परलोककी रक्षा करता है ।। इसमें सन्देह नहीं है कि कर्मभूमिके अवतरणके पूर्व लोग मन्दकापायी एवं पवित्र मनोवृत्ति वाले थे इसलिए शिष्टसंरक्षण तथा घुष्ट-दमन निमित्त दण्डप्रयोग नहीं होता था; किन्तु उस सुवर्ण युग अवसानके अनन्तर दूषित अन्तःकरणवाले व्यक्तियोंकी वृद्धि होने लगी, यतः सार्वजनिक कल्याणार्थ दाह-प्रहार आवश्यक अंग बन गया; कारण दण्ड-प्राप्तिके भयसे लोग कुमार्ग में स्वयं नहीं जातें । इसी कल्याम भावको दृष्टिमें रख भगवान् वृषभनाथ तीर्थ र सदृश अहिंसक संस्कृतिके भाग्य-विधाता महापुरुषने दण्ई धारण करनेवाले नरेशों की सराहना की, कारण इसके आधीन जगत्के योग कोर क्षेमकी व्यवस्था बनती है। महापुराणकार आचार्य जिनसेमने कहा है१. 'युगधारा' मासिक, मार्च, ४८, पृ० ५२६ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन દુષ્કાનાં न पुरासीत्कमो "दंड भीत्या निग्रह' शिष्ट- प्रतिपालनमित्ययम् । यस्मात्प्रजाः हि लोकोयमपथं युक्तदण्डकरः तस्मात् पार्थिवः "ततो दण्डधरानेताननुमेने नृपान् प्रभुः । तदायत्तं हि लोकस्य योगक्षेमानुचिन्तनम् || २५५ ।। " पर्व १६ | ११४ सर्वा निरागसः || २५१।। " नानुधावति । पृथ्वी जयेत् ॥२५३॥| " जैन कथानकोंसे इस दृष्टि के रक्षण की पुष्टि होती है। एक राजाने घोषणा कर दी थी कि कि नामक जैनपर्व में आठ दिन तक किसी भी जीवपारीकी हिंसा करनेवाला व्यक्ति प्राणदण्ड पायेगा। राजाके पुत्र एक मेंढको मारकर समाप्त कर दिया। राजाको पुत्रको हिंसनवृत्तिका पता लगा तब अपने पुत्रका मोह त्यागकर जैन नरेशने पुत्र के लिए फाँसी की घोषणा की। प्राणदण्डके अनौचित्यको हृदयंगम करनेवाले इस उदाहरणमें अतिरेक मानेंगे | किन्तु वीतराग भावसे जब देश में चन्द्रगुप्वादि नरेशोंके समय में ऐसी कठोर दण्ड व्यवस्था थी, तब पापले बचकर लोग अधिक सन्मार्गोन्मुख होते थे । एक जैन अंग्रेज बन्धु इंडसे पत्र भेजकर अपनी जिज्ञासा व्यक्त की थी कि - जैन होनेके नाते हालके महायुद्ध में वह किस रूप में प्रवृत्ति करें । यह एक कठिन प्रश्न है। यदि स्वार्थ, अन्याय, प्रपंच, स्वेच्छाचारिताके पोष पार्थ आततायीके रूपमें युद्ध छेड़ा जाता है तो उसमें स्वेच्छापूर्वक सहयोग देनेवाला अनीतिपूर्ण वृत्तका प्रबर्धक होने के कारण निर्दोष नहीं कहा जा सकेगा । इतना अवश्य है कि समष्टिके प्रवाह के विरुद्ध एक व्यक्तिकी आवाज 'नक्कारखाने में तूतो की आवाज' के समान ही अरण्यरोदन से किसी प्रकार कम न होगी । इस विकट परिस्थिति में उसे समुदाय के साथ कदम उठाना पड़ेगा, अन्यथा शायद प्राणोंसे भी हाथ धोना पड़े । यदि उसमें अन्याय के प्रतीकार योग्य दृढ़ आत्मबलकी कमी हो तो उसे आसक्ति छोड़ युद्धमें सम्मिलित होना होगा। इसके सिवा कोई चारा ही नहीं है । अनासक्तिपूर्वक कार्य करनेमें और आसक्तिपूर्वक कार्य करनेमें बन्धकी दृष्टिसे बड़ा अन्तर है । कोई-कोई लोग युद्धको आवश्यक और शौर्यवर्धक मान सदा उसके लिए सामग्रीका संचय करते रहते हैं और युद्ध छेड़नेका निमित्त मिले या न मिले किसी भी वस्तुको बहाना बना अपनी अत्याचारी मनोवृतिकी तृप्ति के लिए संग्राम छेड़ देते हैं। उन लोगोंकी यह विचित्र समझ रहती है कि बिना रक्तपात तथा युद्ध हुए जातिका पतन होता है और उसमें पुरुषत्व नहीं रहता — There Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाके आलोकमें ११५ pare anegyrists of war who say that without a periodical bleeding a race decays and loses its manhood : जर्मनीको युद्धस्थल में पहुँचनेकी प्रेरणा करनेवाला जर्मन विद्वान् नीटयो युद्धको मानो धर्मका अंग मानता हुआ जोरदार शब्दों में युद्धको प्रेरणा करता हुआ कहता है-'संकटमय जीवन व्यतीत करो। अपने नगरोंको विसूविमस ज्वालामुखी पर्वतकी बगल में बनाओ । युद्धकी तैयारी करो । मैं चाहता हूँ कि तुम लोग उनके समान बनो, जो अपने शत्रुओंकी खोज में रहते हैं। मैं तुम्हें युद्धकी मन्त्रणा देता हूँ, मेरी मन्त्रणा शान्ति की नहीं, विजयलाभकी है । तुम्हारा काम युद्ध करना हो, तुम्हारी शान्ति विजय हो । अच्छा युद्ध प्रत्येक उद्देश्यको उचित बना देता है। युद्धको घोरताने दयाकी अपेक्षा बड़े परिणाम पैदा किये है । लम्हारी को नहः, श्री 42. H.. रक्षा की है । तुम पूछते हो नेकी क्या है ? वीर होना ने की है । सुन्दर और चित्ताकर्षक होनेका नाम नेकी नहीं है। यह बात कुमारियों को कहने दो। आज्ञापालन और युद्धका जीवन व्यतीत करो। खाली लम्बी जिन्दगीसे क्या फायदा ?' वह यह भी कहता है ''जो देश दुर्बल और घृणास्पद बन गए हैं, वे यदि जीवित रहना चाहते है तो उन्हें युद्ध रूप औषध ग्रहण करनी चाहिये । मनुष्यको युद्ध के लिए शिक्षा दी जानी चाहिए और स्त्रियोंको मोसाओंके मनोरंजन करने में विश बनाना चाहिए । इसके सिवाय अन्य बातें बेसमझी की हैं। क्या आप यह कहते हैं कि पवित्र उद्देश्य के कारण युद्ध भी पवित्र हो जाता है ? मेस तो आपसे यह कहना है कि असछा बुद्ध प्रत्येक उद्देश्यको स्वयं पवित्रता प्रदान करता है।" १, Article on War' by Dr. George Santayana, Prof. of Harvard University. २. "विशालभारत" सन् ४१ से । 5. "For nations that are growing weak and contemptible war may be prescribed as a remedy, if indeed they want to go on living, Man shall be traited for war and woman for the recreation of the warrior; all else is folly. Do yo; say that a good cause halloweth even war ? I say to you a good war thalloweth any cause," Quoted in "Religion and society p. 199. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जनशासन इस प्रकारको युद्धनीतिकी दुर्बलता वर्तमान युद्ध के परिणामने ही प्रकट कर दी। हावर्ड युनिवर्सिटी के तत्वज्ञान के प्रो० डा. जाज सान्तायनने युद्धपर गम्भीर विचार कर जो बात युद्धके पूर्व लिखी थी वह पूरोपकी रक्त-रजित भूमिमें भाज दृष्टिगोचर हो रही है । डॉ० जार्जने लिखा था-"युद्ध राष्ट्रको सम्पत्तिका नाश करता है, उद्योगोंको सन्द करता है, राष्ट्रके तरुगोंको स्वाहा कर देता है, सहानुभतिको संकीर्ण बनाता है और साहसी सैनिक वृत्तिवालों द्वारा शासित होने के सुर्भाग्यको प्राप्त करता है। वह भावी पौड़ीको उत्पत्तिका भार दुबल, बदसूरत, पौरुषहीन गदिनयों सौंपता है । यतको सभासदालांकी गुर स्वीकार करना, ऐसा ही है जैसे व्यभिचारको प्रेमकी भूमि कह्ना ।"१ दात्मटरपका कथन बड़ा महत्वपुर्ण है, "युद्धका ध्येम प्राणघात है, उसके अस्त्र है जासूसी, छल, छलकी प्रेरणा, अधिवासियोंका विनाश, उनकी संपत्तिका अपहरण करना अथवा सेनाको रसदको चोरी करना, वगा और मूठ, जिन्हें सैनिक उस्तादी कहते हैं। संनिक व्यवसायकी आदतों में स्व-तंत्रताका अभाव रहता है। वमको अनुशासन, आलस्य, अज्ञानता, क्रूरता, व्यभिचार तथा सराबखोरी कहते है।" साधारणतया लोग युद्धकी भीषणताको भूलकर उसके औचित्यका समर्थन कर बैठते हैं ! ऐसोंको इयूक साफ वेलिंगटन के ये शब्द शान्त भावसे हृदयंगम करना चाहिए जिनमें कहा है "मेरी बात मानिये, अगर तुम युद्धको एक दिन 3. "It is war that wastes nation's wealth, chokes its industries, its flower, narrows its sympathics, condemns it to be govenied by adventurers and leaves the pury, deformed, and womanly to breed the next generation. To call war the soil of courage and virtue is like calling debauchery the soil of love." ___Vide-P.56. Book of Eng. Prost ed. Prof. P. Sheshadri M. AJ Article on war by Dr.G. Stantayatra. 8. "The purpose of war is murder, its tools are spying, treason and the encouragement of treason, the ruin of the inhabitants, robbing them or stealing from thein the supply of the arny, deceit and lies called military ruses; the liabits of the military profession are the absence of freedom, i. e. discipline, idleness, ignorance, cruelty, debauch, drunkenness." 'War and Peace by C. Tolstoi. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिसा के आलोक में {w देख लो तो तुम सर्वशक्तिशाली परमात्मा से प्रार्थना करोगे कि भविष्य में मुझे एक घण्टे के लिए भी युद्ध न देखना पड़े 19 वर्तमान शुद्धों को प्रणाली और गतिविधिको देखते हुए यह कहना होगा कि उनका वाह्य रूप अच्छा बताया जाता है और उनके अन्तरंग में दुष्टता, त्या चार, दोनोत्पीड़न आर्थिकी कुत्सित भावनाएँ विद्यमान हैं । इम स्वार्थपूर्ण युद्धसे न्यायका संरक्षक, पानक, दीनोंका उद्धारक धर्मयुद्ध बिलकुल भिन्न है । वर्तमान युद्ध तो इस बातको प्रमाणित करते हैं कि जड़ता के अखण्ड उपासक पश्चिमके वैज्ञानिक जगत्ने हो यह स्वन्परध्वंसी अविद्या मिखाई । स्वर्गीय एण्ट्रचून महागवने लिखा था, एक युद्धके अनन्तर दूसरा छिड़ गया और उससे छुटकारा नहीं दीखता । वास्तविक वात तो यह है कि पश्चिमी सभ्यता में कुछ खरावी अवश्य है जो स्व-विनाशिनी प्रवृतियोंकी पुनरा वृत्तिकी ओर प्रतिरोधके उपायके विना प्रेरित करती है ।' १२ प्राथमिक साधकको अपने उत्तरदायित्वका स्वयाल रखते हुए राष्ट्र आदिके संरक्षण निमित्त मजबूत हो विरोधी हिंसा के क्षेत्र अवतीर्ण होना पड़ता है । समाज कल्याणार्थ राष्ट्र के मार्ग में दुर्जनरूपी काटोंको दूर किये बिना राष्ट्रका उत्थान और विकास नहीं हो सकता । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कष्टकके नामपर रास्तके मूलरूप बुनियादी पत्थरोंको भी उखाड़ कर फेंका जाए। ऐसी अवस्था में यदि हम कण्टकों से बचे, तो गहरे गड्ढे अपनी गोद में गिरा हमें सदाके लिए बिना सुलाए न रहेंगे । एकान्तरूपसे युद्ध में गुणको ही देखनेवाला सारे संसारको भयंकर विसुवियस ज्वालामुखी नहीं, पौराणिक जगत्मे वर्णित प्रलयको प्रचण्ड ज्वालापुञ्जरूप में परिणत कर देगा । उस सर्वसंहारिणी अवस्था में क्या आनद और क्या विकास होगा ? नोट्ोकी दृष्टिमें मनुष्य भूखं व्याघ्रके समान है । उसके अनुसार पशु-जगत्का भात्स्व न्याय उचित कहा जा सकेगा। लेकिन, दिवंकी और प्रवृद्ध मानवोंका कल्याण पशुता की ओर झुकने में नहीं है। इस विश्व में महामानव धन हमें एक ऐसे कुटुम्बका निर्माण करना है, जिसमें रहने 1. Take my word for it, if you had seen one day of war, you would pray to Almighty God that you might never again see an hour of war." 국 "One war follows another and there seems to be no escape. Surely there must be something wrong in Western civilisation itself, which causes self-destructive tendencies to recur, without and apparent means of prevention." C. F. Andrews article in Modern Review Jan 40. p. 32, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनशासन याला देश, जाति आदिकी संकीर्ण परिधियोंसे पूर्णतया उन्मुक्त हो और यथार्थमें जिसकी आत्मामें 'वमुव कुटुम्बकम्' का अमल्य सिद्धान्त विद्यमान हो । विश्यात लेखक लुई फिशरका कथन कितना वास्तविक है; हमने पिरले महायुद्धमें कैंसर को पगजित किया था, तो पश्चात् हमें हिटलरकी प्राप्ति हुई । हिटलरके पराजय के उपरान्त यह राम्भव है कि हमें और भरे भतिकारी हिटलर मिले। यह तब तक होगा, जब तक हम उस भूमि और बोजको ही नहीं समाप्त कर देते, जिससे हिटलर, मुसोलिनी तथा अन्य लड़ाकू लोग पैदा होते हैं।' इस प्रसंगमें जर्मन-विद्वानकी अपेक्षा प्रख्यात विद्वान् वैरि' सादरकरको हिंसा-अहिंसा सम्बन्धी चिन्तना भी विचारणीय है। वे लिखत है-'हिमा और अहिंसाके कारण दुनिया चलती हैं। अपनी-अपनी मोमाके अन्दर दोनों आवश्यक है । इनके बिना संसार नहीं चल सकता । माता अपने वक्षस्थलसे बच्चेको दूध पिलाती है, नसके पास में अहिंसा उलः: है र जिगर उत्तर कोई दूसरा आक्रमण करने के लिए आता है तो वह मुकाबलेपर हिंसा के लिए तैयार हो जाती है। इस प्रकार हिंसा-अहिंसा दोनों एक स्थानपर विद्यमान हैं 1 ममस्त सृष्टि हिसा-महिंसापर खड़ी है, इसने तो यह प्रतीत होता है कि माता जो आक्रमणकारी की हिंसाफे लिए प्रतरती है, वह उचित है ।'' इस प्रसंगम जैन गृहस्थकी दृष्टि से यदि हम विचार करें तो आक्रमणकालीक मुकाबले के लिए माताका पराक्रम प्रशंसनीय गिना जाएगा, उसे विरोधी हिंसाको मर्यादाके भीतर कसना होगा जिसका गृहस्थ परिहार नहीं कर सकता। आगे चलकर बोसावरकर संकल्पी हिंसाको भी चित बताते है । उसका वैज्ञानिक अहिंसक समर्थन नहीं करेगा। वे कहते हैं- "यदि मैं चित्रकार होता, तो ऐसी शेरनीका चित्र बनाता, जिसके महसे रक्तकी बिन्दु टपकती होती। इसके अतिरिक्त उसके सामने एक हिरन पड़ा होता, जिसे मारने के कारण उसके मुंहमें रक्त लगा होता । साथ ही वह अपने स्तनों में बच्चे को दूध पिला रही हो । ऐसा चित्र देखकर आदमी इझट समझ सकता है कि दुनियानो चलाने के लिए किस प्रकार हिंसा-अहिंसाकी आवश्यकता है । हिंसा-अहिंसा एक दूसरे पर निर्भर हैं।" ?. "We defeated the Kaiser and got a Hitler Following the defeat of Hitler, we may get a worse Hitler, unless we distroy the soil and seed out of which Hitlers, Mussolinees and militarists grow." -Vide "Empire'' by Louis Fischer P, 11. २. ''विशालभारत", सन् ४१ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाके आलोकमें मह चित्र पराक्रमी अहिंसककी वृत्तिका अवास्तविक चित्रण करता है । सच्चा अहिंसक अपने पराक्रमके द्वारा दोन-दुख लका उद्धार करता है, उस पर आई हुई विपत्तिको दूर करता है। दीन पर अपना शौर्य प्रदर्शन करने में अत्याचारोको आभा दिखाई देती है 1 बेचारा मग असमर्थ है, कमजोर है; किन्तु है पूर्णतया निर्दोष । उसके रक्तसे रजित शेरनी का मुख्न शौर्य का प्रतीक नहीं कहा जा सकता | वह क्रूरता और अत्याचारका चित्र आंखोंके आगे खड़ा कर देता है । शेरनों के समान महान शक्तिका सञ्चय प्रशंसनीय है. अभिवन्दनीय है, किन्तु अत्याचार के स्थानपर दीनोंका उसका शिकार बनाया जाना ''शक्तिः परेषा परिपीउनाय'' की सूक्तिको स्मरण करता है । यास्तविक अहिंसक गृहस्थ मजबूरी. की अवस्थामें विरोधी हिंसा करता है । ठीक शब्दों में तो यों कहना चाहिए कि उसे हिमा करनी पड़ती है । प्राणघात करने में उसे प्रसन्नता नहीं है, किन्तु बह करे क्या ? उमर पाम ऐसा कोई उपाय नहीं है जिमने बह कण्टकका उन्मूलन कार न्यायकी प्रतिष्ठा स्थापित कर सके । ज्याम्रो की सर्वदा पनुओंबी हिंसन-वृत्ति मानवका पथ-प्रदर्शन नहीं कर सकती; कारण उसमें पशुताकी और आमंत्रण है । उसमें पावके भा-याः- का प्रदर्शन है ! अतः शौर्यके नामपर अत्याचारी नियको आदर्श अहिंमाधारीकी तस्वीर नहीं कहा जा सकता। वह चिन अभ्याचारी और स्वार्थो (Tyrant and Selfish) प्राणोका वर्णन करता है । आदर्श अहिंसक मानवका नहीं। 'स्व रा ब जस्टिस जे० एल० जैनीने जैन-हिंसा के विषय में जो महत्त्वपूर्ण उद्गार प्रकट किये थे उनका अवतरण इतिहास स्मिय महाशय अपने भारतीय इतिहासमें इस प्रकार देते हैं-"जैन आचार-शास्त्र सब अवस्थावाले व्यक्तियों के लिए उपयोगी है । वे चाहे नरेश, योद्धा, व्यापारी, शिल्पकार अथवा कृषक हों, वह स्त्री-पुरुपकी प्रत्येक अवस्थाके लिए उपयोगी है । जितनी अधिक दयालुतासे बन सके अपना कर्तव्य पालन करो। मूत्र रूप में यह जैनधर्मका मुख्य सिमान्त है।" 1. "A Jain will do nothing to hurt the feelings of another person, man, woman, or child; nor will he violate the principles of Jainism, Jain ethics are meant for men of all position for kings, warriors, traders, artisans, agriculturists, and indeed for men and women in every walk of life. Do your duty and do it as humanely as you can this, in brief is the primary principle of Jainism." -V. Smith's History of India, P. 53 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनशासन __ हिंसाका तुतीय भेद आरम्भी हिंसा कहा जाता है । जीवन-यात्राके लिए शरीररूपी गाड़ी चलाने के लिए उचित रीतिसे उसका भरण-पोषण करने के लिए आहार-पान आदिके निमित्त होनेवाली हिंसा आरम्भी हिंसा है । शुद्ध भोजनपानका आत्म-भावोंके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है; यह बात पहिले स्पष्ट की जा चुकी है । हितोपदेशमें हरिण पाके द्वारा शुद्ध-आहारके सम्बन्धमें एक महत्त्वपूर्ण पद्य आया है "स्वच्छन्दवनजातेन शाकेनापि प्रपूर्यते । अस्य दग्धोदरस्यार्थे कः कुर्यात् पातकं महत् ।।" जब स्वच्छन्दरूपसे वन में उत्पन्न वनस्पतिके द्वारा उदर-पोपण हो सकता है तक इन दग्ध-उदर के लिए कौन बड़ा पा करे ? जिनके प्राग रसना इन्द्रिय नसते हैं, वे तो इन्द्रियके दास बन बिना विवेकके राक्षस सदृश सर्वभक्षी बननेमे नही चकते । मय, मांसादि द्वारा शरीरका पोपण उनका ध्येय रहता है। अनेक प्रकार के व्यजनादिसे जिह्नाको लांचसो देकर अधिक-से-अधिक परिमाणमें भोग्य सामग्री उदरस्थ की जाती है । पशुजगत्के आहारपानमें भी कुछ मर्यादा रहती है, किन्तु भोगी मानव ऐसे पदार्थों तकको स्वाहा करने से नही चुकता, जिनका वर्णन सुन सात्विक प्रवृत्तिवालोंको वेदना होती है। सम्राट अकबरका जीवन जब जैन संत हीरविजय सरि आदिके सत्संगसे अहिंसा भावसे प्रभावित हुआ तब अबुलफजलके शब्दों में सम्राट की श्रद्धा इस प्रकार हो गई-It is not right that a man should make his stomach the grave of animalsपह उचित बात नहीं है कि इन्सान अपने पेटको जानवरोंकी का बनाये (Ain-i-Akabari Vol. 3, BK V. P. 380) यवन सम्राट अकबरने अपने जीवनपर प्रकाश डालते हुए यह भी कहा है-"मांस-भक्षण प्रारम्भसे ही मुझे अच्छा नहीं लगता था, इससे मैंने उसे प्रागिरक्षाका संत समझा और मैंने मामाहार छोड़ दिया ।'' बौद्ध वाङ्मय में, बुद्ध-देवके 'शुकर-महद' भक्षणका उल्लेख पा 'शुकरका मांस बुद्धने खाया' मह अर्थ, मालूम होता है चीन और जापानने हृदयंगम किया 1. "Frou my earliest years whenever I orciered animal food to be cooked for me, I found it rather tasteless and cored little for it, I took this (veling to indicate a necessity for protecting animals and I refrained from animal food."---Ain-j-Akabari) Quoted in English Jain Gazette. P. 32 Vol XVII. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिसाके आलोकमें है । यदि ऐसा न होता तो आज मांस-भक्षणमें घे देश अन्य मांस-मक्षी देशोंसे आगे न बढ़त । एक बार 'समाचार' पत्रों में धौद्ध जगत्के लोगोंके आहार-पानपर प्रकाश डालनेवाला लेख प्रकट हुअा था। उससे विदित होता था कि वे लोग आहार के नामपर किसी जीवको नहीं छोड़ते । वे सर्वभक्षी है, सर्पभक्षी भी है। कृत्रिम उपायोंसे मलित वस्तुओं में कीटादि उत्पन्न फर वं अपनी इच्छाको तृप्त करते हैं। प्रतीत होता है अपने धर्ममें आनन्दका अतिरेक अनुभव करनेवाले धर्मानन्दजो कोसम्बोने यह सोचनेका रुष्ट नहीं किया कि धर्म के प्रधान स्तम्भमैं जीवनके पौथिल्य गतानुगतिक वृत्ति वाली जनताका पपा हाल होता है। बुद्ध जगतकी अपर्वादित मांसनशता यह निर्णय निकालने के लिए प्रेरित करती है, कि शाक्य मुनिके जीवन के साथ एकर-मह व-शूकर मांसका दुर्भाग्यसे सम्बन्ध रहा होगा 1 उस दक्ष चैलोंने अपना अबको यति सारा गुरु कोई कर दिया। कोसम्बीजीको इसी प्रकाशमें जनोंका आहार-पान और महावीरको जीवन-चर्याका अध्ययन करना चाहिए था । कदाचित् 'कुक्कुडमस, बहु अद्वियं' का सम्बन्ध प्रक्षिप्त न होकर यदि वास्तममें महावीर के साथ होता तशा उसका मांस-परक अर्थ रहता, तो बौद्ध जगतके समान जैन जगत् भी आमिप आहार द्वारा अहिंसा तस्वजानकी सुन्दर समाधि बनाए बिना न रहता। बाघ जाली प्रमाणों की निस्सारताका पता अक्षयंग साक्षियों के द्वारा न्यायविद्याके पण्डित आज को चुस्त, चालाक अदालतों में लगाया करते हैं। उसी अन्तरंग साक्षीके प्रकाशामें यह ज्ञात होता है कि बोजगस्के ममान हिमन-प्रवृत्तिके पोषणनिमित्त परम कारुणिक महावीरके पुण्य जीवन में बुद्ध-जीधनकी तरह आमिष आहारकी कल्पना की गई। किन्तु, जन आधार-शास्त्र, जंत धमणोंकी ही नहीं, गृहस्थोंकी चर्याका मांसके सिवा अन्य भी असात्त्विक शाकाहार तकसे असम्बन्ध रूप अन्तरंग साक्षियों महावीर की अहिंसाको मूर्य प्रकाशके समान जगत के समक्ष प्रकट फरती है और मुमुक्षुको सम्यक मार्ग सुझाती है कि विश्वका हित पवित्र जीवन श्रीयुत गंगाधर रामचन्द्र साने ची० ए. ने 'भारतवर्षांचा मामिक इतिहास' में पूछा है पानी छानकर पीने से क्या लाभ हैं ? आज यन्त्रविद्याके विकास होने के कारण प्रत्येक विचारककै ध्यानमें आ जाते है। पानी छानकर पीनेसे अनेक जलस्य जन्तु पेट में पहुँचनेसे बच जाते हैं । जन्तुओंके रक्षण के साथ पीने वालेका भी रक्षण होता है। क्योंकि कई विचित्र रोग जैसे नहरुमा आदि अनन्छने पानीके ही दुष्परिणाम है । अत्यन्त सूक्ष्म जीवोंका छन्ने के द्वारा भी रक्षण सम्भव नहीं है, फिर भी माइक्रास झोप-अणुवीक्षण यन्त्र द्वारा इस बातका पता चलता है कि कितने जीवोंका एक साधारण सी प्रक्रियासे रक्षण हो जाता है । मनुस्मृति Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनशासन सदृश हिसास्मक बलिके समर्थक शास्त्रमें भी निम्नलिखित श्लोक छनेजल ग्रहणका समर्थक पाया जाता है: "दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । सत्यपूतां वदेद् वाचं, मन:पूतं समाचरेत् ।।" ६१४६ । गर्म : AFFE :स धजिसे है जो मानसिक निर्मलता एवं आत्मीय स्वास्थ्यका संरक्षण करे | साधनाले पथमें मनुष्यका जैमा-जैसा विकास होता जाता है, वैसे-जैसे वह अपनी चर्या प्रयत्तिको सात्त्विक प्रबोधक और संवर्धक बनाता है। जिन पदापोंसे इन्द्रियोंकी लोलुपता बढ़ती हैं, उच्च साधनाके पथमें उनका परिहार बताया गरा है। भोजनकी पवित्रता जिस प्रकार उज्य साधकके लिए आवश्यक है, उसी प्रकार जलविषयक विशुद्धता भी लाभप्रद है । जैसे रोगी व्यक्तिको वैद्य उष्ण किए हुए जल देनेकी सलाह देता है क्योंकि वह पिपासाका वर्धक नहीं होता, दोषोको शमन करता है, अग्निको प्रदीप्त करता है और क्या-क्या लाभ देता है, यह छोटे-बड़े सभी वंद्य बसावंगे । आरमाको स्वस्थ बनाने के लिए यह सावधान रहता है कि-'शरीरं च्याधिमन्दिर' न बने और स्वास्थ्यसदन रहे, तो तमः साधना, लोकहित, ब्रह्मचिन्तन आदि कार्योंमें बाघा नहीं पाएगी । अन्यथा रोगाकान्त होनेपर-- "कफ-वात-पित्तेः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ।" वाली समस्या आए बिना न रहेंगी । , आत्मनिर्मलताक लिए शरीरका नौरोग रखना साधकके लिए इष्ट है और शारीरफी स्वस्थताके लिए शुद्ध आहार-पान वांछनीय है। इसलिए स्वास्थ्यवर्धक आहारपानपर दृष्टि रखना आमीक निर्मलताको दृष्टि से आवश्यक है । उष्ण जल तेयार करने में स्थूल प्टिसे जलस्य जीवोंका तो ध्वंस होता ही है साथ ही अग्नि आदिके निमित्तसे और भी जीवोंका घात होता है । किन्तु, इस हिंसाक होते हुए भी मानसिक निर्मलता, नीरोगता आदिकी दृष्टि से इच्च साधकको गरम किया हुमा जल लेना आवश्यक बताया है। यदि बाह्म हिंसाके सिवाय मनःस्थितिपर दृष्टि न डाली जाय तो संसारमें बड़ी विकट व्यवस्था हो जाएगी और तत्त्वज्ञानकी बड़ी उपहासास्पद स्थिति होगी। अमृतचन्द्र प्राचार्य ने लिखा है, कि अहिंसाका तत्त्वज्ञान अतीद गहन है और इसके रहस्यको न समझनेवाले अझोंके लिए सद्गुरु ही शरण हैं जिनको अनेकान्त विद्याके द्वारा प्रबोध प्राप्त होता है। प्राणघातको ही हिंसाकी कसौटी समझनेवाला, खेतमें कूपि कर्म करते हुए अपने हल द्वारा अगणित जीवोंको मृत्युफे मुम्ल में पहुँचानेवाले किसानको बहुत बड़ा हिसक समझेगा और प्रभातमें जगा हुआ मछली मारनेकी योजना में तल्लीम Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाके आलोकमें किन्तु कारणविशेषसे महली मारनेको न जा सकनवाला मनस्ताप संयुक्त श्रीवरको शायद उदिसत रानेगा । हिम मिण के माम किसान उतना धिक क्षेपो नहीं है जितना वह घीवर' है। किसानकी दृष्टि जीववघको नहीं है, भले ही उसके कार्य में जीयोंकी हिंसा होती है । इसके ठीक विपरीत धौवरकी स्थिति है । उसकी आत्मा का हिसामे निमन्न है। यपि वह एक भी मछलीको सन्ताप नही दे रहा है । अतएव यह स्वीकार करना होगा कि यथार्थ अहिसका उदय , अवस्थिति और विकास अन्तःकरण वत्तिपर निर्भर है। जिस नाह्य प्रवृत्तिसे उस निर्मल वस्तिका पोषण होता है, उसे अहिंसाका अंग माना जाता है। जिससे निर्मलताका शोषण होता है, उस बाह्य वृत्तिको (भले ही यह अहिंसारमक दोस्खे) निर्मलताका घातक होने के कारण हिंसाको अंग माना है । देखो, रोगी के हितकी दृष्टिवाला डॉक्टर आपरेशन में असफलतानश दि किसीका प्रागहरण कर देता है. तो उसे हिराना नहीं माना जाता । हिंसाके परिपारके बिना हिसाका दोष नहीं लगता | कोई व्यक्ति अपने विरोधोरं प्राणहरण करनेको दृष्टिसे उसपर बन्दूक छोड़ता है और देववश निशाना चूकता है । ऐसी स्थिति में भी वह व्यक्ति हिंसाका दोषी माना जाता है, बोंकि उसके हिंसाके परिणाम थे। इसीलिए वह आजके न्यायालय में भयंकर दण्डको प्राप्त वारता है । इस प्रकाश में भारतवर्ष के धार्मिक इतिहास के लेखकका जैन अहिंसापर आक्षेप निर्मूल प्रमाणित होता है । उद्योगी हिसा वह है जो खेती, ज्यापार आदि जीविकाके उचित उपायोंके करन में हो जाती है । प्राथमिक साधक बुद्धिपूर्वक किसी भी प्राणीका धाप्त नहीं करता, किन्तु कार्य करने में हिंसा हो जाया करती है। इस हिंसा-अहिंसाकी मोमांसामें हिंसा करना' और 'हिंसा हो जाना' में अन्तर है । हिंसा करनेमे बुद्धि और मनोवत्ति प्राणघातकी ओर स्वच्छापूर्वक जाती है, हिसा हो जानेमें मनोवृत्ति प्राणघातकी नहीं है, किन्तु साधन तथा परिस्थिति विशेषवश प्राणघात हो जाता है। मुमुक्षु ऐसे व्यवसाय, अथवा वाणिज्य मे प्रधृत्ति करता है, जिनसे आत्मा मलिन नहीं होती, अतः क्रूर निम्दनीय व्यवसायमें नहीं लगता । न्याय तथा अहिसाका १. नतोऽपि कर्षकादुच्चः पापोऽनन्नपि धीवरः ।" -सागारधर्मामल. १२। "अERन्नपि भवत्पापी, निघ्नन्नपि न पापभाक् । अभियानविशेषण यथा धीवरकर्षकी ।" -शस्तिलक पूर्वार्ष, पृ० ५५१ । २. अध्याय ७। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैनशासन रक्षणपूर्वक अल्पलाभमें भी वह सन्तुष्ट रहता । वह जानता है कि शुद्ध तथा उचित उपायों से आवश्यकतापूरक संपत्ति मिलेगी. अधिक नहीं। वह सम्पत्ति के स्थानमें पुण्याचरणको बड़ी और सच्ची सम्पत्ति मानता है । आत्मानुशासम में लिखा है : "शुद्धधविवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्बुभिः पूर्णाः कदाचिदपि सिन्धवः ॥४५॥" सत्पुरुषों तककी सम्पत्ति शुद्ध धनसे नहीं बढ़ती है। स्वच्छ जलसे कभी भी समुद्र नहीं भरा जा सकता। एक कोटयधीश प्रख्यात जैन व्यवसायी बन्धुने हमसे पुछा--"हमनं दृष्पादिक प्रचार तथा पशुपालन निर्मित बहुतसे पशुओंका पालन किया है । जब पशु बद्ध होनेपर दूध देना बिलकुल बन्द कर देने है. तद् अन्य लोग जो इन निरुपयोगी पशुओंको कसाइयोंको बैंच खसे मुक्त हो द्रव्यलाभ हटाते है किन्तु जन होने के कारण हम उनको न वेचकर उनका भरण-पोषण करते हैं. इससे प्रतिस्पर्श के बाजार में हम विशेष आर्थिक लाभ से वंचित रहते हैं । बताइये आपकी उद्योगी हिंसाकी परिषिके भीतर क्या हम उन जरामर्थ पशुको बेच सकत है" मैने कहा--कभी नहीं ! उन्हें वेचना क्रूरता, कृतघ्नता तथा स्वार्थपरता होगी ।' जैसे अपने कटुम्बके माता, पिता आदि वृद्धजनोंके अर्थशास्त्रको भाषामें निरुपयोगी होनेपर भी नीतिशास्त्र तथा सौजन्य विद्याके उज्ज्वल प्रकाश में दीनसे दीन भी मनुष्य उनकी सेवा करते हुए उनकी विपत्तिको अवस्था में माराम पहुंचाता है। ऐसा ही व्यवहार उदार तथा विशाल सृष्टि रख पशु जगत्के उपकारी प्राणियोंका रक्षा करना कम्य है। बड़े-बड़े व्यवसायो अन्य मार्गोसे घनसंचय करके यदि अगनी उदारता द्वारा पापालनमें प्रवृत्ति करें, तो महिमा धर्म की रक्षाके साथ ही साथ राष्ट्रके स्वास्थ्य तथा शक्तिसंवर्धनमें भी विशेष सहायता प्राप्त हो। __मनुष्यजीवन श्रेष्ठ और उज्ज्वल कार्योंके लिए है। जो दिग्भ्रान्त प्राणी उसे अर्थ अर्जन करने की मशीन मोच येन केन प्रकार सम्पत्ति रांचयका साधन मानते हैं, वे अपने यथार्थ कल्याणसे वञ्चित रहते हैं। विवेकी मानब अपने आदर्श रक्षण के लिए आपत्ति की परवाह नहीं करता । 'नह तो, विपत्तियोंको आमंत्रण देना और अपने आत्मबलकी परीक्षा लेता है 1 ऐसा अहिंसक माराब, हड्डो, "वृद्धालश्याधितश्रीमान् पशून बान्धवानिव पोषयेत् ।" -नीतिवाक्यामृत, पृ० ९५ । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाके आलोकमें ૨૬ धमडा, मछलोके तेल सदृश हिंसाले साक्षात् सम्बन्धित वस्तुओंके व्यवसाय द्वारा बड़ा धनी बन राजप्रासाद खड़े करनेके स्थानपर ईमानदारी और कमणापूर्वक कमाई गई मुखी रोटीके टुकड़ोंको अपनी झोपड़ी में बैठकर खाना पसंद करेगा। वह जानता है लि हिंसादि पापों में लगनेवाला व्यक्ति नरक तथा तिमञ्च पर्वायमें वचनातीत विपत्तियों को भो। पता है ! सालान जीवनको आत्मामें महता है उसका स्वप्न में भी दान हिमकवृत्सिवालोंके पास नहीं होता । याह्य पदार्थों के अभावमें तनिक भी कष्ट नहीं है, यदि आत्माके पास सद्विचार, लोकोपकार और पवित्रताकी अमूल्य सम्पत्ति है। मैदाइको स्वतन्त्रताके लिए अपने राजसी ठाटको छोड़ बन चोंके समान घासकी रोटी तक खा जीवन व्यतीत करनेवाले क्षत्रिय कुल-अवतंस महाराणा प्रतापकी आत्मामें जो शान्ति और भक्ति थी, क्या उसका शतांश भी अकबरके अधीन बन माल उड़ाते हुए मात भूमिको पराधीन करने में उद्यत मानसिंहको प्राप्त था ? इसी दृष्टि से महिमाकी सम्वनामें कुछ ऊपरी अड़चनें आवें भी तो कुतर्ककी ओरसे हिसाकी ओर झुकना लाभप्रद न होगा । जिस कार्य में आत्माकी निर्मल वृत्तिका बात हो उससे सावधानीपूर्वक साधकको बचना चाहिए। ___इस हिसात्मक जीवन के विषय में लोगोंने अनेक भ्रान्त धारणाएं बाँध रखी है । कोई यह सुभाते है कि यदि आनन्दको अवस्थामें किसीको मार डाला जाए, तो शाम्तभावसे मरण करनेवालेकी सद्गति होगी । वे लोग नहीं सोचते कि मरने समय क्षण-मात्रमें परिणामोको क्यासे क्या गति नहीं हो जाती । प्राण परित्याग करते समय होनेवाली वेदनाको बेचारा प्राण लेने वाला क्या समझे ! "जाके पाँव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।" कोई सोचते हैं दुखी प्राणीक प्राणोंका अन्त कर धेने से उसका दुख दूर हो जाता है । ऐसी हो प्रेरणासे अहिंसाके विशेष आराधक गांधीजीने अपने सावरमती आश्रम में एक रुग्ण गो-वासको इन्जेक्शन द्वारा यममन्दिर पहुंचाया था । अहिंसाके अधिकारी ज्ञाता आचार्य ममतचन्न स्वामी इस कृतिमें पूर्णतया हिंसाका सद्भाव बतलाते हैं। जीवन-लीला समाप्त करने वाला अभवश अपनेको अहिंसक मानता है । वह नहीं सोचता कि जिस पूर्वसंचित पापकर्मक उदयसे प्राणी कस्टका अनुभव कर रहा है, प्राण लेने से उसकी वंदना कम नहीं होगी। उसके प्रकट होनेके साधनोंका अभाव हो जानेसे हमें उसकी यथार्थ अवस्थाका परिचम नहीं हो पाता । हो, प्राणघात करने के समान यदि उस जीवके मसाला देनेवाले कर्मका भी नाश हो जाता, तो उस कार्य में हिंसाका सदभाव स्वीकार किया जाता । पशुके साथ मनमाना व्यवहार इसलिए कर लिया जाता है कि उसके Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १२६ जैनशासन पास अपने कष्टोंको व्यक्त करनेका समूचित साधन नहीं है । बछड़े के समान मनुष्याकृतिधारी किसी व्यक्तिके प्रति पूर्वोक्त करुशाका प्रदर्शन होता तो आधुनिक न्यायालय उसका इलाज किए बिना न रहता । यह भी कहा जाता है कि आँख कर उन पशुओं आदिके प्राण लो, जो दूसरोंके प्राण लिया करते हैं । इस भ्रान्त दृष्टिके दोषको बताते हुए पण्डितवर आशाधरजी समझाते हैं कि इस प्रक्रिया से समार में चारों ओर हिसा का दौर दौरा हो जावेगा तथा अतिप्रसंग नामका दोष आएगा। बड़े सिकोंका मारने वाला उससे भी बड़ा हिंसक माना जाएगा और इस प्रकार यह भी हनन किया जानेका पात्र समझा जाएगा | हिंसक शरीर धारण करने मात्र से ही हिसात्मक प्रवृत्तिका प्रदर्शन किए बिना उन्हें मार डालना विवेकशील मानव के लिए उचित नहीं कहा जा सकता । पशु जगत्में भी कभी-कभी कोई विशिष्ट हिंसकप्राणी की आत्मामें अहिंसाकी एक झलक आ जाती है। जैसा पहले बता दिया गया है कि भगवान् महाबीर बननेवाले सिंहकी पर्यायमें उस जीवने आहाकी चमत्कारिणी माघना आरम्भ कर दी थी। क्या बिना सोचे समझे उसके सिंह शरीरको देख उसे मृगारि मान लेना और उसके प्राणघात के लिए प्रवृत्ति करना उचित होगा ? आचार्य गुणभवने उस सिंहके विषय में लिखा है- "स्वायं मुगारिवोऽसी महे तस्मिन् वयावत" उस दबावान् सिंहके विषय में मृगारि मृगोंका शत्रु इस शब्द अपने यथार्थ अर्थका परित्याग कर दिया या वह शब्द रूदिवश प्रचार में आता था। यह भी बात साधक सोचता है कि इस अनन्त संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव आज सिंह, सर्पादि पर्याय में है और अपनी पर्यायदोष के कारण अहिंसात्मक वृत्तिको धारण नहीं कर सकता है, तो उसके जीवनकी समाप्ति कर देना कहाँ तक उचित है ? क्योंकि हिरान करना उन आत्म-विकासहीन पशुओंके समान मेरा धर्म नहीं है। जिस पशुको में मारनेकी सोचता हूँ सम्भव है कि मेरे अत्यन्त स्नेही हितैषी जीवका ही उस पर्याय में उत्पाद हुआ हो और दुर्भाग्यवश उस हतभाग्यको मनुष्योंके द्वारा क्रूर मानी जानेवाली पर्याय में प्राणी के हनन करनेके विचारसे बात्मामें क्रूरताका शैतान फिर उसमें से अहिंसाश्मक वृति दूर हो जाती है। अतएव दयालु व्यक्तिको अधिकसे अधिक प्रयत्न प्राणरक्षाका करना चाहिए। कभी-कभी जन्मान्तर में हिंसित जीव अण्डा बदला भी लेता है, यह नहीं भूलना चाहिए । जन्म मिला हो । ऐसे अड्डा जमा लेता हूँ । अहिंसा नामपर एक बड़ी विचित्र धारणा सर्वभक्षी चीन, जापान आदि देशों में पाई जाती है | अहिंसाका विनोदमय प्रदर्शन देख डा० रघुवीर, एम० Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसाके आलोकमें १२७ ए०, पो-एच० ओ० ने “जापान में बुल-अहिंसा-सिद्धान्तका परिपालन' शीर्षक लेखमें बताया था कि जापानी लोग चेरी नामक वृक्षकी लकड़ियोंको खुदाईके काममें लाते है इसलिए टोकियो में उनकी आत्माको शान्ति के लिए प्रार्थना की जाती है। टूटी हुई पुतलियों सथा सुहयों में आत्माका सदभाव स्वीकार करके उनकी शान्ति निमित्त बुद्धदेवसे अम्पर्थना की जाती है । जिन-जिन जानवरोंको जापानी लोग खा जाते हैं उनकी शान्ति निमित्त वं प्रार्थना करते हैं।' इस पद्धतिसे वे अपनेको पवित्र और शुद्ध समझने लगते हैं । यह परिताप वाणीके स्थान में तथा दम्भके बदले में यदि सत्यस रामन्त्रित होकर, हृदय में उदित होता तो जापानियों के जीवनमें 'अहिंसा परमो धर्म:' का जागरण हुए विना न रहता । आज जो विश्वमें विपत्ति और संकटका नग्न नर्तन दिखाई पड़ रहा है, उसका यथार्थ कारण यही है कि लोगों में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना प्रसुप्त हो गयी है, और उसके स्थानपर स्वार्थसाधनकी जघन्य एवं संकीर्ण दृष्टि जानत हो उठी है। इस सम्बन्ध में देशरल at० राजेन्द्रप्रसाद जी के प्रयाग विश्वविद्यालयके उपाधि वितरणोत्सबके अवसरपर व्यक्त किये गये अन्तःकरपाके उद्गार विशेष महत्वपूर्ण है:-"मैंने विचारसे यह विषम अवस्था इसलिए पैदा हुई है, कि मानवने प्रकृति-विजयकी धुनमें अपनी आत्माको भुला दिया और उसने दौलत १. "In the earlier and middle years of Japan the monks, nuns and a few pious men and women practised vegetarianisma, but it is so superficial that at the mere thought of the West, it disappeared rapidly, Formerly a nation of fish-eaters, it is now equally proud of being beef and pork eaters, Even the pious, whether among the clergy or the laity, relish without any compunction forbidden meat. But it should not be understood that the idea has altogether been become extinct. In recent years it has taken a flew form that of memorial services. 1. Wood print engravers guild holds memorial services in honour of the spirit of the countless cherry trees ......mass for silkworms .....spirits of fish'...."service of the broken dolls & broken needles, the needles being regarded as living being" ____ Prof. Raghuvira. M.A, Ph. D., D. Lit.'s article "The Practice of the Buddhist tenets of Ahimsa in Japan' in Modem Review, Feb. 1938, p. 165, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशापन इकट्टी करनेमें धर्मको तिलांजलि दे दी है और शक्ति संचित करने में स्नेहका परित्याग कर दिया है ।" इसलिए विनाणसे बचने के विषयमें उनका कथन है, "वह पथ है आत्मविजयका पथ । वह पथ है त्याग और सेवाका पथ । बह पथ है भारतको प्राचीनतम संस्कृतिका पच' (ता० १२-१२-१९४७) यह आत्म विस्मृतिका ही दुष्परिणाम है, जो लोग निरंकुश हो पशुवधर्म प्रवृत्त हो, स्वार्थसाधना निमित्त मनुष्यके जीवनका भी मूल्य नहीं आंकते, और नरसंहारकारी कार्यों में भी निरन्तर लगे रहते हैं । मांसभको लोग तो कहते है-गायमै आत्मा नहीं है-(A cow has no soul). किन्तु स्वायौं विपक्षी वर्ग में भी आरमा नहीं मानता हुआ प्रतीत होता है। आज जिस उन्नति का उच्च नाद सर्वत्र सुन पड़ता है, वह आत्म-जागरण अथवा सच्ची जीव-रक्षाकी उन्नति नहीं है, किन्तु प्राणघातके कुशल उपायोंकी वृद्धि है। डा० कम्बालकी उक्ति कितनी यथार्थ है: "जान ही लेनेकी हिकमत में तरक्की देखी। मौतका रोकनेवाला कोई पैदा न हुआ ?" मौत के मुंहसे बचा, अमर जीवन और आनन्दपूर्ण ज्योतिको प्रदान करनेको श्रेष्ठ सामर्थ्य और उच्च कला अहिंसामें विद्यमान है। इस अहिंमाकी साधना के लिए इस प्राणीको अपनी अधोमुखो वृत्तियोंको उर्वगामिनी बनानेका उद्योग करना पड़ता है । साधारणतया अल नीचेकी ओर जाता है । उसे ऊंची जगह भेजनेको विशेष उद्योग आवश्यक होता है, उसी प्रकार जीवको प्रवृत्तिको समुन्नत बनाना श्रम और साधनाके द्वारा हो साध्य होगा; सुमधुर भाषणों, मोहक प्रस्तावों या वाह्य विशिष्ट वस्त्रादि धारणसे यह काम नहीं होगा। श्री कालेलकर महाशयका कथन विशेष आकर्षक है:-"बिना परिश्रम किए हम अहिंसक नहीं बन सकेंगे । अहिंसाकी साधना बड़ी कठिन है। एक और पौद्गलिक भाव खींच-तान करता है, तो दूसरी और आत्मा सप्रेस बनता है । शरीर प्रथम विचार करता है, आत्मा उत्कर्षका चिन्तन करता है। दूसरोंका हित हृदएमें रहने से आत्मा धार्मिक श्रद्धावान बनता है 1 आम देखते है, तो पता चलता है कि सब राष्ट्र मुद्धसे पृथक रहना चाहते हैं, पर साथ ही साथ युद्धको सामग्री भी पूरे जोरसे जुटाते फिरते हैं ।" ऐसी विकट स्थिति में परिप्राण का क्या उपाय होगा, इस सम्बन्धमें वे कहते है, "आजकी मानवताको युद्धके दावानलसे मुक्त करने का एकमात्र उपाय भगवान महावीरको अहिंसा हो है।" शुभचन्नाचार्य कहते हैं-- १. 'जन' भावनगर सन् १९४९ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग स्याद्वाद "यत्किञ्चित्संसारे शरीरिणां दुःखशोकभयबीजम् । दौर्भाग्यादि समस्तं तद्धिसासम्भवं ज्ञेयम् ॥ १२९ -- ज्ञानार्णव पु० १२० । J इस संसार में जीवोंके दुःख शोक, भयके याजस्वरूप दुर्भाग्य आदिका दर्शन होता है, वह सब हिंसासे उत्पन्न समझना चाहिए | एक कविने कितना सुन्दर कहा है "Whoever places in man's path a snare, Himself will in the sequel stumble there, Joy's fruit upon the branch of kindneas grows, Who sows the bramble, will not pluck the rose. ' जो दूसरेके मार्ग में जाल बिछाता है, वह स्वयं उसमें गिरेगा। करुणाको शाखा आनन्दके फल लगते हैं । जो कोटा वोता हूं यह गुलामको नहीं पावेगा । "P समन्वयका मार्ग - स्याद्वाद साधना के लिए जिस प्रकार पुण्य-जीवन और पवित्र प्रवृत्तियोंकी आवश्यकता है, उसी प्रकार हृदयसे सत्यका भी निकटतम परिचय होना आवश्यक है मनुष्यकी मर्यादित शक्तियाँ हैं। पदार्थोंके परिज्ञानके साधन भी सदा सर्वथा सर्वत्र सबको एक ही रूप में पदार्थोंका परिचय नहीं कराते । एक वृक्ष समीपवर्ती व्यक्तिको पुष्प पत्र | दिप्रपूरित प्रतीत होता है, तो दूरवर्ती को उसका एक विलक्षण आकार दीखता है । पर्वतके समीप आनेपर वह हमें दुर्गम और भीषण मालूम पड़ता है, किन्तु दूरस्थ व्यक्तिको वह रम्य प्रतीत होता है- दूरस्था भूषरा रम्याः"। इसी प्रकार विश्वके पदार्थोंके विषय में हम लोग अपने-अपने अनुभव और अध्ययनका विश्लेषण करें, तो एक ही वस्तुके भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभव मिलेंगे; जिनको अकाट्य होनेके कारण सदोष या भ्रमपूर्ण नहीं कहा जा सकता । एक 'संखिया' नामक पदार्थके विषयमें विचार कीजिए । साधारण जनता उसे विष रूपसे जानती है, किन्तु वैद्य उसका भयंकर रोग निवारण में सदा प्रयोग करते हैं । इसलिए जनताकी दृष्टिसे उसे मारक कहा जाता है और वैद्योंकी दृष्टिसे लाभप्रद होनेके कारण उसका सावधानीपूर्वक प्रयोग किया जाता है। तथा प्राण रक्षाकी जाती हैं । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जेनशासन हती पहा स्तुओंके विषय में भिन्न-भिन्न प्रकारको दृष्टियो सुनी जाती हैं और अनुभवमें भी काती हैं। इन दृष्टियोंपर गम्भीर विचार न कर कृपमण्डकवत् संकीर्ण भावसे अपनेको ही यथार्थ समझ विरोधी दृष्टिको एकान्त असत्य मान बैठते हैं। दूसरा भी इनका अनुकरण करता है। ऐसे संकीर्ण विचारवालोंके संयोगसे जो संघर्ष होता है उसे देख साधारण तो क्या बडेरे साधचेतस्क व्यषित भो सत्य-समीक्षणसे दूर हो परोपकारी जीवन में प्रवृत्ति करने को प्रेरणा कर चुप हो जाते हैं। और, यह कहने लगते हैं-सत्य उलझनकी वस्तु है । उसे अनन्त कालतक सुलझाते जाओगे तो भी उलशन जैसी की तैसी गोरख-धन्धेके रूपमें बनी रहेगी। इसलिए थोडेसे अमूल्य मानव-जीवनको प्रेमके साथ व्यतीत करना चाहिए | इस दृष्टिवाले बुद्धिके धनी होते हैं, तो यह शिक्षा देते है "कोई कहें कछु है नहीं, कोई कहे कछ है। है औ नहींके बीच में, जो कुछ है सो है।" साधारण अनताकी इस विषयमें उपेक्षा दृष्टिको व्यक्त करते हुए कवि अकबरने कहा है "मजहबी बहस मैंने को ही नहीं फालतू अक्ल मुझमें थी ही नहीं।" ऐसी धारणावाले जिस मार्गमें लगे हुए चले जा रहे हैं, उसमें तनिक भी परिवर्तनको वे तैयार नहीं होते । कारण, अपने पक्षको एकान्त सत्य समझते रहनेसे सत्म-सिन्युके सर्वांगीण परिचयके सौभाग्यसे वे वंचित रहते हैं । एक शर एक विश्वधर्म सम्मेलनमें मुझे सम्मिलित होनेका सुयोग मिला । बौद्धधर्मका प्रतिनिधित्व करनेवाले दर्शन-शास्त्रके आचार्य एक डॉक्टर महानुभावने कहा पा कि-बुद्ध-देवने प्रपञ्चके विषयमें सत्य समीक्षणकी दृष्टि में अपने भक्तोंका कालक्षेप करना उचित नहीं समझकर लोक-सेवा, प्रेम, धर्म-प्रचार आदिको जीनोपयोगी कहा । इसलिए डाक्टर महाशयकी दृष्टि में दार्शनिकताका मार्ग कष्टक-मय और मृग-मरीचिकाका रास्ता था। उस समय जैन-धर्मको समन्वयकारी दृष्टिपर प्रकाश डालनेको चिन्तनामें मैं निमम्न था। जनधर्मके अपने भाषणके प्रारम्भमें मैंने बौद्ध प्रतिनिधिके प्रभावको ध्यानमें रखते हुए कहा कि-चार्वाकने तो पूर्वोक्त दृष्टिसे भी आगे बढ़ लोकोपयोगी आकर्षक युक्ति द्वारा विश्वकी समीक्षा को 'बालू पेलि निकालें तेल' जैसी सारहीन समस्या समझाया। देखिए वह स्मा कहता है-तकके सहारे सस्थको देखना चाहो तो वह हमारा ठीक मार्ग-दर्शन नहीं करता। जिस प्रकार तर्क एक पक्षके औचित्यको बतानेवाली सामग्री उपस्थित Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! समन्वयका मार्ग स्याद्वाद करता है उसी प्रकार अन्य पक्षको उचित बतानेवाली सामग्री की भी कमी नहीं है । शास्त्रोंके प्रमाण भी परस्पर विचित्रताओंसे परिपूर्ण हैं । एक ज्ञानी पुरुषकी लिखी बात प्रमाणित मानें और दूसरेकी नहीं, यह सलाह ठीक नहीं जँचती धर्मका स्वरूप मनुष्य की बुद्धिके परे है। वह है अथवा नहीं, नहीं कह सकते ! गड़रियेके नेतृत्व में जिस प्रकार भेड़ों का झुण्ड रहा करता है उसी प्रकार प्रभावशाली पुरुष अपने को अपनी ओर खींच लेता है । इस दृष्टिसे तो मानव जीवनकी जो विशेष शक्ति तर्कणा है, वह बिल्कुल अकार्यकारी हो जाती है। ऐसी निबिड़-निराशाको अवस्थामें भी जैनधर्मका अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद नामका वैज्ञानिक चिन्तन पर्याप्त प्रकाश तथा स्फूर्ति प्रदान करता हूँ । सत्यका स्वरूप समझने में इरकी कोई बात हो नहीं हूँ । भ्रम, असामर्थ्य अथवा मानसिक दुर्बलताके कारण कोई बड़ा सन्त बन जोर कोई दार्शनिकके रूपमें या हमें रस्सीको साँप बता कराता हूँ। स्याद्वाद विद्या के प्रकाशमें साचक तत्काल जान लेता है कि यह सर्प नहीं रस्सी है— इससे डरनेका कोई कारण नहीं है । १३१ पुरातनकालमें जब साम्प्रदायिकताका नशा गहरा था, तब इस स्याद्वाद सिद्धान्तको विकृत रूप-रेखा प्रदर्शित कर किन्हीं - किन्हीं नामांकित धर्माचार्योने इसके विरुद्ध अपना रोष प्रकट किया और उस सामग्री के प्रति 'बाबावाक्यं प्रमाणम् की आस्था रखनेवाला आज भी सत्यके प्रकाशसे अपनेको वंचित करता है । आनन्दकी बात है कि इस युग में साम्प्रदायिकताका भूत वैज्ञानिक दृष्टिके प्रकाशमें उतरा, इसलिए स्याद्वाद की गुण गाथा बड़े-बड़े विशेषज्ञ गाने लगे। जर्मन विद्वान् प्रो० हर्मन जेकोबीने लिखा है- " जैनधर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्त्वज्ञान और धार्मिक पद्धतिके अभ्यासियोंके लिए बहुत महत्वपूर्ण है । इस स्याद्वादसे सर्व सत्य विचारोंका द्वार खुल जाता है ।" इण्डिया आफिस लन्दन के प्रधान पुस्तका लयाध्यक्ष डा० यामसके उद्गार बड़े महत्वपूर्ण है- "न्यायशास्त्रमें जैन न्यायका स्थान बहुत ऊंचा है। स्याद्वादका स्थान बढ़ा गम्भीर है। वह वस्तुओंकी भिन्नभिन्न परिस्थितियोंपर अच्छा प्रकाश डालता है।" भारतीय विद्वानोंमें निष्पक्ष आलोचक स्व० पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदीकी आलोचना अधिक उद्बोधक हैं"प्राचीन हरेके हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े-बड़े शास्त्रीतक अब भी नही जानते कि जैनियोंका 'स्याद्वाद' किस चिड़ियाका नाम है। धन्यवाद है जर्मनी, फान्स बोर इंग्लैण्डके कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञोंको जिनकी कृपासे इस धर्म के अनुयात्रियों के कीर्ति-कलापकी खोज की ओर भारतवर्षके इतरजनों का ध्यान आकृष्ट हुआ । यदि ये विदेशी विद्वान् जैनोंके धर्मग्रन्थों की आलोचना न करते, उनके प्राचीन लेखकोंकी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जनशासन महत्ता प्रकट न करते तो हमलोग शायद आज भी पूर्ववत् अज्ञानके अन्धकारमें हो डूबते रहते।" गांधोजीने लिखा है "जिस प्रकार स्याद्वादको मै जानता है, उसी प्रकार में उसे मानता हूँ ! मुझे यह अनेकान्त बढ़ा प्रिय है।" श्रीयुत महामहोपाध्याय सत्यसम्प्रदायाचार्य पं० स्वामी राममिषमी शास्त्रीने लिखा है कि-"स्याद्वाद जैनधर्मका एक अभेद्य किला है, जिसके अन्दर प्रतिवादियोंकि मायामय गोले प्रवेश नहीं कर.. " अब हमें देखना है कि यह स्याद्वाद क्या है जो शान्त गम्भीर और असाम्प्रदायिकों की यात्माके लिए पर्याप्त भोजन प्रदान करता है । 'स्यात्' शब्द कञ्चित्। किसी दृष्टिसे (from some point of vicw) अर्थका बोधक है । 'वाद' शब्द कथनको बताता है। इसका भाव यह है कि वस्तु किसी दृष्टिसे इस प्रकार है, किसी दृष्टि से दूसरी प्रकार है। इस तरह वस्तुके शेष अनक धर्मों-गुणोंको गौण बनाते हुए गुणविशेषको प्रमुख बनाकर प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। स्वामी समन्तभद्र कहते हैं"स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः।" —आप्तमीमांसा १०४ । लषीयस्वयमें अकलंकदेव लिखते हैं-"अनेकान्तास्मकार्यकयनं स्यावावः"अनेकान्तात्मक-अनेक धर्म-विशिष्ट वस्तुका कथन करना स्यादाद है।" कथनके साथ स्यात् शब्दका प्रयोग करनेसे सर्वथा एकान्त दृष्टिका परिहार हो जाता है । स्याद्वादमें वस्तुके अनेक धोका कथन होने के कारण उसे अनेक धर्मवाद अथवा बनेकान्तवाद कहते हैं । जब अनन्त धर्मोपर दृष्टि रहती है तब उसे सकलादेशपरिपूर्ण दृष्टि कहते है । जब एक धर्मको प्रधान वना शंघ धर्मोको गोण बना दिया जाता है तब उसे विकलादेश-अपूर्ण दृष्टि कहते हैं। विकलादेशको नय-दृष्टि और सकलादेशको प्रमाण-दृष्टि कहते हैं । जीवमें ज्ञान दर्शन, सुरव, सक्ति आदि अनन्त गुण विद्यमान हैं । जन्न प्रतिपादककी विवक्षा-दृष्टि अनन्त गुणोंपर केन्द्रित रहती है तब स्यात शब्दके माथ 'जीव' पदका प्रयोग उसके अनन्त घोको सूचित करता है। इसलिए अकलंक स्वामीने लिखा है—'स्यात जीव एवं' ऐसा कथन होनेपर 'स्यात' शब्द अनेकान्त-अनेक धर्मपुञ्जको विषय करता है। "स्यात् अस्त्येव - - १. "उपयोगी श्रुतस्य द्वौ स्यावादनयसंज्ञितो। __ स्यावादः सकलादेशः नयो विकलमकथा ॥६२॥ --लघीयस्त्रय । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका माग-स्याद्वाद जीः" इस वाक्यमें 'स्यात्' शब्द जीवके अस्तित्व गुणको प्रधानतासे बताता है। इस प्रकार स्यात् शब्द द्वारा अनेकान्त और मम्यक एकान्तका बोध होता है। यस्तूके अनन्त धोका जिन एकान्तिवोंको पता नहीं है, वे स्पाद्वाद विद्याका प्रतिपादन करनेमें ममर्थ न हो सके । भगवान् ऋषभदेवसे लेकर महावीर पर्यन्त चौबीम तीर्थकरोंने श्रेष्ठ साधनाके फलस्वरूप सर्वज्ञतावे सूर्यको प्राप्त किया और उसके प्रकाशमें स्थावाद विद्याका परिचय पायt 1 इसीलिए अफलहदेवने लधोयस्त्रय ग्रन्यके प्रमाणप्रवेश प्रकरणके प्रारम्भम तीर्थंकरोंको पुनः पुनः स्वात्मोपलब्धिके लिए प्रणाम करते समय 'स्याद्वादी' शब्दसे समलकृत किया है। कितना भाषपूर्ण मंगल श्लोक है--- ___"धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः। ऋषभादिमहाबीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ।।' इस स्याद्वाद-वाणीके आधारपर महापुराणकार भगवषिजनसेन जिनेन्द्र भगवान् में सर्वज्ञताका सद्भाव मूचित करते हैं । जिनेन्द्र वृषभनाथका स्तब करते हुए कहते हैं,२-"हे ईश, आपको सार्वत्रिकी वाणोकी पवित्रता आपके सर्वज्ञपनेको बताती है । इस जगत में इस प्रकारका महान वयन-वैभव अल्पों में नहीं दिखाई पड़ता है।" __"प्रभो, वक्त, ... जागणिकतार जान मा मानी शादी है। अपवित्र वक्ताके द्वारा उज्ज्वल वाणी नहीं उत्पन्न होती है।" "आपकी विश्व विषयिणो सप्तभंग रूप भारती आपमें विशुद्ध आप्त्रप्रतिको उत्पन्न करने में समर्थ है।" कवि धनंजय कहते हैं-"जिस प्रकार ज्वर-मुक्त व्यक्तिका बोध उसके १. "स्याज्ञीय एव इत्युक्तेऽनेकान्तविषयः स्याटम्दः । 'स्यादस्त्येव जीकः' इस्युक्ते एकान्त विषयः स्या छन्दः ।"लघो०, पृ० २१ । २. "सार्वज्ञं तव वक्तीश वचःशुद्धिरशेषगा 1 न हि वाग्विभवो मन्दधियामस्तीह पुष्कलः ॥१३३॥ यस्तृप्रामाण्यतो देव वचःप्रामामिष्यते । न ह्यशुद्धतराद्वक्तः प्रभवन्स्यु ऊज्वला गिरः ॥१३४।। सप्तभंय्यात्मिकेयं ते भारती विश्वगोचरा । आप्तप्रसीतिममलां त्वय्युद्भावयितुं क्षमा ॥१३५।।" -महापुराण, पर्व ३३ । ३. "नानार्थमेकार्थ मदस्स्वदुक्तं हितं वचस्ते निशमग्य वस्तुः । निर्दोषता के न विभावयन्ति ज्वरेण मुक्त: सुगमः स्वरेण ।।" -विषापहार २९ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन स्वर विशेष के द्वारा होता है उसी प्रकार स्यावाद वाणीके द्वारा जिनेन्द्र भगवान्की निर्दोषताका ज्ञान होता है।" आत्माकी सर्वज्ञतापर तार्किक दृष्टिले पहिले प्रकाश डाला जा चुका है । यहाँ हम बौद्धोंके अत्यन्त मान्य ग्रन्थ मज्झिमनिकाय (भाग १, पृ. ९२-९३) का निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित करते हैं, जिससे जैनधर्मके प्रबल प्रतिद्वंद्वी बौद्ध साहित्य द्वारा भगवान महावीरकी सर्वज्ञता को मान्यतापर प्रकाश पड़ता है। पुरातन बौद्ध पाली वाङ्मयमें भगवान महावीर और जन संस्कृति के विरुद्ध काफी असंयत तथा रोषपूर्ण उद्गार अनेक स्थलोंपर व्यक्त किय गये हैं। भगवान् महावीरके समकालीन साहित्यमें निम्रन्थ ज्ञात-पुत्र महावीरको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तथा परिपूर्ण ज्ञान, दर्शनके ज्ञातापनेको मान्यताका उल्लेख अत्यधिक प्रभावपूर्ण साक्षी माना जाना चाहिए । पालोम शब्द ये हैं "निगण्ठो, आबुसो, नाथपुत्तो सम्बच्नु, सम्बदरसावी अपरिसेस जाणदस्सनं परिजानाति ।"-म निए, भाग १, पृ० ९१-९३ : PT.S. वाणीके द्वारा एक साथ परिपूर्ण मत्यका प्रतिपादन करना सम्भव नहीं है, इसलिए जिस धर्म या जिन धर्मों का वर्णन किया जाए वे प्रधान हो जाते हैं और अन्य गौण बन जाते हैं। एकान्त दृष्टि में अन्य गौण धर्मों को वस्तुसे पृथक कर उन्हें अस्तित्वहीन बना दिया जाता है इसलिए मिच्या एकान्त दृष्टिके द्वारा सत्यका सौन्दर्य समाप्त हो जाता है। अनेकान्त विद्याके प्रकाण्ड आचार्य अमत. चन्द्र कहते हैं जिस प्रकार दधि मन्थन कर मक्खन निकालनेवाली ग्वालिन अपने एक हायसे रस्सी के एक छोरको सामने खींचती है, तो उसी समम वह दूसरे हायके छोरको शिथिल कर पोछे पहुँचा देती है, पर छोड़ती नहीं है, पश्चात् पीछे गये हुए छोरको मुस्प बना रस्सीके दूसरे भागको पीछे ले जाती है। इस प्रकार आकर्षण और शिथिलीकरण क्रियाओं द्वारा दषिसे सारभूत तत्त्वको प्राप्त करती है। बनेकान्त विद्या एक दृष्टिको मुख्य बनाती है और अन्यको गौण करती है। इस प्रक्रियाके द्वारा वह तत्त्वज्ञान रूप अमृतको प्राप्त कराती है। पहिले संखियाको जन साधारणकी भाषामें प्राण-घातक बताया था, वैद्यराजको दृष्टिम उसे उसके विपरीत प्राण-रक्षक कहा था । इन परस्पर विरोधी १. एकनाकर्षन्ती लययन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिमन्थाननेत्रमिव गोपी ।" “पुरुषार्थसिद्धधुपाय २२५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद प्रतीत होने वाले वक्तव्योंमें विरोध इस प्रकार दूर किया जा सकता है कि यदि मनमानी मात्रा में विना योग्य अनुपान यह खाया जाय तो प्राण-रक्षक नहीं होगा किन्तु चतुर चिकित्सकके तत्वावधान यथाविधि संयन करपर वही रोगनिवारक होगा। इसलिए उसे एक दृष्टिसे प्राणरक्षक कहना ठीक है । दूसरी दृष्टिसे प्राणघातक कहना भी सत्यको मर्यादाके भीतर है। एक तीन इञ्च लाम्बी रेखा खिची है। उसे हम न तो छोटी कह सकते है और न पड़ी। उसका छोटापन अथवा लम्बापन सापेक्ष (Rclative) है। पांच इञ्चवाली रेखा ऊपर खींचने पर वह लघु कही जाती है और दो इच मानवाली दूसरी रेखाकी अपेक्षा वह बड़ी कहीं बातो है। इसी प्रकार वस्तुके स्वरूपके विषयमै साघकको पता लगेगा कि समन्वयकारी परस्परम मंत्री रखनेवाली दृष्टियोंसे वस्तुका स्वरूप ठोक रोतिसे हृदय-ग्राही हो जाता है। यह स्याद्वाद हमारे नित्य व्यवहारकी वस्तु है। इसकी उपादेयता स्वीकार किये बिना हमारा लोक-व्यवहार एक क्षण भी नहीं बन सकता । प्राचार्य हेमचन्द्र ने बताया है, कि स्माद्वादका सिधका सम्पूर्ण विश्वमै चलता है। इसकी मर्यादाके बाहर कोई भी वस्तु नहीं रह सकतो 1 छोटेसे दोपकसे लेकर विशाल आकाश पर्यन्त सभी वस्तुएं किसी दृष्टिसे नित्य और किसी दृष्टिसे अनित्य रूप अनेकान्त मुद्राम अंकित है "आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु। तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ।।" अन्पयोगष्य लोक व्यवहारमें हम देखते हैं एक व्यक्ति अपने पिताको दृष्टिसे पुत्र कहलाता है, वही ब्यक्ति, जो पुत्र कहलाता है भानजेकी अपेक्षा मामा, पुत्रको दृष्टिसे पिता भो कहलाता है, इस प्रकार देखनेसे प्रतीत होता है कि पुत्रपना, पितापना, मामापना आदि विशेषताएं परस्पर जुदी-जुदी है किन्तु उनका एक व्यक्तिमें भिन्न दृष्टियोंकी अपेक्षा बिना विरोधके सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार पदार्थों के विषयमें भी सापेक्षताको दृष्टिसे अविरोधी तत्त्व प्राप्त होता है। वैज्ञानिक मान्स्टाइनने अपने सापेक्षतावाद सिद्धान्त (theory of relativity) द्वारा स्याद्वाद दृष्टिका हो समर्थन किया है। वस्तुके अस्तित्व गुणको प्रधान माननेपर सद्भाव सुचकदृष्टि, समक्ष आती है और अब प्रतिषेध्य-निषेध किए जानेवाले धर्म मुख्य होते हैं, तब नास्ति नामक द्वितीय दृष्टि उदित होती है । यस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी दृष्टिसे सत्स्वरूप है, वही यस्तु अन्य पदार्थोंकी अपेक्षा नास्ति रूप होती है । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैनशासन हाथी अपने स्वरूपको अपेक्षा सद्भाव रूप हैं लेकिन हाथीसे भिन्न ऊंट, घोड़ा आदि गजसे भिन्न वस्तुओंकी अपेक्षा हाथी असद्भावात्मक होता है । यदि स्वरूपको अपेक्षा हाथीके सद्भाव के समान पररूपकी भी अपेक्षा हाथीका सद्भाव हो तो हाथी, ऊँट, घोड़े आदिमें कोई अन्तर न होगा। इसी प्रकार यदि ऊंट मादि हाथीसे भिन्न पदार्थों की अपेक्षा जैसे गजको असद्भाव-नास्ति रूप कहते हैं उसी प्रकार स्वरूपकी अपेक्षा भी यदि गज नास्ति रूप हो जाए तो हाथीका सद्भाव नहीं रहेगा 1 "तत्त्वार्थ राजवार्तिक में आचार्य अकलंकदेवने बताया है कि वस्तुका वस्तुत्व इसी में है कि यह अपने स्वरूपको ग्रहण करे और परकी अपेक्षा अभाव रूप हो । इन विधि और निषेधरूप दृष्टियों को अस्ति और नास्ति नामक दो भिन्न धर्मो द्वारा बताया है । इस विषय को समझाने के लिए न्याय - शास्त्रमें एक उदाहरण दिया जाता है। कि दधि स्वरूपकी अपेक्षा दधि है, यदि वह दधिसे भिन्न ऊँटकी अपेक्षा भी दषि हो तो जिस तरह 'दवि खाभी' कहनेपर व्यक्ति दहीकी ओर जाता है उसी प्रकार उपयुक्त वाक्य सुनकर उसे ऊँटकी और दौड़ना था । किन्तु इस प्रकारका क्रम नहीं देखा जाता। इससे यह निष्कर्ष न्यायोपात्त है कि वस्तु स्वरूपको अपेक्षा अस्तिरूप है और पररूपकी अपेक्षा नास्तिरूप । जिस प्रकार स्वरूप - चतुष्ट्य (स्व- द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव ) की अपेक्षा वस्तु अस्तिरूप है और परचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तिरूप है उसी प्रकार वस्तु उपर्युक्त अस्ति नास्ति धर्मोको एक साथ कथन करनेको वाणीको असमतायश अवक्तव्य - अनिर्वचनीयरूप भी कही गई है। इस विषय में एकान्तवादी वस्तुको सर्वथा अनिर्वचनीय शब्दके द्वारा अनिर्वचनीय कहते हुए परिहासपूर्ण अवस्थाको उत्पन्न करते हैं। इसी कारण स्वामी समन्तभवने आप्तमीमांसा में लिखा है "अवाच्यतं कान्तेऽभ्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ।” -श्लोक १३ । अवाच्यता रूप एकान्त माननेपर वस्तु अवाच्य रूप है— अनिवंदनीय है, यह कथन संगत नहीं है। तार्किकके ध्यान में यह बात तनिक में आ जाएगी, कि जब अनिर्वचनीय शब्दके द्वारा वस्तुका प्रतिपादन किया जाता है तब उसे सर्वधा का निर्वचनीय कैसे कह सकते है । १. "स्वपरात्मोपादानापोहनव्यवस्थापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुध्वम् ।" १० २४ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग - स्याद्वाद १३७ तत्वको एकान्ततः अनिर्वचनीय माना जाए, तो किस प्रकार दूसरेको उसका बोध कराया जाएगा। क्या मात्र अपने ज्ञानसे वाणीकी सहायता पाए बिना अन्यको ज्ञान कराया जा सकेगा ? इसलिए उसे कथञ्चित् अनिर्वचनीय कहना होगा । पदार्थको स्थूल पर्यायें शब्दोंके द्वारा कहने सुननेमें आती ही हैं । सत्त्व और असत्व, भाव बोर अभाव, विधि और प्रतिषेध तथा एक और अनेक रूप तत्वका एक समय में प्रतिपादन शब्दोंकी शक्तिके परे होने से कथञ्चित् अनिर्वचनीय धर्मका सद्भाव स्वीकार करना पड़ता है। इन तीन अर्थात् स्यात् बस्ति, स्याद् नास्ति स्यात् अवक्तव्य के संयोग से चार और दृष्टियों-भंगों का उदय होता है - ( १ ) अस्ति नास्ति ( २ ) अस्ति अवक्तव्य (३) नास्ति अवक्तव्य ( ४ ) अस्तिनास्ति अवक्तव्य । इन चार भंगका स्पष्टीकरण इस भाँति जानना चाहिए । अस्तित्व और नास्तित्वको क्रमपूर्वक ग्रहण करनेसे 'अस्ति नास्ति' अस्तित्वके साथ ही उभय धर्मों को ग्रहण करनेवाली दृष्टि समक्ष रखनेसे 'मस्ति - अवक्तव्य', नास्तित्व के साथ अवक्तव्य दृष्टिकी योजनासे 'नास्ति अवक्तव्य' तथा अस्ति नास्तिके साथ अवक्तव्यको योजना द्वारा 'अस्ति नास्ति अवस्तभ्य' भंग बनता है । इन सात भंगोंको सप्तभंगी न्यायके नाम कहते हैं । गणितशास्त्र of pratiknatio नुसार अस्ति नास्ति और अवक्तव्य इन तीन भंगोंसे चार संयुक्त मंग बनकर सप्तरंग दृष्टिका उदय होता है। नमक, मिर्च, खटाई इन तीन स्वादोंके संयोगसे चार और स्वाद उत्पन्न होंगे | नमक मिर्च -खटाई, नमक मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च- खटाई, नमक, मिर्च और खटाई इस प्रकार सात स्वाद होंगे। इस सप्तभंगी न्यायकी परिभाषा करते हुए जैनाचार्य लिखते हैं- "प्रश्न वशात् एकत्र वस्तुति अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभ्यो ।" (राजवा० ११६ ) -- प्रश्न - यशसे एक वस्तुमें अविरोध रूपसे विधि-निषेध अर्थात् अस्ति नास्तिकी कल्पना सप्तभंगी कहलाती है । आचार्य विद्यावि अपनी अष्टसहस्री टोकामें बताते हैं कि सप्त प्रकारकी जिज्ञासा उत्पन्न होती है, क्योंकि सप्त प्रकारका संशय उत्पन्न होता है । इसका भी कारण यह है कि उसका विषयरूप वस्तु धर्म सुप्त प्रकार है । सप्तवि जिज्ञासाके कारण सप्त प्रकारके प्रश्न होते हैं । अनन्त धर्मोके सद्भाव होते हुए भी प्रत्येक धर्ममें विधि-निषेधको अपेक्षा अनन्त सप्तभंगिय अनन्त धर्मोको अपेक्षा माननी होंगी स्वेच्छानुसार जैसी लहर आई उसके अनुसार बस्ति नास्ति आदि भंग नहीं होते अन्यथा स्याद्वाद अव्यवस्थावादको प्रतिकृति बन जायेगा । इसीलिए सप्तभंगीकी पाख्या 'अविरोधेन' शब्द ग्रहण किया गया है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जेनशासन 'स्यात्' शब्दका अर्थ कोई-कोई 'शायद' करके स्याद्वादको सन्देहवाद समझते है। वास्तवमें स्यात्के साथ 'एन' शब्द इस बातको धोतित करता है कि उस विशेष दृष्टि बिंदुसे पदार्थका यही रूप है और वह निश्चित है, उस दृष्टिसे वह अन्यथा नहीं हो सकता । वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा अस्तिरूप ही है। कभी भी स्वरूपकी बपेक्षा वह नास्तिरूप नहीं कही जा सकती ! काशी के प्रसिद्ध शार्शनिक विद्वान स्याद्वाद में वेदान्तियोंके अनिर्वचनीयतावादको झलक पाते हैं। उनके शब्द है-"जो हो, जैन मतका "स्याद्वाद" वही वेदान्त मतका अनिर्वचनीयतावाद | शब्दोंका भेद है, अर्थका नहीं।" अनिर्वचनीयताबाद सप्तभंग न्याय-प्रणालीका एक विकल्प है । वस्तुफै अस्ति और मास्ति रूप धमाँको एक साथ कहनेको असमर्थताके कारण जसे कथञ्चित अनिर्वचनीय कहा है । वेदान्त दृष्टि एकान्तरूप है, वह मत्व, असत्त्व आदि धर्मोके अस्तित्वको स्वीकार करती है । स्याद्वादसे सम्बद्ध अनिर्वचनीयतावादमें अस्तित्व-नास्तित्व आदि धर्मोकी अवस्थिति पाई जाती है। आचार्य विज्ञानन्दि कहते हैं-"सव" अमीरः अस्जिद पर घ है, ने सटीकार करते वस्तुका वस्तुत्व नहीं रहेगा। वह गधके सोंग समान अभावरूप हो जायगा । वस्तु कथञ्चित् असत् रूप है, स्वरूप आदिके समान पर-रूपसे भो वस्तुका असत्त्व यदि आपत्तिपूर्ण हो तो प्रतिनियत-प्रत्येक पदार्थका पृथक्-पथक स्वरूप नहीं रहेगा । और तब वस्तुओं प्रसिनियमका विरोध होगा । इसी प्रकार अन्य घमौका अस्तित्व एकान्त अनिर्वचनीयवाद सिद्धान्तको अपरमार्थताको प्रमाणित करता है। वेदान्तवादियोंको स्याद्वाद यदि अभीष्ट होता तो बेवास्तसूत्रमें 'नकस्मिन्नसम्भवान' सूत्र और उसके शांकरभाष्यमें आक्षेप न किया जाता । संकराचार्यने अपने शांकरभाष्य अध्याय २, सूत्र ३३ में बो स्याद्वादके विरुद्ध लिखा है उसकी आलोचना करनेके पूर्व यह लिख देना उपयुक्त प्रतीत होता है कि वर्तमान युगके प्रकाण्ड दार्शनिक किन्हीं-किन्हीं जनतर विद्वानोंने शंकराचार्यकी आलोचनाको सदोष और अज्ञानपूर्ण लिखा है । संस्कृतके प्रकाण्ड पण्डित डॉ. महामहोपाध्याय १. डॉ. भगवानदासजी, 'जनदर्शन' का स्याद्वादांक, पृ० १८० । २. "तथ सत्वं वस्तुधर्मः, तदनुपगमे वस्तुनो वस्तुस्वायोगात् सरविषाणादिवत् तथा कश्चिदसत्त्वं स्वरूपादिभिरिव पररूपादिमिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टौ प्रतिनियतस्वरूपाभावादस्तुप्रतिनियमविरोधात् ।” -अष्टसहस्रीविवरण, प० १८३ । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद १३२ गंगानाथझा वाइसचांसलर प्रयाग विश्वविद्यालय ने लिया था-"जबसे मैंने शंकराचार्य द्वारा जनसिद्धान्तका खण्डन पढ़ा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्त में बहुत कुछ है, जिसे वेदान्तके भाचार्योने नहीं समझा। और जो कुछ मैं अबतक जैनधर्मको जान सका हूँ उससे मेरा यह दृढ विश्वास हुआ है कि यदि वे शंकराचार्य) जनधर्मको उसके अगली ग्रन्थोंसे देखने का कष्ट उठाते तो उन्हें जनधर्मक विरोध करने की कोई बात नहीं मिलती।" __काशी हिन्दु-विश्वविद्यालयके दर्शनशास्त्रके अध्यक्ष प्रो० फणिभूषण अधिकारी स्याद्वादपर शंकराचार्य के आक्षेपके विषयमें नितिने मार्मिक उद्गार व्यक्त करते हैं । वे लिखते हैं'--"विद्वान् शंकराचार्य ने इस सिद्धान्तके प्रति अन्याय किया है। यह बात अल्प योग्यतावाले पुरूषोंमें क्षम्य हो सकती थी; किन्तु यदि मुझे कहनेका अधिकार है तो मैं भारतके इस महान विद्वान्में सर्वथा अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मैं इस महर्षिको अतीव आदरको दष्टिसे देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्मके (जिसके लिए अनादररो विवसन-ममय अर्थात् नग्न लोगोंका सिद्धान्त ऐसा नाम वे रखते है) दर्शन शास्त्रके मूलग्रंथों के अध्ययनकी परवाह न को ।” अस्तु । शंकराचार्य एक पदार्थ में सप्तषकि सद्भावको असम्भव मानते हुए लिखते है--"एक धम युगपत् सत्त्व-असत्त्व आदि विरुद्ध धर्मोंका समावेश शीत और उष्णपने के समान सम्भव नहीं है । जो सप्त पदार्थ निर्धारित किये गये है वे इसी रूपमें है, वे इसी रूपमें रहेंगे अथवा इस रूप नहीं रहेंगे अन्यथा इस रूप भी होंगे, अन्य रूप भी होंगे इस प्रकार अनिश्चित स्वरूपज्ञान संशयज्ञानके समान मप्रमाण होगा ।"२ अपनी अनोखी दृष्टि से इस प्रकार वे संशय और विरोध नामके दोपोंका उल्लेख करते हैं । इसी प्रकार अन्य प्रतिवादी वैयधिकरण्य दोषको बताते हैं, कारण भेदका आधार दूसरा है और अभेदका दूसरा । अनवस्था दोष इसलिए मानते हैं कि जिस स्वरूपको अपेक्षा भेद होता है और जिसकी अपेक्षा अभेद है वे भिन्न हैं या अभिन्न ? और उनमें भी इसी प्रकार भिन्नअभिन्नकी कल्पना उत्पन्न होगी। जिस रूपसे भेद है उसी रूपसे भेद भी है १. 'जैनदर्शन', स्याहादांक, प. १८२ । २. "न होकस्मिन् मिणि युगपरसदसत्त्वादिविरुद्धधर्मसमावेशः सम्भवति शीतोष्णवत । य ऐले सप्तपदार्था निर्धारिता रतावन्त एवंरूपाश्चति ते तर्थव वा स्युव वा तथा स्युः, इतरया हि तथा वा स्युरितरथा धेत्यनिर्धारितरूपज्ञानं संशवज्ञानवप्रमाणभेव स्यात् ।" -येदान्तसूत्र, किरभाष्य २१२।३३ । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० - जनशासन और अभेद भी है इस प्रकार संकरदोष बताया जाता है। जिस अपेक्षासे भेद है उसी अपेक्षासे अभेद और जिस अपेक्षासे अभेद है उसी अपेक्षासे भेद है इस प्रकार व्यतिकर दोष होता है। वस्तुमै भेद और अभेदका वर्णन करनेसे यह निश्चय नहीं होता कि यथार्थमें उसका क्या रूप है इसलिए 'गंशय' दोष दिखता है । संशय होनेपर सम्भक परिज्ञान नहीं होगा, अतः उसका अभाव होगा। इस प्रकार अभाव दोष भी होता है । इस प्रकार प्रतिवादियोंने अनेकान्त सिद्धान्तपर उपर्युक्त दोषोंको अपनी दृष्टिसे लादनेका प्रयास किया है । उनका निराकरण करते हुए प्रतिभाशालो जन ताकिक मत्य-धर्मकी प्रतिष्ठा इस प्रकार स्थापित करते हैं कि-वस्तु में भेद और अभेदरूप धोकी प्रत्यक्षमें उपलब्धि होती है, तब इममें दोषकी क्या बात है? जब एक ही दृष्टिो सत्यअसरव, भेद-अभेद कहा जाग, तब विरोधको आपत्ति उचित कही जा सकती है । भिन्न-भिन्न दृष्टियोंसे एक ही वस्तुको हम ठंडा और गरम भी कह सकते हैं। एक आदमी अपने एक हाथको बहुत गर्म पानीमें डाले और दूसरेको हिमसदृश शीतल जलमें रखे, पश्चात् दोनों हाथोंको कुन-कुने पानी में डाले, सो पीतल जलवाला हाथ उस जल को अधिक उषण बताएगा और अधिक उष्णजलकाला हाप उस अलका शीतल सूचित करेगा। इस प्रकार भिन्न-भिन्न हाथोंकी दृष्टिसे जल एक ही समय शीत और उष्ण रूपसे अनुभवगोचर होता है। यह बात जब प्रत्यक्ष अनुभवमें आती है, सल विरोध और असम्भव दोष नहीं रहते । सत् और असत् धर्म एकही पदार्थमें पाये जाते हैं इसलिए वैयधिकरण्य दोष नहीं रहता । स्वरूपकी अपेक्षा वस्तुको सत् और पररूपको अपेक्षा असत् स्वीकार किया है। इसमें भी सहकारियोंके भेदसे शक्तिके अनन्त भेद हो जाते हैं । अनम्त धर्मात्मक वस्तु होनेसे यह यथार्थ है, अतः अनवस्था दूषण घराशायी हो जाता है। सत्त्व और असत्त्व अथवा भेद-अभंद दृष्टियोंको भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे कहते है । पिताकी अपेक्षा पुत्र है, भाई आदिकी अपेक्षा पुत्र नहीं है । इस प्रकार एक व्यक्तिमें पुत्रपनेका सद्भाव और असद्भाव दोनों पाये जाते है । इस प्रत्यक्ष अनुभव प्रकाशमें संकर और व्यतिकर दोष भी नहीं रहते । वस्तुका स्वरूप स्वरूप-चतुष्टयको अपेक्षा अस्तिरूप ही है और अन्य चतुष्टयकी अपेक्षा असत् रूप ही है, ऐसौ निश्चित शानकी अवस्थामें संशयदोष मो नहीं रहता। अनेक धर्ममय वस्तु-स्वरूपकी उपलब्धि होनेसे अभावदोषका अभाव हो जाता है। शंकराचार्यने सुदृढ़ तर्कपर अवस्थित स्याद्वाद के प्रासादपर आक्रमण न कर अपनी मनोनीत कल्पना-मय कुटीरको स्याद्वादका नाम दे तास्त्रोंसे ध्वस्त करनेका प्रयत्न किया है। इसलिए स्थावाद विद्वेषियोंकी भ्रान्त बुद्धिका परिचय कराते हुए Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग स्याद्वाद स्याद्वादका मनोज्ञ सुदृढ़ प्रासाद अनेकान्त पताकाको फहराता हुआ सत्यान्वेषियोंको अपनी ओर आकर्षित करता है । यशोविजय उपाध्याय कहते है: "दूषयेत् अज्ञ एवोच्चः स्याद्वादं न तु पण्डितः । अज्ञप्रलापे सुशानां पर द्वेषः करुणैव तु ॥ ४६ ॥ १४१ स्याद्वाद सिद्धान्त सूर्य के समान सत्यतत्वको प्रकाशित जिन व्यक्तियोंमें ज्योतिका जागरण नहीं हुआ है, यथार्थमें वे पात्र हैं । - न्यायखंडखाद्य अज्ञ जन ही स्याद्वादपर महान् दोषारोपण करते हैं, विज्ञ लोग नहीं; अज्ञानियोंके प्रलापपर सुधीपुरुष रोष न कर करुणा करते हैं । करता है, उससे विचारे करुणाके शंकराचार्य द्वारा स्याद्वादको चिन्तनापर विशेषज्ञोंको कड़ी बालोचना देख डा० एस० के० वेलवलकर एक मनोहर कल्पना द्वारा शंकरका समर्थन और १. " न होकत्र नानाविरुद्ध धर्मप्रतिपादकः स्याद्वादः किन्त्वपेक्षाभेदेन तदविरोषद्योतकस्यात्पद-समभिव्याहृतवाक्यविशेषः स इति " — न्यायखंडवाद्य ४२ ॥ 2. "Sankaracharya was a Bhasyakara and the account he has given of Jainism represents merely an expanded form of the view of Jainism, which is as old as Badarayana, the author of Vedanta, Sutras. The sutra "नैकस्मिन्नसम्भवात् " ( 2-2-33) has been interpreted by all the Bhasyakaras in the same manner and its very wording suggests that the view here taken of Jainism is an ancient view, which cannot entirely have been a deliberate misrepresentation In any case that is the oldest account of Jainism in non-Jain texts that is to us available and (the theory of a wilful and malicious misrepresentation apart) there is no reason why we should not regard it as not untruly representing a tendency in Jainism, which was its weakest and the most vulnerable spot. In its later presentation of course Syadavda becomes all that my critics claim for it, May more it becomes almost a platitude which nobody would care to seriously call in question." Dr. S. K. Belvalker, M. A., Ph. D.-Article on The Under Current of Jainism in Jain Sahitya Samshodhak, 1920, vol. 1, p, 2-3. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जनशासन ममत्त्व प्रकट करनेका विचित्र प्रयास करते हैं। डॉक्टर महाशयको दलील है कि "शंकराचार्य ने अपनी व्याख्या पुरातन जैन दृष्टिका प्रतिपादन किया है और इसलिए उनका प्रतिपादन जान-बूझकर मिथ्या प्ररूपण नहीं कहा जा सकता। जैनधर्मका जैनंतर साहित्यमें सबसे प्राचीन उल्लेख बादरायणके वेदान्त सूत्र में मिलता है, जिसपर शंकराचार्यको टीका है। हमें इस बातको स्वीकार करने में कोई कारण नजर नहीं आता कि जैनधर्मकी पुरातन दातको यह घोतित करता है । यह बात जैनधर्मको सबस दुर्बल और सदोष रही है। हाँ, आगामी कालमें स्याद्वादका दूसरा रूप हो गया, जो हमार आलोचकोंके समक्ष है और अब उसपर विशेष विचार करनेको किसीको आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।" स्थाद्वादकी डॉ बेलवलकरकी दृष्टिसे शंकराचार्यके समयतककी प्रतिपादना और आधुनिक रूपरेखामें अन्तर प्रतीत होता है । अच्छा होता कि पूनाके डाक्टर महाशय किसी जैन शास्त्रके आयारपर अपनी कल्पनाको सजीव प्रमाणित करते । जैनधर्मके प्राचीनसे प्राचीन शास्त्रमें स्पाद्वादके सप्तमंगोंका उल्लेख आया है ; अतः डाक्टर साहब अपनी तर्कणाके द्वारा शंकर और उनके समान आक्षेपकर्ताओंको विचारकोंके समक्ष निर्दोष प्रमाणित नहीं कर सकते । यह देखकर आश्चर्य होता है कि कभी-कभी विख्यात विद्वान् भी व्यक्ति-मोहको प्राधान्य दे सुदृढ़ सत्यको भी फूकसे उड़ानेका विनोदपूर्ण प्रयत्न करते है । जब तक जैन परम्परामें स्याद्वादको भिन्न-भिन्न प्रतिपादना बेलवलकर महाशय सप्रमाण नहीं बता सकते और जब है ही नहीं तब बता भी कैसे सकेंगे-तब तक उनका उद्गार साम्प्रदायिक संकीर्णताके समर्थनका सुन्दर संस्करण सुज्ञों द्वारा समझा जायगा। स्थाद्वाद जैसे सरल और सुस्पष्ट हृदयग्राही तत्त्व-ज्ञानपा सम्प्रदायमोहवश भ्रम उत्पन्न करने में किन्हीं-किन्ही लेखकोंने जनशास्त्रोंका स्पर्श किये बिना ही केवल विरोध करनेकी दृष्टिसे ही यथेष्ट लिखनेका प्रयास किया है। उन्होंने तनिक भी न सोचा कि सत्य-सूर्यको किरणोंके समक्ष भ्रमान्धकार कबतक टिकेगा। ऐसे भ्रम-जनक दो-एक लेखकोंकी बातोंपर हम प्रकाश डालेंगे । अन्यया स्थाद्वाद-शासनपर ही समय-ग्रन्थ पूर्ण हो जायगा। धो बलबेवजी उपाध्याय 'स्याद्वाद' शब्दके मूलरूप 'स्यात्' शब्दके विषयमें लिखते हैं—'स्यात्-(शायद सम्भव) शब्द 'मस्' धातु के विििलके रूपका तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय माना जाता है।" परन्तु स्थात् शब्दके विषयमें स्वामी समन्तभद्रका निम्नलिखित कथन ध्यान देने योग्य है "वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यम्प्रति विशेषकः । स्यान्निपातोऽर्थयोगित्वात्तव केलिनामपि ।।" -आप्तमीमांसा, १०३ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद १४३ यहाँ स्यात् पान्दको अनेकान्तको ग्रोतित करनेवाला बताया है, वह निपातरूप (indeclinable) शब्द है । पशास्तिकासको टक लान् भरि कहते हैं "सर्वशास्त्र-निषेधकोऽनेकान्तप्ता-रोतकः कब्रिदर्थे पारछयो निपात:"स्यात् शब्द निपात है, वह सर्वधापनेका निषेधक, अनेकान्तपनेका द्योतक, कश्चित् अर्थवाला होता है । एक पान्दके अनेक अर्थ होते हैं । संघषका नमकरूप अर्थके साथ घोड़ा भी अर्थ होता है । प्रकरण के अनुसार वक्ताको दृष्टिको ध्यानमें रख उचित अर्थ किया जाता है । इसी प्रकार स्थात् शब्दका प्रस्तुत प्रकरणमें अनेकान्त द्योतकरूप अर्थ मानना उचित है । अष्टसहस्रोकी टिप्पणी (प० २८६) की निम्न पंक्तियां भी इस विषय में ध्यान देने योग्य है "बिध्यादिष्वर्थेष्वपि लिङ्लकारस्य स्यादिति क्रियारूपं पदं सिद्ध्यति, परन्तु नायं स शब्दः, निपात इति विशेष्योक्तत्वात् ।" स्याद्वाद विद्याको महत्त्वपूर्ण मान आजका शोधक चुसार जब उसे जैनधर्मको संसारको अपूर्व देन समझने लगा, तब स्यावाद सिद्धान्तपर एक नवीन प्रकारका मधुर आरोप प्रारम्भ हुआ है 1 अतः स्पात् शब्दका अर्थ शायर नहीं है किन्तु एक सुनिश्चित दृष्टिकोण है।' बौद्ध भिक्षु श्रीरामानोने अपने दर्शन-विदर्शनमें अन्य कतिपय लेखकोंका अनुकरण करते हुए सामञ्चफलसुत्त नामक अपने सम्प्रदायके शास्त्राधारपर संजयलट्ठि पुत्तके मुखरो जो कहलाया है कि-"मत्पिति पि नो, नस्थिति पि नो, अस्यि च नत्यिक लिपि नो, नेवत्यि नो स्थिति पिनो।" मैं उसे इस रूपमें नहीं मानता, में उसे अन्य रूप भी नहीं कहता, मैं इस रूप तथा अन्य रूप भो नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि वह इस रूप और अन्य रूप नही है । इसमें स्याद्वादके बीज उन्हें विदित होते हैं। प्रो. प्र बजोने भी इस विषयमें संकेत किया है, किन्तु उनके लेखमें राहुलजीको भाषाका अनुकरण न कर सौजन्य और शालीनताका पूर्णतया निर्वाह किया गया है । उपर्युक्त अवतरणमें स्याद्वादके बीज मानना कांचकी आँस्तको वास्तविक आँस मानने के समान होगा। स्याद्वादकी सुदृढ़ और सत्यकी नीवपर प्रतिष्ठित तर्कसंगत शैली और पूर्वोक्त अवतरणको शिथिल तर्कविरुद्ध विचारधाराओंमें सजीव और निर्जीव सदृश्य अन्तर है। सञ्जयवेलाट्टपत्तका वर्णन एकान्त अनिर्वचनीयवादकी ओर झुकता है, जो कि अनुभव और तर्कसे बानित है । आचार्य विद्यानम्बि इस प्रकारको दृष्टि पर प्रकाश हालते हुए लिखते हैं कि-वस्तुको सद्भावरूप तथा असद्भावरूप भी न कहनेपर Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ जैनशासन जगत् में मूकल्वको परिस्थिति का जाएगी ।" स्याद्वाद ऐसे मूकत्वका निराकरण कर सयुक्तिक व्यविरोधी सम्भाषणशीलताका मार्ग खोलता है । एकान्त पक्ष अंगीकार करनेसे लोक व्यवहार तथा यथार्थ दार्शनिक चिन्नाके लिए स्थान ही नही रहता । 1 सामञ्ञफलमुत्त के वाक्य मूलमें 'श्रमणों और ब्राह्मणोंके द्वारा' कहे गये हैं । इन शब्दोंके आधार ध्रुव महाशय स्याद्वादके विकृत रूपको जैनेतर स्रोतसे सम्बन्धित कहते हैं । किन्तु डा० ए० एम० उपाध्ये अपनी प्रथचनसारको भूमिका यह तर्क करते हैं "मूलमें आगत Recluses and Brahmins' में श्रमणके द्योतक 'Recluses' को विशेष ध्यानमें लाना चाहिए | श्रमण शब्द मुख्यतया जैनियों को घोषित करता है । — 13 # इसका विश्वमान्य प्रमाण महाश्रमण भगवान् गोमटेश्वरको भुवनमोहिनी अत्यन्त समुन्नत दिगम्बर जैन मूर्तिसे अलंकृत मंसूरराज्यका श्रमणबेलगोला स्थल है | अतएव श्रमण शब्दका अन्य पर्यायवाची बतानेका प्रयास सत्य और निष्पक्ष विन्सना प्रतिकूल है सूक्ष्म दार्शनिक चिन्तना तो इस विचारको पुष्ट करती है कि जिसने सर्वागीण सत्य-तत्त्वका दर्शन किया है, वही स्वाद्वाद विद्याका प्रवर्तक हो सकता है । १. "तर्ह्यस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि, यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्तु इति कश्चित् । सद्भावतराम्यामनमिलापे वस्तुतः केवलं मूकत्वं जगतः स्यात् विविप्रतिषेषव्यवहारायोगात् ।" - झष्टसहस्रो पू० १२९ ॥ "This deduction is based on the supposition that Syadvada had non-Jain beginnings as proposed by himself on account of its being attributed to 'Recluses and Brahmins,' The deduction is fallacious because as shown aboul the term recluse' a Sramana pre-eminently means a Jain."-Pravachanasara's Introduction P. LXXXVIII. ३. अत्यन्त प्राचीन जैनग्रंथ महाबन्धमें मुनिके लिए 'समय' शब्दका प्रयोग आया है । पू० १० णमो पव्ह समणाणं', पृ० ३६, सामाणं समाधिसंघारणदाए, सामाणं वेज्ञावच्चजोगनुत्तदाए, सामाणं पासुगपरिष्वागदाए ... महाबंघशास्त्र । ४. दतिया रियासतका सोनागिर जैन तीर्थ यथार्थमें श्रमणगिरि ही तो है । २. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग-स्यादाद एकान्त अपूर्ण दृष्टि सत्यको विकृत करने के सिवा क्या कर सकती है ? अन्धमण्डलने हाथीको स्तम्भ, सूप आदिके आकारका बता लहना प्रारम्भ किया था । परिपूर्ण हाथीको दर्शन करनेवाले व्यक्तिने ही अन्यमण्डलीके विवाद और भ्रमका रहस्य समझ समाधानकारी मागं बताया था कि प्रत्येकका कथन पूर्ण सत्य नहीं है, उममें सस्यका अंश है और वह कथन सत्यांश तभीतक माना जा सकता है, जब तक कि वह अन्य सत्यांशोंके प्रति अन्याय प्रवृत्तिका त्याग करता है। इसी प्रकार सकलश, सर्वदर्शी तीर्थररोंके सिवाय समन्तभद्रस्याद्वादतत्त्वज्ञानका निरूपण एकान्त दृष्टिवाले नहीं कर सकते । एकान्त सदोष दृष्टिमें स्याबाद के बोज मानना अज्ञतामें विज्ञताका बीज मानन सदृश होगा । वृक्षको देखकर बीनका दोष होता है । सुस्वादु पवित्र आनन्द और शान्तिप्रद स्यावाद वृक्षक बीज कटु, घुणित, एकान्तवादमै कैसे हो सकते है ? अब हम सत्यानुरोधसे कुछ एकान्त दार्शनिक मान्यताओं का वर्णन करना उचित समझते हैं जिन्हें स्याद्वादरूपी रसायनके संयोग दिना जीवन नहीं मिल सकता । बौद्ध-दर्शन जगत् के सम्पूर्ण पदार्थोंको क्षण-क्षणमें विनाशी बता निस्पस्वको भ्रम मानता है । बौद्ध तार्किक कहा करते है..-'सर्व क्षणिवं सत्वात् । बौद्धदृष्टिको हम जमतमें चरितार्थ देखते हैं। ऐसा कौनसा पदार्थ है जो परिवर्तनके प्रहारसे बघा हो। लेकिन, एकान्त रूपसे क्षणिक तस्व माना जाय तो संसारमें बड़ी विचिय स्थिति उत्पन्न होगी। व्यवस्था, नैतिक उत्तरदायित्व आदिका अभाव हो जायगा। स्वामी समग्तमान कहते हैं--प्रत्येक क्षणमें यदि पदार्थका निरस्य नाश स्वीकार करोगे, तो हिंसाका संकल्प करनेवाला नष्ट हो जायगा और एक ऐसा नवीन प्राणी हिंसा करेगा जिसने हिंसाका संकल्प नहीं किया। हिंसा करनेवाला भी नष्ट हो जायगा इसलिए बन्धनद्ध कोई अन्य होगा। दण्डप्राप्त भी नष्ट हो जायगा इसलिए वन्धन-मुक्ति किसी अन्यको होगी। इस प्रकारकी अव्यवस्था बौद्धोंके एकान्त क्षणिक सिद्धान्त द्वारा होगी । समन्तभद्र स्वामोका महत्त्वपूर्ण पद्य यह है "न हिनस्त्यभिसन्धातृ हिनस्त्यनभिसन्धिमत् । बध्यते तद्वयापेतं चित्तं बद्ध न मुच्यते ॥५१॥" वे यह भी लिखते हैं कि "क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥४१॥" -आप्तमीमांसा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन शासन क्षणिक रूप एकान्त पक्षमें प्रत्यभिज्ञान, स्मृति, इच्छा आदिका अभाव होगा ? जिस प्रकार किसी दूसरेके अनुभव में आई हुई वस्तुका हमें स्मरण नहीं होता, उसी प्रकार किसी भी व्यक्तिको स्मरण नहीं होगा, क्योंकि अनुभव करनेवाला जीव नष्ट हो गया मोर पर बजेगा की सन या प्रत्यभिज्ञान अादिके अभाव होने के कारण कार्यका आरम्भ नहीं होगा, इसलिए पाप-पुण्य लक्षण स्वरूप फल भी नहीं होगा। इसके अभावम न बन्ध होगा न मोक्ष। क्षणिक पक्ष कारणसे कार्यको उत्पत्तिके विषयमें भी अव्यवस्था होगी। बौद्धदर्शनको मान्यताके अनुसार कारण सर्वथा नष्ट हो जायगा और कार्य बिल्कुल नवीन होगा । इसलिए उपादान नियमकी व्यवस्था नहीं होगी । सूतके बिना भी मतो नस्त्रको उत्पत्ति होगी । सूतरूपी उपादान कारणका कार्यरूप वस्त्र परिणमन बौद्ध स्वीकार नहीं करता । असत् कार्यवाद स्वीकार करनेपर आकाशपुष्पकी तरह पदार्थकी उत्पत्ति नहीं होगी। ऐसो स्थितिमें उपादान नियमके मभाव होनपर कार्यको उत्पस्सिमें कैसे सन्तोष होगा? असतरूप कार्यको उत्पत्ति माननेपर तन्तुओंसे वस्त्र उत्पन्न होता है और लकड़ोसे नहीं होता, यह नियम नहीं पाया जायगा। युक्त्यनुशासनमें स्वामी समन्तभद्र ने कहा है-एकान्त रूपसे क्षणिकतत्त्व माननेपर पुत्रकी उत्पत्ति क्षणमें माताका स्वयं नाश हो जायगा, दुसरे क्षणमें पुषका प्रलय होनेसे अपुत्रको उत्पत्ति होगी। लोक-व्यवहारसे दूरतर माताके विनाशके लिए प्रवृत्ति करनेवाला मातृधाती नहीं कहलाएगा। कुलीन महिलाका कोई पति नहीं कहलाएगा, कारण जिसके साथ विवाहसंस्कार होगा उस पतिका विनाश होने से नवीनकी उत्पत्ति होगी । जिस स्त्रीके साथ विवाह हुआ दूसरे क्षण उसका भी विनाश होनेसे अन्यको उत्पत्ति होगी। इस प्रकार परस्त्री-सेवनका उस व्यक्तिको प्रसंग आएगा। इसी नियमके अनुसार स्व-स्त्रो भी नहीं होगी। घनो पुरुष किसी व्यक्तिको ऋणमें धन देते हुए भी उस सम्पत्तिको बौद्धतत्त्वज्ञान के अनुसार नहीं पा सकेगा, क्योंकि ऋण देनेके दूसरे ही क्षण साहूकारका नाश हभा, लिखित साक्षी आदि भी नहीं रही और न उधार लेनेवाला बषा । शास्वाम्पास भी विफल हो जाएगा, कारण स्मृतिका सद्भाव क्षणिक तत्त्वज्ञानमें नहीं रहेगा, आदि दोष क्षणिकैकान्तकी स्थिति संकटपूर्ण बनाते हैं। १, 'यद्य सत्सर्वथा कार्य तन्मा जनि खपुष्यवत् ।। मोपादाननियामो भून्माप्रश्वासः कार्यजन्मनि ।। ४२ ॥" -माप्तमीमांसा २. "प्रतिक्षणं भंगिषु तथक्त्वान्न मातृघाती स्वपतिः स्वजाया। दत्तग्रहो नापिंगतस्मृतिन न क्त्वार्थसत्यं न कुलं न जातिः ॥ १६ ॥" -युक्त्यनुशासन पृ० ४२ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग - स्याद्वाद १४७ एक आख्यायिका क्षणिकैकान्स पक्षको अव्यावहारिकताको स्पष्ट करती है । एक ग्वाला क्षणिक तत्त्वके एकांत भक्त पंडितजीके पास गाय चरानेका पैसा माँगने प्रथम बार पहुँचा । अपने क्षणिक विज्ञानकी धूनमें मग्न हो पंडितजीरे को यह कहकर वापिस लौटा दिया कि जिसकी गाय थी और जो ले गया था, वे दोनों अग्र नहीं हैं, बदल गये । इसलिए कौन और किसे पैसा दे ! दुखी हो, ग्वाला किसी स्याद्वादी के पास पहुँचा और उसके सुझावानुसार जब दूसरे दिन पंडितजी के यहाँ गाय न पहुँची, तब वे स्वाले के पास पहुँच गायके विषय में पूछने लगे 1 अनेकांत विद्यावाले बंधूने उसे मार्ग बता हो दिया था इसलिए उसने कहा - "महाराज गाय देने वाला लेने वाला तथा गाय, राभी हो बदल गये, इसलिए आप मुझसे क्या मांगते हैं ?" पंडितजी चक्करमें पड़ गये । व्यावहारिक जीवनने भ्रमांषकार दूर कर दिया, इसलिए उन्होंने कहा - "गाव सर्वथा नहीं बदली है, परिवर्तन होते हुए भी उसमें अविनाशोपना भी हैं" इस तरह ग्वालेका वेतन देकर उनका विशेष दूर हो गया। इससे स्पष्ट होता है कि एकांत पक्ष आधारपर लौकिक जीवनयात्रा नहीं बन सकती । कोई मौद्धदर्शनको मान्यता के विपरीत वस्तुको एकांत रूपसे नित्य मानते हैं । इस संबंध में समन्तभद्राचार्य 'युक्त्यनुशासन' में लिखते हैं "भावेषु नित्येषु विकारहानेनं कारकव्यापृतकार्ययुक्तिः । न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्षः समन्तदोषं मतमन्यदीयम् ॥ ८ ॥ " पदार्थों नित्य माननेपर विक्रिया-परिवर्तनका अभाव होगा और परिवर्तन न होनेपर कारणों का प्रयोग करना अप्रयोजनीय ठहरेगा। इसलिए कार्य भी नहीं होगा । बंघ, भोग तथा मोक्षका भी प्रभाव होगा। इस प्रकार सर्वथा नित्यत्व माननेवालों का पक्ष समंतदोष- दोषपूर्ण होता है। एकांत नित्य सिद्धान्त माननेपर अर्थक्रिया नहीं पायी जायगी । पुण्यपापरूप क्रियाका भी अभाव होगा । आप्तमीमांस में कहा है "पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फलं कुतः । धमोक्ष च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ॥ ५० ॥" वस्तु स्वरूपकी दृष्टिसे विचार किया जाय, तो उसमें क्षणिकत्वके साथ नित्यस्व धर्म भी पाया जाता है । इस सम्बन्धमें दोनों दृष्टियों का समन्वय करते हुए स्वामी समन्तभव लिखते हैं "नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा । क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्ध्यसंवरदोषतः ||५६|| — आप्तमीमांसा । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैनशासन वस्तु नित्य है, कारण उसके विषयमें प्रत्यभिज्ञानका उदय होता है । दर्शन और स्मरण शानका संकलन रूप ज्ञान-विशेष प्रत्यभिज्ञान कहलाता है; जैसे वृक्षको देखकर कुछ समयके अनन्तर यह कथन करना कि यह वही वृक्ष है जिसे हमने पहिले देखा था। यदि वस्तु नित्य न मानी जाय, तो वर्तमानमें वृमको देखकर पहले देखे गये वृथा सम्बन्धी ज्ञान के साथ समिश्रित ज्ञान नही पाया जायगा । यह प्रत्यभिज्ञान अकारण नहीं होता; उसका अविच्छेद पाया जाता है । दूसरी दृष्टिसे अवस्थाको दृष्टिसे) तत्त्वको क्षणिव. मानना होगा, कारण वही प्रत्यभिज्ञान नामक ज्ञानका पाया जाना है । क्षणिक तत्त्वको माने बिना वह ज्ञान नहीं बन सकता । कारण इसमें कालका मेद पाया जाता है। पूर्व और उत्तर पर्यायमै प्रवृत्तिका कारण कालभेद अस्वीकार करनेपर बुद्धिमें दर्शन और स्मरणकी संकलनरूपताका अभाव होगा । प्रत्यभिज्ञानमें पूर्व और उत्तर पर्याय वृद्धिका संचरण कारण पड़ता है। मुवर्णको दृष्टिसे कुण्डलका कंकणरूपमें परिवर्तन होते हुए भी कोई अन्तर नहीं है । इसलिए स्वर्णकी अपेक्षा उक्त परिवर्तन होत हुए भी उसे नित्य मानना होगा । पर्याय (modification) की दृष्टि से उसे अनित्य कहना होगा, क्योंकि कुंडल पर्यायका क्षय होकर कांकण अवस्था उत्पन्न हुई है । इसी तत्त्वको समझाते हुए 'आप्तमीमांसा में स्वर्णके घटनाश और मुकुटनिर्माणरूप पर्यायोंकी अपेक्षा अनित्य मानते हुए स्वर्णकी दष्टि से उसी पदार्थको नित्य भी सिद्ध किया है । साप्समोमांसाकारके शम्द इस प्रकार है "घटमौलिस्वार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।।५।" अद्वैत तत्त्वका समर्थक 'एक ब्रह्म, द्वितीयं नास्ति' कथन द्वारा द्वैत तत्त्वका निषेध करता है । इस विषयपर विचार किया जाय तो इस पक्षकी दुर्बलताको जगत्का अनुभव स्पष्ट करता है । मदि सर्वत्र एक ब्रह्म ही का साम्राज्य हो, तब जब एकका जन्म हो, उसी समय अन्यका भरण नहीं होना चाहिए । एकके दुःखो होनेपर उसी समय दूसरेको सुखी नहीं होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । जब किसीका जन्म है उसी समय अन्यका मरण आदि होता है। "यदेवकोऽश्नुते जन्म जरां मृत्यु सुखादि का। तदेवान्योन्यदित्यंग्या भिन्नाः प्रत्यंगभंगिनः ।।" -अनगारधर्मामृत, १० १०६ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग स्याद्वाद १४९ किन्हीं वेदान्तियों का कथन है जैसे एक बिजलीका प्रवाह सर्वत्र विद्यमान रहता है, फिर भी जहाँ बटन दबाया जाता है, वहाँ प्रकाश हो जाता है, सर्वत्र नहीं । इसी प्रकार एक व्यापक ब्रह्मकं होते हुए भी किसीका जन्म, किसीका बुढ़ापा, किसीका मरण आदि होना न्यायविरुद्ध हूँ । साधतः स्पष्ट ही विद्युत्को सर्वत्र एक इस समाधानपर सूक्ष्म विचार किया जाय तो इसकी जाती है। बिजलीका अविच्छिन्न प्रयाह देखकर भ्रमसे समझते हैं. यथार्थमें विद्युत् एक नहीं है । जैसे पानीके नलमें प्रवाहित होनेवाला जल बिन्दुपुंज रूप है। एक-एक बिन्दु पृथक-पृथक है। समुदाय रूप पर्याय होनेके कारण वह एक माना जाता है। यही न्याय बिजली जलते हुए बिजली और बुझे हुए बल्ब की विद्युत् प्रवाहको दृष्टिमे एकत्व होते हुए भी सूक्ष्म दृष्टिमें अन्तर है। भ्रमवश सदृशको एक माना जाता है। नाईके द्वारा पुनः पुनः बनाये जानेवाले वालोंमें पृथक होते हुए भो एकत्वकी भ्रान्ति होती हैं। इसी प्रकार ब्रह्मवादको एकत्वको भ्रान्ति होती है । विषयमें जानना चाहिए । अद्वैततके समर्थन में कहा जाता है 'मायाके कारण मे प्रतीति अपरमार्थरूपमें हुआ करती है ।" यह ठीक नहीं है; कारण मेश्को उत्पन्न करनेवाली माया यदि वास्तविक है तो माया और काईत उत्पन्न होता है । यदि माया अवास्तविक है, तो खरविषाणके समान वह भेद-बुद्धिको कैसे उत्पन्न कर सकेगी ? अद्वैतके समर्थन में यदि कोई युक्ति दी जाती है, तो हेतु तथा साध्य रूप द्वैत आ जायगा । कदाचित् हेतुके बिना वचनमात्रसे अद्वैत प्ररूपण ठीक माना जाय, तो उसी म्यायसे द्वैत तत्व भी सिद्ध होगा। इसीलिए स्वामी समसमाने लिखा है- " हेतोरद्वैत सिद्धिश्चेत् तं स्यात् हेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिः द्वैतं वाङ्मात्रतो न किम् ||२६|| -माप्तमीमांसा अद्वैत शब्द जब इसका निषेधपरक है तो वह स्वयं द्वेतके सद्भावको सूचित करता हूँ । निषेध किये जानेवाले पदार्थके अभाव में निषेध नहीं किया जाता । अतः अद्वैत शब्दको दृष्टिसे द्वैत तत्त्वका सद्भाव असिद्ध नहीं होता । १. "अतशब्दः स्वाभिश्रेय भस्यनीकपरमार्थापेक्ष नम्पूर्वाखण्डपदत्वात् अहेत्वभिघानवत् । " --- अष्टसहस्त्री पृ० १६१ - बत शब्द अपने वाच्यके विरोधी परमार्थरूप ईटको अपेक्षा करता है, कारण बर्द्धत यह अखण्ड तथा नव् पूर्व अर्थात् निषेषपूर्व पद है । जैसे महेतु शब्द है । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जनशासन "अद्वैतं न बिना द्वैतात्, अहेतुरिव हेतुना। संजिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यात् ऋते क्वचित् ॥२७॥" -आप्तमीमांसा एक मार्मिक शंकाकार कहता है यदि वास्तविक दैतको स्वीकार किये बिना अहत शब्द नही बन सकता, तो वास्तविक एकांतके अभावमें उसका निषेधक अनेकांत शब्द भी नहीं हो सकता?' इसके समाधानम बाचाय विधानन्धि कहते है कि हम सम्यक् एकांत सदभावको स्वीकार करते हैं, वह वस्तुगत अन्ययाँका लोप नही करता । मिथ्या एकांत अन्य धर्मोका लोप करता है। अतः सम्यक् एकांतरूप तत्त्व इस घचर्चाम बाधक नहीं है। __एक दार्शनिक कहता है, 'अवस्तुका भी निषेध देखा जाता है; गधैक सींगका अभाव है, ऐसे कथनमें क्या बाधा है ? इसी प्रकार अपरमारूप द्वैतका भी अद्वैत शब्द द्वारा निषेध मानने में क्या बाधा है?' हूँत शब्द अखंड (Simplc) है और खरविषाण. संयुक्त पद (Com. pound) है । अत: यह दंतके समान नहीं है। वरविषाण नामकी कोई वस्तु नहीं है । सर और विषाण दो पृथवा-पृथक अस्तित्व धारण करते हैं । उनका संयोग असिद्ध है । जैसा निषेधयुक्त अखंडपद अद्वैत है, उस प्रकारकी दात स्वरविषाणके निषेध नहीं है। अटू ततत्व मानने पर स्वामी समम्सभद्र कहते हैं "कर्मद्वैतं फलद्वेतं लोकद्वैतं च नो भवेत । विद्याऽविद्याद्वयं न स्यात् बन्धमोक्षद्वयं तथा ।।२५।।" -आप्तमीमांसा पुण्य-पापरूप फर्मदत, शुभ-अशुभ फलत, इहलोक-परलोकरूप लोकदत, विद्या-अविद्यारूप द्वैत तथा बंघमोखरूप द्वतका अभाव हो जायगा। आत्मविकास और ब्रह्मत्वकी उपम्धि निमित्त योग, ध्यान, धारणा. समाधि आदिक जो महान शास्त्र रचे गये हैं, उनके अनुसार आचरण आदिको व्यवस्था कूटस्थ नित्यस्व या एकान्त मणिकरव प्रक्रिया नहीं बनती है। महापुराणकार भगवत् जिमसेन कहते है-- शेषेष्वपि प्रवादेषु न ध्यान-ध्येय-निर्णयः । एकान्तदोष-दुष्टत्वात् द्वैताद्वंतवादिनाम् ।।२५३॥ नित्यानित्यात्मकं जीवतत्त्वमभ्यपगच्छतास। ध्यानं स्यावादिनामेव घटते नान्यवादिनाम् ॥२५४॥" पर्व २१ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग स्याद्वाद १५१ स्थादाद शासनमें ही सब बातोंकी सम्यक व्यवस्था बनती है। समन्तभद्राचार्य इस दंत-अद्वैत एकान्तके विवादका निराकरण करते हुए कहते है - "सत्सामान्यात्तु सर्वेक्यं पृथक् द्रव्यादिभेदतः ॥३४॥" सामान्य सत्त्वको अपेक्षा सब एक हैं, द्रव्य गुण पर्याय आदिकी दृष्टि से उनमें स्थापना है। इस दृष्टि से एकत्वका समर्थन होता है। साथ ही अनेकत्व भी पारमार्थिक प्रमाणित होता है। कोई-कोई जिज्ञासु पूछते है-आपके यहाँ एकान्त दृष्टियोंका समन्वय करने के सिवाय वस्तुका अन्य स्वरूप माना गया है या नहीं? ___ इसके समालानमें यह लिखना उचित जंचता है कि स्याद्वाद दृष्टि द्वारा वस्तुका यथार्थ स्वरूप प्रकाशित किया जाता है। अन्य स्वरूप बताना सत्यकी नींबपर अवस्थित दृष्टिके लिए अनुचित है । स्याद्वाद दृष्टिमें गिध्या एकान्तोंका समूह होनेपर भी सत्यसाका पूर्णतया संरक्षण होता है, कारण यहां वे दृष्टियाँ 'भो' के द्वारा सापेक्ष हो जाती है। इस स्याद्वादके प्रकाशमें अन्य एकान्त धारणाओंके मध्य मैत्री उत्पन्न की जा सकती है। स्वामी समन्तभाकी आप्तमीमांसा समन्वयका मार्ग विस्तृत रीतिसे स्पष्ट किया गया है। स्याद्वादके वचमय प्रासादपर जद एकान्तवादियोंका शस्त्र प्रहार अकार्यकारी हमा, सब एक तार्किक जैनधर्मके करुणातस्वका आश्रय लेते हुए कहता है; दयाप्रधान तत्त्वज्ञानका आश्रय लेनवाला जनशासन जब अन्य संप्रदायवादियोंकी आलोचना करता है, तब उनके अंतःकरणमें असह्य व्यथा उत्पन्न होती है, अतः आपको क्षणिकादि तत्त्वोंकी एकान्त समाराघनाके दोषोंका उद्भावन नहीं करना चाहिये । यह विचारप्रणाली तत्वज्ञोंके द्वारा कदापि अभिनंदनीय नहीं हो सकती। सत्यकी उपलब्धिनिमित्त मिथ्या विचारशैलीको सम्यक् आलोचना यदि न को जाय तो भ्रान्त व्यक्ति अपने बसत्पथका क्यों परित्याग कर अनेकान्त-ज्योतिका आषय लेनेका उद्योग करेगा? अनेकान्त विचार पद्धति की समीचीनताका प्रतिपादन होते हुए कोई मुमुक्ष इस भ्रममें पड़ सकता है, कि सम्भवतः उसका इष्ट एकान्त १. एकान्त दृष्टि, तत्व ऐसा ही है, कहती है। अनेकान्त दृष्टि कहती है तत्त्व ऐसा भी है । 'भो' से सत्यका संरक्षण होता है, 'ही' से सत्यका संहार होता है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जेनशासन पक्ष भी परमार्थ रूप हो, अतः वह तब तक सत्पथपर जानेकी अन्तः प्रेरणा नहीं प्राप्त करेगा, जब तक उसकी एकान्त पद्धतिकी त्रुटियोंका उद्भावन नहीं किया जायगा ।' अहिंसाको महत्ता बताने के साथ हिसासे होनेवाली क्षतियोंका उल्लेख करनेसे अहिंसाको ओर प्रबल आकर्षण होता है । अतः परमकारुणिक जन महषियोंने अनेकान्तका स्वरूप समझाते हुए एकान्तके दोषोंवर प्रकाशन किया हैं। जीवका परमार्थ कल्याण लक्ष्यभूत रहने के कारण उनकी करुणा दृष्टिको कोई आँच नहीं आती है ताकिक अकलंगने कहा ही है कि "नराम्यगावनाका आश्रय ले अपने पैरोंपर कुठाराघात करनेवाले प्राणियोंपर करुणा दृष्टि दश मैंने एकान्त वादका निराकरण किया है, इसके मूलमें न अहंकार है और न द्वेष है ।" ___ अकलंक देव तो यहां तक वाहते हैं कि "यदि वस्तु स्वरूप स्वयं अनेक धर्ममय न होता, और वह एकान्तयादियोंको घारणाके अनुरूप होता तो हम भी उसी प्रकारका वर्णन करते। जब अनेकान्त रूपको स्वयं पदार्थोन धारण किया है, तब हम क्या करें ?-'यो स्वयम्भ्यो रोधते सब के वयम् ।' पदार्थका स्वरूप लोकमत मा लोकधारणाके आधार पर नहीं बदलता । वह पदार्थ अपने सत्य सनातन स्वरूपका त्रिकालमें भी परित्याग नहीं करता। अविनाशी सत्य स्वयं अपने रूपमें रहता है। हमारे अभिमतको अनुकूल प्रतिकूलताका उसके स्वरूपपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता 4 सारा जगत् अपने विचित्र संगठित मतोंके आधारपर भी पूर्वोदित सूर्यको पश्चिममें उदय प्राप्त नहीं बना सकता । इस स्यावाद शैलीका लौकिक लाम यह है कि जब हम अन्य व्यक्तिके दृष्टिबिन्दुको समझनेका प्रयत्न करेंगे तो परस्परफे मममूलक दृष्टिजनित १. भगवत् जिनसेनने एकान्त मतोंकी आलोचनात्मक पद्धतिको धर्मकथा रूप कहा है। वे कहते हैं..... "आक्षेपिणी कयां कुर्यात्प्राज्ञः स्थमत संग्रहे । विक्षेपिणी कथा तज्ज्ञः कुर्याद्दुतनिग्रहे ।।" –महापुराण १३५-१।। 2. "We can not make tnie things false or false things tnie by choosing to think them so. We cannot vote right into wrong Or wrong into right. The etemal truths and rights of things cxist fortunntely independent of our thoughts or wishes fixed as mathematics inherent in the nature of inan and the world." -Selected Essays of Froude'—P. 69. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद विरोध विदादका अभाव हो भिन्नतामें एकत्व ( Unity in diversity ) को सृष्टि होगी; आधुनिक युगमें यदि स्याद्वाद शैलीके प्रकाशमें भिन्न-भिन्न संप्रदायवाले प्रगति करें, तो बहुत कुछ विरोधका परिहार हो सकता है। आत्मविकास के क्षेत्रमें भी अनेकान्त विद्या द्वारा निर्मल ज्योति प्राप्त होती है। लोकिक दृष्टिसे जैसे घृतसम्बद्ध मिट्टीके पडेको धीका घड़ा कहते हैं, उसी प्रकार शरीरसे सम्बद्ध जीवको भिन्न-भिन्न नाम आदि उपाधियाँ सहित कहते है। परमार्य दृष्टि से घोका घड़ा कथन सत्य नहीं है, क्योंकि घड़ा मिट्टीका है। मिट्टी घडेका उपादान कारण है, इस उपादान कारण नहीं है। इस कारण मिट्टीका घड़ा कथन वास्तविक है। इसी प्रकार पारमार्थिक निश्चम दृष्टिसे आत्मा शरीरसे जुदा है। ज्ञान आनंद-शक्तिका अक्षय भंडार है । व्यावहारिकलौकिक दृष्टि से तत्वको जानकर परमार्थ दृष्टिद्वारा साधनाके मार्गपर चलकर निर्वाणको प्राप्त करना साधकका कर्तव्य है । __ व्यवहार दृष्टि जहाँ ईश-चितन, भगवद्भक्ति आदिको कल्याणका मार्ग प्राथमिक साधकको बताती है, वहां निश्चय दुष्टि श्रेष्ठ पयको प्रदर्शित करते हुए कहती है "यः परात्मा स एवाहं योऽहं सः परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यः नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।।" __ -समाधिशतक ३१॥ जो परमात्मा है, वह में है । जो मैं है, वह परमात्मा है। अतः मुझे अपनी भास्माकी आराधना करनी चाहिये, अन्यकी नहीं; यह वास्तविक बात है। स्याद्वाद तत्त्वज्ञानके मार्मिक आचार्य अमतचन्द्र अनेकांतवादके प्रति इन शब्दोंमें प्रभामांजलि समर्पित करते हैं "परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनय-विलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।" -पुरुषार्थसिद्धयुपाय २१ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनशासन कर्मसिद्धान्त I साधक के आत्मविकासमें जिस शक्तिके कारण बाधा उपस्थित होती है उसे जैन-शासनमें 'कर्म' कहते हैं । भारतीय दार्शनिकोंने 'कर्म' शब्दका विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया है। करण सिंए हो मानते है। यज्ञ आदि क्रियाकाण्डको मीमांसाशास्त्री कर्म जानते हैं । वैशेषिकदर्शनमें कर्मकी इस प्रकार परिभाषा की हैं – जो एक द्रव्यमें समवायसे रहता हो जिसमें कोई गुण न हो और जो संयोग तथा विभाग में कारणान्तरकी अपेक्षा न करे । 'सांख्य दर्शनमें 'संस्कार' अर्थम कर्मका प्रयोग हुआ है । गोतामें 'कियाशीलता' को कर्म मान अकर्मण्यताको होन बताया है। महाभारतमें" आत्माको बांधनेवाली शक्तिको कर्म मानते हुए शांति पर्व २४० -७ में लिखा है - प्राणी कर्मसे बँधता है और विद्यासे मुक्त होता है ।' बोद्ध साहित्य में प्राणियोंकी विविधताका कारण कर्मोकी विभिन्नता कहा है । अंगुत्तर निकाय सम्राद मिलिन्दके प्रश्नके उत्तर में भिक्षु नागसेन कहते हैं - 'राजन् कर्मकि नानात्यके कारण सभी मनुष्य समान नहीं होते । महाराज, भगवान्‌ने भी कहा है-'मानवों का सद्भाव कर्मो के अनुसार है। सभी प्राणी कर्मोंके उत्तराधिकारी है । कर्मके अनुसार योनियोंमें जाते है । अपना कर्म हो बन्धु है, माश्रय है और वह जीवका उच्च और नोचरूपमें विभाग करता है ।" अशोक के शिलालेखकी सूचना नं० ८ द्वारा कर्मका प्रभाव व्यक्त करते हुए सम्राट् कहते हैं - इस प्रकार देवताओंका प्यारा अपने कमोंस उत्पन्न हुए सुखको भोगता है ।' पातञ्जल योग R १. "कर्तुरीप्सिततमं कर्म " - पाणिनीय सू० २. " एकद्रव्यगुणं संयोग विभागष्यनपेक्षकारर्णामति कर्मलक्षणम् ।” - वंशेषिकदर्शन सभाष्य १-१७, ५० ३५ १ ३. सांख्यतत्त्वकौमुदी ६७ । ४. "योगः कर्मसु कौशलम् " गोता । "कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।" गीता ५. "कर्मणा बध्यते जन्तुः, विद्यया तु प्रमुच्यते ।” ६. " महाराज कम्मानं नानाकरणेन मनुस्सा न सके समका । भासितं ऐ तं कम्मदायादा कम्मयोनी कम्पबंधु होनप्पणीततायाति ।" - Pali Reader P. 39. महाराज भगवता कम्मस्स कमाणब सप्ता, कम्मपटिसरणा कम्भं सत्तं विभजति यदिदं १४४१७९१ ७. "बुद्ध और बौद्धधर्म, ० २५६ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमसिद्धान्त सूकम-पलेशका मूल कर्माशय-वासनाको बताया है। वह कशिम इस लोक . . और परलोको अनुभवमें जाता है। हिम्बू जगसके. दष्टिकोण को पुलसीरासनी इन शन्नों में प्रकट करते है "कर्मप्रधान विश्व करि गया। जो जस करहि सो तस फल चाखा) इस प्रकार भारतीय दार्शनिकोंके कर्मपर विपोध विचार व्यक्त हुए है। जैन सिद्धान्तमें इस कम विज्ञानपर जो प्रकाश गला गया है वह अन्य दर्शनों में नहीं पाया जाता। यहाँ फर्म-विज्ञान ( Philosophy ) पर बहत गम्भीर, विवाद, वैगानिक चिन्तना की गई है। जैकोवीने जैन कर्म सिद्धान्तको अत्यन्त महास्पद कहा है। कर्म यादका उल्लेख अथवा माममात्रका वर्णम किती सम्प्रदायकी पुस्तकों में पढ़ कोई-कोई आधुनिक पति कर्म-सिवान्तके बीज मंतर साहित्यमें सोचते है। किन्तु, जैन वाहमयके कर्म-साहित्य नामक विभागके अनुः शीलनसे यह स्पष्ट होता है कि जन-आगमकी यह मौलिक विथा रही है। बिना कर्म सिदान्त के न शास्त्रका दिवेशन पंग हो जाता है। विवरको का माननेवाले सिद्धान्त भगवान के हापमें अपने भाग्यकी और सौंप विश्व-विन्य पादिके लिए किसी अन्य शक्तिका वर्णन करना तर्फकी दृष्टिस आवश्यक नही मानत मोर यथार्पमें फिर उन्हें आवश्यकता रह भी बों आए ? न-सिधान्त प्रस्मेक प्राणीको अपना भाग्यविधाता मानता है, तब फिर बिना ईश्वरकी सहायता विश्वको विविधताका व्यवस्थित समाषान करना जैन दार्शनिकों के लिए अपरिहार्य है । इस कर्म-तत्व ज्ञान द्वारा वे विश्वचित्र्यका समाधान त निकूल पसतिसे करते है। कर्मको बाधन नामकी एक अवस्थाका वर्णन करनेवाला तथा बालीस हजार लोक प्रमाण पाला "महाबम्ध" नामका जन अन्य प्राकृतभाषामें अभी विद्यमान है। इस पंचगजके संपादनका मुयोग लेखकको मिला है। प्रथम प्राण्ड हिन्दी अनुवाद सहित भारतीय ज्ञानपीठस छपा है । इस प्रकार कर्मक विस्यमें विशद मानिन. जैन विवेचनाके सार पूर्ण अंशपर ही यहाँ हम विचार कर सकेंगे । जैनाचार्य बतास है शि-आरमाके प्रदेशोंमें कम्पन होता है और जम कम्पनसे पुदगल (Mattrr) का परमाणु-युज झाकषित होकर आत्माके साथ मिल जाता है, उसे फर्म कहत है। प्रवचनसारफे टीकाकार ममत मामा सूरि लिखत है-"मात्मा द्वारा प्राप्य होने से कियाको कर्म कहते है। १. "क्लेवामूल: पाशिय:, दृष्टादृष्टजन्ममेवनीयः।" -२-१२ । २, "क्रियया सल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म, सम्मिमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म ।"-प्रवचनसार टी. २-२५ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन उस क्रिया निमित्तसे परिणमन-विशेषको प्राप्त पुद्गल भी कर्म कहलाता है। जिन भावोंके द्वारा पुद्गल आकर्षित हो जीवके साथ सम्बन्धित होता है उसे भावकर्म कहते है । और आत्मामें विकृति उत्पन्न करने वाले पुद्गलपिडको व्य कर्म कहते है ।" स्वामी अकलंकदेवका कथन है'-"जिस प्रकार पाविशेषम रखे गये अनेक रमवाले बीज, पुरुष तथा फलोंका मद्यरूपम परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मामें स्थित पुद्गलोका क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कपायों तथा मन, पचन, कायके निमित्त से आत्मप्रदेशोंके परिस्पन्दनम्प योगके कारण कर्मरूप परिणमन होता है। पंचाध्यायीमें यह बताया है कि-"आत्मामें एक वैभाविक शक्ति है जो पुद्गल-पुज्ञ के निमित्त को पा आत्मामें विकृति उत्पन्न करती है।" "जोबक परिणामोंवा निमित्त पाकर पुद्गल स्वरमेव कर्मरूप परिणमन करते हैं ।तात्त्विक भापामें आत्मा पुद्गलका सम्बन्ध होत हार भो जड़ नहीं बनता और न पुदगल इस सप्नभदे कारण सनेटन या है। प्रश्चनसार संस्कृत टीकामें तात्विक दृष्टिको लक्ष्य कर यह लिखा है । "द्रव्यकमंका कौन कर्ता है ? स्वयं पुद्गलका परिणमन-विशेष हो। इसलिए पुद्गल ही द्रव्यकोका कर्ता है, आत्मपरिणामरूप मायकर्मोका नहीं । अतः आत्मा अपने अपने स्वरूपसे परिणमन करता है । पुद्गल स्वरूपसे नहीं करता।" कोका आत्माके साथ सम्बन्ध होनेसे जो अवस्था उत्पन्न होती है, उसे बन्ध कहते है ! इस बन्ध पर्यायमें जीव और पुद्गलकी एक ऐसी नवीन अवस्था उत्पन्न हो जाती है जो न तो शुव-जीवमें पाई जाती है और न शुद्ध-पुद्गलमें १. "यथा माजनविशेष प्रक्षिप्तानां विविधरसबोजपुष्पफलानां मदिरामावन परिणामः, तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थितनां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो येदितव्यः ।"--त० स०, ५० २१४ । २. "जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्र प्रपद्य पुनरन्थे । स्वयमेव परिणमन्तेश्य पुद्गलाः कर्मभावेन ।" -१० मिद्ध्यु पाय १२ । ३. 'अथ द्रव्यकर्मणः कः कर्तेति चेत् ? पुद्गलपरिणामो हि तावत् स्वयं पुद्गल एव । ततस्तस्य परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य टूथ्यकर्मण एव कर्ता; न त्वात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मणः । तप्त आत्मा आत्मस्वपेण परिणमति, न पुदगलस्वरूपण परिषमति ।" १० १७२ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त १५७ ही । जीव और पदगल अपने-अपने गुणों कुद पन होकर एक सीन अवस्थाका निर्माण करते हैं। राग, द्वेष मुक्त आल्मा पद्गलपुरजको अपनी ओर आकर्षित करता है । जैसे, चुम्बक लोहा आदि पदार्थोको आकर्षित करता है। जैसे फोटोग्राफर चित्र खींचते समय अपने कैमरेको व्यवस्थित ढंगसे रखता है और उस समय उस कमरेके समीप आने वाले पदार्थको आकृति लेन्सके माध्यमसे प्लेटपर अंकित हो जाती है, उसी प्रकार राग, द्वेष रूपी कांचके माध्यमसे पुद्गलपुञ्ज आत्मामें एक विशेष विकृति उत्पन्न कर देते हैं, जो पुनः आगामी रागादि भावोंको उत्पन्न करता है 'स्वगुणपतिः बन्यः'-अपने गुणोंमें परिवर्तन होनेको बन्ध कहा है । हल्दी और चूने के संयोनसे जो लालिमा उत्पन्न होती है वह पोत हल्दी और श्वत चूने के संयोगका कार्य हैं, उनमें यह पृथक्-पृथक् बात नहीं है । किसीने कहा है "हरदीने जरदी तजी, चूना तज्यो सफेद । दोऊ मिल एकहि भये, रमी न काहू भेद ॥" अब आत्मा कर्मोका बन्य करता है, तब शब्दको दृष्टिसे ऐसा विदित होता है कि आरमाने कर्मोको ही बांधा है, कर्मोने आत्माको नहीं । किन्तु, वास्तवमें बात ऐसी नहीं है। जिस प्रकार आत्मा कोको बांधता है, उसी प्रकार कर्म भी जीव (आत्मा) को बांधत हैं। एक दुसरेको पराधी किया है। पंचाध्यायोमें कहा है "जीवः कर्मनिबद्धो हि जीवबद्ध हि कर्म तत् ?' (१०४) इस कर्मबन्धके अन्तस्तलपर भगवषिजनसेनाचार्य बड़े मुन्दर शरुदोंमें प्रकाश डालते हैं "संकल्पवशगो मूढः वस्त्विष्टानिष्टतां नयेत् । रागद्वेषौ ततः ताभ्यां बन्धं दुर्मोचमश्नुते ।।"-महापुराण २४॥२१ "यह अज्ञानी जीव इष्ट अनिष्ट संकल्प द्वारा वस्तुमें प्रिय-अप्रिय कल्पना करता है जिससे राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। इस राग-द्वेपसे दृढ़ वर्मका बन्धन होता है ।" आत्माके कम-जाल बुननेकी प्रक्रियापर प्रकाश डालते हुए महर्षि कम्दकाद पंचास्तिकाय में कहते हैं "जो पुण संसारत्थो जोबो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कर्म कम्मादो होदि गदिसुगदी ।। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो य दोसो वा ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ बेनशासन जायदि जोवस्सेवं भावो संसारचक्कवालम्मि । इति जिणवरेहि भणिदो अणादिणिधणो सणिधणो वा॥" ___-१२८-१३० । "जो संसारी जीव है वह राग, द्वेष आदि भाखोंको उत्पन्न करता है, जिनमें कर्म आते हैं और कर्मोंसे मनुष्प, १ कादि गतियों को पति होनि है । गती में जानेपर शरीरको प्राप्ति होती है। शरीरसे इन्द्रियां उत्पन्न होती है । इन्द्रियों शाग विषयों का ग्रहण होता है जिससे राग और द्वेष होते हैं। इस प्रकारका भाव संमारचक्रमें भ्रमण करते हुए जीवके मन्ततिको अपेक्षा अनादि-अनन्त और पर्यायको दृष्टिसे सान्त भी होती है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है।" इस विवेचनसे यह स्पष्ट होता है कि यह कम-चक्र रागद्वेषके निमित्तसे सतत चलता रहता है और जब तक राग, द्वेष, मोहके वेगमें न्यूनता न होगी तब तक यह चक्र अबाधित गतिसे चलता रहेगा 1 राग-द्वेषके बिना जीवकी क्रियाएं जन्धनका कारण नहीं होती । इस विषयको कुन्दकुन्द स्वामी समयप्रामृत में समझाते हुए लिखते हैं कि-' कोई व्यक्ति अपने शरीरको तलसे लिप्तकर पूलिपूर्ण स्थानमें जाकर शस्त्र-संचालन रूप व्यायाम करता है और तार, केला, बांस आदिके वृक्षोंका छेदन-भेदन भी करता है। उस समय धूलि उहकर उसके शरीरमें चिपट जाती है। यथार्थ में देखा जाय तो उस व्यक्तिका शस्त्र संचालन शरीरमें धूलि चिपकनेका कारण नहीं है। वास्तविक कारण तो तलका लेप है, जिससे धूलिका सम्बन्ध होता है। यदि ऐसा न हो, तो कही व्यक्ति जब बिना तल लगाये पूर्वोक्त शस्त्र संचालन कार्य करता है-तब उस समय वह धूलि शरीरमें क्यों नहीं लिप्त होती ? इसी प्रकार राग-द्वेषरूपी तलसे लिप्त आत्मामें कम-रज आकर चिपकती है और आत्माको इतना मलीन बना पराधीन कर देतो है कि अनन्तशक्तिसम्पन्न आत्मा कीतदासके समान कर्मो के इशारेपर नाचा करता है। इस कर्मका और आत्माका कबसे सम्बन्ध है ? यह प्रश्न उत्पन्न होता है। इसके उत्तरमें मायार्य कहते है कि- कर्मसन्तति-परम्पराको अपेक्षा ग्रह सम्बन्ध अनादिसे है। जिस प्रकार खानिसे निकाला गया सुवर्ण किट्टकालिमादिविकृतिसम्पन्न पाया जाता है, पश्चात् अग्नि तथा रासायनिक द्रव्योक निमित्तसे विकृति दूर होकर शुद्ध सुवर्णको उपलब्धि होती है, उसी प्रकार अनादिसे यह आत्मा कर्मोकी विकृतिसे मलीन हो भिन्न-भिन्न योनियोंमें पर्यटन करता फिरता है । तपश्चर्या, आत्म-श्रद्धा, आत्म-बोधके द्वारा मलिनताका नाश होनेपर यही आत्मा १. समयसार गा० २४२-२४६ । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त परमात्मा बन जाता है। जो जीव आत्म-साधनाके मार्गमें नहीं पलता, वह प्रगति-हीन जीव सदा दुःखोंका भार उठाया करता है । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धासचक्रपाने कितना सुन्दर उदाहरण देकर इस विषयको समझाया है-- "जह भारबहो परिसो वहइ भरं गेहिऊण कावडियं । एमेव वहद जीवो कम्मभरं कायकावडियं ॥२०१॥" -गोम्मटसार-ओवकाण्ड । __ जिस प्रकार एक बोना होनेवाला व्यक्ति कांबड़को लेकर बोझा ढोता है, उसी प्रकार यह संसारी जीव शरीररूपी कौवड़ द्वारा कर्मभारको होता है। यह कर्मबन्धन पर्यायको दृष्टि से अनादि नहीं है । तत्त्वार्थसूत्रकारने "अनादि सम्बन्धे ” (२०४१) सूत्र द्वारा यह बता दिया है कि कर्म-सन्ततिकी अपेक्षा अनादि सम्बन्ध होते हुए भी पर्यायको दृष्टिसे वह सादि सम्बन्धवाला है । बीज और वायके सम्बन्धपर दृष्टि डालें तो परम्पराको दृष्टिसे उनका कार्यकारणभाव खनादि होगा । जैसे अपने सामने लगे हुए नीमके वृक्षका कारण हम उसके कोज- . को कहेंगे । यदि हमारी दृष्टि अपने नोमके माह तक ही सीमित है तो हम उसे बीजसे उत्पन्न कह सादिसम्बन्ध सूचित करेंगे। किन्तु इस वृक्ष के उत्पादक बीजके जनक अन्य वृक्ष और उसके कारण अन्य बीज मादिकी परम्परापर दृष्टि राले तो इस अपेक्षासे इस सम्बन्ध को अनादि मानना होगा। किन्हीं दानिकोंको यह भ्रम हो गया है कि जो अनादि है, उसे अनन्त होना ही चाहिये। वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है अनादि वस्तु अनन्त हो, न भी हो, यदि विरोधी कारण आ जावे तो अनादिकालीन सम्बन्ध की भी बड़ उखाड़ी जा सकती है। तस्वार्थसारमें लिखा है "दग्धे बोजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः ॥" -श्लोक ७, पृ० ५८ । जैसे बीजके जल जानेपर पुनः नवीन वृक्ष में निमित्त बनने वाला अंकुर नहीं उत्पन्न होता, उसी प्रकार कर्मदीजके भस्म होनेपर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता। आत्मा और कर्मका अनादि सम्बन्ध मानना तर्कसिद्ध है । यदि सादिसम्बन्ध मानें तो अनेक आपत्तियां उपस्थित होंगी। इस विषयमें निम्न प्रकारका विधार करना उचित होता है । आस्मा फर्मोके अघोन है, इसीलिये कोई दरिद्र और कोई श्रीमान् पाया जाता है । पंचाम्यायोमें कहा है"एको दरिद्र एको हि श्रीमानिति च कर्मणः" उत्त० श्लो०५०। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जेनशासन संसारी बात्मा ककि मधीन है, यह प्रत्यक्ष अनुभवमें आता है। फिर भी सकप्रेमियोंको विधानन्दि स्वामी आप्तपरीक्षामें इस प्रकार युक्ति द्वारा समनाते हैं—"संसारी जीय बंधा हुआ है क्योंकि यह परतंत्र है। जैसे सालान-स्तम्भमें प्राप्त हाथो परतंत्र होनेके कारण बंधा हुआ है। यह जीव परतंत्र है क्योंकि इसने होन स्थानको ग्रहण किया है। जैसे काम वेगसे पराधीन कोई थोत्रिय ब्राह्मण वेश्याके घरको स्वीकार करता है। निस हीन स्थानको इस जीवने ग्रहण किया है, यह शरीर है। उसे ग्रहण करनेवाला संसारी जीव प्रसिद्ध है। यह शरीर होन स्थान कैसे कहा गया ? शरीर हीन स्थान है, क्योंकि वह आत्माके लिए दुःखका कारण है। जैसे किसो व्यक्तिको जॅझ दुःखका कारण होनेसे यह जेलको होन स्थान समझता है।" विधानम्दि स्वामीका भाव यह है कि इस पीड़ाप्रद 'मलबीजं मलयोनिम्' शरीरको धारण करनेवाला जोब कर्मोके अधोन नहीं तो क्या है ? मौन समर्थ ज्ञानवान व्यक्ति इस सप्त धातुमय निन्द्य शरीरमें बन्दी बनना पसंद करता है। यह तो कर्मोंका आतंक है कि जीवकी यह अवस्था हो गई है, जिसे नौलतरामजी अपने पदमें इस मधुरताके साथ गाते है-- "अपनी सुध भूल आप, आप दुख उपायो । ज्यों शुक नभ चाल बिसरि, नलिनी लटकायो । चेतन अविरुद्ध शुद्ध दरश बोध भय विसुद्ध । तज, जड़ रस फरस रूप पुद्गल अपनायो ।। चाह-दाह दाहै, त्यागे न ताहि चाहै । समता-सुधा न गाहै, जिन निकट जो बतायो ।।" जब यह जीय कर्मोंके अधीन सिद्ध हो चुका तब उसकी पराधीनता या तो अनादि होगी जैसा कि ऊपर बताया गया है अथवा उसे सादि मानना होगा। मनादि पक्षको न माननेवाले देखें कि सादि मानना कितनी विकट समस्या उपस्थित कर देता है । कर्म-बंधनको सादि माननेका स्पष्ट भाव यह है कि पहिले बारमा कर्मबन्धनसे पूर्णतया शून्य था, उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति आदि गुण पूर्णतया विकसित थे। वह निजानन्द रसमें लीन था । ऐसा आत्मा किस प्रकार और क्यों कर्म-बन्धनको स्वीकार कर अपनी दुर्गतिके लिये स्वयं अपनी चिता रचनेका प्रयत्न करेगा ? आत्मा मोही, अज्ञानी, अविवेकी और असमर्थ होता तो बात दूसरी पी । यहाँ तो शुद्धात्माको अशुद्ध बनने के लिए कौनसी विकारो शक्ति प्रेरणा कर सकती है ? शुद्ध सुवर्ण पुनः किट्टकालिमाको १. आप्तपरीक्षा, प. १। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त जैसे अंगीकार नहीं करता, अथवा जैसे छिलका निकाला गया चावल पुनः धान रूप अशुद्ध स्थितिको प्राप्त नहीं करता, उसी प्रकार परिशुद्ध-बात्मा अत्यन्त धुणित शरीरको धारण करनेका कदापि विचार नहीं करेगा। इस प्रकार शुद्ध आत्माको अशुद बनना जब असम्भव है, तब गत्यन्तराभावात् अनादिसे उसे कर्मबंधन युक्त स्वीकार करना होगा, कारण यह बन्धनको अवस्था हमारे अनुभवगोधर है। कर्मोके विपाकसे यह आत्मा विविध प्रकारको वेष धारणकर विश्वके रंगमंच पर आ हास्य, शोक, शृंगार आदि रसमय खेल दिखाता फिरता है पर जब कमो भूले-भटके जिनन्द-मुद्राको धारणकर शान्त-रसका अभिनय करने आता है तो आस्माकी अनन्तनिघि अर्पण करत हाए कर्म इसके पाससे विदा हो जाते है। जिस कर्मन आस्माको पराधीन किया है वह सांख्यको प्रकृति के समान अमतिक नहीं है । कर्मका फल मुर्तिमान पदार्थके सम्बन्धसे अनुभबमें जाता है, इसलिये वह मूर्तिक है। यह स्वीकार करना तर्फ-संगत है। जैसे चहेके काटनेसे शरीरमें उत्पन्न हुआ शोश्र आदि विकार देख उस विषको मूर्तिमान स्वीकार करते है, जो ४ पुष्प, मति, अनि सेवा : सर्प, सिंह, विष बादिके निमित्तसे दुखरूप कर्म-फलका अनुभव करता है। इसलिये यह कर्म अनुमान द्वारा मूर्तिमान सिद्ध होता हैं। जब कर्म-पुञ्ज (Karinic molecules) स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णयुक्त होनेके कारण पोद्गलिक है और आत्मा उपर्युक्त गुणोंसे अन्य चतन्य ज्योतिमय है, तब ममूर्ति आत्माका मूर्तिमान कर्मोंसे कैसे बन्ध होता है ? मूर्तिक-मूतिकका बन्ध तो उचित है, अमूर्तिकका मूर्तिमानसे बन्छ होमा मानना आश्चर्य-प्रद है ? इस शंकाका समाधान करते हुए आचार्य मकलंकदेव तत्त्वार्थ राजवातिक (पु. ८१ अ० २ सूत्र ७) में लिखते हैं,-''अनादिकालीन कर्मको बन्ध परम्परा के कारण पराधीन आत्माके अमूर्तिकल्वके सम्बन्धमें एकान्त महीं है। बन्ध पर्याय के प्रति एकत्व होनेसे आत्मा कञ्चित् मूर्तिक है और अपने ज्ञामादिक लक्षणका परित्याग न करनेके कारण काव्यत् अमूर्तिक भी है । मद, मोह तथा भ्रमको उत्पन्न करने वालो मदिराको पीकर मनुष्य काष्ठकी भांति निश्चल स्मृति-शून्य हो जाता है तथा कर्मेन्द्रियों के मदिराके द्वारा अभिभूत होने से जोवके सानादि लक्षणका प्रकाश नहीं होता । इसलिये आस्माको मूतिमान निश्चय करना पड़ता है।" १ "अनादि कर्मबन्धसन्तानपरतन्त्रस्यात्मनः अमूर्ति प्रत्यनेकान्तः । बन्धपर्याय प्रत्यकत्वात् स्थानमूतं तथापि ज्ञानादिस्वलक्षणापरित्यागात स्पादमूर्तिः ।.... मदमोह-विनमकरी सुरां पोस्वा नष्टस्मृतिर्जनः काष्ठवदपरिस्पन्द उपलभ्यते, तथ कर्मेन्द्रियाभिभवादारमा नाविभूतस्वलक्षणो मूर्त इति निश्चीयते ।" ११ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ર जैनशासन यदि ऐसा है तो कर्मोदय-मद्यके आवेशसे वशीकृत आत्माका अस्तित्व कैसे जात होगा? यह कोई दोष नहीं है । कारण, कर्मोदयादिके आदेश होने पर भी बात्माके निज लक्षणको उपलब्धि होती है । आचार्य नेमिनन सिद्धगत-चश्वर्तीका कथन है "5च गंगा को फास किया तो णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो॥" -द्रव्यसंग्रह जीवमें वर्ण ५, रस ५, गन्ध २ और स्पर्श ८-ये २० गुण तात्विक दृष्टिसे नहीं पाये जाते इसलिये उसे अमूर्तिक कहते हैं। व्यवहार नगसे (From practical stand-point) बन्धको अपेक्षा उसे मूर्तिक कहा है। प्रवचनसारमें स्वामी कुम्बकुन्वने इस विषयमें एक बड़ी मार्मिक बात लिखी है "स्वादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि। दब्वाणि गुणे य जघा तह बंघो तेण जाणीहि ॥"-२०२८ । जैसे स्पादिरहित आत्मा रूपी ब्रयों और उनके गुणोंको जानता है, देखता है अर्थात् रूपी तथा अरूपोका झाताशेष सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार रूपादिरहित जीव भी रूपी कर्म-पुद्गलोंसे बाँधा जाता है। यदि यह न माना जाए तो अमूर्त आत्मा द्वारा मूर्त पदार्थोका जानना, देखना भी नहीं बनेगा। अब जीव और कर्मका सम्बन्ध प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है और सादि सम्बन्ध आगम, तर्क तथा अनुभवसे बाधित है, तब अनादिसम्बनम स्वीकार करना न्यायसंगत होगा । वस्तुका स्वभाव तकके परे रहता है। जैसे, अग्निको उष्णता सकका विषय नहीं है। अग्नि क्यों उष्ण है, इस शंकाके उत्तरमें यही कहना होगा-'भावोऽतकंगोचरः' जो इसे न मानें उन्हें पञ्चाध्यायोकार स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा अनुभव करनेको सलाह देते हुए सुझाते हैं-"नो चेत् स्पर्शन स्पृश्यताम् । जीर और कर्मका सम्बम्घ अनादि है और यदि आत्माने कर्मका उच्छेद करने के लिये साधना-पथमें प्रवृत्ति न की तो किन्हीं-किन्हींका वह कर्म बन्धन सान्त न हो अनम्त रहेगा। अनन्त-अनादिके विषय में जिन्हें एक झलक लेनी हो ये महाकवि बनारसोबासजीके निम्नलिखित चित्रणको ध्यान से देखें और उसके प्रकाशमें अनादि सम्बन्धको भी कल्पना द्वारा जाननेका प्रयत्न करें ___ "अनन्तता कहा ताको विद्यार-- अनंतताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखाइयतु है, जैसें वट वृक्षको बीज एक हाथ विषे लीजे, ताको विचार दीर्घ दृष्टि सों की तो वा वढ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त १६३ I के बीज विषे एक वटको वृक्ष है, सो वृक्ष जैसो कछु भाविकाल होनहार है तैसा विस्तार लिये विद्यमान वामैं वास्तव रूप छतो है, अनेक शाखा प्रशाखा पत्र पुष्प फल संयुक्त है, फल फल विषे अनेक बीज होंहि । या भौतिक अवस्था एक वटके बोज दिषै विचारिये । और भी सुक्ष्म दृष्टि दीजं तो जे जे वा वट वृक्ष विषे बोज है ते ते अन्तर्गभित वट वृक्ष संयुक्त होहि । याही भाँति एक चट विषै अनेक अनेक बीज, एक एक बीज विषे एक एक वट, ताको विचार कीजे तो भाविनय प्रधान करि न वटवृक्षन का मर्यादा पाइए न बीजनि की मर्यादा पाइए। याही भाँति अनन्ततातकी स्वरूप जाननी । ता अनंतता के स्वरूपको केवलज्ञानी पुरुष भो अनन्त ही देखें जागे कहे-अनन्तका और अंत है हीं नाहीं जो ज्ञान विषे भासे । तातें अनन्तता अनंत ही रूप प्रतिभासं या भाँति आगम अध्यातमकी अनंतता जाननी ।" स्वामी प्रकाश डालते है- ₹ बनारसीविलास, पृ० २१९ । विषयमें "कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः । तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः ॥" कामादिकी उत्पत्ति रूप जो विविधतामय भाव संसार है, वह अपने-अपने कर्मबन्धनके अनुसार होता है। वह कर्म रागादि कारणोंसे उत्पन्न होता है । वे जीव शुद्धता और मशुद्धता से समन्वित होते हैं । इस विषय में टीकाकार आचार्य विद्यानग्दि अष्टसहस्री में लिखते है कि"अज्ञान, मोह, अहंकार रूप जो भाव संसार है, वह एक स्वभाववाले ईश्वरको कृति नहीं है; क्योंकि उसके कार्य सुख-दुःखादिमें विचित्रता पाई जाती है। जिस वस्तु कार्यमें विचित्रता पाई जाती है वह एक स्वभाववाले कारणसे उत्पन्न नहीं होती । जैसे धान्यांकुरादि अनेक विचित्र कार्य अनेक शालिबीजादिसे उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार सुखदुःखादि विचित्र कार्यमय यह संसार है । वह एक स्वभाववाले ईश्वरकी कृति नहीं हो सकता । कारणके एक होनेपर कार्य में विविषता नहीं पाई जाती। एक घान्य बीजसे एक ही प्रकारके घान्य अंकुरको उत्पत्ति होगी। जब इस प्रकार नियम है तब काल, क्षेत्र स्वभाव, अवस्थाकी अपेक्षा भिन्न शरीर, इन्द्रिय यदि रूप जगत्का कर्त्ता एक स्वभाववाले ईश्वरको मानना महान् आश्वर्यप्रद है । "" १. देखो, पू० २६८ से २७३ पर्यन्त अष्टसहस्री | Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनभासन यहां एक स्वभाववाले ईश्वरको कृति, यह विविधतामय जगत् नहीं बन सकता, इतनी बात तो स्पष्ट हो जाती है। किन्तु, मह कर्म विविधतामय आन्तरिक जगतका किस प्रकार कार्य करता है, यह बात विचारणीय है। कारण, कोई व्यक्ति अम्घा है, कोई लंगड़ा; कोई मूर्ख है, कोई बुद्धिमान; कोई भिखारी है, कोई घनधान् ; कोई दासार है, कोई कंजम ; कोई उन्मत्त है, कोई प्रबुद्ध : कोई दुर्बल है तो कोई शक्तिशाली । इन विभिन्न विविषताओंका समन्वय कर्मसिद्धान्तके द्वारा किस प्रकार होता है ? कुनकुन्द स्वामो इस विषयका समाधान करते हुए लिखते हैं कि जिस प्रकार पुरुषके द्वारा खाया गया भोजन जठराग्निके निमित्तसे मांस, घरबी, रुघिर आदि रूप परिणमनको प्राप्त होता है, उसी प्रकार यह जीव अपने भावोंके द्वारा जिस कर्मपुञ्जको-कार्माण वर्गणाओंको प्रहण करता है ल नका, इसके तीव्र, मन्द, मध्यम कषायके अनुसार विविध रूप परिणमन होता है। पूज्यपाव स्वामी भो इस सम्बन्धमें भोजनका उदाहरण देते हुए समझाते है कि जिस प्रकार जठराग्निके अनुरूप आहारका विविध रूप परिणमन होता है, उसी प्रकार तीव, मन्द, मायके मनुके बजाय स्थितिय विशेषता आती है । इस उदाहरणके द्वारा प्राकृत विषयका भलीभांति स्पष्टीकरण होता है कि निमित विशेषसे पदार्थ कितना विचित्र और विविध परिणमन दिखाता है । हम भोजनमें अनेक प्रकारके पदार्थों को ग्रहण करते है । वह वस्तु इस्लेष्माशयको प्राप्त करती है, ऐसा कहा गया है । पश्चात् द्रव रूप धारण करती है, अनन्सर पित्ताशयमें पहुंचकर अम्लरूप होती है। बादमें वाताशयको प्राप्त कर वायुके द्वारा विभक्त हो खल भाग व्या रस भाग रूप परिणत होती है। स्खल भाग मलमूत्रादि रूप हो जाता है और रस भाग रक्त, मांस, घरबी, मज्जा, बीर्य रूप परिणत होता है। यह परिणमन प्रत्येक जीवमें भिन्न-भिन्न रूपमें पाया जाता है। स्थूल रूपसे तो रक्त, मांस, मज्जा आदिमें भिन्नता मालूम नहीं होतो किन्तु सूक्ष्मतया विचार करनेपर विदित होगा कि प्रत्येकके रक्त आदिमें व्यक्ति की जठराग्निके अनुसार भिन्नता पाई जाती है। भोज्य वस्तु समान काणिवर्गगा इस जीवके भावोंकी तरतमताके अनुसार विचित्र रूप धारण करती है । इस कर्मका एक विमाग झानावरण कहलाता है, जिसके उदय होनेपर १. "नह पुरिसेणाहारो पहिलो. परिणमइ सो अणेयनिह । मंसवसारुहिरादिभाये उयरगिसंजुत्तो ॥"...समयप्राभूत १७१ । २. "जठरान्मनुरूपाहारग्रहणवत्तोत्रमन्दमध्यमकषायानुरूपस्थित्यनुभवविशेषप्रति पत्त्यर्थम् ।" -स. सि०७॥२ । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त आत्माफी ज्ञानज्योति बैंक जाती है और कभी न्यून, कभी अधिक हया करती है। इस कर्मकी तरतमताके अनुसार कोई जीव अत्यन्त मुर्ख होता है तो कोई चमत्कारपूर्ण विद्याका अधिपति बनता है । कमसे कम ज्ञान-शक्ति दबकर एकेन्द्रिय जीवोंमें अक्षरके अनन्त भागपनको प्राप्त होती है और इस सानायरानी हांकनेवाले कर्मके दूर होनेपर आत्मा सर्वज्ञताकी ज्योतिरो अलंकृत होता है। जगत् बोद्धिक विभिन्नताका कारण यह मानावरण कर्म है। आत्माको दर्शनशक्तिपर आवरण करने वाला दर्शनावरण कर्म है। इस जीवको स्वाभाविक निर्मल आत्मीय आनन्दसे वंचित कर अनुकूल अथवा प्रतिकूल पदार्थो में इन्द्रियों के द्वारा सुख-दुःखका अनुभव करानेवाला वेदनीय कर्म है। मदिराको पानवाला व्यक्ति ज्ञानवान होते हुए भी उन्मत्त बन उस्पषगामी होता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्मरूप मद्य के ग्रहण करनके कारण अपनी आत्माको भूल पुद्गल तस्वमें अपनी आत्माका दर्शन कर अपनैको समझनेका प्रयत्न नहीं करता । यह मोहकर्म कर्माका राजा कहा जाता है। दृष्टिमें मोहका अमर होनेपर यह जीव विपरीत दृष्टिवाला बन शारीरको आत्मरूप और आत्माको शरोररूप मानकर दुखी होता है। इस मोहके फन्देम फैसा हया अभामा जीव अपने भविष्यका कुछ भी ध्यान न रस इन्द्रियोंके आदेशानुसार प्रवृत्ति करता है। कभी-कभी यह दोखतरामजीके शब्दोंम 'सुरतरु जार कनक बोवत है' और बनारसवासबोकी उद्घोषक वाणीमें यह "कायासे विचारि प्रीति माया हीमें हार जोति, लिये हठ-रीति जैसे हारिलकी लकरी। र्चुगुलके जोर जैसे गोह गहि रहे भूमि, त्यों हो पाय गाडे पे न छांडे टेक पकरी ॥ मोहको मरोर सों भरमको न ठोर पावे, धावै चहूँ ओर ज्यों बढ़ावै जाल मकरी। ऐसी दुरबुद्धि भूलि झूठके झरोखे झुलि, फुली फिर ममता जजीरन सों जकरी ॥३७॥" -नाटक समयसार, सर्वविशुविद्वार। घडीमें मर्यादित कालके लिए चाभी भरी रहती है। मर्यादा पूर्ण होनेपर घडोकी गति बन्द हो जाती है। इसी भांति आयु नामके कर्म द्वारा इस जीवको मनुष्य, पशु-पक्षी आदि मोनियोंमें नियत काल पर्यन्त अवस्थिति होती है। काल-मर्यादापूर्ण होनेपर जीव क्षण भर भी उस शरीरमें नहीं रहता । इस आयु Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनशासन कर्मके कारण ही यह जीव जन्म-मरणका खेल खेला करता है। इस रहस्यको न जानकर लोग जीयनको ईश्वरकी दया और मृत्यको परमात्माकी इच्छा कह दिया करते है। किन्तु परमात्माके साथ जगत् भरके प्राणियोंक जीवन तथा मरणका अकारण सम्बन्ध जोड़ना उस सच्चिदानन्दको संकटोंके सिन्धुमें समा देने जैसी बात होगी। मथार्थमें यह आयु कर्म है जिसके अनुसार यह जीवनको पड़ी जब तक चाभी भरी रहती है चलती है। विष, वेदना, भय, शस्त्रप्रहार, संक्लेश आदिके कारण यह घड़ी पहिले भी बिगड़ सकती है । इमौका परिणाम अकालमरण कहलाता है । इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व में निर्धारित पूर्ण आयुको भोगे बिना कारण-विशेषसे अस्पकालमें प्राणोंका विसर्जन कर देना अकाल-मरण है। अकाल-मरण द्वारा आयुमें कमी तो हो जाती है पर प्रयत्न करनेपर भी पूर्व निश्चित आयुमें वृद्धि नहीं होती । इसका कारण घडीकी चाभीसे ही स्पष्ट झात किया जा सकता है। इस मायुके प्रहारको कोई भी नहीं बचा सकता । आस्मदर्शन, आत्म-बोध और आत्म-निमग्नता इम रत्नत्रय मागंसे हो आत्मा मृत्यु के चक्रसे बच सकता है। अन्यथा प्रत्येकको इसके आगे मस्तक झुकाना पड़ता है । विश्वकी सारी शक्ति और सम्पूर्ण शक्तिशालियोंकः सहयोग भी क्षण-भरके लिए निश्चित जीवनमें वृद्धि नहीं कर सकता। प्रबुद्ध कवि कितनी मार्मिक बात "सुर असुर खगाधिप जेते । मृग ज्यों हरि काल दलते । मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई । मरतें न बचावै कोई ।।" -दौलतराम-छहढाला। जिस प्रकार चित्रकार अपनी तूलिका और विविध रंगोंके योगसे सुन्दर अथवा भीषण आदि चित्रोंको बनाया करता है, उसी प्रकार नामकर्म-रूपी चितेरा इस जीवको भले-बुरे, दुबले-पतले, मोटे-ताजे, लूले-लेगड़े, कुबडे, सुन्दर अघवा सड़े गले शरीरमें स्थान दिया करता है । इस जीवको अगणित आकृतियों और विविध प्रकारके शरीरोंका निर्माण नामकर्मको कृति है । विश्वकी विचित्रतामें नाम-कमरूपी वितरेकी कला अभिव्यक्त होती है। शुभ नाम-कर्मके प्रभावसे मनोज्ञ और सातिशय अनुपम शरीरका लाभ होता है । अशुभ नाम-कर्म के कारण निन्दनीय बसुहावनी शारीरिक सामग्री उपलब्ध होती है । जो लोग जगत्का निर्माता किसी विधाता या स्रष्टाको बताते है, यथार्थमें वह इस नामकर्मक सिवाय और कोई दूसरी वस्तु नहीं हैं। भाचार्य भगवजिनसेमने 'इस नाम कर्मको ही वास्तविक ब्रह्मा, स्रष्टा लयवा यिघाता कहा है ।" एकेन्द्रियसे लेकर १. "विधिः स्रष्टा विधाता व दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरस्वेति पर्यापा विशेयाः कर्मवेधसः ।।"-महापुराण ३७।४। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त १६७ पंचेन्द्रिय पर्यन्त चौरासी लाख योनियों में जो जीवोंकी अनन्स आकृतियाँ है। उसका निर्माता यह नाम-कर्म है । इस नाम-कर्म के द्वारा बनाए गए छोटेसे-छोटे और बहेमे-बड़े शरीर में यह जीव अपने प्रदेशोंको संकुचित अथवा विस्तृत कर रह जाता है। शरीरके बाहर प्रात्मा नहीं रहता। और न शरीरके एक अंश मात्रमें ही जीव रहता है। आपार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने लिखा है "अणुगुरु-देहपमाणो उपसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्चयणयदो असंखदेसो वा ॥१०॥" -द्रव्यसंग्रह "जीव व्यवहार से अपने प्रदेशोंके संकोच अथवा विस्तारके कारण छोटे, बड़े शरीर, समुद्घात अवस्थाको छोड़कर, होता है। निश्चय नयसे मह जीव असंख्यातप्रदगी है।" शंकराचार्य कहते है कि-शरीर प्रमाण आत्माको माननेपर शरीरके समान आत्मा अविवाशी नहीं होगा और उसे विनाशशील मानने पर परम-मुक्ति नहीं मिलेगी। उनकी धारणा है कि मध्यमपरिमाणवाली वस्तु अनित्य ही होती है । नित्य होने के लिए उसे या तो आकाश के समान व्यापक होना चाहिये अथवा मणुके समान एक प्रदेशी होना चाहिए। यह कथन कल्पनामात्र है । क्योंकि यह तर्ककी कसौटीपर नहीं टिकता । अणु परिमाण और महत परिमाणका नित्यताके साथ अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है और न मध्यम परिमाणका अनित्यताके साथ कोई सम्बन्ध है । इसके सिवाय एकान्त नित्य अथवा अनित्य वस्तुका सद्भाव भी नहीं पाया जाता । वस्तु द्रव्यदृष्टिसे नित्य और पर्याय दृष्टिसे अनित्य है । यह बात हम पिछले अध्यायमें स्याद्वादका विवेचन करते हुए स्पष्ट कर चुके हैं। प्राचार्य मतमोर्यने प्रमेयरत्नमालामें आस्माको शरीरप्रमाण सिद्ध किया है। क्योंकि, आत्माके ज्ञान, दर्शन, मुख, वीर्य लक्षण गुणों को सर्वागमें उपलम्बि होती है।' ___सर राधाकृष्णन्ने शंकराचार्यको पूर्वोक्त दृष्टिका उल्लेख करते हुए कहा है कि-"इन माक्षेपोंका जैन लोग उदाहरण देकर समाधान करते है। जैसे-बड़े के भीतर रखा गया क्षेपक घटाकाशको प्रकाशित करता है और बड़े कमरेमें रखे जानेपर नही दीपक पूरे कमरेको भी प्रकाशित करता है । इसी भांति, भिन्न १. "सदसाधारणगुणा ज्ञानदर्शन सुखवीर्यलक्षणास्ते च सर्वांगीणास्तत्रैछ घोपलभ्यन्ते ।" -पृ. १८२ । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैनशासन भिन्न शरीरों के विस्तारके अनुसार जीव संकोच और विस्तार किया करता है।" यह विषय तन्वार्थसूत्रके निम्नलिखित सूत्रसे सरलतापूर्वक स्पष्ट हो जाता है"प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रवीपवत्" (५११६) ___ जिस प्रकार कुम्भकार मृतिका आदिको छोटे बड़े घट आदिके रूपमें परिणत कर दिया करता है उसी प्रकार छोटे बड़े भेदोंसे विमुक्त इस जीवको गोत्र-कर्म कभी तो उच्च कुलमें जन्म धारण कराता है, कभी हीनसंस्कार, दूषित आचारविचार एचं हीन परम्परावाले कुलों में उत्पन्न कराता है। सदाचारके आधारपर उच्चता और कुलीनता अथवा अकुलीनता और नीचताके व्यवहारका कारण उच्च-नीच गोत्र कर्मका उदय है। आज वर्णनावस्था सम्बन्धी उच्चता-नीचता पौराणिकोंकी मान्यता मानी जाती है। किन्तु जैन-शामगर्ने उसे गोत्र कर्मका कार्य बताया है । पवित्र कार्योंके करने से तथा निरभिमान वृत्तिके द्वारा यह जीव उच्च संस्कारसम्पन्न वंशपरम्पराको प्राप्त करता है। शिक्षा, वस्त्र, वेष-भूषा आदिके आधारपर संस्कार तथा चरित्र-हीन नीच व्यक्ति शरीरपरिवर्तन हार बिना उच्च गोत्रवाले नहीं बन सकते, क्योंकि उच्च गोत्रके उदयके लिए उच्च संस्कारपरम्परामें उत्पन्न शरीरको नोकर्म माना है। जीब बहुत कुछ सोचता है। बड़े-बड़े कार्य करनेके मनसूबे भी बांधता है । अनुकूल साधन भी है। फिर भी वह अपनो मनोभावनाको पूर्ण नहीं कर पाता । क्योंकि अन्तराम नामका कर्म दान, लाभ आदिमें दिन्न उपस्थित कर देता है । दातारने किसी व्यक्तिको दीन अवस्था देख्न दयासे द्रवित हो अपने भण्डारीको दान देनेका आदेश दे दिमा; फिर भी, मण्डारी कोई-न-कोई विघ्न उपस्थित कर देता है, जिससे दाता के दानमें और याचकके लाभमे विघ्न आ जाता है। इस अन्तराय कर्मका कार्य सदा बने-बनाये म्लेलको बिगाड़, रंगमें भंग कर देने का {"According to Sankara the hypothesis of the soul having the same size as its body is untenable far from its being limited by the body it would follow that the soul like the body is also inpermanent and if impermanent it would have no final release. The Jains answer these objections by citing analogjes. As a lamp whether placed in a small pot or a large room illumines the whole space, even so does the Jiva contract and expand according to the dinensions of the different wadies," ___-Indian Philosophy. p. 311, Sir Radhakrishnan. २, गो० के० गा० ८४ । + - - . Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त १६९ रहा करता है। हर एक प्रकारके वैभव और विभूतिके मध्यमें रहते हुए भी यदि भोगान्तराव, उपभोगान्तरायका उदय हो जाए तो 'पानी में भी मौन पिपासी'जैसी विचित्र स्थिति शारीरिक अवस्था आदिके कारण उत्पन्न हो सकती है । इन आठ कर्मोमं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तरायको वातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये आत्माके गुणों का घातकर जीवको पंगु बनाया करते हैं । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रको अघातिया कहते हैं क्योंकि ये आत्माके गुणोंको क्षति नहीं पहुंचाते। हाँ अपने स्वामी मोहनीयके नेतृत्वमें ये जीवको परतन्त्र बना सच्चिदानन्दकी प्राप्तिमें वाधक अवश्य बनते हैं । इन कम ज्ञान, दर्शन आदि आत्मगुणोंके घात करनेकी प्रकृतिस्वभाव प्राप्त होनेको प्रकृति कहते है । कमोंके फलदानको कालमर्यादाको स्थितिबन्ध कहा है। कार्माण वर्गणाओंके पुंज ज्ञानावरण वादि रूप विविध कर्म-शक्तिके परमाणुओंका पृथक्-पृथक् विभाजन प्रदेशबन्द है । और, गृहीत कर्म-पुञ्जमें फल-शन शक्ति-विपाक प्राप्ति को कहते है । इन फर्मो अनन्त भेद है । स्थूल रूपसे १४८ भेदोंका जिन्हें कर्म प्रकृति कहते हैं, वर्णन किया जाता है । इस रचना में स्थान न होनेसे इसके विशेष भेदोंका वर्णन करनेमें हम असमर्थ है। विशेष funreast गोम्मटसार कर्मकाण्ड शास्त्रका अभ्यास करनेका अनुशेष है । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तसोने कर्मोकी बन्ध उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशम, सत्त्व, निघत्ति और निकालना रूप दस अवस्थाएँ बताई है । मन, वचन, कायको चंचलतासे कर्मोंका आकर्षण होता है । श्वात् वे आत्मा के साथ बंध जाते है। इसके अनन्तर अपनी अनुकूल सामग्रीके उपस्थित होनेपर वं कर्म अपना फलदान-रूप कार्य करते हैं, इसे उदय कहते हैं । कर्मोक सद्भावको सत्त्व कहा है । आत्मनिर्मलता के द्वारा कमको उपशान्त करना उपशम है। भावोंके द्वारा कर्मोकी स्थिति, रसदान शक्ति में वृद्धि करना उत्कर्षण और उसम होनता करना अपकर्षण है । सपवचर्या अथवा अन्य साधनों से अपनी मर्यादाके पहिले ही कर्मोको उदयावलीमें लाकर उनका क्षय करना उदोरणा है । कर्मोकी प्रकृतियोंका एक उपभेदसे अन्य उपभेद रूप परिवर्तन करनेको संक्रमण कहते है । उदीरणा और संक्रमण रहित अवस्थाको निवत्ति कहते हैं । जिसमें उदीरणा, संक्रमणके सिवाय उत्कर्षण और अपकर्षण भी न हो, ऐसी अवस्थाको निकाचना कहते है । इससे यह बात विदित होती है कि जीवके भावोंमें निर्मलता अथवा मलिनताकी तरतमता के अनुसार कमोंके बन्ध आदिम होनाधिकता हो जाती है । विलम्बसे १. गोम्मटसार गाथा, ४३६-४४० । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जनशासन उदयमें आनेवाले और अधिक काल तक रस देनयाले कर्मोको असमय में भी उदयमें लाया जा सकता है । कभी-कभी योगबलके आपत् होनेपर,कर्मोको राशि, जो सागरों-अपरिमित कालपर्यन्त अपना फल चखाती, वह ४८ मिनिट-२ घड़ीके भीतर ही नष्ट की जा सकती है। अन्य सम्प्रदायोंकी कर्मके विषय में यह धारणा है-'नाभुक्स सीयते कर्म'-विना फल भोगे कर्मका क्षय नहीं होता ।' पर जैनशासनमें सर्वत्र इस बातका समर्थन नहीं किया जा सकता 1 निकाचना और निघस्ति अवस्थाको प्राप्त कर कर्म अवश्य अपने समयपर फल देंगे। किन्तु अन्य कर्म असमयमें भी अल्प फल देकर अथवा बिना फल दिमे भी निकल जाते हैं। यदि ऐसी प्रक्रिया न होती, तो अनन्तकालसे आत्मापर लदे हुए कर्मोके ऋणसे जीवकी भक्ति कैसे हो सकती घो? जीवमें अवर्णनीय शक्ति है । यदि वह रत्नक वनको सम्हालले, सो करको दर होत रमलगे । कर्म अपना फल देकर आत्मा पृथक हो जाते हैं। क्रम-क्रमसे कौका पृथक् होना 'निर्जरा' कहलाता है ! समस्त कर्मोंके पथक होनेको 'मोक्ष' कहते हैं । आत्मासे कमि सम्बन्धविच्छेद होनेको हो कर्मों का नाश कहते है । यथार्थमें पुद्गलका क्या, किसी भी द्रव्यका सर्वथा नाश नहीं होता। पुदगलकी कर्मत्व पर्यायके शवको कर्म-क्षय कहते हैं। स्वामी समन्तभदने लिखा है कि असतका जन्म और सत्का विनाश नहीं होता । दीपकके बुझनेपर दीपकका नाश नहीं होता, जो पुद्गलकी पर्याय प्रकाश रूप थी, वही अन्धकार रूप हो जाती है। इसी प्रकार पुद्गल में कर्मत्व शक्तिका न रहना 'कर्म सय' कहा जाता है । जोकि सत्का अत्यन्त विनास असम्भव है । कोके बन्धके कारणोंका उल्लेख करते हुए सस्थार्षमूत्रकार कहते हैं--- "मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः।"-८॥ सत्य स्वरूप अनेकान्त दृष्टिका परित्याग कर एकान्त दृष्टिमें संलग्न होना मिथ्यादर्शन है। अध्यात्म शास्त्रमें, शरीर आदिमें बात्माकी भ्रान्तिको मिथ्यादर्शन कहा है । मिथ्यादर्शन सहित आत्मा बहिरात्मा कहलाता है । समाविशतको लिखा है.. "बहिरात्मा शरीरादो जातात्मभ्रान्तिरान्तरः । चित्तदोषामविभ्रान्तिः परमात्मातिनिर्मल: ।। १. "नासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुदगलभावतोऽस्ति ।।" -यू. स्वयम्भू २४ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त १७१ शरीरादिकमें आत्माकी भ्रान्ति घारण करनेवाला बहिरात्मा है। मन, दोष और आत्माकै विषयमें भ्रान्तिरहित अन्तरात्मा है । कर्ममलरहित परमारमा है। आत्म-विकासके परिज्ञान निमित्त मापदण्डके लपमें तीर्थंकरोंने जीवको चौदह अवस्थाएं, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं, बतलाई है । बहिरात्मा विकामविहीन है, इसलिए उसकी प्रथम अवस्था मानकर उसे मिष्यात्वगुणस्थान बताया है । तत्वज्ञानकी जागति होनेपर जब वह अन्तरात्मा बनता है तब उसे चतुर्थ आत्मविकासको अवस्थावाला-अविरत सम्बदुष्टि कहते हैं। उस अवस्थामै वह आरम-शक्तिके वैमय और कर्मजालकी हानिपूर्ण स्थितिको पूर्ण रीतिसे समझ तो जाता है, किन्तु उसमें इतना अत्मिबल नहीं है कि वह अपने विश्वासके अनुमार साधना पत्रमें प्रवृत्ति कर सके। यह इन्द्रिय और मनपर अंकुश नहीं लगा पाता; इसलिए उसकी मनोवृत्ति असंयत अविरत होती है। धीरे-धीरे बल-सम्पादन कर वह संकल्पी हिसाका परित्याग कर कमसे कम हिंसा करते हुए संयमका यथाशक्ति अभ्यास प्रारम्भ कर एकदेश-आंशिक संघमी अथवा तो धावक नामक पंचम गुणस्थानवर्ती बनता है और जब वह हिमादि पापोंका पूर्ण परित्याग करता है तब उस महापुरुषको आत्म-विकासकी छठवीं कक्षावाला दिगम्बर-मुनिका पद प्राप्त होता है । वह साधक जब कषायोंको मन्दकर अप्रमत्त होता है तब प्रमाद रहित होने के कारण अप्रमत्त मामक सातवीं अवस्था प्राप्त होती है । इसी प्रकार क्रोधादि शत्रुओंका क्षय करते हुए बह आठवी, नवमी, दसवी, बारहवीं अवस्थाको (पशम करनेवाला ग्यारहवीं श्रेणीको) प्राप्त करते हुए तेरहवें मुणस्थानमें पहुँच कंवली, सर्वज्ञ, परमात्मा आदि शब्दोंसे संकोतित किया जाता है । यह आत्मा चार घातिया कर्मोका नाश करने से विशेष समर्थ हो अरिहन्त कहा जाता है । आत्म-विकासको छठवीसे बारहवीं कक्षा तकके व्यक्तिको साघु कहते है। उनमें जो तत्त्व-ज्ञानको शिक्षा देते हैं, उन्हें उपाध्याय कहते हैं। जिनके समीप तपस्वी लोग आत्मसाधनाके विषयमें शिक्षादीक्षा प्राप्त करत हैं, और जिनका अनुशासन प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते है, उन सत्पुरुषको माधाय पहते है। आचार्यका पद बड़ा उच्च और पवित्र है। अध्यात्मके विश्व विद्यालयमें जितेन्द्रिय ताकी प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण कर स्वरूपोपलब्धिके प्रमाणपत्रको पानेवाले पुण्यशाली पुरुषोत्तमको आचार्यका पद मिलता है। ऐसे ही आचार्य धर्मतत्त्वका प्रतिपादन करनेके लिए उपर्युक्त माने कवल्यको उपलब्धिके अनन्तर आत्माके प्रदेशोंकी स्पन्दन-रहित अवस्थाको Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जनशासन आत्मविकासको चौदहवीं अयोगकेवली नामकी प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। वहाँ शेष कोका क्षयकर आत्माकी परिशुद्ध अवस्था मिलती है । उन्हें सिद्ध परमात्मा कहते हैं । वे संसार-परिभ्रमणके प्रपंचने सदाके लिए मुक्त हो जाते हैं । वे सिद्ध परमात्मा महाकवि पनारसोवासजीके अन्दाम इस प्रकार थपित किए "अविनाशी अविकारं परमरसधाम हो । समाधान सरवज्ञ सहज अभिराम हो । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त हो । जगत सिरोमनि सिद्ध सदा जयवंत हो।" नाटक समयसार ४ । "ध्यान अगनि कर कम कलंक सबै दहे। नित्य निरंजन देव "स्वरूपी' हं रहै ।। ज्ञायवके आकार ममत्व निवारि के। सो परमातम 'सिद्ध' नमू सिर नायके ।।" -सिद्ध पूजासे । अरिहन्त भगवान विश्व-कल्याण निमिस अपनी अनेकान्समयी वाणीके द्वारा उपदेश देते हुए मनुष्य, पशु-पक्षी, देव आदि सभी प्राणियोंको परितृप्त करते हैं। संसार-समुद्र में डूबते हुए जोवोंको मन्तरणका मार्ग बताने के कारण उन्हें तीर्थकर कहा करते है। ऐसे ही महा महिमाशाली लोकोसर आत्माको लोक-भाषामें अबतार पुरुष कहते है 1 जैनधर्ममें भगवदाताके अवतारबादका समर्थन नहीं है । गीताकार बताते है कि, अब धर्मके प्रति ग्लानि उत्पन्न होती है और अधर्मको अभिवृद्धि होती है उस समय परमात्मा आकर उत्पन्न होते हैं। धर्म-संस्थापन और पापके विनाशार्थ कृष्ण कहते हैं कि मैं प्रत्येक युगमें पुनः पुनः उत्पन्न होता हूँ। जनशासन परमात्माको सांसारिक जीवन धारण करने की बातको असंभव जानता है। राग, द्वेष, मोह आदि विकारोंसे अतीत वह परमात्मा क्यों आकर नीची अवस्थामें पहुँच मोहजालको रचता फिरेगा। आचार्य रविषेगने १. "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||६|| परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि यगे युगे ॥७॥" गीता अ० ४ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम सिद्धान्त १७३ लिखा है कि 'जब जगत्में अनर्थ और पापका प्रवाह प्रचुर परिमाणमें बहने लगता है तब मानव-समाजमसे हो कोई विशिष्ट व्यक्ति अपनी बास्माको विकसित कर तथा समुन्नत बनाकर तीर्थकर परमात्मा बनता है और विश्वहितप्रद उपदेश दे प्राणियोंका उद्धार करता है।" अवतारवादमें परमात्माको साधारण मानवके घरानलघर लखारा जाता है, जब कि जैनदृष्टिमें साधारण मनुष्यको विकसित कर प्रबुद्ध महामानवके पदपर प्रतिष्ठित करा उस पुण्य मूर्ति के द्वारा सार्वधर्मकी देशना बताई गई है। इस प्रसंगमें यह भी बता देना उचित जंचता है कि साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरिहन्त और सिद्ध इन पंच परमेष्ठो नामसे पूज्य माने जानेवाले आत्माओंमें रत्नत्रयधर्म के विकासको होनाषिकताको अपेक्षा भिन्नता स्वीकार को जातो है । वीतरागताका विकाम जिन-जिन आत्माओंमें जितना जितना होता जाता है, उसनी-उतनी आत्मामें पूज्यताकी वृद्धि होती जाती है। परिग्रहका त्याग किये बिना पूजनताका प्रादुर्भाव नहीं होता 1 इस वीतराग दृष्टिके कारण ही जिनेन्द्र भगवान्को शान्त ज्यानमग्न मूर्तियोंमें अस्त्र-शस्त्र, आभूषण आदिका अमाव पाते हैं । इस सम्बन्धमें कविवर भूषरदासजी कहते हैं "जो कुदेव छवि-होन वसन भूषण अभलाई । देरी सों भयभीत होय सो आयुध राखें ।। तुम सुन्दर सर्वांग, सत्र समरथ नहि कोई। भूषण, वसन, गदादि-ग्रहण काहे को होई ।। १९ ।" -एकीभावस्तोत्र । इस प्रकार वस्त्राभूषण आदिरहित सर्वांग सुन्दर मिनेन्द्र मसियोंमें कोई अन्तर नहीं मालूम होता । और, यथार्थमे देखा जाय तो कर्मोका माशकर, जो मात्मत्वका निर्माण होता है उसमें व्यक्तिगत नामघाम आदि उपाधियां दूर हो जाती हैं। उनकी आराधनामें केवल सनके असाधारण गुणोंपर ही दृष्टि जाती है । देखि प, एक मंगल पद्य में जैनाचार्य क्या कहते है "मोक्षमार्गस्य नेतारं मेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ।।" यहाँ किसी व्यक्ति विशेषका नामोल्लेखकर प्रणामाञ्जलि अर्पित नहीं की गई है । किन्तु, यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि जो भी आत्मा मुक्तिमार्गका नेता १. "आचाराणां विधातेन कुटुष्टीनां च सम्पदा । धर्मग्लानिपरिप्राप्तमुच्यन्ते जिनोत्तमाः ॥" -पापुराण २०६, सर्ग ५। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जेनशासन है, कर्म-पर्वतका विनाश करनेवाला है और सम्पुर्ण विश्व-तत्त्वोंका जाता है, लस मैं प्रणाम करता हूँ। पूजनका यथार्थ ध्येय कोई लौकिक आकांक्षाकी तृप्ति नहीं है । साधक परमात्मपदसे कोई छोटी वस्तुको स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है; अतएव वह स्पष्ट भाषाम-'वन्दे तद्गुणलाधये'-उन गुणोंको प्राप्ति के लिये मैं प्रणाम करता हूँ-कहकर अपनी गुणोपासनाकी दुष्टिको प्रकट करता है। अग्हिन्त, सिद्ध आदिकी बन्दनामें भी यह गुणोपासनाका भाव विद्यमान है। मो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं ।" आदि मंत्र पढ़ते समय जैन दृष्टि स्पष्टतया प्रकट होती है। कारण इसमें किसी व्यक्तिका दल्लेख न कर वोतराग-विज्ञामतासे अलंकृत जो भी आत्मा हो, उन्हें प्रणाम किया है। महाकवि धनम्जपने लिखा है भगवान्, जो आपको स्तुति करते हुए आप अमुकके पिसा अथवा अमुकके पुत्र हो यह कहनर अपकी महत्ताको बताते हैं और आपके कुलको कीर्तिमान् कहते हैं, वास्तवमें वे आपकी महत्ताको नहीं जानते । नाटक समयसारमें कहा है-- "जिन पद नाहि शरीर को, जिन पद चेतन माहि ॥ २८ ॥" कर्मबन्धनमें मुख्यता आत्माकी कषाय परिणतिको रहा करती है। मलिन परिणामोंसे जीव पाप-कर्मका सञ्चय अधिक करता है और विशुद्ध परिणामोंसे वह पुण्य कर्मका अर्जन करता है । किन्हीं लोगोंने बन्धनका कारण अज्ञान बताया और मुक्तिका कारण ज्ञानको माना है किन्तु, यह कथन आपत्तिपूर्ण है। मोहरहित अल्प भी ज्ञान कर्मबन्धका छेदन करने में समर्थ हो जाता है। परमात्मप्रकाशमें योनीन्द्रदेव लिखते हैं "वोरा बेग्गपरा थोवं पि हु सिक्विऊण सिझति । पण हि सिझंति विरग्गेण विणा पढिदेसु वि सव्यसत्थेसु॥" वैराग्यसम्पन्न वीर पुरुष अल्पज्ञानके द्वारा भी सिद्ध पदको प्राप्त करते है और सर्वशास्त्रोंका ज्ञाता वैरायके बिना मुक्ति लाभ नहीं करता । भावपाहुडमें कुन्दकुन्द स्वामीने लिखा है कि शिवभूति नामक अल्पज्ञानी--- जिस प्रकार दाल और छिलके जुदे-जुदे हैं. इसी प्रकार मेरा आत्मा भी कमसि भिन्न है इस प्रकारचे विशुद्ध भावसे-महाप्रभावशाली हो फेवली भगवान् हो गये। स्वामी कहते है "तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य । णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ ॥५३॥" Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त १७५ इस विषयको स्पष्ट करनेवाली प्रबोचपूर्ण कथा पट्लाभत टीकाम अतसागर सरिने इस भांति बताई है कि-एक शिवभूति नामक परम विरागी अल्पज्ञानी सत्पुरुषने गुरुदेवके समीप महाव्रतको दीक्षा ली। उन्हें शरीर और आत्मामें भिन्नताका अनुभव तो होता था, किन्तु इस विषयको सुदृढ़ करने के लिये गुरुले सिखाया--"तुषात् भाषो भिन्न इति पषा तथा शरीरात् आरमा मिन्न इति।" एक समय शिवभूति इन शब्दोंको भूल गये । अर्थ जानते हुए भी शब्द नहीं जानते थे। एक समय उन्होंने एक स्त्रीको दाल बनाने के लिये पानीमें उड़दोंको डाल छिलकोंको पृथक् करते हुए देख पूछा-"कि कुवषे भवति इति ?-तुम यह क्या कर रही हो ? सा प्राह-'तुषमावान् भिन्नान् करोमि'-'मैं दाल और छिलकोंको पृथक करतो हूँ । इतना सुनते ही शिवभूतिने कहा-'मया प्राप्तम्' मुझे तो मिल गया। इसके अनन्तर एक चित्त हो ध्यान मग्न हो गये और 'अन्समुहूर्तन कवलनान प्राप्य मोक्षं गतः' अन्तर्मुहर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गए ।' स्वामी समतिम समय युसर मारामको राष्ट्र करते हुए लिखते है-यदि अज्ञानसे नियमतः बन्ध माना जाए, तो ज्ञेय अनन्त होनेसे कोई भी केवली नहीं होगा। कदाचित् अल्प-ज्ञानसे मोक्ष मान भी लें तो बहुत अशानसे बन्ध हुए बिना न रहेगा ।" ऐसी स्थितिम समन्वयकारी मार्ग प्रदर्शित करते हुए आचार्यश्री लिखते है--मोहयुक्त अज्ञानसे बन्ध होता है, मोहरहित अज्ञान बन्धका कारण नहीं है। मोहरहित अल्पज्ञानसे मुक्ति प्राप्त होती है और मोहयुक्त ज्ञानसे मुक्ति नहीं मिलती। इस विवेचनसे कोई यह मिथ्या अर्थ न निकाले वि जैन-शासनम उच्च-ज्ञानको अनावश्यक एवं अग्राह्य बताया है । महान शास्त्रोंके परिशीलनसे राग, द्वेष आदि विकार मन्द होते हैं, मनोवृत्सि स्फोत हो जीवन-ज्योतिको विशेष निर्मल बनाती है। स्वामी समन्तभद्रने उच्च मान सम्बन्धी एकान्त दृष्टिको दुर्बलताको स्पष्ट किया है, अन्यथा अभीषणशानोपयोग नामकी भावना द्वारा तीर्थकर प्रकृतिक बन्धका जिनागम में वर्णन न किया जाता । बन्धतत्त्वके स्वरूपको हृदयंगम करनेके लिये यह जानना आवश्यक है कि मनोवत्तिके अधीन बन्ध, अबन्धकी व्यवस्था १. षट्प्राभूत टीका १० २०११ २. "अज्ञानाञ्चेद् वो बन्धो यानन्त्यान्न केवली । ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद् बहुतोऽन्यथा ॥" -आप्तमीमांसा ९६ । ३. "अज्ञानान्मोहिनो बन्धो न ज्ञानाद् वोतमोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ॥९॥" Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनशासन है | ज्ञान और वैराग्यसम्पन्न व्यक्ति संसारके भोगों में तम्मय और आसक्त नहीं बनता है । राग, द्वेष, मोह आदिकी भयंकर लहरोंसे व्याप्त इस संसारसिन्धु में सुज्ञ साधक निमग्न न हो तोरस्य बनाकर विपतियोंसे बचता है । कारण— "सीरस्थाः खलु जीवन्ति न तु रामान्धिगाहिनः । " बाह्य प्रवृत्तिमें कोई विशेष अन्तर न होते हुए भी वीतरागभाव विशिष्ट ज्ञानी और अज्ञानीमें मनोवृत्तिकृत महान् अन्तर है । इसलिये भोग, विषयादिके मध्य में रहते भी निर्मोही ज्ञानी कविके शब्दोंमें 'करत मन्थको छटाछटोसी ।' उदाहरण के लिये बिल्लोको देखिये। अपने मुहमें वह चूहेको दलाती है, उस मनोवृत्ति में और जब वह उसी मुंहमें बच्चेको दबाती है, कितना अन्तर है । बच्चेको पकड़ने में क्रूरता नहीं है, चूहेको पकड़ने में महान् करता है । इस प्रकार ज्ञानी और अज्ञानीकी भिन्न-भिन्न मनोवृत्ति के अनुसार कर्मपन्न अन्तर पड़ता है । मनोभावों को समझाने के लिए जैन सिद्धान्तमें एक सुन्दर रूपक बताया गया है। उसका वर्णन 'Statesman' कलकत्ता में भ्रमणबेलगोलाके जैनमटका उल्लेख करते हुए छपा था । उस वर्णनम जैनमठकी दीवालपर अंकित चित्रका इस प्रकार स्वष्टीकरण किया गया है "The most interesting of these depicts is six men standing by a mango tree. They have hearts of various hues, corresponding to their respect for life. The black-hearted man tries to fall the tree, the indigo, grey and red hearted are respectively content with big boughs, small branches and tiny springs, the pink-hearted man merely plucks a single mango, but the man with the white heart of perfe ction waits in patience for the fruit to drop." इन चित्रोंमें सबसे अधिक मनोरञ्जक वह चित्र है जिसमें एक आमके वृक्षके नीचे छह व्यक्ति खड़े हुए अंकित हूँ। उनके अन्तःकरण में जीवन के प्रति जिस प्रकारका भाव है तदनुसार उनके अन्तःकरण के विविध वर्ण बताये गये है । कृष्ण अन्तःकरणबाला वृक्षको जड़मूलसे उखाड़नेके काप और पीत मनोवृत्तिवाले क्रमशः बड़ी डाल, छोटी ढाल और लघु उपशाखा सन्तुष्ट है। पद्म मनोवृत्ति वाला केवल एक ही आम तोड़कर तृप्त है । प्रयत्न में लगा है। नोल, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसिद्धान्त १७७ किन्तु शुक्ल अन्तः कर्णवाला पूर्णमानव शान्तिपूर्वक गिरनेवाले फलकी प्रतीक्षा करता है ।" जैन शास्त्रों उपर्युक्त व्यक्तियोंके मनोभावों को 'लेश्या' नामसे वर्णित किया है । क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कपायोंसे अनुरञ्जित मन, वचन, कायको प्रवृत्तिको लेया कहते हैं। जिस व्यक्तिको शुक्ल मनोवृत्ति होगो उसे आचार्य नेमिचन्द्र' 'पक्षपातरहित, आगामी भोगोंको इच्छा न करनेवाला, सर्व जीवोंपर समान दृष्टि, राग-द्व ेष तथा स्त्री-पुत्रादिमें स्नेहरहितपरणति सम्पन्न बताते हैं । उपर्युक्त वृक्षके उदाहरण में उस शान्त और सन्तुष्ट व्यक्तिका भाव बताया है कि वह वृक्षको तनिक भी पीडा दिना पहुँचाये गिरनेवाले आमकी प्रतीक्षा है | उसकी कितनी उच्च मनोवृत्ति है। ऐसे साधुचेतस्क व्यक्ति गृहस्थ होते हुए भी सबके द्वारा आदरपात्र होते हैं । उस व्यक्तिकी तृष्णा, स्वार्थपरता और दुष्टताको भी कोई सोमा है, जो अपनी मर्यादित आवश्यकताको पूर्ति के सिवाय दूसरे महतोंकी आवश्यकताओंको सर्वाके लिये संहार करनेपर उतारू हो वृक्षको जड़मूलसे उखाड़ना चाहता है। गोम्मटसार में ऐसे मनोवृत्तिवालेके विल इस प्रकार बताए है। वह अत्यन्त जय स्वभावयुक्त जोवन भर वैरको न भूलने वाला, निन्दनीय भाषणकर्त्ता, करुणा-धर्म आदि से होन, दुष्ट और किसीके न होनेवाला कहा गया है । समश्र न इन दोनों मनोवृत्तियोंके मध्यवर्ती जीवोंका वर्णन उक्त चित्रके द्वारा हो जाता है । मिवनीक विशाल जैन मन्दिर में वर्णित चित्रके सुन्दर भावको देख दो आगन्तुक हाईकोर्ट जजोंने मनोभावों को व्यक्त करनेकी प्रवीणताको हृदयले सराहना की थी । मनोभावोंका सूक्ष्मता से सफल सजीव चित्रण करने में जनशास्त्रकार बहुत सफल हुए हैं । और यह सफलता यांत्रिक आविष्कारोंकी अपेक्षा अधिक कठिन और महत्त्वपूर्ण है। अपने राजयोगमें बी विवेकानन्य लिखते हैं- "बहिर्जगत्की क्रियाओंका अध्ययन करना अधिक मासान है, क्योंकि उसके लिए बहुत यंत्रोंका आविष्कार हो चुका है, पर अन्तःप्रकृति के लिए हमें किन यन्त्रोंसे सहायता मिल सकती है ?" १. "ण य कुणइ पखवायं ण वि य शिक्षाणं समोय सवसि । पत्थिय राय दोसा होविय सुरूच लेस्सस्स ॥५१६॥" - गो० जी० । २. " चंखाण मुचइ शेरं मंडनसीलो य धम्मदयरहिओ | दुट्ठो ण य एदि वसं लवणमेयं तु किन्हस्स || १०८ || " गो० जी० । १२ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ इस कर्म-गालसे छूटने के लिये आत्म-दर्शनके माथ विषयोंके प्रति निम्पहता पूर्वक संयन ओवन व्यतीत करना आवश्यक है। इस फर्म-मिशाम्त में यह बात स्पष्ट होती कि वास्तव इस प्रोवका (शुभ-अदाभ कर्म के सिवाय) कोई अन्य न तो हित करता है और न अहित । मिथ्यात्व कर्मके अधीन होकर भर्म-मार्गका न्याग करनेवाला देवता भी मरकर एकेन्द्रिय वृक्ष होता है । धर्माचरणाहित पक्रवर्ती भी सम्पनि न पाफर नरकमें गिरता है । इसलिये अपने उत्तरदायित्वको सोचतं हए कि इस जीवनको भाग्य स्व-उपार्जित कोंके अधीन है, धर्माचरण करना चाहिये। स्वामिमातिय मुनिराजने उपर्युक्त सत्यको इस प्रकार प्रकाणित किया है "ण य को वि देदि लच्छी ण पो वि जीवस्स कुणइ उवयारं । उवयार अवयारं कर्म पि महासह कुणदि ॥३१९।। देवो वि धम्मघत्तो मिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि । चक्की वि धम्मरहिओ णिवहइ गरए ण सम्पदे होदि ॥४३३।। -स्वामिकातिफेयानप्रेक्षा । आत्मजागतिके साधन-तीर्थस्थल सम्पूर्ण विश्वमे जो वातावरण है, वह प्रायः राग, द्वेष, मोहपूर्ण भावोंको प्रेरणा दिया करता है । पापि समर्प साधक विरोधी वातावरणमें विशेष आत्मबलके कारण, बास्मसाधनाफे क्षेत्र में अबाधित गतिसे पता चला जाता है । किन्तु मध्यम वृत्तिवाला मुमुक्षु योग्य प्रम्य, क्षेत्र, काल, मानरूप अनुकूल वातावरणके बिना अपने चित्तकी निर्भलता स्थिर रखनमें बड़ी कठिनताका अनुमव करता है । इसी दृष्टिसे पंडित माताबरणीने पार्मिक गृहस्पको अपनी साधनाफे अनुकूल गृह तथा जोवन-सहचरीका सम्बन्ध मिलानका मार्ग सुझाया है। वातावरणवा मनोपत्ति पर कम असर नहीं पड़ता। स्थल विशेष स्मृतिपटमके समक्ष मदियों पहले की घटनाओको उपस्थित कर देता है, जिससे जीवनमें कभीकभी ऐसी प्रेरणा मिलती है, जो बड़े-बड़े प्रन्यों, सन्तों, प्रवचनोंस भी नहीं मिलती। यदि कोई सहृदय बित्तोरगढ़ पहुंचे, तो राणा प्रतापका अप्रतिम Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल १७९ स्वातन्त्र्य-प्रेम, उत्कृष्ट देश भक्ति तथा त्यामका सजीव चित्र हृदय-पटल पर अंकित हुए बिना न रहेगा । जौहरबतके कारण पचिनी आदि हजारों वीरांगनाओं ने अपने हिलको अक्षुण्ण रखते हुए सती बनने का जो अभूतपूर्व त्याग किया है, वह कया भी स्परण-पथमें आकर पुरातन भारतकी पवित्र भावनाको जगाये बिना न रहगी । आजके राजनैतिक वातावरणसे प्रभावित व्यक्ति कदाचित् जालियाँवाला बागको देखने जाए, तो जनरल डायर क्रूर-कृत्य और पराधीन भारतीयोंकी बेबसीको स्मृति जागे बिना न रहेगी। इसी प्रकार आध्यात्मिक जागरण क्षेत्रमें साधक उन स्थलोका दर्शन करें और शान्तचित्त हो अपना कुछ समय बितावें, जहाँ तीर्थकर आदि महापुरुषोंने विश्वके वैभवका परित्याग कर साम्यभावकी प्राप्तिनिमित्त क्रोधादि रिपुओज संहार किया, तो उसको आत्मामें विशेष बल उत्पन्न होगा और वह पवित्रताके पथमें प्रगति करने के लिये पर्याप्त प्रेरणा प्राप्त करेगा। हमारा मस्तिष्क विभिन्न संस्मरणरूपो रेलवे लाइनोंके जंक्शन समान है । जिस ओरके रेल-पथपर स्मृत्तिके सहारे हमारे विचार-एजिनने अपनी गाड़ी खींचना आरम्भ किया, संस्मरण हमें उभी दिशामें बढ़ाते हुए ले जाते हैं । सिनेमाको राष्ट्र-भक्तिसे परिपूर्ण फिल्म देख दर्शकका हृदय देश-भक्ति भानोंसे परिव्याप्त होता है और किसी धार्मिक खेलको देख उसको आत्मा धार्मिकताके भावोंसे पूर्ण होगी । हमें बिहार प्रान्तमें गयाके पास नवादा स्टेशन के समीपवर्ती गुणावा नामक जैन-तीर्थ पर पहुँचनेका अवसर मिला। देनकी अनुकूलता न होने के कारण हमें अनिच्छापूर्वक भी कुछ समय वहाँ ठहराना पड़ा । पीछे यह भान हुआ कि वहां रुकना दुर्भाग्य नहीं, बड़े सौभाग्यको बात हुई। भगवान् महावीरके प्रमुख शिष्य तपस्वी-शिरोमणि इन्द्रभूति गौतम गणवरका उस भूमिसे संबंध था । उनके जीवनको दिव्य स्मृतिसे आत्माको बहुत प्रकाश और प्रेरणा प्राप्त हुई। मन-होमन में सोचने लगा, गौतम स्वामीका चरित्र बड़ा विचित्र है ! जो व्यक्ति कुछ समय पूर्व अन्य दर्शनोंका पारगामी पंडित हो महावोर-शासनका भयंकर विरोधी बन स्वयं भगवान्से शास्त्रार्थ में दिग्वजय पाने की नियत से प्रभुके समवशरणके समीप पहुँचा और भगवान्के योगबलसे प्रभावित मनोज्ञ मानस्तम्भकी विभूतिको देख मानरहित हुआ और प्रभुके समीप पहुंचते-पहुँचते उस एकान्तीको आत्मामें अनेकान्त-सूर्यको सुनहरी किरणोंने प्रवेशकर हृदयमें छिपे हुए मोह-मिथ्यात्पके निविड़ अन्धकारको दूर कर दिया, जिससे वह गौतम प्रभुका भक्त बन गया ! सम्पूर्ण परिग्रहका परित्याग कर दिगम्बरमुद्रा धारण को ! अनेक ऋद्धियां उत्पन्न हो गई ! मनःपर्यय नामक महान् ज्ञानका उदय हुआ और अल्पकालमें ही उस आत्माने इतनी प्रगति को, कि वह आत्मसाधकोंकी श्रेणी में प्रमुख अन श्रमण Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैनशासन संघका अधिपति-गणघर बना और भगवान महावीरकी वाणीको विश्वमे सुनानेका तथा अनेकान्तको पताका सर्वत्र फहरानेधा सौभाग्य प्राप्त कर सका । तथा, अन्त में पूर्ण साधना होने पर भगवान् महावीर के समान मुक्तात्मा हो गया । हमें प्रतीत हुआ, यदि व्यक्ति गौतमके ममा हृदयसे प्रयत्न करे तो आज भी आत्मविकास के लिये ज्यापक क्षेत्र विद्यमान हैं। आचार्य कुन्दकुन्द्र कहते हैरत्नत्रयसे शुरु हो यदि कोई जीव आत्मकल्याण कर तो आज भी वह व्यक्ति लौकान्तिक देव आदिके श्रेष्ठ पदोंको प्राप्त करते हुए, फिरसे श्रेष्ठ मानवके रूपमें जन्म धारण कर तप साधनाके प्रभावसे निर्वाणको प्राप्त करेगा। जैन-आगम से ज्ञात होता है कि समर्थ-साधक मरणकर निर्याणके योग्य विदेह सदमा भूमिमें जा जन्म लेकर ७ वर्ष ३ माह अन्तमहतम कंवलज्ञानके लोकातिशामी आत्मभवको प्राप्त कर सकता है । गुणाधा शत्रने ऐसे बहुत से विचारों द्वारा हमारी आत्माको प्रबुद्ध किया- शान्ति प्रदान की । वे विचार अन्य स्थान पर नहीं मिले । वहीं उन विचारों पोषणयोग्य सामग्री थी। वातावरण यह विचार उत्पन्न करता था कि यह वही स्थान है, जहाँ योगियोंके द्वारा भी वन्दनीय घरपोरकानी गोने सपनो ..] सुमधु.. - निर्वाण प्राप्त किया था। इस प्रकार तीर्थकरोंके जीवनसे सम्बन्धित पवित्र स्थानोंकी मात्रा पुण्यसंघर्धन में निमित्त शना करती है। सागारधर्मामृतमें पंडित बाशापरजी गृहस्थको तीर्थ वन्दना निमित्त प्रेरणा करते हुए लिखते है "स्थूललक्ष: क्रियास्तीर्थयात्राद्या दृग्विशुद्धये।" -२१४४ गृहस्थ अपने तत्त्वज्ञानको विशुद्धि निमित्त तीर्घयादि क्रियाओंको करे । यहाँ 'दग्विशुद्धय' शम्द द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि, तीर्थ बन्दना आत्मनिर्मलताके प्रघान अंग सम्यग्दर्शनको परिपुष्ट करती है । समाधि-मरण के लिये उधत सावक श्रावक अथवा साघुको ऐसे स्थानका आथय लेनेको कहा है कि जो जिनेन्द्र भगवान्के गर्भ, जन्म, तप, कैवल्य तथा निर्माण इन पाँच कल्याणकोंसे पवित्र हुए हों। यदि कदाचित् उसका लाभ न हो तो योग्य मन्दिर-मठ आदि का आश्रय ले। कदाचित् तीर्थयात्राके लिए प्रस्थान करनेपर मार्ग में ही मृत्यु हो जाय तो भी उस आत्माके महान कल्याणमें बाधा नहीं पाती । क्योंकि उसको भावना तीर्थवन्दना द्वारा आत्माको पवित्र करने की थी। देखिये, पं० शायर जी क्या लिखते है १. "अज्ज वि सिरयणसुद्धा अप्पा झाकण लहदि इंदत्तं । लोमंतियदेवतं तत्य मा णिचुदि जति ।।" - मोक्षप्राभत ॥७॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ आत्मजागृत्तिके साधन-तीर्थस्थल "प्रायों जिनजन्मादिस्थानं परमपावनम्। आश्रयेलो तु बोमाग दिना ॥ पस्थितो यदि तीर्थाय म्रियतेऽवान्तरे तदा । अस्त्येवाराधको यस्माद् भावना भवनाशिनी।३०॥" -सागार धर्मामत, अ०८ । टम प्रसंगमें भतहार का यह कथन 'शुधि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्' (२०५५)-यदि मन पवित्र हैं तो तार्थकी क्या आवश्यकता है ? विरोधी नहीं है। तीर्थ मानसिक पवित्रताका सामान है । तीथ वन्दना स्वयं साध्य नही । मानसिक निर्मलताका अंग है । जिनके पास वह दुर्लभ पवित्रता नहीं है, उनके लिये वह विशेष अवलम्बन रूप है । तीर्थवन्दना यदि भावोंको पवित्रताका रक्षण करते हुए न की गई तो उसे पर्यटन गिबाय वास्तविक नोर्थवन्दना नहीं कह सकते । जनता समक्ष तीर्थ नामसे ख्यात बद्तम स्थान है। उनमें सभी स्थल सम्यक्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र समन्वित महान् योगाश्यरोंकी साधना द्वारा पवित्र नहीं है । जो रागी, दंपी, गुरुओं के जीवन में माबद्ध हैं, वं कुतीर्थ कह जा सकते हैं। उनकी वन्दना मिथ्यात्वकी अभिवृद्धि करेगा । इसलिय श्रेष्ठ अहियकोंके जीवन से पवित्र तोर्चामें अपन जीवनको परिमाजित बनाना विवेकी माधकका कर्तव्य है। महान देव भगवान ऋषभवेधर्म कैलाश गवंतपर तपश्चर्या करके निर्वाण प्राप्त किया इसलिये सभी माधक उस कलामगिरिको प्रणाम करते हैं। उसे अष्टापद भी कहते है। बिहार प्रान्तक भागलपुर नगरका पुरासन कालमें चम्पापुर नाम था। वहाँस बारहवें तीर्थकर बाल ब्रह्मचारी मगवान् वासुपूज्यने निर्वाण प्राप्त किया था। मौराष्ट्र-गुजरातकी जूनागढ़ रियासतमें अवस्थित ऊर्जयन्त गिरिसे भगवान् नमिनाय प्रभुने मुक्ति प्राप्त की। इस गिरिको रैयतक पर्वत भी संस्कृत साहित्य में कहा गया है। हिन्दी में गिरनार पर्वत नाम प्रसिद्ध है। अतिशय उन्नत होनके कारण स्वामी समन्तभरने इसे 'मेघपटलपरिवोत्तट:' कहा है। और उसके आकार-विशेषको लक्ष्यमे रखते हुए 'भुवः कुबम्'-पृथ्वीरूपी वृषभका ककुद कहा है। घवला टीका १० ६७-१। इस पर्वतके समीपवर्ती नगरको 'गिरिणयर पट्टण' बताया है। पर्वतका नाम गिरिनगरसे गिरनार रूपमें कालक्रमसे परिवर्तित हुआ प्रतीत होता है। महाभारतके पुरुष धोकृष्णके चचेरे भाई भगवान नेमिनाथ बाईसा तीर्थकरकी तपश्चर्या और मुजिससे वह पर्वत पवित्र होने के कारण न केवल जनों द्वारा ही वन्दनीय है, बल्कि अन्य सम्प्रदायोंके द्वारा अपने हंगपर पूज्य बनाया जाकर तीर्य माना आने लगा है । प्रधानतया जैन संस्कृतिसे विशिष्ट सम्बन्ध होने के कारण यह अतिशय पवित्र जैन तीर्थ माना जाता है। जिन नेमिनाथ भगवान्की आत्म-जागरण, मायासे इस पर्वतका कण Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैनशासन कण पवित्र है, उन हरिवंशशिरोर्माण अरिष्टनेमि जिनेन्द्रका चरित्र, करुणा और विश्वमंत्रों की दृष्टि से अपना लोकोत्तर स्थान रखता है। नैमिनाथ भगवान विवाहका मंगल महोत्सव मनाने के लिए गौराष्ट्र देश समद्यत हो रहा था कि इतनेम विवाह के जुलसके समय वरराज नेमिनाथ भगवान्ने पशु ओंका कारण अन्दन सुना और दया कि मुग आदि पशु करुण स्वरसे दोन दृष्टि डालते हुए सदन कर रहे है। उस समय गणभवाचार्यके शब्दों में नेमिनाथने पशु-रक्षकोंसे पुछा___ "किमर्थमिदमेका निरुद्ध तणभुक्कुलम् ?" ____ -उत्तरपुराण १६२, पृ० ५०९ । किसलिए ये बेचारे तण भक्षण करनेवाले यहाँ अथमल किये गये है ?" उत्तरमें यह बताया गया कि "देवैतद्वासदेवेन त्वद्विवाहमहोत्रावे । व्ययोकतमिहानीतमित्यभाषत तेऽपि तम् ॥१६३||" १. नेमिनाय भगवान के विवाह और वैराग्यका जस्टिस जैनीने बड़ा आकर्षक वर्णन क्रिया है "He Neminatha) wisa prince bom of the Yadava clan at Dwarka and he renounced the world when about to be married to Princess Rajamati, daughter of the chief Ugr. ascha. When the marriage procession of Neminatha approached the bride's castle, he heard the bleating and moaning of animals in a caitle pen, Upxn inquiry he found that the animals were to be slaughtered for the guests, his own friends and party. Compassion surged up in the youthful breast of Neminatha and the torture which his marriage would cause to so many dumb creatures laid bare before him the mockery of human civilization and heartless selfishness, He flung away his princely ornaments and repaired at once to the forest The bride who had dedicated herself to him as a prince followed him also in his ascetic life and became a pun. He attained Nirvana at Mount Girnar in the small state of Junagadh in Kathiawadh and on the same lovely mountain is showri a grotto where the chaste Rajamati breathed her last, trot far from the feet of Newinatha." -Out-lines of Jainism p. XXXIV. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल १८३ देव, आपके विवाह महोत्सवमें वासुदेवको आजारों लोगोंके सल्का निमित्त ये यहाँ रखे गये हैं।" इस प्रकृतिको पुस्तक नमिनाथ के अन्तःकरणमें कमणाके सूर्यको उचित कर दिया। वे सोचने लगे, व देनार निदो प्राणी घारा चरते हैं और वनमें रहते हैं, इतनेपर भी अपन भोगनिमित्त लोग इन्ह इस प्रकार कष्ट देते हैं। अहो ! तीन मिथ्यात्वके वशीभुत हो मूर्ख जन निष्ठुर बन स्या नहीं करते। इसके साथ नेमिनाथ प्रभुने इस प्रकरणमे कृष्णकी गुप्त वृत्ति भी जान ली। संसार उन्हें क्षणभङ्गर और स्वार्थपूर्ण दीखने लगा। उन्होंने सोचा, अब तो राजीमती राजकन्याके माथ विवाह न कर मुक्तिश्रीका वरण करूंगा। शुष्क निर्दयतामे अन्तःकरणमें करुणाको घारा प्रवाहित करनके लिए सब वैभवका परित्याग कर उन्होंने ऊर्जयन्त गिरिपर दीक्षा ली और तपस्वियोंके शिरोमणि बने । उधर राजपली बननेवाली शीलवती देवी राजोमतीने भी जोवननाथ नेमिनायका पदानुसरण कर वापतोकीक्षा ली और साम्यो-जगत में श्रेष्ठपदको प्राप्त किया । इन पुण्य विभूतियोंन गिरिनार पर्वतको अपने त्याग और तपश्चर्या द्वारा पवित्र स्थान बना दिया । इतिहासको भाषामें गिरनार पर्वत जैन संस्कृति समाराधकोंका महान् स्थल आजस लगभग दो हजार वर्ष पूर्व तक भी रहा आया है। क्योंकि गिरनार पत्तनको चन्द्रगुफा में विद्यमान आचार्य धरसेनने प्रवचन वात्सल्य कारण भूतबलि और पुष्पदन्तको कर्मशास्त्रका अम्याम कराया था, जिस अबधारण कर उक्त मुनि-युगलने अत्यन्त पूज्य षट्खण्डागम शास्त्रकी रचना की । गिरिनार पर्वतके साथ नेमिनाथ भगवान्को परमकामणिक दृत्ति और त्यागका संस्मरण आये बिना नहीं रहता । गौतमबुद्धके हृदयमें करुणाका रस मूक पशुओंको देखकर नहीं उत्पन्न हुआ था कि जिसकी प्रेरणासे उन्होंने बुद्धत्वके लिए प्रयत्न प्रारम्भ किया । दौन प्राणियोंके व्यथित जीवनके प्रति सच्ची सहानुभूति दिखानेवाले रागके मु-मधुर चौराहेसे मुख मोड़ विरागताके शैलशिखरपर बढ़नेवाले भगवान् नेमिनाथ और उनकी सह-धर्मिणी बनने वाली सती राजीमतीजैसा आदर्श संसार में कहाँ मिलेगा? ऐसे आदर्शोका मौन भाषामें मधुर स्मरण करानेवाला यह कर्जयन्त गिरि क्यों न वन्दनीय होगा? इस गिरिराजस पुनीत सौराष्ट्र देश भी भक्त' चन्दावन कविके द्वारा इन शब्दोंमें वंदनीय कहा गया है-- "शोभत गढ़ गिरनार नेमिस्वामी निरवान थल ।। दो हानि सिरधार, वन्दों सोरठ देस मैं ।।"-छन्दशतक, ६८ ! भगवान् महावीरके जीवनका इतिहास और उनके त्यागकी अमर कहानी बिहार प्रान्तके पावापुर ग्राममें विश्वमान सरोवरस्थ पवल जिनमन्दिरमें मिलती १. घटसण्ठागम भाग १, पृ० ६७, ७० । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनशासन है । भगवान महावीरने ईसासे ५९९ वर्ष पूर्व कुण्डलपुरमें क्षत्रियशिरोमणि महाराज सिद्धार्थ के यहां माता त्रिशलाके उदरसे जन्म लिया था । व नायबंगके भूषण थे। रांसारके भोगों में उनका विवेकपूर्ण मन न लगा, अतः बालब्रह्मचारी रहकर चन्होंने ३० वर्षकी अवस्था निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्रा धारणकर. १२ वर्ष तपश्चर्या + : वर्षकी शाम कोलम किया और विश्व हितकर धर्मका उपदेश ३० वर्ष तक देकर ७२ वर्षको अवस्थामें परमनिर्वाण---मुक्ति प्राप्त की । प्रभुके चरित्रको विकृत करते हुए श्री शं० रा. राजवाडेने नादसीय सूस्तके भाष्य (पूर्वार्ध) में (पृ० १८६) भगवान् के नाथवंशको 'नटवंश' मान उन्हें नट पुत्र कहने की असत् चेष्टा की है और लिखा है, "गौतम व महावीर हे दोघ क्षत्रिय वात्य होते, कारण महावीरा 'नातपुत्त' म्हटला आहे व गौतमाचा जन्म लिनधी कुलांत झाला आहे । नातपुत्त-नटपुत्र, नट व लिच्छवी हो दोन्हीं कुले मजूने द्रात्य-क्षत्रिय म्हणून उल्लेखिली आहेत ।" खेद है कि अपने सम्प्रदाय-मोहवश मनुष्य सत्यका अपलाप करते हुए लज्जित नहीं होता। हरिवंशपुराणमें भगवान्के पिता महाराज सिद्धार्थ को प्रतापी भूप बताया है-"सिखार्योऽभवदाभो भूप: सिद्धार्थपोषः ।"-सर्ग २-१३ इसी बातका समर्थन अशग कवि कृत महावीरचरित्रके इस पद्ययुगलसे होता है"राजा तदात्ममतिविक्रमसाधितार्थः सिद्धार्थ इत्यभिहितः पुरमध्युबास ।। यो ज्ञातिवंशममलेन्दुकरावदातः श्रीमानसदा ध्वज इवायतिमानुदग्रः ॥१७२०-२१॥" जिस स्थलको प्रभुने अपने निर्वाण-कल्याणके द्वारा नरामर-चन्दनीय बना दिया, वह विहारशरीफ नामक स्टेशनसे ६-७ मोलपर है। वहाँसे भगवान्ने कार्तिक कृष्णा अमावस्याके प्रभातमें कर्मोंका नाश कर मोक्ष प्राप्त किया था। पावापुरीको वातावरण बहुत शान्त, पवित्र और उज्ज्वल विचारोंका उद्बोधक है। यह स्मरण रखना चाहिए कि विचारशील व्यक्तिके लिए हो ये सन साधन कल्याणकारी होते हैं । किन्तु विवेकहीन व्यक्तियोंकी मोहनिद्रा प्रयत्न करनेपर भी दूर नहीं होती। प्राकृत निर्वाणकाण्ड में पूर्वोक्त चार तीर्थकरोंको आत्मस्वातंत्र्य-उपलब्धिकी भूमियोंका इन सुन्दर शब्दों में संस्मरण तपा वन्दन किया गया है "अदावर्याम्म उसहो चंपाए वासुपूज्ज जिणणाहो । उज्जते मिजिणो पावाए णिव्वुदो महावीरो ॥१॥" Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल १८५ दृषभनाथने अष्ट्रापद (कैलास) से, वासुपूज्य जिनेन्द्रने चम्पापुरीसे, नेमिनाथने ऊर्जयन्त गिरिसे और महाबोर भगवान्ने पावापुरीसे निर्वाण प्राप्त किया। भगवान् अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, गुमतिनाथ, पधप्रभु, सुपायनाय, चन्द्रप्रभु, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाघ, मुनिसुव्रतनाथ, नेमिनाथ और पाश्र्वनाथने बिहार प्रान्तमें विद्यमान मम्मेदशिखरसे जिसे पारसनाथ-हिल कहते हैं-भान प्राप्त किया है । इसीलिए नि भन्लिमें भाचार्य कहते हैं "बीसं तु जिणरिदा अमरासुरवंदिदा घुकिलेसा । सम्मेदे गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसि ॥" देव और मनुष्यादिके द्वारा तन्दनीय कर्मक्लेश रहित, बीस जिनेन्द्रोंने सम्मेद पर्वतके शिखरसे निर्वाण प्राप्त किया, उस सबको नमस्कार हो । ___ यह पर्वत शिखरजी के नामसे जैन समाज में प्रख्यात है। प्रीयी कौंसिल को लापोल नं० १२१, सन् १९३३ पर दिए गए फैसलेसे पर्वतके विषयमें यह बात विदित होती है-"पाश्वनाथ पर्वतपर जो जिनमन्दिर हैं, वे निस्सन्दह बहुत प्राचीन है। किन्तु उनके इतिहासका अथवा उस समयका, जब कि सम्पूर्ण पर्वतके विषयमें पवित्रता सम्बन्धी पवित्र विचार सर्वप्रथम मान्ने गये, बहुत कम ज्ञान है।........पर्वत स्वयं २५ वर्ग-मील विस्तार में है और उसकी सबसे ऊंची चोटी ४५ सो फुटपर है । लेफ्टिनेंट बीडल, जो उस स्थानको सन् १८४६ ई० में गए थे, की रिपोर्टके अनुसार वह शाडो तथा घने जंगलसे हवा हुआ था और जंगली जानवरोंसे भरा हुआ था। उसमें मनुष्य नहीं रहते थे । हाँ, कुछ सन्थालोंकोजंगली लोगोंकी झोपड़ियां थीं, जो पर्वतके नीचेके भागपर थीं।" आगे चलकर योडल साहबने १८४६ ई० में यह भी लिखा है कि-"पर्वतपर प्रतिवर्ष जनवरी मासमें एक पक्ष पर्यन्त एक धार्मिक मेला भरा करता था। पूजकोंको आवश्य: कताओंको पूर्ति के लिए दुकानदार अनाज या दूसरी चीजें लेकर पर्वतपर बढ़ते थे ।" महाकवि बनारसीदासजीके अर्थकथानकमें संवत् १६६१ में शिखरजीको यात्राका वर्णन है, जिससे तत्कालीन सामाजिक व्यबहारका भी पर्याप्त बोध होता है "साहिब साह सलीम को, हीरानंद मुकीम । ओसवाल कुल जौहरी, बनिक वित्तको सोम ॥२२४।। तिन प्रयागपुर नगर सो, कीनी उद्यम सार । संघ चलायो सिखरकी, उतरची गंगा पार ॥ २२५ ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैनशासन P ठौर-ठौर पुत्री दई भई खबर जित तित्त । चीठी आई सेन को, आवहु जान निमित्त ॥ २२६ ॥ खरगसेन तब उठि चले, तुरंग असवार जाइ नंदजी को मिले, तजि कुटंब घरबार ॥ २२७ ॥" X X X "संवत सोलह से इकसठे आए लोग संघ सौं नये ॥ केई उबरे केई मुए । केई महा जमतो हुए ||२३९५ खरगसेन पटर्ने म आइ । जहमति परे महा दुख पाइ || विद्या के उपसभी लोग ॥ २४०॥" X X X "संघ फूट चहुँ दिसि गर्यो आप आपको होइ । नदी नाव संजोग ज्यौं, बिछुरि मिले नहि कोइ ॥ २४३ ॥ इस यात्रामें लगभग सात मासका समय व्यतीत हुआ था, ऐसा प्रतीत होता है। जब संघ ग्रीष्म में रवाना हुआ था, तब शिखरजोसे लोटते हुए बीमारीका खास कारण वर्षाजनित जलको खराबी हो रही होगी। इस यात्राम ७-८ माहका समय लगा ऐसी कल्पना हमने इसलिए की कि उस बीच बनारसीदासजी अपना हाल लिखते हैं, कि "खरगसेन जात्राको गए। वनारसी निरंकुश भए || करें कलह माता सौं नित्त । पार्श्वनाथकी जात निमित्त || २२८॥ दही दूध घृत चावल चने । तेल तंबोल पहुप अनगिने || इतनी वस्तु तजी ततकाल । खन लीनो कीनी हठ-बाल ||२२|| चेत महीने खन लियो, बीते मास छ सात । आई पुग्यो कार्तिकी, चले लोग सब जात ॥ २३०॥ " " सम्मेदसि चिरको यात्राका समाचार" नामक हस्त लिखित ११ पृष्ठ वाली पुस्तिका से विदित होता है कि, सवंत् १८६७ में कार्तिक वदी ५ बुधवारको कोई साहू पर्नासहजी के नेतृत्वमे मैनपुरीसे २५० बैलगाड़ियों और करीब एक हजार यात्री शिखरजीको वन्दनाको निकले थे। जिस दिन संघ निकला था उस दिन मैनपुरी रथयात्रा हुई थी। संघ में धर्म-साधन निमित्त आदिनाथ भगवान्‌की मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान को गई थी। रथयात्रामें वल्लमधारी सिपाही आदि भी थे । बनारस में भेलूपुरा मन्दिरके निकट संघ ठहरा था। पावापुरी पहुँचकर संघने जलमन्दिर के समीप आश्रय लिया था। राजगृही, गुणावा आदिकी वन्दना करते हुए वसंतपंचमीको संघने सम्मेदशिखरकी वन्दना को और पर्वतसे लौटकर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मजागतिके साधन-सायस्थल १८७ मधवन में घोत्सव मनाया, रथयात्रा निकाली जिसमें पालगञ्जक राजा भी सम्मिलित हुए थे। माघ सुदी १५ को संघनं मधुवनसे प्रस्थान किया ।"१ उपर्युक्त दोनों यात्रा-संघ विवरणोरो तस भ्रमका निवारण हो जाता है जो प्रीवी कौन्सिलकी अपील नं० १२१ में लेफ्टिनेंट बोरल साहबने सन् १८४६ (सं० १९०३) निखर जी के पर्वतको जगली जानवरों, धनी झाड़ियों मदिसे ज्याप्त बताया था और लिखा था कि वहाँ मनुष्य नहीं रहत थे । बोरल महाशयका भाव बह रहा होगा कि पर्वतपर लोग नहीं रहा करते थे। तीर्थ यात्रियोंका आवागमन उनके वहुत पहिले से पूर्वोक्त विवरणसे स्पष्ट हो जाता है। सम्मेदशिखर पर्वतपर यात्री लोग मुक्त होनेवाले आस्माओंके घरण चिह्न (Foot Print) की पूजा करते रहे हैं। श्वेताम्बर जैनोंकी ओरस कुछ टोंकोंके चरण चिल्ल बदल दिए गए थे, जिससे श्रीयो कोसिलमें दिगम्बर जैनियोंने यह आपत्ति उपस्थित की थी कि चरणोंकी पूजा हमारे यहाँ वर्जित है क्योंकि वे खंडित मूर्ति के अंग सिद्ध होते हैं। प्रोवी कौन्सिलके जजों का निम्न वर्णन पाठकों को विशेष प्रकाश प्रदान करेंगा--- __"श्वेताम्बरी लोगोंने जो चरणोंकी स्त्रय पूजा करना पसन्द करते हैं-दूसरे तरहके चिन्ह बना लिा है, जिन नमूना अथवा फोटो नहीं होनसे, ठोक तौरपर बताना बहुत सरल नहीं है, जो अंगूठेके नखौंको बताते हैं और जिन्हें पैरके एक भागका सूचक समझना चाहिए। दिगम्बरी लोग इसे पूजनेसे इनकार करते हैं, क्योंकि यह मनुष्य के शरीरके पथक अंगका सूचक है । दोनों मातहत अदालतोंने यह फैसला किया, कि श्वेताम्बरोंवा यह कार्य, जिसमें उन्होंने तीन मन्दिरोंमें उक्त प्रकारके चरण बनाए. एक ऐसी बात है कि जिसके बाबत शिकायत करनेका दिगम्बरियों को हव है।" ---(फैसले का हिन्दी अनुवाद, पृ० १७) । यह पर्वत तीर्थंकरोंकी निर्वाणभूमि होनसे विशेष पूज्य माना जाता है । इसके सिवाय अगणित साधकोंने वहाँ रह कर गग, द्वेष और मोहका नाश कर साम्यभाषको सहायता ले मुक्ति प्राप्त की, इस कारण जैन तीथों में इस पर्वतका सबमे अधिक आदर किया जाता है । धर्मज्योति गिरिराजके सकल शिखर सुखदाय । निसिदिन वंदों भावयुत कर्मकलंक नसाय ।। सम्मेदशिखर पूजाविधान में लिखा है-- "सिद्धक्षेत्र तीरथ परम, है उत्कृष्ट सुथान । शिखरसम्मेद सदा नमहु, होय पापको हान ।। १. जैन सिद्धान्तभास्कर भाग ४, किरण ३, पृ० १४८ । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैनशासन अगणित मुनि जहं तँ गए, लोक शिखर के तीर | तिनके पद पंकज नमों, नासैं भव की पीर 11" 1 मैसूर राज्यके हासन जिला में श्रमणबेलगोला निर्वाणभूमि न होते हुए भी, भगवान् ग्राम्मटेश्वर बाहुबलोकी ५७ फीट ऊंची भव्य तथा विशाल मूर्तिके कारण अतिशय प्रभावक तथा आकर्षक सीर्थस्थल माना जाता है । वह स्थान ह्रासन स्टेशन से ३२ मोल, मैसूरसे ६० मील तथा बेंगलोर से ९० मीलकी दूरीपर अवस्थित है। सर मिर्जा इस्माइलने मैमूर के दीवानको हैसियत से दिए गए अपने एक भाषण में कहा था- 'सम्पूर्ण मैसूर राज्य में श्रमणबेलगोल सुद्दा अन्य स्थान नहीं हैं, जहाँ सुन्दरता तथा भव्यताका मनोज्ञ समन्वय पाया जाता हो ' वह जैन तीर्थ होनके साथ विश्वके कलाकारों तथा कलाप्रेमियोंके लिए दर्शनीय तथा अभिनंदनीय स्थल हैं । उस स्थान में श्रमणशिरोमणि बाहुबली स्वामीकी लोकोत्तर मूर्ति विद्यमान है तथा वहाँका बेलगोल-सरोवर भी महत्त्वपूर्ण है । इस कारण श्रमण तथा बेलगोल समन्धित उस भूमिको श्रमणबेलगोला कहते हैं । जिस पर्वतपर मूर्ति विराजमान है वह भूतल ४७० फीट ऊँचाई पर है । समुद्रतल से ३३४५ फोट ऊंचा है। पर्वतका व्यास २ फर्लाङ्गके लगभग है। पहाड़पर चढ़ने के लिए लगभग ५०० सीड़ियाँ पहाड़ ही उत्कीर्ण है । प्रवेशद्वार बड़ा आकर्षक है। अन्य पर्वतोंके समान दूरसे रमणीयता और समीप भीषणतारूप विषमता यहाँ नहीं है । वह चिकना, ढालसमन्वित बढ़िया पाषाणयुक्स है। दर्शक जब भगवान् गोम्मटेश्वरकी विशाल मनोज्ञ मूर्तिकं समक्ष पहुँच दिगम्बर गांव जिनमुद्राका दर्शन करता है तब वह चकित हो सोचता है'अहा ! मैं दुःखदावानलसे बचकर किस नहान् शान्तिस्थलमे आ गया हूँ वहाँ आत्मा प्रभुकी मुद्रासे बिना वाणीका अवलंबन ले मौनोपदेश ग्रहण करता है । हजारों वर्ग प्राचीन मूर्ति दर्शकको प्रायः नवीन निर्मित मूर्ति-सी प्रतीत होती है । सभी ऋतुएँ आकर भगवान्का हृदयसे स्वागत करती हैं । कारण मूर्तिके ऊपर किसी भी प्रकारको छाया नहीं है, जो सूर्य, चन्द्र और वर्षा आदि ऋतुओंको प्राकृतिक मुद्राधारी प्रभुके समादर अथवा दर्शनमें अन्तराय उपस्थित कर सके । बारहवीं सदीके बोप्पण पण्डित नामक कन्नड़ विद्वान्ने नक्षत्रमालिका नामको पचरचना में भगवान्‌का सुन्दर वर्णन करते हुए एक पद्य में बड़ी मार्मिक बात कही है- 'अत्यन्त उन्नत आकृतिवाली वस्तुमें सौन्दर्यका दर्शन नहीं होता, जो अतिशय सुन्दर वस्तु होती हैं यह अतीव उन्नत आकारवाली नहीं होती । किन्तु, गोम्मटदवरको मूर्ति में यह लोकोत्तरता है कि वह अत्यन्त उन्नत होनेपर भी अनुपम सौन्दर्यस विभूषित है। मैसूर राज्य के पुरातत्व विभागके डायरेक्टर Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल १८९ ग. कृष्णा एम. ए., पो एच० ० लिखते हैं-"शिल्पीने जनप्रर्भके सम्पूर्ण त्यागकी भावना अपनी छनोसे इस मूतिके अंग-अंगमें पूर्णतया भर दी है। मूर्तिकी नग्नता जैनधर्मके सर्वस्व त्यागकी भावना का प्रतीक है । एकदम सीधे और उन्नत मस्तक युक्त प्रतिमा का अंगविन्यास आत्मनिग्रहको सूचित करता है। होठोंको दबा-मयी मुद्रासे स्वानुभूत आनन्द और दुखी दुनियाके साथ सहानुभूतिकी भावना व्यक्त होती है।" ___ 'Picturesquc Mysore'' नामक पुस्तकमें मूतिके विषयमें लिखा हैएक विशाल पाषाणको काटकर मूर्ति बनाई गई है। अज्ञात शिल्पीके हाथसे उस पाषाणके रूक्षस्तरमेंसे शान्त और विम्य स्मित अंकित सापकी मनोज्ञ मूर्ति निर्मित हुई। इस महान कार्य में कितना श्रम लगा होगा, यह बात दर्शकको आश्चर्यमें डाल दगी और वह इस बातको जानने को उलझनमें फंस जाएगा कि क्या यह मूर्ति इस पर्वतकी रही है अथवा वह जहाँ अभी अवस्थित है, यहाँ बाहरसे लाई गई है। नहीं कह सकते कि, चट्ठान वहां लपलम्घ हुई अथवा लाई गई। फरग्यूसन नामक विख्यात शिल्प-शास्त्रीका कथन है--"इजिप्तके बाहर कहीं भी इतनी विशाल सी. अन्य मति नहीं है। हादी देसी के ज्ञात नहीं है जो इस मूतिके द्वारा प्रदर्शित परिपूर्ण कला तथा ऊँचाईमें आगे बढ़ सके।" ___कहा जाता है कि गंगनरेशके पराक्रमी मन्त्री गोम्मटराय-चामुण्डरायके निमित्तसे उनके ईश्वर-गोम्मटेश्वरकी मूर्तिका निर्माण हुआ था । किन्तु जनश्रुति और परम्परागत कथानकसे इस मूर्तिका निर्माण इतिहासातीत कालका बताया जाता है । जिन बाहुबली स्वामोको यह मूर्ति है, के चक्रवर्ती सम्राट भरतके अनुज और भगवान् ऋषभदेवके प्रतापी पुत्र थे । पोदनपुरका वे शासन 1. “The image is cut out of a huge boulder and its rough sur face has been made to yield by the hand of an unknown artist, an exquisite statue with the calm and beatific smile of a saint The visitor would be astonished at the amount of Jabour such a prodigious work must have entailed and would be puzzeled to know whether the statue was part of the hill itself or bad been moved to the spot where it now stands. Whether the rock was found in situ or was moved "nothing grandeur" says Fergusson, for more imposing exists any where out of Egypt and even there, no known statuc surpasses it in lacight or excels it in the perfection of art it exhibits." pr 23. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैनशासन करते थे। उन्होंने चक्रवर्ती भरतको भी पराजित किया था । किन्तु भरतके जीवनमें राज्यके प्रति अधिक ममत्त्व देख और विषयभोगोंकी निस्सारताको सोच उन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण की। विजेता बाहुबलि अपने अन्तःकरण में क्या मोचते थे, इसका सुन्दर चित्र अंकित करते हुए महाकवि मनसेन कहते हैं हे आयुष्मन् भरत ! यह लक्ष्मी मेरे योग्य नहीं है, कारण इसका तुमने अत्यन्त समादर किया; यह तो तुम्हारी प्रिय पत्नीके तुल्य है। बंधनकी रामश्री सत्पुरुषोंको आनन्दप्रद नहीं होती। यह तो मुझे विष कंटक समूह समन्वित प्रतीत होती है, अतः यह पूर्णतया त्याज्य है। में तो निष्कंटक तपःश्रीको अपने अधीन करनेकी आकांक्षा करता हूँ ।" उनकी मूर्ति में भी उनका लोकोत्तर चरित्र और विश्वविजेतापन पूर्णतया अंकित प्रतीत होता है। बड़े बड़े राजा महाराजा तथा देश-विदेशकै प्रमुख पुरुष प्रभुकी प्रतिमाके पास आकर अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हैं । मूर्तिम की महान नृपाच किनकी गई है । वे एक पर्यन्त खड्गासन से तपश्चर्या करते रहे, इसलिए लता, सर्प आदिने उनके प्रति स्नेह दिखाया मूर्ति में भी भाषवी लता और सर्पका सद्भाव इस बातको ज्ञापित करते हुए प्रतीत होते हैं कि महा मानव बाहुबली विश्व बन्धु हो गए हैं। इसलिए हरएक प्राणी उनके प्रति आत्मीय भाव धारण कर अपना स्नेह व्यक्त करता है। मूर्तिके दर्शनसे आत्मामें यह बात अंकित हुए बिना नहीं रहती कि अभय और कल्याणका सच्चा और अद्वितीय मार्ग नम्पूर्ण परिग्रहका परित्याग कर बाहुबली स्वामीकी मुद्राको अपनाने में है । विपत्तिका मार्ग भोग, परिग्रह, हिंसा तथा विषयासक्ति हैं और कल्याणका प्रशस्त पथ अन्तः बाह्य-मपरिग्रह, अहिंसा और आत्मनिमग्नता की ओर अपने जीवनको प्रेरित करने में है । लेखनीको और वाणीकी भी सामर्थ्य नहीं है कि मूर्ति पूर्ण प्रभाव और सौन्दर्यका वर्णन कर सके । दर्शनजनित आनन्द वाणीके परे हैं । भारतरत्न राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्रप्रसादजीनें उस दिन १. "प्रेयसीयं तथैवास्तु राज्यश्रीर्या त्वयादृता । नोचिषा ममायुष्मन् बन्धो न हिसतां मुद्दे ॥ ९७॥ " "विध कण्टकालीन त्याज्येषा सर्वथापि नः । निष्कष्टकां पोलक्ष्मी स्वाधीनां कर्तुमिच्छताम् ||९९ ।। " - महापुराण पर्व, ३६ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · आत्मजागृति के साधन - तीर्थस्थल १९१ गोम्मटेश्वर के दर्शनका उल्लेख करते हुए हमसे मूर्ति के विषय में यह सूत्र वाक्य कहा था कि - "मूर्ति अद्भुत है ।" निर्वाणभूमि होनेके कारण पटना, सिद्धवरकूट गजपंथा (नासिक), द्रोणगिरि, नयनगिरि (बुन्देलखंड ), मोनागिरि, बडवानी, कुंथलगिरि ( जिला उस्मानाबाद) मुक्तागिरि (अमरावती), पावागढ़ और मांगीतुंगी (मालेगांव) आदि प्रख्यात तथा पूज्य स्थल हैं; कारण यहाँ बहुत पवित्रात्मानं रत्न को आराधना कर निर्वाण प्राप्त किया है। मागीतुंगी क्षेत्र रामचन्द्रजी हनुभान्जी आदि महापुरुषोंने मुक्ति प्राप्त की। इस क्षेत्र की पूजामें लिखा है "गंगाजल प्रासुक भर झारी, तुव चरनन ढिग धारों, परिग्रह तिसना लगी आदि की, साको निरवारो । राम हनू सुग्रीव आदि जे, तुंगी गिरि थित थाई, 'कोडि निन्यानवे मुक्त गए मुनि, पूजो मन वच काई । " - सिद्धक्षेत्र पूजा संग्रह, पृ० ७९ । रामका चरित्र वर्णन करनेवाले मनोहर महाकाव्य जनपद्मपुराण (पर्व १२२ श्लोक ६७ ) से विदित होता है, कि माघ सुदी १२ को रात्रि में अंतिम प्रहर में रामने कैवल्य प्राप्त किया -- "माघशुद्धस्य पक्षस्य द्वादश्यां निशि पश्चिमे । यामे केवलमुत्पन्नं ज्ञानं तस्य महात्मनः ।" भगवान् मुनिसुव्रतनाथ, जो २० वें तीर्थकर हुए हैं, के समय में रामचन्द्र जो हुए थे । रामचन्द्रजोके समान हनुमान्नीने निर्वाण प्राप्त किया। हनुमान् जी विद्याबलसम्पन्न महापुरुष थे। उनकी ध्वजामें कपिका चिह्न था, भ्रमवश चिह्नका प्रयोग चिह्नवान्‌ के लिए प्रयुक्त होने लगा। बानर शाकाहार करनेवाला शक्ति-स्फूर्ति-युक्त जीवधारी है | वह अहिंसा, शक्ति और स्फूर्तिका प्रतीक है, इस कारण प्रतीत होता है कि हनुमानजीने कपिको अपनी ध्वजाका चिह्न बनाया । आचार्य रविषेणके शब्दों में हनुमानजी सर्वगुण संपन्न महापुरुष थे । उनके पिताका नाम पवनंजय था । ये भी महापुरुष थे । पवन वायुसे मानवको उत्पत्ति वैज्ञानिक दृष्टि विशिष्ट जैनधर्म में स्वीकार नहीं की गई है। भीम, अर्जुन, युधिष्ठिर इन तीन पांडवोंने पालीताणाके ( गुजरात प्रांत ) १. "रामहणुसुग्गीओ गवयवक्खो य णोलमहणीलो । वणवदीकोडीओ तुमीगिरिणिब्बुदे गंदे ॥ ८ ॥ प्राकृत निव Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जेनशासन शत्रुञ्जय पर्वतपर तपश्चर्या की थी। दिगम्बरमुद्रा धारणकर कर्म-शत्रुओंपर भी विजय प्राप्त को घी । प्राकृत निर्वाणकाण्डमें लिखा है... "पंडुसुआ तिणि जणा दविवरिंदाण अट्ठकोडोओ। सत्तुंजयगिरिसिहरे णिच्वाणगया णमो तेति ॥ ६ ॥" भैया भगवतीदासजीने इसको इन शब्दोम स्पष्ट समझाया है"पांडव तीन द्रविड़ राजान ! आठ कोडि मुनि मुकति पयान। श्रीशत्रुजय गिरिके सोस। भाव सहित वंदो निसदोस ।।७." पालीताणामें तीन हजारमें अधिक जन मन्दिर है, जिससे शत्रुजय क्षेत्रको मनोज्ञता बढ़ गई है । उस मन्दिरोंका नगर भी कहते हैं। जिस स्थानपर विशेष प्रभावशाली मूर्ति, मंदिर आदि होते है, उसे अतिशय क्षेत्र कहते हैं । इनकी संख्या लगभग सोस अधिक है । किसो स्थानपर साधकोंको अथवा भक्तोंको विशेष लाभ दिखायी दिया, उसे अतिशय क्षेत्र कहते हैं । ऐसे अतिशय क्षेत्र नवीन भो बन जाते हैं। जयपुर राज्यमें श्री महावीरजी नामक स्टेशन है । यहाँके भगवान् महावीरको मूर्तिका बड़ा प्रभाव सुना जाता है। हजारों यात्री वहां वंदनाको जाते हैं । मोना और गूजर नामक ग्रामीण लोग हजारोंको संख्यामें महावीर भगवान्की ऐसी भक्ति करते है, जो दर्शकोंको चकित करती है। जयपुर राज्य में शिवदासपुरा स्टेशनके समीप एक नवीन अतिशय क्षेत्रको उपलब्धि हुई है । उसे पद्मपुरो कहते हैं 1 __ मध्यप्रान्तमें दमोहसे २२ मीलकी दूरीपर कुण्डलपुर जैन क्षेत्र है। कहते हैं कि यवनराज औरंगजेबने वहाँ भगवान्की अतिशय मनोज्ञ पपासन १२ फीट ऊँची मूर्ति तुड़वानका प्रयत्न किया, किन्तु वहां की कुछ विशिष्ट घटनाओंने यवन सम्राट्को प्रकित कर दिया, इससे उस तीर्थसे उसकी वक्र दृष्टि दूर हो गई । पर्वत कुण्डलाकृति है । ६४ जिन मंदिरोंसे बड़ा रमणीय मालूम पड़ता है। भगवान्के मंदिर, जिसे बड़े बाबाका मन्दिर कहते हैं, के प्रवेश द्वारपर महाराज छत्रसालके समयका शिलालेख खुदा हुआ है । विक्रम संवत् १७५७ में मन्दिरका जीर्णोद्धार होकर जो महापूजा उत्सव हुआ था उसमें छत्रसाल महाराजने भी भाग लिया था । उनके द्वारा भेंटमें प्रदत्त एक बड़ा थाल मन्दिरके भण्डारमें था। राजपूतानाम आबू पर्वतपर अवस्थित जैन मंदिर अपनी कलाके लिए विख्यात है। कर्नल टॉडने अपने राजस्थानमें लिखा है Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल १९३ "Beyond controversy this is the most supcrb of all the teinples in India and there is not an edificc besides the Tajmahal, that can approach it." -भारतवर्षके मंदिरों में यह श्रेष्ठ है यह बात निर्विवाद है । साजमहलके सिवाय कोई और भवन उसको ससा ही कर सHET, बिलश मनवा! आदिनाथका मंदिर विक्रम संवत् १०८८ (ईस्वी सन् २०३१) में बनवाया था। नेमिनाय भगवान्का मनोज्ञ मंदिर तेजपाल वस्तुपाल नामक राजमंत्रियोंने बमवाया था। विक्रम संवत् १२८७ में इस प्रख्यात मंदिरका निर्माण हुआ था। करोड़ों रुपयोंका व्यप कर इस अनुपम मन्दिरकी रचना की गई है। शिल्पशास्त्रके अधिकारी विद्वान् फग्यूसन महाशय लिखते है'-"इस मंदिरमें, जो कि संगमर्मरका बना हुआ है, अत्यन्त परिश्रमी हिन्दुओंकी संकीसे फीते जैसी दारीकीके साथ, ऐसो मनोहर आकृतियां बनाई गई है कि उनकी नकल कागजपर उतारने में बहुत समय लगानेपर भी मैं समर्थ नहीं हो सका ।" पार्नल टॉडने मन्दिरके गुम्बज को देख चकित होकर लिखा है कि "इसका चित्र तैयार करनेमें लेखनी थक जाती है । अत्यन्त श्रमशील चित्रकारकी फलम को भी इसमें महान् श्रम पड़ेगा । इन मन्दिरोंमें जनधर्म की कथाएँ चित्रित की गई है। व्यापार, समुद्रयात्रा, रणक्षेत्र आदिके भी चित्र विद्यमान है ।" मन्दिरों के सौन्दर्यने कर्नल टॉडके अंतःकरणपर इतना प्रभाव डाल रखा था कि श्रीमती हंटर म्लेर नामकी महिलाने मन्दिरके गुम्बजका पित्र जब दौड साहबको विलायत में दिखाया तो उससे आकर्षित हो उन्होंने 'पश्चिम भारतकी यात्रा' नामको अंग्रेजी पुस्तक उक्त महिलाको समर्पण को और उस महिलासे कहा-"हर्ष है कि तुम आबू गई हो नहीं, किन्तु आबू को इंग्लण्डमें ले आई हो।" देवगढ़ बुन्देलखण्डके जाखलोन स्टेशनसे लगभग १० मोलको दूरोपर अत्यन्त कलापूर्ण स्थान है। देवपति और खेपति बन्धुनोंने अपनी विशुद्ध भक्तिके प्रसाद से विपुल दन्य प्राप्त किया और दृष्यका समय करते हुए बगणित कलामय जिनेन्द्रमूर्तियाँ देवगढ़में बनवाई, जिनके सौंदर्य दर्शनसे नयन सफल हो जाते है। वह श्रवणबेलगोलाकी लधुआवृत्ति सदृश प्रतीत होता है । सांचीको प्रापोन भव्य बौद्ध सामग्री जिस प्रकार हृदयपर अमिट प्रभाव सलती है उसो प्रकार प्रेक्षक मो देवगढ़की अनुपम उत्कृष्ट कलापूर्ण सामग्रीसे प्रभावित तथा मानंदित हुए बिना नहीं रह सकता । यहाँ हजारों भूतियोंको देस वात्मामें वीतरामताका अपूर्व Picturesque Uustrations of Ancient Archietcture in Hindus tan by Fergusson, २. आबू जैन मन्दिरोंके निर्माता, १० ६५, ६९ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जेनशासन प्रभाव उत्पन्न होता है वहाँका सजीव प्रभाव हृदयपटलपर एक बार भी अंकित होकर मक्ष अमिट रहता है।' बुंदेलखंडम पन्ना रियासतक अन्तर्गत खजुराहोके जैन मन्दि की उच्च और नोज्ञ का भी इसनीय है। महारान्तिनाथलो २० हायके लगभग उन्नत प्रतिमा बहुत सुन्दर है । वहाँको स्थापत्यकला बहुत भव्य है। जिम प्रकार अतिशय विशेष होने के कारण कोई स्थल अतिशय क्षेत्र रूपमें पूजा जाकर साधकके अन्तःकरणमे भव्य-भावनाओंको संक्ति करता है उसी प्रकार तीर्थकर भगवान के गर्भ, जन्म, तपश्चर्या तथा कंवल्योत्पत्तिके स्थान भी विशेष उद्बोधक माने जाते हैं। भगवान् पार्वनाम तश सुपार्श्वनाथ तोयंकरके जन्मसे काशी नगरी पवित्र हुई और वह साधकोंके लिये पुण्यधाम बन गई । इन सोकरोंके जन्मसे पवित्र बनारसी नगरोके प्रति भक्ति प्रकट करने के लिये श्रीयुत खरगसैनजी जौहरीन अपने होनहार चिरंजीव और सर्वमान्य महाकविका नाम बनारसीदास रखा था । अपने अर्घकथानके आरम्भमें जो पद्य इन्होंने दिए है वे उद्बोधक होने के साथ आनन्दजनक भी हैं तथा उनसे 'बनारस' नगर की अन्चयंता प्रकाशमें आती है ''पानि-जुगल-पुट-सोस धरि, मानि अपनपी दास । आनि भगति चित जानि प्रभु, वन्दो पास-सुपास ॥१॥ १. जैन सिद्धान्त-मास्कर भाग ८ किरण २ से ज्ञात होता है कि पर्वत उत्तर दक्षिण १ मोल लम्बा, पूर्व-पश्चिम ६ फलोग चौड़ा है। पर्वतकी चढ़ाई सरल है। मन्दिर लगभग ८ सौ वर्ष प्राचीन कहे जाते हैं । भगवान् ऋषभदेवको मूति जटायुक्त है। वही तीर्थकर बाहुबली, शासन-देवता, मुनि आधिका, श्रावक तथा श्राविकाओंकी मूर्तियां भी मिलती है। कहीं-कहीं दम्पतिका चित्र वृक्षके नोचे खड़ा हुआ पाया जाता है और प्रत्येककी गोदमें एक-एक बच्चा है। पुरातत्त्व विभागके तत्कालीन सुपरिन्टेन्डेन्ट श्रीयुत दयाराम सहानी एम० ए० ने इसका अर्थ यह सोचा है-"ये बच्चे अवसपिणीके सुषम-सुषम समयकी प्रसन्न जोड़ियां-युगलिये हैं और जिसके नीचे स्त्री पुरुष खड़े हैं यह वृक्ष फापट्टम है; जिससे उस जमानेमें मनुष्य वर्गको सभी इच्छाएं पूर्ण होती थीं ।' पुराणों में उत्तम भोगभूमिका जो वर्णन है उससे विदित होता है कि माता-पिता सन्ततिका मुख-दर्शन करने के पूर्व ही छोंक और जम्हाई ले शरीर परित्याग कर स्वर्गलोकको यात्रा करते थे। इस प्रकाशमें सहानी महाशयकी सूझ चिन्तनीय हो जाती है। शिलालेखोंकी दृष्टि से पन्त महत्वपूर्ण है। २०० शिलालेखों मेंसे १५७ ऐतिहासिक महत्व रखते हैं। नागरी अक्षरोंके क्रमिक विकासको जानने के लिए ये लेख बहुत कामके है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल गंग माहि आई सी हूँ दो वरुना असी, बीचि बसी बानारसी नगरी बखानी है। कसिवार देस मध्य गांउ तात कासी नांउ, श्री सुपास पासको जनम भूमि मानी है। तहाँ दृह जिन सिवमारग प्रगट कीनौ, तब सेती सित्रपुरी जगत मैं जानी हैं। ऐसी विधि नाम थपे नगरी बरसीके, और भांति कहै सो, तो मिथ्यामत-वानी है।॥ २॥" महाकवि की 'बनारस' इस नामपर बड़ो आदर भावना प्रतीत होती है। उनकी मुरुधि आत्म-स्वरूपकी और वही इसे ये पारस प्रभुके जन्मसे पुनीत बनारस नगरीका प्रसाद मानते हैं। और वे अपने अन्तःकरण की निर्मल और अत्यन्त स्फीत भक्तिको इस अमर पद्य द्वारा व्यक्त करते हैं “जिन्हके वचन उर धारत जुगल नाग, भए धरनिंद पद्मावती पलकमें । जाकी नाम-हिमासों कुधातु कनक करे, पारस पाखान नामो भयो है खलकमें ।। जिन्हको जनमपुरी नामके प्रभाव हम, आपनो सरूपं लखो भानुसो भलक । सोई प्रभु पारस महारस के दाता अब, दीजे मोहि साता दग लीलाकी ललकमें ॥" -नाटक समयसार, ३ । जैन संस्कृति के विकास और संवर्द्धनको पुनीत पुण्य-भूमिके रूपमें बिहार प्रान्तके राजगृहीका अत्यन्त उच्च स्थान है । कारण, वासपूज्य भगवानको छोड़ शेष २३ तीर्थकरोंने कैवल्य लाभके उपरान्त अपनी धामिक देशनासे राजगिरिको पवित्र किया था । बीसवें तीर्थकर भगवान् मुनिसुनतके पुष्य जन्मसे यह पंच शैलपुर-राजगिरि पवित्र है-"पञ्च शैलपुरं पूतं मुनिसुव्रतमन्मनाः।" रि० १० ५२-३ ॥ ___भगवान महावीर के समवसरण-धर्मसभाके प्रधान पुरुष-रस्न सम्राट् श्रेणिकबिम्बसारकी निवासभूमि और राजधानी राजगृही रही है। राजगृहोके पूर्वमें चतुष्कोण ऋषिशल, दक्षिणमें वैभार और नैऋत्य दिशामें विपुलाचले पर्वत हैं; पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशामें किन्न नामका पर्वत है, ईशान दिशाम पाण्डु नामका पर्यत है ।' हरिवंशपुराणसे विदित होता है कि भगवान् महायोरने Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ [म्भिक ग्रामकी ऋजुकूला नदीके तीर शास्त्र सुदी १० को कैवल्य प्राप्त किया था। गणधरका योग न मिलने के कारण ६६ दिन तक प्रभुका मौन बिहार हुआ और वे राजगृह नगर पधारे आचार्य जिनसेन राजगृहका विशेषण 'जगत्यातम्' देकर उस पुरीको लोक प्रसिद्धत्ताको प्रकट करते हैं । अनन्तर भगवान्ने जस प्रकार सूर्य विश्व प्रबोधन निमित्त उदयाचलको प्राप्त होता है, उसी प्रकार अपरिमित श्रीसम्पन्न विदुलाल शैलपर आरोहण किया । हरिवंशपुराण में लिखा है शासन "चट्षष्टिदिवसान् भूयो मोनेन विहरन् विभुः । आजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम् ||६क्षा आरुरोह गिरि तत्र विपुलं विपुलश्रियम् । प्रबोधार्थं स लोकानां भानुमानुदयं यथा ॥ ६२॥” “सर्ग २ | भगवान्‌ की दिव्य वाणी प्रकाशनके योग्य गणधरादिकी प्राप्ति होनेपर विपुलालको ही सर्वप्रथम यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि ६६ दिनके पश्चात् श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके प्रभात में जब कि सूर्य उदय हो रहा था और अभिजित नक्षत्र मी उदित था, भगवान्‌के द्वारा धर्म-तीर्थको उत्पत्ति हुई । आचार्य पवित्र तिलोयपपत्तिमें श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको युगका प्रारम्भ बताते हैं ।" संसारके महान् ज्ञानी सन्त जन और पुण्यात्मा नरनारियोंके आवागमन से राजगिरिका भाग्य चमक उठा। अनेकान्त विद्याके सूर्यने राजगिरिके विपुलाचलके शिखर से मिथ्यात्व अन्धकार निचारिणी किरणोंके द्वारा विश्वको परितृप्त किया, इसलिये राजगिरि और उसके विपुलाचलका दर्शन साधकके हृदय में भगवान् महावीरके समवसरणकी स्मृति जागृत कर देता है । राजगिरिका नाम साधकोंको स्मरण कराता है और सम्भवतः वे अपने ज्ञान नेत्रसे उस अतीतक वाघ्यात्मिक जागरणसम्पन्न भय्य कालको देख भी लें, जबकि वनमालीने आकर मम-सम्राट् श्रेणिकको यह श्रुति-सुखद समाचार सुनाया था, कि श्री वीर प्रभु विपुलावलपर पधारे हैं और उनके आध्यात्मिक प्रभावले सारा वन विचित्र सौन्दर्यसम्पन्न हो गया है । बनपालकके यह शब्द सदा स्मृतिपथमें गूंजते रहेंगे"वीर प्रभू विपुलाचल आए, छह रितु फूली कली कली 1" १. " वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडवाए । अभिजीणक्खसम्म य उप्पती धम्मतित्यस्स 1 सायणबहुले पाविरुद्दमुहुते सुहोदये रविणो । अभिजिस्स पढमजोए जुगस्स आदी इमस्स पुढं ।।६९-७० ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल जैन तीर्थयात्रा विवरणमें निर्वाणभूमि, अतिशय क्षेत्र पंचकल्याणक स्थल सव साधकोंके लिये पूज्यस्थल बताये हैं। हमने कतिपय स्थलोंका हो ऊपर संक्षिप्त वर्णन किया है, अन्यथा हमें बहदानी स्टेटमें विद्यमान कुलगिरिक विषयमें प्रतिपादन करना अनिवार्य था । यहाँसे इन्ट्रजीत, कुम्भकर्णने तप-साघनाके फलस्वरूप सिद्धि प्राप्त की । वड़वानी के समीप भगवान ऋषभदेवकी ८४ फीट ऊँची खड़गासन मूर्तिकी विशालता दर्शकोंको चकित कर देती है । इतनी विशालपूर्ति अन्यत्र नहीं है । इतिहासातीत कालको मूर्ति कहो जाती है । अब पुरातन मूर्तिका जीर्णोद्वार हो जानेसे पुरातत्वज्ञ प्राचीन ताका प्रत्यक्ष बोत्र प्राप्त करने में असमर्थ है। निर्वाणप्राप्त आत्माएं लोकके शिखरपर विद्यमान रह अपने ज्ञान तथा गाजट भाव में निम्न रहती है। लिगा नौद मानता है, कि दीपकका तेल-स्नेह समाप्त होने पर वह बुझ जाता है, उसी प्रकार स्नहरागादिके क्षय होनेसे जीवन प्रदीप मी बुझा जाता है। जैनदृष्टि में आत्माके विकारोंका पूर्ण क्षय होता है, तथा पूर्ण परिशुद्ध आत्माका पूर्ण विकास होता है ।। साधककी मनोवृत्ति निर्मल करने में पुण्यस्यलोंको निमित्तभाव कहा है । वैसे तो जिम किसी स्थलपर समासीन हो समर्थ साधक विकारों के विनाशाय प्रवृत्त होता है, वहीं निर्वाणस्थल बन जाता है । दुर्बल मनोवृत्तियाले साधकों के लिये अवलम्बनकी आवश्यकता होती है। समर्थ सत्पुरुष जिस प्रकार प्रवृत्ति करता है, वह मार्ग बन जाता है । आचार्य अमितगति कहते हैं "न संस्तरो भद्र, समाधिसाधनं __ न लोकपूजा न च संघमेलनम् । यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं विमुच्य सर्वामणि बाह्यवासनाम् ।।" -द्वाविंशतिका २३ । जैनशास्त्रोंके परिशीलनसे स्पष्ट विदित होता है, कि किस महापुरुषने का और किस स्थलसे आत्मस्वातंत्र्य-मुक्ति प्राप्त की । आज तक यह स्थल परम्परासे पूजा भो जाता है। निर्याणभूमिपर मुक्त होनेवाले आत्माके चरणों के विल बने रहते है, उनको हो आराधक प्रणाम कर मुक्त आत्माओंकी पुण्यस्मति द्वारा अपने जीवनको आलोकित करता है । इस प्रमाणों के आधारपर विद्यावारिधि वैरिस्टर धोधम्पतरपजी यह निष्कर्ष निकालते हैं कि-'यथार्थमें जनधर्मके अबलम्बनसे निर्वाण प्राप्त होता है। यदि अन्य साधनाके मागोसे निर्वाण मिलता, तो मुक्त बारमाओंक विषयमे भी स्थान, नाम, समय आदिका प्रमाण उपस्थित करते।' वे लिखते है-''No other religion is in a position to furnish a Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन tist of men, who have attained to Godhood by following its teachings." १९८ -Change of Heart P. 21, मुमुक्षके लिये भैया भगवतीदासजी कहते हैं"तीन लोकके तीरथ जहाँ नित प्रति बंदन कीजे तहाँ । मन-वच काय सहित सिर नाय, वंदन करहिं भविक गुण गाय ॥" कौन साधक मुक्तिकी भावनाके प्रबोधक पुण्य तीर्थोोंको अभिवन्दना द्वारा अपने जीवनको आलोकित न करेगा | साधक के पर्व साधक के जीवन-निर्माण में पर्व तथा उत्सवका महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिस प्रकार तीर्थयात्रा, तीर्थस्मरण आदिसे साधक की आत्मा निर्मल होती है, उसी प्रकार आत्मप्रबोधक पर्वोके द्वारा जीवनमें पवित्रताका अवतरण होता है। कालविशेष आनेपर हमारी स्मृति अतीत के साथ ऐक्य धारण कर महत्त्वपूर्ण घटनाओं को पुनः जागृत कर देती हैं । अतीत नैगमनय भूतकालीन घटनाओं में वर्तमानका आरोप करता है । यद्यपि भगवान् महावीर प्रभुको निर्वाण प्राप्त हुए अवाई हजार से अधिक वर्ष व्यतीत हो गये, किन्तु दीपावलीके समय उस कालभेदको भूलकर संसार कह बैठता है "अद्य दीपोत्सवदिने वर्द्धमानस्वामी मोक्षं गतः ।" --आलापपति, पृ० १६९ । इस प्रकारकी मधुर स्मृतिके द्वारा साधक उस स्वर्णकालसे क्षणभरको ऐक्य स्थापित कर सात्त्विक भावनाओंको प्रबुद्ध करता है। पर्व और स्पोहार नामसे ऐसे बहुतसे उत्सवके दिवस आते हैं, जब कि अप्रबुद्ध लोग जीवनको रागट्ट पाटिको वृद्धि द्वारा मलिन बनाने का प्रयत्न किया करते हैं। आश्विन मास में बहुतसे व्यक्ति पशुबलि द्वारा अपनेको कृतार्थ समझते हैं । ऐसे पर्व या उत्सवमे साधकको सतर्कतापूर्वक आत्मरक्षा करनी चाहिये, जिनसे आत्मसाधनाका मार्ग अवरुद्ध होता है । जिन पर्यो सात्विक विचारोंको प्रेरणा प्राप्त होती है उनको ही सोरसाइ मनाना चाहिये 1 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक पर्व 'लिलोयपपत्तिमें बताया है कि जिस कालमें जीव कैवल्य, दीक्षा कल्याणक, मणि आदिसे पापरूपी मलको नष्ट करता है. वह काल मंगल कहा है । "एवं अणेयभेयं हवदितं कालमंगल पवर। जिणमहिमा संबंधं पं दीसरदीपपहुदीदों ॥-१६२६ 1 इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्की महिमासे सम्बन्ध रखनेवाला वह श्रेष्ठ काल HT कहा है, जैसे नन्दीश्वरद्वीप पर्व शादि ।। साधक मंगल कार्यों द्वारा विशेष अवमरकी स्मृतिको सफल बनाता है। भाचायं गुणभद्र ने मनुष्य के शरीरको घुनके द्वारा भक्षित के साथ तुलना की है। इसमें जो गांठें होती हैं, उनको पर्व बहने हैं। गांठोंको न खाकर यदि संग मिमें लगा देते हैं, तो अच्छी फसल आती है। इसी प्रकार जीवनमें नदीश्वर, दशलक्षण पर्वके कालको भोगने न लगाकर संयम तथा आत्मसाधनाम गीन करे, तो साधक मंगलमय जीनमवार अभ्युदय एवं निश्रेयस निर्वाणकी पिठाको प्राप्त करता है। जन पनि प्रावण कृष्णा प्रतिगवाका प्रभात अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है. कारण उस दिन भगवान महावीर प्रभुने विपूलाचल पर्वतपर शांति और पगचिका जीयनप्रद उपदेश दिया था 3 वर्धमान हिमाचल से स्यादाद गंगाका मसतरण इस मंगलमय अवसर पर हुआ था, अतएव उस महान् शुद्ध एवं गायक स्मृतिका उद्बोधक होने के कारण वह्न 'चीरशासन दिवस' साधकके लिये का अभिवंदनीय है। यदि भगवान्ने अपना सार्वजनीन अनेकान्तमय अभय जपा ने दिया होता, तो संसार मोहान्धकारमें निमग्न रहकर अपथगामी हता। । 'जस्मि काले केवलणाणादिमंगलं परिणमति ॥१.२४॥" "परिणिक्कमणं केवलणाणुभवणिबुदिपवेसादी। पावमलगालणादों पप्णत्तो कालमंगलं एवं ।। १-२५ ।।" ५. "गानुष्यं चुणभक्षितं सदृशम् ।"-आत्मानुशासन, ८१ । . प्रत्यक्षीकृतविश्वाघ कृतदोपत्र यक्षयम् । जिनेन्द्र गौतमोऽपच्छतीयं पापनाशनम् ॥ ८१ ।। म दिन्यध्वनिना विश्वसंशयच्छेदिता जिनः । पन्दुभिध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना ।। ९ ।। पावणस्यासिने पक्षे नक्षत्रेऽभिजिप्ति प्रभुः ।। प्रतिपय हि पूर्वाह्न शासनार्थमुदाहरत् ।। ९१ ॥" -हरिवंशपुराण सर्ग २। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन "वीर-हिमाचल तें निकसी, गुरु गौतमके मुख कुण्ड ढरी है । मोह-महामद-भेद चली, जगको जड़सातप दूर करी है । ज्ञान-पयोनिधि मांहि रलो, बहु-भंगतरंगनिसों उछरी है । ता शुचि शारद गंगनदी प्रति में अंजुलीकर शीस धरी है ।। या जगमंदिरमें अनिवार अज्ञान अंधेर छयो अतिभारी । श्री जिनकी हानि दोप-हितामा जो नहिं होत प्रकासनहारी। तो किह भांति पदारथ पांति कहां लहते लहते अविचारी। या विधि सन्त कहें धनि पनि है जिन बेन बड़े उपगारी ।" यह दिवस वीरभासनके प्रकाशके द्वारा मंगल रूप होनेके पूर्व भी अपना विशिष्ट स्थान धारण करता था। भोगभूमिको रचनाके अबसान होनेपर कर्मभूमिका आरम्भ इसी दिन हुआ था। पतिवृषभ आचार्य ने तिलोयपण्णत्तिमें इस समयको वर्षका आदि दिवस बताया है, कारण श्रावणमास वर्षका प्रथम मास कहा है । श्रमण संस्कृतिवालोंका वर्षारम्भ श्रवण नक्षत्रयुक्त श्रावण माससे होना उपयुक्त तथा संगत भी दिखता है । वर्षाकालसे धार्मिक जगत्का संवत्सर आरंभ होना ठीक मालूम पड़ता है। उस समय मेघमाला जलघारा द्वारा विश्वको परितृप्त करती है, तो धर्मामृत वर्षा द्वारा श्रमणगण अथवा उनके आराधक सत्पुरुष स्व तया परका कल्याण करते हुए आरमाको निर्मल बनाते हैं । रक्षाबन्धन यह पर्व सामियों के प्रति वात्सल्यभावका स्मारक है। जमशास्त्रकारोंने बताया है कि उज्जनमें श्रीवर्मा नामके राजा थे। उनके बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और ममूचि नामके चार मन्त्री थे। वहां अकंपन चार्यके नेतृत्वमें सातसो जैन साधुओं का विशाल संघ पधारा । मन्त्रिपोंके चित्त में जैनधर्मके प्रति प्रारम्भसे ही विषभाव था । उन्होंने श्रीधर्भ नरेन्द्रको मुनिसमूहकी बंदनाके लिए अनुत्साहित किया, किन्तु राजाको आंतरिक प्रेरणा देष मन्त्रियोंको भी मुनिवंदना को जाना पड़ा। उस समय संघस्थ सभी साधु आत्मध्यानमें निमग्न थे। राजा साधुओंकी दिगम्बर, शान्त, निस्पृह मुद्रा देखकर प्रभावित हुआ, किन्तु मन्त्रिमंहलने साधुओंके प्रति विद्वेषके भाव व्यक्त किये । इतने में मार्गमें श्रुतसागरजी झुस्तक दिखाई दिए, जिनको संघ पति अकम्पनाचार्यका आदेश नहीं मिला था कि १. “वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए । आभोगक्षतम्भि य उप्पत्ती धम्मतित्यस्स । ६९ ॥ साषणवहले पारिवस्मुइस सुहोदये रविणो। अभिजिस्स पढमजोए जगुस्स आदि इमस्स पुढं |७०॥" Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधकके पर्व २०१ यहाँ राजमन्त्री जिनधर्म विद्वेषी हैं मतः मौनवृत्ति रखना उचित है। उनसे वाद-विवाद नहीं करना चाहिये कारण इससे हानिकी सम्भावना है । 1 मन्त्रियोंने श्रुतसागर क्षुल्लक के समक्ष पवित्र धर्मपर झूठा आक्षेप लगाया तब क्षुल्लक महाराजने अपने पांडित्यपूर्ण उत्तरसे उनको पराजित किया । मन्त्री लोगोंने अपनेको अपमानित अनुभवकर संपके समस्त साधुयोंपर उपद्रव करनेको सोची । श्रुतसागर क्षुल्लक मन्त्रियों के वार्तालाप तथा उनकी पराजयका हाल मुनकर अकम्पनाचार्य ने निश्चय किया कि आज संघपर आपत्ति आए बिना न रहेगी, अतः उन्होंने मध्याह्नमें विवाद के स्थलपर हो श्रुतसागर क्षुल्लकको जाकर ध्यान करनेका आदेश दिया। श्रुतसागरजी बड़े ज्ञानी तथा योगी थे। वे आत्म ध्यान में मग्न थे। नीरव रात्रिमें उक्त मत्रियोंने तलवार से उनपर आक्रमण किया किन्तु क्षुल्लकजी के तपःप्रभाव से मन्त्री लोग कीलित हो गये । प्रभात कालीन प्रकाशने उन पापियोंका चरित्र जगत् के समक्ष प्रकट कर दिया। राजाको जन्न मन्त्रियोंकी इस जघन्य वृत्तिका पता चला तब उसने मन्त्रियों को उचित दंड दे तिरस्कारपूर्वक राज्यसे निर्वासित कर दिया । अनन्तर बलि आदि पर्यटन करते हुए हस्तिनागपुर पहुंखे । अपनी योग्यतासे चहकि जैन राजा पद्मरायको उन्होंने शोध ही प्रभावित किया । पद्मरायको अपने प्रतिद्वन्दी सिंहबल नरेशकी सदा भीति रहा करतो यो । बलिने अपनी कूटनीतिसेसिबलको शीघ्र ही बन्धन बद्ध कर पद्म रायको चिन्तामुक्त कर दिया । इस पर अत्यन्त प्रसन्न हो पद्मराय बलिसे बोले, मन्त्री तुम्हें जो कुछ भी चाहिये, भाँगी। मैं उसकी पूर्ति करूंगा । बलिने कहा- महाराज, जब हमें आवश्यकता होगी, तब हम आपसे चरकी याचना करेंगे। अभी कुछ नहीं चाहिये । राजाने यह स्वीकार किया । कुछ समय के अनन्तर अकंपनाचार्य पूर्वोक्त सात सौ तपस्वियों सहित बिहार करते हुए हस्तिनागपुर में वर्षाकाल व्यतीत करमेके उद्देश्यसे पधारे। जैमनरेश पद्मरायके अधीन रहने वाली जिनेन्द्रभक्त जनताने साधुओंके शुभागमनपर अधार आनन्द व्यक्त किया । बलि और उनके सहयोगियोंने सोचा, इस अवसरपर इन साधुओं से बदला लेना उचित है, अभ्यथा जैन नरेशके पास अब अपना अस्तित्व न रहेगा । पुराने वरको स्मरण कराकर बलिने पचरायसे सात दिनका राज्य मांगा । मन्त्रियोंके दुर्भावको बिना जाने राजने एक सप्ताह के लिए बलिको राजा का पद प्रदान कर दिया। अब तो अमात्य बलि राजा बन गया। साधुओंके संहार निमिल उसने मशका जाल रचा । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महारा २०२ जैनशासन नरमेधयज्ञका नाम रखकर मुनिओंकी आवासभूमिको हड्डी, मांस आदि घृणित पदार्थोंसे पूर्ण कराकर उत्सने उसमें आग लगवा दी, जिसके भीषण एवं दुर्गन्धयुक्त धुंएसे साधु लोगोको दम घुटने लगी। बलिने अवर्णनीय उपाय आरम्भ करा दिया। उसने सोचा था, इस यज्ञकी ओटमै सम्पूर्ण मुनिसंघको स्वाहा करके सदाके लिये निश्चिन्त हो जाऊँगा । इधर यह पैशाचिक जघन्य लीला हो रही थी, उधर मिथिलाम एक महान योगी मुनिराजने अपने दिव्य ज्ञानस आकाशमें श्रवण नक्षत्रको कम्पित देख हस्तिनागपुरमें मुनिसंघके महान उपसगंको जानकर बहुत दुःन प्रकट किया। उनके समीपवर्ती पुष्पदन्त क्षुल्लकने सर्व वृत्तान्त ज्ञात कर यह जाना कि विक्रिया ऋद्धि नामक महान योग-शा.क्तको धारण करनबाले महामुनि विष्णुकुमारजीके प्रयत्नसे ही यह मंकट टल सकता है, अन्यथा नहीं । ___ पुष्पदन्त क्षुल्लकले विष्णुकुमार मुनिराजके पास जाकर सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया । विपत्ति-निधारणनिमित्त आध्यात्मिक सिद्धियों का उपयोग करते हुए के अपने भाई पद्मरायके राज्यमें पहुंचे, जहाँ बालने मरनलिका पाखर पराया था . पपरायको भरते हुए उन्होंने कहा-'पपराय, किमाराधं भवता राज्यवतिमा' तुमने यह क्या कार्य मचा रखा है । पद्म रायने अपनी असमर्थता बसत हुए निवेदन किया कि एक सप्ताह पर्यन्त राज्यपर मेरा कोई भी अधिकार नहीं है | इस प्रसंग पर हरिवंश-पुराणकार कहते हैं 'पद्मस्ततो नतः प्राह नाथ, राज्यं मया बलेः । , सप्ताहावधिकं दत्तं नाधिकारोऽधुनात्र मे ।।"-२०.४० । विष्णुकुमार मुनिराजने यज्ञ और दान देनमें तत्पर बलिको देख अपने लिये केवल तीन पांव भूमि मांगी। स्वीकृति प्राप्त कर विक्रिया अधिक प्रभावसे विष्णुकुमारने अपने दो पावोंको मेह तथा मानुषोत्तर पर्वत पति विस्तृत करके तीसरे पैरके योग्य भूमि मांगी। यह लोकोत्तर प्रभाव देखकर बलि भवड़ाया। उसने क्षमा मांगी और उपसर्ग दूर किया। विष्णुकुमार मुनिराजने श्रावणी पूणिमाके प्रभाप्त में साधु ओंका उपसर्ग दूर किया । बलिको अपने पास कर्मके कारण निन्दा प्राप्त हुई तथा यह देशके बाहर कर दिया गया। आचार्य जिनसेम कहते हैं "उपसर्ग विनाश्याशु बलि बद्ध्वा सुरास्तदा । विनिगृह्य दुरात्मानं देशाद् दूरं निराकरन् ।।" हरिवंशपु० २०-६० १. हरिवंशपुराण सर्ग २०, श्लोक ३२ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . साधलके पर्व २०३ हस्तिनागपुरके श्रावकों ने उपमार्ग दूर होने पर अकंपन आदि मुनीन्द्रोंकी भक्तिभावपूर्वक पूजा की तथा योग्य आहार देकर पुण्य संचय किया । जैसे महामुनि दिन कुमारने साधुसंघपर वात्सत्य दिखाकर उनका उपसर्ग निवारण किया, उसी प्रकार जिनेन्द्र प्रतिमा, मन्दिर, मुनिराज आदिपर विपत्ति आनंपरप्राणोंकी भी बाजी लगाकर धर्म तथा धर्मात्माओंका रक्षण करना रक्षाबन्धन पर्वका संदेश है। उत्कृष्ट सात्त्विक प्रेमका प्रबोधक यह रक्षाबन्धन या श्रावणी पर्व है । उस दिन साधक उपसगं विजेता अपनाचार्य आदिकी पूजा करता हमा बहता है "श्री अकंपन गुरु आदि दे मुनि सात सौ जानो। तिनकी पूजा रचौ सुखकारी भव भवके अघ हानी ।।" रक्षाबन्धनके ममय बहिनके द्वारा भाईको राखी बांधनका संक्षिप्त रूपक यथार्थ में वात्सल्य रसका उदबोधक है। 'बहिन' दात्सल्य भावनाको प्रतीक है । 'भाई' आदर्श श्राक्कका रूपक है। धार्मिक श्रावक इसदिन वात्सल्य भावनाकी रक्षाका वन्धन स्वीकार करता है। बोतराग शासनके समाधक यदि इस पर्व के भावको हृदयंगम करें तो समाज तथा विश्वका कल्याण हो । सामाजिक जागृति वात्सल्य भावको धारण करने में है। दोपावली-कार्तिक कृष्णा अमावस्याके सुप्रभातमें पावापुरीके उद्यानसे भगवान् महावीर प्रभु ईस्वी सन्से ५२७ वर्ष पूर्व संपूर्ण कर्म-शत्रुओं को जीतकर अनन्त ज्ञान, अनन्त आनंद, अनंत शक्ति आदि अनन्त गुणों को प्राप्तकर मुक्तिघामको पहुँचे थे । जस आध्यात्मिक स्वतन्यताको स्मृति में प्रदीपपंक्तियों के प्रकाश मारा जगत् भगवान महावीर प्रभु के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ अपनी आत्माको निर्वाणोन्मुस्त्र बनानेका प्रपल करता है । हरिवंशपुरागसे विदित होता है, कि भगवान् महावीरने सर्वज्ञताको उपलब्यिके पश्चात भव्यबृन्दको तत्वोपदेश दे पायानगरी मनोहर नामक उद्यानयुक्त घनमें पधारकर स्वाति नक्षत्रके उदित होनेपर कार्तिक कृष्णाके सुप्रभातकी संध्याके समय अघातिया कर्मोका नादाकर निर्वाण प्राप्त किया। इस · सम्प दिव्यात्माओंने प्रभुकी और उनके देहकी गुजा की। जम समय अत्यन्त दीप्तिमान जलती हुई प्रदीपपंक्तिके प्रकाशम आकाश सकको प्रकाशित करती हुई पावानगरी शोभित हुई । सम्राट श्रेणिक (विम्बसार) आदि नरेन्द्रोंने अपनी प्रजाके साथ महान् उत्सव मनाया था। तबसे प्रतिवर्ष लोग भगवान महावीर जिनेन्द्र के निर्वाणको अत्यन्त आदर तथा श्रद्धापूर्वक पूजा १. "जिनेन्दधीरोऽपि विबोध्य सन्ततं समन्ततो भध्यम नहसन्ततिम । प्रपद्य पावानगरों गरीयसी मनोहरोचानवने लदीयके ।।१५।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन आज भी क्षपावलीका मंगलमय दिवस भगवान् महावीरके निर्माणकी स्मृतिको जागृत करता है । समग्र भारतमें दीपमालिकाकी मान्यता भगवान् महावीरके व्यक्तित्व के प्रति राष्ट्रके समादर के परंपरागत मावको स्पष्ट बताती हूँ । २०४ इतिहासका उज्ज्वल मालोक दीपावलीका सम्बन्ध भगवान् महावीरके निर्वाणसे स्पष्टतया बताता है। दीपावलीका मंगलमय पर्व आत्मोक स्वाधीनताका दिवस है । उस दिन संध्याके गमय भगवान् के प्रमुख शिष्य गौतम गणधर को कैवल्य लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई थी। इससे दिव्यात्माओंके साथ मानवोंने केवलज्ञान -लक्ष्मी की पूजा की थी। इस तत्त्वको न जाननेवाले रुपया पैसाको पूजा करके अपने आपको कृतार्थ मानते हैं । वे यह नहीं सोचले कि द्रव्यकी अर्चना से क्या कुछ लाभ हो सकता है ? वे यह भूल जाते हैं कि P "उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपेति लक्ष्मीर्देवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।" दीपावली के उत्सव पर सभी लोग अपने-अपने घरोंको स्वच्छ करते हैं, और उन्हें नयनाभिराम बनाते हैं। यथार्थ मे बह पर्व आत्माको राग, द्वेष, दीनता, दुर्बलता, माया, लोभ, क्रोध आदि विकारोंसे बचा जीवनको उज्ज्वल प्रकाश तथा सद्गुण-सुरभि संपन्न बनाने में है । यदि यह दृष्टि जागृत हो जाय, तो यह मानव महावीर बनने के प्रकाशपूर्ण पथपर प्रगति किये बिना न रहे । दीपावली के दिनसे वीरनिर्वाण संवत् आरंभ होता है। अभी (सन् १९४० में) वीर निर्वाण संवत् २४७६ प्रचलित है। यह सर्व प्राचीन प्रचलित संवत्सर प्रतीत होता है | मंगलमय महावीर के निर्वाणको अमंगलनाशक मानकर भव्य लोग अपने व्यापार आदिका कार्य दीपावली से ही प्रारंभ करते हैं । अक्षयसूतीघा -- रक्षाबन्धन दीपमालिका के समान अक्षय तृतीयाका दिवस भी सारे देश में मंगल-दिवस माना जाता है। वैशाख सुदी तृतीयाके दिन भगवान् चतुर्थ कालेऽर्थ चतुर्थमास कैविहीनता fare | स कार्तिके स्वातिषु कृष्ण भूतप्रभात सन्ध्यासमये स्वभावतः ।। १६ ।। अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विषय घातीन्धनवद्विबन्धनः 1 विबन्धनस्थानमवाप्य शङ्करो निरन्तरायोरु सुखानुबन्धनम् ॥१७३॥ यत्प्रदीपालिका प्रबुद्धया सुरासुरैर्दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशले 11१९ ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्धदीपालिकवात्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्र निर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ॥ २१ ॥ । ” देखो - शक संवत् ७०५ रचित हरि०पु० सर्ग ६६ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधकके पर्व २०५ वर्षभरा पिके प्रिमर कर भाप पुण्य संपत्ति प्राप्त करनेका अनुपम सौभाग्य हस्तिनागपुरके नरेश श्रेयांस महाराजने प्राप्त किया है । इस कारण यह दिवस अत्यन्त पवित्र तपा मंगलमय माना जाता है। भगवत् जिनसेनाचार्य ने अपने महापुराणमें अक्षय-तृतीयाफे विषयमें बताया है कि भगवान् वृषभदेवने छह मास पर्यन्त अनशनके उपरान्त आहारग्रहण करनेके लिये विहार प्रारंभ किया। वह कर्मभूमिरूप मुगका प्रारम्भिक समय था । लोगोंको इस बात का रोष न था, कि किस विधिपूर्वक दिगम्बर मुनिमुद्रापारी भगवान्को सन्मान पूर्वक आहार कराया जाय ! भगवान् मौनपूर्वक एक स्थानसे दूसरे स्थानको विहार करते थे तब भक्त लोग प्रेम पूर्वक आ आकर उन्हें प्रणाम करते थे। कोई पूछते -भगवन, कृपा कर हमें कार्य बताइये, कोई लोग चुपचाप भगवान्के पीछे-पीछे चले जाते थे। कोई अमूल्य रत्नोंको लाकर भेंट करते थे, कोई प्रस्तु, वाहन आदि लाते थे, किन्तु भगवान्के चित्तमें उनके प्रति इच्छा न होनेके कारण वे चुपचाप विहार करते जाते थे। भिन्न-भिन्न सामग्रीके द्वारा लोग अपने प्रभुका सम्मान करने का प्रयत्न करते थे, किन्तु भगवानको गडचर्याका भाव कोई भी नहीं जान सका था । इस प्रकार छह माहका समय और व्यतीत हो गया। उस समय कुरुजांगल देश के अधिपति श्रेयांस महाराजने रात्रिके अन्तिम प्रहरमें ७ स्वप्न देखें, जिनका पुरोहितने कल्याणप्रद फल बताया । मेरुदर्शनका फल बताया था कि मेरु समान उन्नत तथा मेरु पर्वतपर अभिषेकप्राप्त महापुरुष बापके राजप्रसादमें पधारेंगे । १. "पतो यतः पदं घत्ते मोनि चर्यास्म संश्रितः । ततस्ततो अनाः प्रीताः प्रणमन्त्येत्य सम्भ्रमात् ।। प्रसीद देव कि कृत्यमिति केचिम्मगुर्गिरम् । तूष्णोंभावं बजन्तं च केचित्तम नुवाजु: 11 परे परामं रस्नानि समानीय पुरो न्यत्रुः । इत्यूकुश्च प्रसीदैमामिज्यां प्रतिगृहाण मः ।। वस्तुवानकोटींश्च विभोः केचिदडोकयन् । भगवांस्तास्वनथित्वात्तूष्णीको . विहार सः । केमिस्रग्वस्त्रमन्यादीनानयन्ति स्म सादरम् ! भगवन् परिवत्स्वेति पटल्यासह भूषणः ।। केचित् कन्या : समानीय रूपयौवनशालिनीः । परिणायितुं देवमुद्यता धिक विमूढताम् ।। फेचिन्मजनसामग्रघा संश्रित्योपारुधन विभुम् । परे भोजनसामग्री पुरस्कृत्योपतस्थिरे । विभो भोजनमानीतं प्रसीदोपविशासने । समे मजनसामग्या निर्षिश स्नान भोजने ।। एषाञ्जलिः फतोस्माभिः प्रसीदानुगहाण नः । इत्येके यौषिषन्मुग्घा विभुमशाततत्क्रमाः ।।" -महापु० पर्व २० । १४-२२ । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनशासन इनने में कड़ा कोलाहल हुआ कि भगवान् आदिनाथ प्रभु हमारे पालन-निमित्त पघारे हैं, चलो शीघ्र जाकर उनका दर्शन करें तथा भक्तिपूर्वक उनको पूजा करें। "भगवानादिकर्ताऽस्मान् प्रपालयितुमागतः । पश्यामोऽत्र द्रुतं गत्वा पूजयामश्च भक्तितः ।।" -महापु० पर्व २०-४५ । कोई कोई कहते थे कि-श्रुप्तिमें सुनते थे कि इस जगत्के पितामह हैं । हमारे सौभाग्यसे उन सनातन प्रभुका प्रत्यक्ष दर्शन हो गया। इनके दर्शनसे नेत्र सफल होते हैं, इनको चर्पा सुनने से कर्म कुतार्थ होते है। इन प्रभुका स्मरण करनेसे अज्ञ प्राणी भी अन्तःनिर्मलताको प्राप्त करता है । उस समय प्रभुदर्शनको उत्तष्ठासे अहमहमिकाभावपूर्वक पुरवासियोंका समुदाय महाराज श्रेयांसके महल तक इकट्ठा हो गया । उस समय सिद्धार्थ नामक द्वारपालने तत्काल जाकर महाराज सोमप्रभ तथा श्रेयांस कुमारसे भगवान के आगमनका समाचार निवेदन किया । जब श्रेयांस महाराजने भगवान्का दर्शन किया, तब उन्हें जाति-स्मरणजन्मान्तरकी स्मृति प्राप्त हो गई। अतः पुरातन संस्कारके प्रभावसे आहारदान देने में बुद्धि उत्पन्न हुई । उनको वह स्मरण हो गया कि हमने धारणऋद्धिधारी मुनिपुगलको श्रीमतो और वन जंधके रूपमें आहारदान दिया था। इस पुण्य स्मतिकी सहायतासे श्रेयांस महाराज ने इक्षु रसकी धाराके समर्पण द्वारा एक वर्षकै महोपघासी जिनेन्द्र आदिनाथ प्रभुत निमित्त से अपने भाम्मको पवित्र क्रिया । १. "श्रूयते यः श्रुतश्रुत्या जगकपितामहः । स नः सनातनो दिष्टया यातः प्रत्यक्षसन्निधिम् ॥ दृष्टेऽस्मिन् सफले नेथे धुतेऽस्मिन् 'सफले श्रुतो । स्मतेऽस्मिन जन्तुरजोऽपि जत्यन्तः पवियताम् ।।४९-५०।। अहं पूर्वमहं पूर्वमिन्युपेतैः समन्ततः ।। तदा रुधमभूत् पौरेः पुरनाराज मन्दिरात् ।। ६३ ।। ततः सिद्धार्थतामैत्य दुसे दीवारपालकः । भगवत्सन्निधि राज्ञे मानुजाय न्यवेदयत् ।।६९॥ संप्रेक्ष्य भगवद्रूपं श्रेयान जातिस्परोऽभवत् ।। ततो दाने मति चक्र संस्कारैः प्राक्तनयंतः ।।७८॥" आदिपुराण पर्व २० । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधकके पर्व २०७ यह क्षन अक्षय पद प्रदाता तमा अक्षयकीतिका निमित्त वना, इस कारण उस वैशाख मुदी तीजके साथ 'लक्षम' पद लग गया। महाराज श्रेयांसको अमरकीति प्राप्त हुई । चक्रवर्ती भरतेश्वर श्रेयास महाराजसे कहते हैं "भगवानिव पूज्योऽसि कुरुराज स्वमद्य नः । त्वं दानतीथंकृत् श्रेयान् त्वं महापुण्यभागसि ।" -आदिपु० २८-२१७ हं कुरुराज, आज तुम भगवान् वृषभदेव के समान पूजनोय हो, कारण अमांस, तुम दान तीर्थके प्रवर्तक हो, अतः तुम महापुण्यशाली हो । आज उस घटनाको ध्यतीत हुए बहुत काल हो गया, किन्तु प्रतिवर्ष अक्षय तृतीयाका मंगलमय दिवस साधककी आत्माको पुनः पुनः दिव्य प्रकाश प्रदान करता हुआ सत्पात्र दानको ओर प्रेरित करता है। दान के विषयमं यह बात स्मरण नारद यो है पत्तो हालात पर दानकी महत्ता अवलम्बित नहीं है । महाराज श्रेधासने धोड़ा सा इक्षरस भगवान् वपभदेवको आहार में दिया था, उस रसका आर्थिक दृष्टि से कोई भी मूल्य नहीं है, किन्तु उसका परिणाम इतना महत्वपूर्ण हुआ कि दानका दिवस संपूर्ण शुभकार्योंके लिए मंगलमय बन गया । चक्रवर्ती भरत तकने उस दानके दाताको दान तीर्थकर कहकर सम्मानित किया । भगवान् महावीरके चरित्रसे ज्ञात होता है कि घटक नरेशकी गुणवती पुत्री कुमारी चंदनाने बन्दीगृह में रहते हुए भी कोदों चावल के माहारदान द्वारा भगवान् महावीरको सम्मानित कर आश्चर्यप्रद कीति प्राप्त की। पदमपराममें बताया है कि मर्यादापुरुषोत्तम महाराज रामचंद्रने दण्डक बनमें मिट्टी और पत्तों के बने हुए पात्र भोजन बनाकर मासोपवासी सुगुप्ति तथा सुगुप्त नामक दिगम्बर मुनियों को श्रद्धा तथा अत्यन्त हर्षयुक्त हो सोताजी एवं लक्ष्मणजीके साथ आहार अर्पण किया था। उस समय उन मोगीन्द्रोंको दिए गए आहारदानकी महिमा आचार्य रविषेगने पद्मपुराणमें बली सजीव भाषामें बताई है । इससे यह बात स्पष्टतया प्रमाणित होती है कि पात्रको विधिपूर्वक योग्य वस्तु उचित कालमें देनेसे महाफल की प्राप्ति होती है। सूत्रकार उमास्वामि महाराजने कहा है-"विधिव्यवासपात्रविघोषात् सहिशेषः ।" विधि, द्रव्य, दाता तथा पात्रको विशेषतासे दानमें विशेषता होती है। अक्षयतृतीयाके उज्वल संदेशको प्रत्येक गृहस्थको अपने अंतःकरणमें पहुँचाना चाहिए । १. पद्मपुराण पर्व ४१ । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जेनपासन __श्रुतपंचमी-श्रुत शब्द 'शास्त्र' का बाचक है । ज्येष्ठ सुदी पंचमी का मंगलमय दिवस सरमनदीती जमानताका सुन्दर साल है। सौराष्ट्र देशकी गिरिनार पर्वतकी चंद्रगुहामे प्रातःस्मरणीय आचार्य परसेनने भगवान महावीर के कर्मसाहित्य सम्बन्धी परम्परासे प्राप्त प्रवचनको लोकहितार्थ भूतबलि और पुष्पदन्त मामक दो मुनोन्द्रोंको आषाढ़ शुक्ला एकादशी के प्रभातमें पूर्णतया पाया था । इसके अनन्तर गुरुदेवका स्वर्गवास हो गया और शिष्ययुगलने कर्म साहित्यपर पखंडागम सूत्र नामकी महान रचना आरंभ की। कुछ काल पश्चात् पुष्पदम्त प्राचार्य सहयोग न दे सके, अतः पोषांश भूतबलि स्वामीने लिखा । उस षट्वंडागभ शास्त्रको साधर्मी समुदायने ज्येष्ठ सुदी पंचमीको बड़े वैभव तथा उत्साहपूर्वक पूजा कर सरस्वतीके प्रति अपनी उस्कृष्ट श्रद्धा व्यस्त को । तबसे श्रुतपंचभी नामका पर्व प्रख्यात हो गया ।' श्रुतपंचमीमें ग्रन्थोंको उच्च स्थानपर विराजमान करके सम्यक्जानकी पूजा की जाती है। साधक यह भी मिसन करता है कि यथार्थ ज्ञान आत्माका स्वभाव है। बाह्य प्रन्थ उस ज्ञानज्योतिको प्रदीप्त करने में सहायक होते है, अतः कृतज्ञतावश उस साधनाका समादर करना साधक अपना कर्तव्य समझता है । अभी हमने कुछ मंगलमय प्रमुस्त्र पर्वोका वर्णन किया है। ये पर्व सादि हैं, कारण उनकी उद्भति विशेष घटनाओंके आधारपर हुई । अब हम थोड़ेसे ऐसे पर्वोपर प्रकाश डालना उचित समझते हैं, गो अनादि पर्व के नामसे प्रसिद्ध है। अनादि अनन्त विश्वपर दृष्टिपात करें, तो ऐसा स्थान और दिवस इस मनुष्यलोकमें नहीं मिलेगा, जर कि किसी महान् साधकने अपनी सफल साधनाके प्रसादसे निर्माणका पदन प्राप्त किया हो, फिर भी लोक-व्यवहारनिमित्त प्रमुख पुरुषों से सम्बन्धित या मुख्य संयमकी ओर आत्माको आकर्षित करनेवाले मंगलकालको विशेष मान्यता प्रदाम की जाती है । १. 'ज्येष्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुर्वर्ण्य संघप्समवेतः। तसुस्तकोपकरणंबंधात् क्रियापूर्वक पूजाम् ।। १४३ ।। श्रुतपञ्चमोति तेन प्रख्याति तिपिरियं परामाप । अद्यापि येन तस्यां श्रुतपूजां कुर्वते जैनाः ।। १४४ ।।" -इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार । २. "तस्थ कालमंगलं माम अम्हि काले केवलणाणादिपज्जएहि परिणदो कालो पावमलगालणसादो मंगलं। तस्योदाहरणम्, परिनिष्क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्ति-परिनिर्वाण-दिवसादयः । जिनमहिमसम्बद्धकालोऽपि मंगलं यथा नन्दीपवरदिवसादिः। -धवलाटीका भाग १.१० २९ । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधकके पर्व २०९ अष्टालिका--आषाढ़, कार्तिक तथा फागुन मास के अन्तके आठ दिवस पर्यन्त यह पर्व प्रतिवर्ष तीन बार मनाया जाता है । इसे महापर्व कहा है 'सरव परब में बड़ो अठाई परब है। नंदीसुर सुर जाहि, लिए वसु दरब है।" । नंदीश्वर महाद्वीपमें विद्यमान जिन मंदिरोंकी वंदना दिव्याल्माएं आठ दिवस पर्यन्त सड़े आनंद तथा उत्साहपूर्वक किया करती है । जैन पुराण ग्रंथों में इस पर्वका अनेक बार वर्णन आता है। जैन रामायण-पद्मपुराण में रविषेणाचाय लिखते है, कि आषाढ़ शुक्ला अष्टमी से पूर्णिमापर्यन्त महाराज दशरथने बड़े वैभव साथ आठ दिवसपर्यन्त उपवास करके जिनेन्द भगवानका अभिषेक पूजादि द्वारा महान् पुण्यका संघय किया था । "ततः सर्वसमृद्धीनां कृतसम्भारसन्निधिः । चकार स्नपनं राजा जिनानां तूर्यनादितम् ।। अष्टाहोतं कृत्वा भिषः परमं नृपः । चकार महती पूजां पुष्पैः सहजकृमिमैः ।। यथा नन्दीश्वरे द्वीपे शक्रः सुरतसितः । जिनेन्द्रमहिमानन्दं कुरुतं तद्रदेश ६ ।। ७.९ -पद्मपुराण पर्व २९ । श्रीपाल चरित्रसे विदिप्त होता है, कि महाराज श्रीपालकी रानी मैनासुन्दरोने कार्तिक मासमें अष्टाह्निक महापूजा करकं कुष्ठरंगसे व्यथित महाराज श्रीपाल तथा उनके साथियों को अपनी सकाम साधनाकै प्रभावसे रोगमुक्त किया था। तार्किक अकलंकदेवकी कथासे विदित होता है कि अष्टालिकाकी महापूजाके पश्चात जैन रथ निकालनेमें जिनरम श्रद्धालु राजमाताको राजाकी ओरसे आपत्ति दिली; कारण शासकपर बौद्धधर्म का प्रभाव जमा हुआ था। उस समय अकलंकदेवने अपने प्रतिभापूर्ण शास्त्रीय प्रतिपादन द्वारा जैनधर्मको प्रतिष्ठा स्थापित कर राजा तथा प्रजाको प्रभावित किया था । यह अष्टाह्निका पर्व पद्यपि जैन आगम तपा परंपराकी दृष्टि से सबसे बड़ा प्रसिद्ध है, किन्तु आज प्रचार में दशलक्षण पर्वको अधिक मान्यता है । बबालक्षण पर्व-भादों सुदी पंचमीसे चतुर्दशी तक माना जाता है ! अष्टालिकाके समान दशलक्षण तथा सोलहकारण पर्व वर्ष में तीन बार माननेका शास्त्रों में वर्णन है, किन्तु थियोन्मुखी समाज में भाद्रपद में ही पवं प्रचलित है। इस पर्वको पज्जूमण वा पयूषण पर्व भी कहते हैं । दस दिवस पर्यन्त उत्तम क्षमा, मार्दप (निरभिमानता), आर्जव (मायाहो नता), शौच (मिर्लोभबृत्ति), सत्य, संगम, Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैनशासन सप, त्याग, अकिंचनत्व तथा ब्रह्मचर्य इन दश धर्मोका स्वरूपकथन माहात्म्यचिंतन एवं उनकी उपलब्धिनिमित्त अभ्यास तथा भावना की जाती है। साधक गुणमय परमात्मा उपरोक्त गुणोंकी भेदविवक्षा द्वारा पूजन कर के अपने मनको उज्ज्वल विचारों की ओर प्रेरित करता है। इस पर्व में जो पूजा की जाती है वह बहुत उद्वाधा, शान्ति तथा स्फूतिप्रद है। यह पर्व यथार्थ में संपूर्ण विश्वके द्वारा उत्साहपूर्वक मानने योग्य है । यदि दहालक्षण धर्म का प्रकाश जगत्में पाप्त हो जाय, तो संसार में स्वार्थ, राकोणता स्वच्छन्दता आदिवा जो प्रसार देखा जाता है, वह अंकुश महित हो जायगा और जगत् यथार्थ कल्याणकी ओर प्रवृस हो पवित्र 'मुघव कुटुम्बकम्' के भव्य-भवन निर्माणमें संलग्न हो जाय । इस पर्व की पूजा त उदार तथा उज्ज्वल भावनाओं से परिपूर्ण है । स्थानका अभाव होनेसे हम केवल सयमको समाराधनाक परिचव निमित्त लिखते हैं । छाततरायजी कहते है "उत्तम संयम मह मन में । भवभक माघ तेहैं। सुराग-नरक-पशु-पत्ति में नाहीं । आलस-हरन, करन सुख ठांहीं। ठांही, पृथ्वी, जल, आग, मारत, रूख, प्रस, करुना धरो। सपरसन, रसना, नान, नैना, कान, मन, सब वश करो। जिस बिना नहिं जिनराज सीझे, तु रुल्यो जग कीचमे । इक घरी मत विसरो करो नित, आवु जममुख बीचमें ।' पृथ्त्री आदि पंच स्थावर तथा त्रसकायकी रक्षा करते हुए पंच इन्द्रिय और मनको अपने अधीन रखने के लिए कितनो सुन्दर प्रेरणा को गई है। यदि संयम रत्नको सम्यक् प्रकार रक्षा न की गई, तो विषयवासनारूपी चोर इस निधिको लूटे बिना न रहेंगे ! कवि मायकको भतत सावधान रहने के लिए प्रेरणा करते हैं, अन्यया भविष्य अन्धकारमय होगा। संबमके समान मार्दन, आजव, ब्रह्मचर्य, सपश्चर्या, दान, आदिके विषयमें भी बड़े अनमोल पद लिखे गए हैं। इस प्रकारको गुणाराधना करने करते दोष संचयसे आत्मा बच कर परम-गरमा बनने की ओर प्रगति प्रारम्भ कर देती है । पोशकारण पर्व-इनमें दर्शनविशुद्धता, विनयसंपन्नता शील तथा व्रतोंका निर्दोष परिपालन, षट्नावश्यकों का पूर्णतया पालन करना, सतत ज्ञानाराधन, यथाशक्ति त्याग तया तपश्चर्या, साधु-पमाघि, साधुकी थैमावृत्य-परिचर्या, अरिहंत भगवान्, आचार्य तथा उपाध्यायको भक्ति, श्रुत-भक्ति, दवामय जिन शासनकी महिमाको प्रकाशित करना, जिन शासनके समाराधकोंके प्रांत यथार्थ वात्सल्य भाष रखना इन सोलह भावनाओं के द्वारा साधक विश्व उद्धारक तीर्थकर भगवान्का श्रेष्ठ पद प्राप्त करता है। इन सोलह भावनाओंको तीर्थकर पदके लिए कारणरूप Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधकके पर्व होनेसे 'कारण-भावना' कहते हैं । इनमें प्रथम भावना प्रधान है । जब कोई पवित्र मनोवृत्तिवाला तत्त्वज्ञ साधक जिनेन्द्र भगवान के साक्षात् सान्निध्यको प्राप्त कर यह देखता है कि प्रभुकी अमृत तथा अभय वाणीके द्वारा सभी प्राणी मिथ्यात्वभावको छोड़ सच्चे कल्याणके मार्ग में प्रवृत्त हो रहे हैं, तब उसके हृदय में भी यह बल-- प्रेरणा जागृत होती है कि भगवन्, मैं भी पापपंकने निमग्न दीन दुःखी पथभ्रष्ट प्रालियों को कल्याणक मा में समर्थ है। माऊँ. मैं अपनेको सौभाग्यशाली अनुभव करूंगा । इग प्रकार विश्व कल्याणकी सच्ची मावना द्वारा यह सारक ऐसे कर्मका संचय करता है, कि जिससे वह आगामी कालमें तीर्थकरके सर्वोच्च पदको प्राप्त करता है। सम्राट् बिम्बसार श्रेणिकने भगवान महावीर भुके समवशरण में इस भाव नाके द्वारा तीर्थकर प्रकृतिका सातिशय बंध किया और इससे वे आगामी कालमें महापा नामक प्रथम तीर्थकर होंगें। इन सोलह कारण भावनाओंके प्रभावपर जनपूजा घामतरायजी ने इस प्रकार प्रकाश डाला है "दरस विसुद्धि धरै जो कोई । ताको आवागमन न होई । विनय महा धारे जो प्रानी । शिव बनिता तसु सखिय बखानी। शील सदा दुद जो नर पाले । सो औरनकी आपद टाले । ज्ञानाभ्यास कर मन माहीं । ताके मोह-महातम नाहीं। जो संवेग भाव विसतारे । सुरंग मुकति पद आप निहारे । दान देय मन हरष विशेख । इह भव जस परभव सुख देखें । जो सप सपै खप अभिलाषा । चुरे करम-शिखर गुरु भाषा । साधु समाधि सदा मन लावें । तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावे। निसि दिन वयावृत्य करेया । सो निहचे भव-सिंधु तिरैया । जो अरिहन्त भगति मन आने । सो जन विषय कषाय न जाने। जो आचारज भगति करे हैं । सो निरमल आचार घरे हैं । बह-श्रुत-बन्त भगति जोकरई । सो नर संपूरन श्रुत धरई। प्रवचन भगति करें जो ज्ञाता । लहै ज्ञान परमानंद दाता । षट् आवश्यक काल जो साधे । सो ही रत्नत्रय आराधे। धरम प्रभाव करें जो ज्ञानी । तिन शिव मारग रीति पिछानी । वत्सल अंग सदा जो ध्यावे । सो तीर्थंकर पदवी पावे ॥९॥ एही सोलह भावना, सहित घरै व्रत जोय । देव-इन्द्र-नर-बन्ध पद, 'द्यानत' शिवपद होय ।।" संपूर्ण भाद्रपदमें भावनाओंका व्रत सहित अभ्यास किया जाता है। इन भावनाओंके अंतस्तलपर दृष्टि डालनेसे विक्षिप्त होता है, कि अत्यन्त महिमापूर्ण Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैनशासन त्रिभुवनवंदित तीधंकर-पद प्राप्त करनेवाले आत्माको कितनी उम्चको टिकी साधना आवश्यक होती है । जैन आगममें कहा है-कोई भी समर्थ मानव अपनो साधनाके द्वारा तीर्थकर बनने योग्य पुग्यका सम्पादन कर सकता है । इस प्रकार योग्यकालको प्राप्त कर साधक अपनी साधनाके पथमें प्रगति करता रहता है। मोहान्धकार और प्रमादको दूर कर आत्मजागरणकी ओर उन्मुख हो सात्त्विक वृत्तियोंको विकसित करना तत्त्वज्ञों का कर्तव्य है। चतुर साधक अनुकूल कालको प्राप्त कर अपने साध्यकी प्राप्ति निमित्त हृदयसे उद्योग करता है। इतिहासके प्रकाश में पुरातत्त्व प्रेमियोंका प्राचीन वस्तुपर अनुराग होना स्वाभाविक है, किन्तु किसी दार्शनिक विचार प्रणालीको प्राचीनताके हो आधारपर प्रामाणिक मानना समीचीन नहीं है। ऐसा कोई सर्वमान्य नियम नहीं है, कि जो प्राचीन है, वह समीचीन तथा यथार्थ है और जो अर्वाचीन है, वह अप्रामाणिक ही है। असत्य चोरी, लालच आदि पापोंके प्रचारकका पता नहीं चलता, अतः अत्यन्त प्राधीनताकी दृष्टि से उनको कल्याणकारी माननेपर बड़ी विकट स्थिति उत्पन्न हो जायगी । प्राचीन होते हुए भी जीवनको समुज्ज्वल बनाने में असमर्थ होने के कारण जिस प्रकार चोरी आदि त्याज्य है, उसी प्रकार प्रामाणिकताकी कसौटी पर खरे ने उतरनेके कारण प्राचीन कहा जाने वाला तत्त्वज्ञान भी मुमुक्षुका पथ-प्रदर्शन नहीं करेगा। कामिदासने कितनी सुन्दर बात लिखी है "पुराणमित्येव न साधु सवं न चापि नूनं नवमित्यवद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः ।।" प्राचीन होने मात्रसे सभी कुछ अच्छा नहीं कहा जा सकता और न नवीन होनेके कारण सदोष हो । सत्पुरुष परीक्षा कर योग्यको स्वीकार करते है किन्तु बज्ञानी दूसरेके मानके अनुसार अपनी बुखिको स्थिर करते है–थे स्वयं उचितअनुचित वातके विषय में विचार नहीं करते । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ इतिहासके प्रकाशमें तार्किक जैन आचार्य सिक्षसेन कहते हैं-प्राचीनताका कोई अवस्थित रूप नहीं है । जिसे हम आज नान कहते हैं, कुछ कालक पोत होने पर उसे ही हम प्राचीन कहने लगते हैं । उनका तर्क यह है "जनोऽयमन्यस्य मतः पुगतनः पुरातनैरेव समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनस्थितेषु कः पुरातनोश्वान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ।।" मरनेके अनन्सर अन्य पुरुषों के लिए हम भी प्राचीन हो जायेंगे और प्राचीनोंके सदश हो जायेंगे। ऐसी मितिमें प्रातनता कोई अवस्थित वस्तु नहीं रहती; अतएव पुरातन तथा नवीनका परीक्षण करके अंगीकार करना चाहिए । जैन तस्वन्नाम समीचीन तथा तर्काबापित होनसे मुमुक्षु के लिए वंदनीय है । प्राचीनतारे साथ सत्यका सम्बन्ध सोचनेवाले सभ्योंके लिए भी जैन सिद्धान्त माननीय है । भारतवर्ष में विदेशी शामन आनेपर जो पूर्व में पुरातत्त्वज्ञोंने खोज की थी, वह आजके विशिष्ट विकसित अध्ययनके उज्ज्वल भालोकमें केबल मनोरंजनकी वस्तु है. कारण सत्य प्रकाश में उसका कुछ भी मूल्य विदित नहीं होता । एलफिन्सटन नामक 'ग्रेज अपनी भारतीय इतिहासको पुस्तकमें लिखते हैं"जैनधर्म छठवीं या मातवीं ईसवी में उत्पन्न हुआ।" इस परंपराका अनुगमन टामस, देवर, जोस, मुल्ला आदि अनेक विद्वानों ने किया । इस विचारके आधार. पर जैनधर्मकी ऐतिहासिकताके विष यम बहुत भ्रम उत्पन्न हुआ; किन्तु आधुनिक शोध ने जनधर्मको अत्यन्त प्राचीन माननेकी अकाट्य सामग्री उपस्थित कर दी है : मेगस्थनीजके लेखोसे इस बातपर प्रकाश पड़ता है कि ईसवी सनसे चार सौ वर्ष पूर्व बड़े-बड़े नरेवा अपने विश्वासपात्र लोगोंको जैन श्रमणों-मनियों के पास भेजकर उनसे अनेक विषयोंपर प्रकाश प्राप्त किया करते थे । अजमेर के पास बडाली काममें एक जैन लेन' वीरनिर्वाण संवत् ८४ अर्थात् ईसवी सन् से ४४३ वर्ष पूर्वका महामहोपाध्याय राव गोरोशंकर हीराचन्द लोमाने स्वीकार किया है। इससे ज्ञात होता है कि माणसे लगभग २४०० वर्ष ! "The Jains appear to have originated in the 6th or 7th century of our era......" History of India P. 121, 2. "We also know from the fragments of Magesthenes that so late as the 4th century B. C. the Sarmanas or the Jain asce tics who lived in the woods were frequently consultecl by the kings through their messengers regarding the cause of things",-- Jain Gazette Vol. XVI. p 216. ३. "शीराच भगवते चप्ससीतिवसे कार्य जालामालिनिये रनिविठ मझिमिके" Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनशासन पूर्व राजपूतानामें जैनधर्मका प्रचार था। दिल्ली के अशोक स्तम्भ में जैनधर्मका 'निगांठ' शब्द द्वारा उल्लेख किया गया है। प्रति एम लेखमें बताया है कि सम्राट अशोकने अन्य सम्प्रदायोंके अनुसार नियन्य ( निगन्ध ) पंथ के लिए 'धर्ममहामात्य की नियुक्ति की यह लेख सब मन्ने २५ वर्ष अर्थात् आज २२२१ वर्ष पूर्व जैनधर्मको महत्वपूर्ण स्थितिको सुचित करता है । यदि वह महत्वपूर्ण अवस्था में न होता, तो उसके लिए सम्राट अशोक विशिष्ट मन्त्रीकी नियुक्ति क्यों करता ? "रेवेरेण्ड ले स्टेसन अध्यक्ष रावल एशियाटिक सोसाइटी इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि दि० जैन सम्प्रदाय प्राचीन समय से अबतक पाया जाता है। ग्रीक लोगोंने पश्चिमी भारतमें जिन 'जिमनोसोफिस्टो' का वर्णन किया है व जैन लोग थे। ये तो बौद्ध थे और न ब्राह्मण थे। सिकन्दरले दिगम्बर जैन समुदाय को तक्षशिला में देना था, उनमें से कालोनस या नामक दिन महात्मा फारस तक उनके साथ गये थे। इस युग में यह धर्म २४ तीर्थकरों द्वारा निपित किया गया, उनमें महावीर अंतिम हैं । मथुरा के कंकालोटोले में महत्त्वपूर्ण जैन पुरातत्वकी सामग्री के सिवाय ११० जैन शिलालेख मिले हैं। जो प्रायः कुशानवंशी राजाओं के समय के हैं । ि महाराव उन्हें प्रथम तथा द्वितीय शताब्दीका मानते हैं। एक खड्गासन जनमूर्तिपर लिखा है वह भर ( अरहनाथ) तीर्थकर की प्रतिमा संवत् ७८ में देवों द्वारा मिति इस स्तूपको सीमा के भीतर स्थापित की गई ।" इस स्तूपके विषय में फुहरर साहब लिखते है-"यह स्तूप इतदा प्राचीन है, कि इस लेख की रचनाचे समय स्तूप आदिका वृत्तान्त विस्मृत हो गया होगा । लिपिकी दृष्टि से यह लेख इण्डोसिथियन संवत् (शक ) अर्थात् सन् १५० स्त्रीका निश्चित होता है । इसलिए ईसवी सन्से अनेक शताब्दी पूर्व यह स्तूप बनाया 2. "As a sect the Digambaras have continued to exist among them from the old down to the present day; the only concl usion that is left to us that the Gymnosuphist, whom the Greeks found in Western India where Digambarism still prevails, were Jains and neither Brahmans or Buddhists and that it was a company of Digambaras of this sect that Alexander fell in with near Texila, one of them Calanus followed him to Persia. The creed has been preached by 24 Tirthankaras in the present cyele, Lord Mahavira being the Jast. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास के प्रकाश २१५ गया होगा। इसका कारण यह है कि यदि इसकी उस समय रचना की गई होती. जन कि मथुगके जैनी सावधानीपूर्वक अपने दानको खवच कगते थे, तो हमके निर्माताओंका भी नाम शनय ज्ञात रहता' ।" म्यजियम मयुराकी दूसरी रिपोर्ट में लिखा है कि मयूराके कफालीटीलामें ईसामे भी राधी पूर्वको महत्वपूर्ण जैन मामग्री उपलब्ध होती है। मथुरायो जैन और बौद्ध स्तूपोंकी गदृश्यसाके संबंध में डा० बलर (Dr. Buhler} या कथन है कि-'इस सादृष्यका कारण मम्भवत: यह नहीं है कि एक सम्प्रदारवालोंने अन्य सम्प्रदायको नकल की हो किन्तु दोनों सम्प्रदायोंने भारत की राष्ट्रीय कलाको अपनाया और इस कार्य के लिए दोनोंने उन्हीं कारीगरोंको रमला ।" वह सदृश्यता कंकालीटीलाके जैनस्थल तथा दुसरे बुझ स्थलों में उपलब्ध संभोसे प्रगट होनी है । इस संबंधम मथुरा म्यजियमके भूतपूर्व मयूरेटर डा. वासुदेवशरण पह लिखते हैं कि "प्राचीनताको दष्टिमे बौद्ध कलाके समान जन-कला भी है। जमा कि कंफाली टीलाके शिलालेखोंसे सूचित होता है कि ईमाये दो मदो पूर्व वहाँ जैन स्तूपका अद्भाव था।" ?. The stupa was so ancient that at the time, when the inscri ption was incised, its origin had been forgotlen. On the evidence of its character the date of the iscription may be referred with certainty to the Ircio-Scythian era a:d is equivalent A. D. SO. The stupa trust therefore have been built several centuries before the beginning of the christian era, for the name of its builders would assuredly have been known, if it had been erected during the period, when the Jains of Muttra carefully kept record of their donations." -Museum report 1890.91. 2. A famous Jaina establishment existed at Kankali Tila from the second century B. C. This site has proved a veritable mine of Jajna sculptures most of which are now deposited in the Lucknow Musuetii, 3. "The cause of this agreement is in all propanility not that adherents of one sect imitated those of the others, but that baith drew on the national Art of ludia and employed the same artists." Ep. Ind., Vol. 11, p. 322). %. This Similarity finds striking illustration on the large rium ber of railing pillars unearthed from the Jain site of Kankali Tila and the other Buddhists site in Mathura In point of antiquity also the claims of Jain Art are equal to those of Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैनशासन रिपोटके पृष्ठ ३९ में ईसवी सन १६२ को जैन तीर्थंकर वृषभनाधकी मूर्तिका उल्लेख है, जो एक कुटुम्छनीने विसअमानको यो तया जिसने अपने पति, अपने श्वसुर वा अपने गुरुका नाम उल्लेख किया है। म्युजियममें खङ्गासन और पद्मामन में कुमान कालीन जैन तीर्घकरोंकी मूर्तियां है। तमाम गतियोंदे ब-. में हुमा कालोत - स्मार्ग बात सूचित की गई है कि खगासन जैन मूति अपनी नग्नताले कारण पहनानी जाती है, किंतु पद्मासन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां वक्षस्थलके मध्यमे विद्यमान श्रीवत्स चिह्न के द्वारा पहचानी जाती है ।२। 'आभरणयुक्त वा सग्रन्थ खटगासन जैन मूर्तिका भी सद्भाव होता है यह बात पुरातत्त्वोंकी शोधसे प्रमाणित नहीं होतो । पद्मामन जैन मूति दिगम्बर है, अथवा नहीं है, इस विषयमें कभी सन्देह उत्पन्न हो भी जाता है, किन्तु प्राचीनतम खगासन जैन यतिका दिगम्बर मुद्रासे अस्ति पाया जाना, दिगम्बर संप्रदाय ही पुरातन जनधर्म है, इस दृष्टिको परमार्थ प्रमाणित करता है। एक बात और भी विचारणीय है, कि पनासन जनमुलिको पहिचान पक्षःस्थल में विद्यमान श्रीवत्स चिह्नसे होती है, यदि पुरातन जैनमूर्ति अदिगम्बर सम्प्रापानुसार सालंकार होती, तो उसमें श्रीवत्स चिह्नका दर्शन ही सम्भव नहीं होता, तब उनकी पहिचान भी न हो पाती। अतः अदिगम्बर सम्प्रदायकी अर्वाचीनता अबाधित सिद्ध होती है। . जैनधर्म में स्तूपोंकी मान्यताके विषयमें जिन्हें सन्देह है, दे कृपया महापुराणके सर्ग २२, श्लोक २१४ को देखें, जिससे जिनेन्द्र भगवान् के समवशरणमें मानस्तंभ, चैत्यक्षादिके माथ स्तुपादिका भी सद्भाव मताया है, यथा the Buddhists art as the inscription froun Kankali Tila testify to the existence of a Jaina Stupa there in the second century B. C. 1. Along the opposite wall of the rectangle in front of Bay No. 2 ja installed the inzage of Jaina Tirthankara Rishabhanath, (B. 4) dedicated in the year 84 (A.D. 162) of Kushan king Vasudeva hy a kutumbai who inentions the name of her husband, father-in-law and spiritual teacher. (P. 3). 2. In the rectangular corner of this court are arranged other Jain Tirthankára images, both scated and standing of the Kushana period and standing Jaina image is obviously idertified by its nudity but the seated Tirthankara images by the Srivatsa Symbol in the centre of the chest. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास के प्रकाशमें २१७ "सिद्धार्थचैत्यवृक्षाश्च प्राकारवनवेदिकाः स्तूपाः सतोरणा मानस्तम्भा स्तम्भाल्स केतवः ॥ २१४॥ | " यह भी वर्णन आया है कि बड़े रास्ते के मध्य में ९ स्तूप थे, जिनपर अरिहन्त तथा सिद्ध भगवान् की मूर्तियों विराजमान थीं । (२६२-६५) । अतः यदि सूक्ष्म परीक्षण किया जाय तो जिन शोधकोंने जैनियोंमें स्तूप नहीं होते इस भ्रमवश स्तूप मात्र देख उन्हें बौद्ध कह दिया है, उन्हें महत्त्वपूर्ण संशोधन अनेक स्थलोंके विषय में करना न्यायप्राप्त होगा। इतिहासकारोंने बहुतसी जैनपुरातत्त्वको महत्त्वपूर्ण सामग्रीको अपनी भ्रान्त धारणाओंके कारण बौद्ध सामग्री घोषित कर दिया है। स्मिथ साहब यह बात स्वीकार करनेका सोजन्य प्रदशित करते हैं कि कहीं कहीं मूलमे जैन स्मारक बौद्ध बता दिये गये हैं । डा० फ्लीट अधिक स्पष्टतापूर्वक कहते हैं कि समस्त स्तूप और पाषाणके कटघरे बौद्ध ही होंगे, इस पक्षपात जैन दोनों को जैन माने जाने में बाधा उत्पन्न की, और यही कारण है कि अब तक केवल दो ही जैन स्तूपों का उल्लेख किया गया है। २. उत्कल - उड़ीसा प्रान्त में पुरी जिलेके अन्तगंत उदयगिरि खण्ड गिरिके जैन मन्दिरका हाथीगुफावाला शिलालेख जैनधर्मकी प्राचीनताको दृष्टिसे असाधारण महत्वपूर्ण है। उस लेख में "नमो अरहंतानं नमो सब सिद्धानं " बादि वाक्य उसे जैन प्रमाणित करते हैं । यह ज्ञातव्य है कि शिला लेखमें आगत 'नमो सर्व मित्रानं ' वाक्य आज भी उड़ीसा प्रान्त में वर्णमाला शिक्षण प्रारम्भ कराते समय 'सिद्धिरस्तु' के रूप में पढ़ा जाता है। तेलगू भाषा में 'ॐ नमः शिवाय' 'सिद्धं नमः' वाक्य उस अवसर पर पड़ा जाता है। महाराष्ट्र प्रान्तमें भी 'ॐ नमः सिद्धस्यः' पढ़ा जाता है। हिन्दी पाठशालाओं में जो पहले 'अरे नामा सी' पढ़ाया जाता था वह 'ॐ नमः सिद्धम् का ही परिवर्तित रूप है। इससे भिन्न-भिन्न प्रान्तीय भाषाओं पर अत्यन्त प्राचीनकालीन जैन प्रभावका सद्भाव सूचित होता है । 2. "In some cases monuments which are really Jains, have been erroneously described as Buddhists" V. Smith1. "The prejudice that all stupas and stone railings must necessarily be Buddhist, has probably prevented the recognition of Jain structures as such, and upto the present only two undou bted Jain stupas have been recorded, Dr. Fleet Imp. Gaz...Vol. 11, p. 111. . English Jain Gazette p. 242 of 1920 Article by Prof, B. Sheshagiri Rao M, A on "Periods of Andhra culture." Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन है कि शिलालेख में वह महाराज वेदमा देके विपति पुष्यमित्र के पाससे भगवान् वृषभदेवकी मूर्ति वापिस लाये | तीन सौ वर्ष पूर्व मगधाधिपति नन्दनरेश उस मृतिको अपने यहाँ कलिंगने ले गए थे । स्व० पुरातत्त्वज्ञ वरि० श्री काशीप्रसाद जायसवालने उस लेखका गम्भीर अध्ययन करके लिखा है कि 'अब तक उपलब्ध इस देशके लेखोंमें जैन इतिहासकी दृष्टिसे बहू अत्यन्त महत्वपूर्ण शिलालेख है । उससे पुरुष के लेखोंका रामर्थन होता है। वह राज्यवंशके क्रमको ईमासे ४५० वर्ष पूर्व तक बताता है। इसके सिवाय उससे यह सिद्ध होता हूँ कि भगवान् महावीर के १०० वर्षके अनन्तर ही उनके द्वारा प्रवर्तित जैनधर्म राज्यधर्म हो गया और उसने उड़ीसा में अपना स्थान बना लिया ।' २१८ इस मूर्तिके विषयमें विद्यावारिधि वैरिस्टर संपतरावजी लिखते हैं"This statue most probably dated back prior to Mahavira's time and possibly even to that of Parsvanatha. " - (Rishabhadeva p. 67 ) वह मूर्ति बहुत करके महावीरके पूर्व की होगी और पार्श्वनाथ से पूर्ववर्ती भी सम्भवतीय है ।" आज लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भी जैनधर्मके आय तीर्थकर भगवान् ऋषभदेवकी मूर्तिकी मान्यता इस जैन दृष्टिको प्रामाणिक सूचित करती हैं कि जैनधर्मका उद्भव इस युग में भगवान् महावीर अथवा पाश्वनाथसे न मानकर उनके पूर्ववर्ती भगवान् वृषभदेव मानना उचित है । जैन शास्त्रोंमें चौबीस तीर्थंकर श्रेष्ठ महापुरुष माने गये हैं। हिन्दू शास्त्रों में २४ अवतार स्वीकार किए गए हैं । बौद्धधर्ममे २४ बुद्ध माने गए हैं। जोस्ट्रोघन (Zorastrians) मे २४ अर (Ahuras) पाने गये हैं । यहूदी धर्म में भी १. "But from the point of view of the history of Jainism, it is the most important inscription yet discovered in the country. It confirms Pauranierecord and carries the dynastic chronology to c. 450 B. C. Further it proves that Jainism entered Orrisa and probably became the state religion within hundr year of its founder Mahavira," ed २. " नमो अरह (न्) तानं नमो सर्वाविधानं । ऐरेन महाराजेन महामेघवाहन · *** "मा "कलिंगाधिपतिना सिरिखारवेलेन " वारसमे च ब से " (ग) च राजानं वह (म) तिमित पादे व (1) दाप (य) ति, नंदराजनितं कलिगजिन संनिवेस "अग - भगवन्त्रमुं नयति' J * * * | " - जे० सि० भास्कर भा० ५० १, पृ० २६, ३० । thera 1 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासके प्रकाशमें २१९ आलंकारिक भाषामें २४ महापुरुष स्वीकार किये गये है।" जनेतर स्रोतों द्वारा जैनधर्म के चौबीस महापुरुयोंकी मान्यताका समर्थन यह सूचित करता है कि जैन मान्यता सत्यक आधारपर प्रतिष्ठित है। इसी प्रकार जैनियों में प्रचलित 'जुहार' शम्द का भारतमें व्यापक प्रचार जैन संस्कृति के प्रभावको स्पष्ट करता है । 'ज' मुगादि पुरुष भगवान् वृषभदेव के प्रामका योतक है, 'हा' का अर्थ है, जिनके द्वारा सर्व संकटोका हरण होता है और 'र' का भाव है, जो सर्व जीवधारियोंके रक्षक हैं इस प्रकार जिनेन्द्र गुण वर्णन रूप 'जुहार' शब्दका भाव है । 'जुहार' शन्दका व्यवहार जैन बंधु परस्पर अभिवादन करते है। तुलसीदासजोकी रामायण में 'जुहार' शब्दका अनेक बार उपयोग किया गया है। अयोध्याकाण्डमे लिखा है कि चित्रकूटकी ओर जब रामचन्द्र जो गये हैं, तब योग्य नियास भूमि को देखने समय पुरवासियोंने रघुनाथजीसे जमार की है। ''ले रघुनाथहि ठाउँ देखावा । कहेउ राम सब भांति सुहावा । पुरजन करि जोहार धर आए । धुवर संध्या व.रम सिधाए ।। ८९-३॥" पुरवासियोंके द्वारा इस शब्दका । इसकी नमसन को शक्ति करता है। भीलोंने भी रामचन्द्रजीरो जुहारकी है और अपनी भेंट अपित की है"करहिं जोहार भेंट धरि भागे। प्रभुहिं विलोकहि अति अनुरागे । प्रभुहि जोहारि बहोरि बहोरी । वचन विनीत कहहिं कर जोरी ।।१३५।।'' अयोध्यावासियोंन रामबनधासके पश्चात् 'भरतजीके अयोध्या आगमन पर भी इस शब्द का प्रयोग किया है"पुरजन मिलहि ने कहहि कछु, गहि जोहारहि जाहिं । भरत कुसल पूछि न सकहिं, भय विषाद मन मांहि ।। १५९ ।।" इत्यादि प्रमाण पाये जाते है। साल्हाखंड भी धीर क्षत्रिय तथा राजा लोग परस्परमें 'जुहार' मारा अभिवादन करते हुए पाए जाते है। 'पपिनीहरण' अध्याय में पृथ्वीराज ओर जयचंदमें 'जुहार' गन्दका प्रयोग आया है "आगे आगे चंद भाट भए पाछे चले पिथौरा राय । भारी वैठक कनउजियाको भरमा भूत लगो दरबार ।। जाइ पिथौरा दाखिल हो गए । दोउ राजनमें भई जुहार ॥४०॥" 1. Vide-Rishabhadeva, the Four.der of Jainism p. 58, also Key of Knowledge. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनशासन माखोकी लड़ाईमें देखिए "इक हरिकारा दौड़ात आयो । जा आल्हाको करी जुहार ॥" 'सिरसा समर' में मलसामने धोरसींगसे जुहार की है "सिंह की बैठक क्षत्र 'बैठे। सबके बीच वीर मलिखान । साथी अपने ताहर छोड़े। अकिले गयो धीर सरदार ।। करो जुहार जाय समुहे पर । ऊँची चौफ्री दई इराय । देखि पराक्रम नर पलिखेको धीरज मनमें गए सरमाय । करि जुहार धीरज तब चलिये । पहुंचे जहाँ वीर चौहान ।" इस प्रकार बहुतमे प्रमाण उपस्थित कियं जा सकते हैं, जिनसे जुहार शब्दका व्यापक प्रचार सार्वजनिक रूपसे होता हुआ ज्ञात होता है । शिवाजी महाराज ने अपने एक पत्रा भा इसका प्रयोग किया है । 'भोर किल्ले रोहिडा प्रति राजश्री शिवाजी राजे जोहार ।" (मराठी वाङमयमाला-पदरर्धनकृत) जुहार शनकी व्यापकतापर गहरा प्रकाश रहीम कविफ इस पद्य द्वारा पड़ता है "सब कोई सबसों करें राम जुहार' सलाम । हित रहीम जब जानिये जा दिन अटके काम ।।।" इस प्रकार भारतीय जीवन के साहित्यपर सूक्ष्म दृष्टि डालमेसे जैनत्वक व्यापक प्रभावको ज्ञापित करनपाली विपुल सामग्री प्रकाश आमे बिना न रहेगी। भारत में ही क्यों बाहरी देशों में भी ऐसी सामग्री मिलेगी । अमेरिकाका पर्यटन करनेवाले एक प्रमुख भारतीय विद्वान्ने हमसे कहा था कि वहां भी जैन संस्कृति के चिल्ल विद्यमान हैं। जिन लेखकोंने वैदिक दृष्टिकोशको लेकर प्रचारकी भावनासे उन स्थलोंका निरीक्षण किया उन्होंने अपने संप्रदायके मोहवश जैन संस्कृति विषयक मस्यको प्रगट करने का साहस नहीं दिखाया। माशा है अन्य न्यायशील विद्वान् भत्रिध्यमें उदार दृष्टिो काम लेंगे। १. 'जहार' को भ्रांतियश जौलर अतका द्योतक कोई-कोई मोबने है, किन्तु उपरोक्त विवेचन द्वारा इसका वैज्ञानिक अर्थ स्पष्ट होता है। जैन संस्कृतिके अनुरूप भाव होने के कारण ही जैन जगत्में अभिवादनके रुपम इसका प्रचार है । अतः 'जौहर'के परिवर्तित रूपमें जुहारको मानना असम्यक है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास के प्रकाश में २२१ "हिन्दूशास्त्रोंने विदित होता है कि गुमके आदि भगवान् वृषभदेवने जैनधर्मको स्थापना की। वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महामानव थे, जिनकी हिन्दू के अवतारों में भी परिगणना की गई है। जैन शास्त्रोंके समान ही उनके माता-पिता मरुदेवी तथा नाभि राजा कहे गये है । भारतवर्ष का नाम जिन चक्रवर्ती भारतके प्रभाववश पड़ा वे भगवान् वृषभदेवके गुणवान् पुत्र हिन्दू शास्त्रों में भी कहे गये है । कूर्मपुराणमें लिखा है कि- "हिमवर्ष में महात्मा नात्रिके मध्देषीसे महादीप्तिधारी वृषभ नामक पुत्र हुआ। ऋषभसे भरत हुआ, जो सो पुत्रोंमें ज्येष्ठ एवं बोर था ।" मार्कण्डेय पुराण के कथनानुसार पिता ॠषभने दक्षिण दिशामें स्थित हिमवर्ष भरतको दिया। इससे उस महात्माके कारण यह भारतवर्ष कहलाया। डॉ० राधा कृष्णन्‌का कथन है, "जैन परंपरा ऋषभदेवको जैनधर्म का संस्थापक बताती है जो अनेक सदी पूर्व हो चुके हैं। इस विषय प्रमाण विमान है कि ईस्वी सन्से एक शताब्दी पूर्व लोग प्रथम तीर्थकर ऋषभदेवकी पूजा करते थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्धमान अथवा पार्श्वनाथके पूर्व में भी जैनधर्म विद्यमान था । यजुर्वेदमे ऋषभदेव अजितनाथ तथा अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरोंका उल्लेख पाया जाता है । भागवतपुराणसे, ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे; इस विचारत होता है।" १. "What is really remarkable about the Jain account is the confirmation of the number four and twenty itself from nonJain sources. The Hindus indeed, never disputed the fact that Jainism was founded by Rishbhadeva in this half cycle and placed his time almost at what they conceived to be the commencement of the world..." Rishabhadeva, p. 66 २. "हिमालयन्तु यद्वषं नाभेरासीन्महात्मनः । तस्यर्षभोऽभवत्पुत्रो मदेव्यां महाद्युतिः ॥ ऋषभात् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः।” -Kurma Purana LXI, 37-38. ३. 'ऋषभात् भरतो जज्ञे वोरः पुत्रशताद्वरः ।। सोऽभिविष्यर्षभः पुत्रं महाप्राव्राज्यमास्थितः । हिमालयं दक्षिणं वर्ष भरताय पिता ददौ ॥ तस्मात्तु भारतं वर्ष तस्त्र नाम्ना महात्मनः । " -Markandeya Purana L. 39-41. Y. Jain tradition ascribes the origin of the system to Rishabhadeva, who lived many centuries back. There is evidence to Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन वैदिक विद्वान् प्रो० विरूपाक्ष एम० ए० वेदतीर्थ ऋग्वेदमें भगवान् वृषभदेव सद्भाव ज्ञापक मंत्रको बताते हुए लिखते हैं ऋषभं मासमानानां सपत्नानां विषासहि । हन्तारं दाश्रूणां कृधि विराजं गोपितं गवाम् ॥-१०१-२१-६६॥ हे तुल्यदेव, क्या तुम हम उच्च वंशवालों में ऋषभदेव समान श्रेष्ठ आमाको उत्पन्न नहीं करोगे । उनको अर्जुन उपाधि आदि धर्मोपदेष्टापनको द्योतित करती है। उसे दात्रुओं का विनाशक बनाओ । २२२ १। विष्टपात् विद्वान् श्री बिनोवा भावे लिखते हैं, "जैन विचार निःसंशय प्राचीन काल से है, क्योंकि, "अन् इदं दयसे विश्वमस्त्रम् इत्यादि वेद वचनों में वह पाया जाता है ।" इस पंक्तिका अर्थ वेदवे व्याख्याकार सायणके शब्दों में वह है-"हे अर्हन्, तुम हम विशाल विस्की रक्षा करते हो ।" इस वाक्यका भाव भी जैनियोंत्रे मूलभूत जीवदया या अहिंता सिद्धान्त के अनुकूल है । जैनशासन के आराधकों इष्ट देव 'अर्हन्त' हैं, यह बात सर्वत्र उ है । यही कथन हनुमन्नाटक के इस प्रसिद्ध पद्मसे स्पष्ट होता है 1 "यं शेवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्त्तेति नैयायिकाः 1 अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकरः सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथः प्रभुः ॥ ३ show that so far back as the first century B. C., there were people, who were worshipping Rishabhadeva, the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhaman or Parsvanatha. The Yajurveda mentions the names of three Tirthankaras - Rishabha, Ajitanath and Arishtanemi. The Bhagawatpurana endorses the view that Rishabhadeva was the founder of Jainism."-Indian Philosophy p. 287, Vol. I, 1. "Rishabhadeva," २. पूर्ण वेद मंत्र इस प्रकार है : अर्हन् बिभषि सावकानि अन्य अन् निष्कं यजतं विश्वरूपम् || अर्हन् इदं से विम्वम् । न व ओजीयो रुद्रत्वदस्ति ॥१२. ३३, १० । Vide-A vedic Reader' by Macdonell Pp. 63. ३. दौबलोग जिसकी 'शिव' कहकर उपासना करते हैं, वेदान्ती लोग 'ब्रह्म', J बौद्ध लोग 'बुद्धदेव' प्रमाणप्रवीण नैयायिक लोग 'कर्ता', जैनधम निलम्बी 'अर्हन्त' और मीमांसक लोग 'कर्म' रूपमें जिसे पूजते हैं, वह त्रिलोकनाथ भगवान् आपकी मनोकामना पूर्ण करे । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास के प्रकाशमें २२३ संस्कृतके पुरातन नाटक महाराणसका एक जीवसिद्धि नामका पाष दिगम्बर जंन मुनि के रूप में आकर कहता है ‘सासणमलिहन्ताणं पडिवज्जह मोहवाहिवेजाणं 1 जे मुत्तमात्तकडुझं पच्छा पत्थं उदिसति ।।...अंक ४ अरहंतों के शासनको स्वीकार करो, कारण वे मोहल्याधिक निवारणमें ध हैं। उनकी औषधि प्रारम्भमे कटु क, किन्तु पश्चात् लाभप्रद होती हूं । इस प्रकार अनेक प्रमाणोसे यह निर्णय सिद्ध होता है, कि 'अहंन्त" शब्द जैनधर्मके इष्ट देवका द्योतक है। हा मोधोका कथन है, "भगवान पार्श्वनाथको जैनधर्म के संस्थापक प्रमाणित करने वाले साधनोंका अभाव है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेवको जैनधर्मका संस्थापक प्रमाणित करनेम जैनपरम्परा एकमत है । इस परम्परामें, जो उनको प्रथम तीर्घकर बताती है, कुछ ऐतिहासिक तथ्य संभवनीय है ।" पूर्वोक्त अनेतर प्रमाण भी जब ऋषभदेवको जैनधर्मके संस्थापक बताते हैं, तब उसमें निश्चित ऐतिहासिक तथ्य मानना होगा अचमा एतिहासिक तथ्य किसे मानेंगे? यही मात रिस्टर चंपतरायजी भी कहते है-'If this is not bistory and historical confirmation, I do not know what else would be covered by these term."-(Rishabhadeva p. 66). वैदिक साहित्यमें भर्हन, श्रमण, 'मनु यः वातवसनाः', प्रात्य, महानात्व आदि दान्द्रों द्वारा जैन परम्पराका उल्लेख्न किया गया है। घी काशीप्रसाद जायसवालने लिखा है कि लिच्छयि लोग म्रात्य अथवा अबाह्मण-क्षत्रिय १. "मवंशो जिप्तरागादिदोषस्त्रलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी प देवोहन परमेश्वरः ।। A Superior divinity with the Jainas vide Apte's Sanskrit English Dic. p. 55. २. "There is nothing to prove that Parsva was the founder of lainissn. Jain tradition is unanimous in making Rishabha, the first l'irthankara (as its founder) There may be some thing historical in the tradition, which makes him the first Tirthankara." 3. "They are called Vratyas or unbrahmanical Kshatriyas; they had a republican form of Government; they had their own shrines, their non-Vidic worship; their own religious leaders%3; they patroniscd Jainism."--Modern Review. p. 499, 1929, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैनशासन . कहलाते थे। उनकी प्रजातंत्र रूप शासनपद्धत्ति थी। उनके देवस्थान एपक थे । जनकी पूजा भवैदिक थी। उनके धर्मगु पृथक थे । ये जैनधर्मका संरक्षण करते थे!" प्रोफेसर बनवतीने अथर्ववेदमें अनेक बार उल्लिखित वात्यका अर्थ यश कतिमा विपरीत पालवाना किया है। प्राचीन प्रतिवाले, वेद आदिका परिशीलन कर महान् विद्वान् पं० टोडरमलजी ने अपने 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' सत्यमें अनेक अवतरण देकर बताया है कि वेदोंमें चौबीस तीर्थकरोंको वन्दना की गई है। उसमें नेमिनाघ, सुपार्श्वनाथ नामक २२ तथा सातवें तीर्थकरका उल्लेख किया गया है, किन्तु वर्तमान वेदके संस्करणों में अनेक मंत्रोंका दर्शन नहीं होता। इसका कारण भी बैरिस्टर अम्पतरायसीके काग्दोंमें यह है कि सांप्रदायिक विद्वेषवश प्रन्थ में काट छांट अवश्य हुई है । 'श्री हरिसस्य भट्टाचार्य एम० ए० सदृश उदार विद्वान् 'भगवान अरिष्टनमि' नामक अंग्रेजी पुस्तक (पृ. ८८, ८९) में नेमिनाथ भगवानको ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार करते हैं। यदि महाभारतके प्रमुख पुरुष श्रीकृष्ण इतिहासको भाषामें अस्तित्त्व रखते हैं, तो उनके चचेरे भाई परम दयालु भगवान् नेमिनायको कौन सहृदय ऐतिहासिक विभूति न मानेगा, जिनके निर्वाण स्थल रूपमें उर्जयन्त गिरि पूजा जाता है ? जनेसर साहित्य, जैन वाङमय सथा शिलालेख आदिके प्रकाशमें जनधर्म भारतका सबसे प्राचीन धर्म प्रमाणित होता है । जनशास्त्रोंका वर्णन और उसकी यथार्थताका परिज्ञान करनेवाली मयुराको अनस्तुप आदि सामग्रीको दृष्टिमें रखते हुए बी विसेन्ट स्मिप लिखते हैं-"इन खोजोंसे लिखित जैन परंपराका 1. Eng. Jain Gazette part G, vol XXXI. 2. "It is interesting to note that Jain writers have quoted many other passages froin the Vedas themselves, which are no longer to be found in the current editions. Weeding has very likely been carried out on a large scale. This may be accounted for by the bitter hostility of the Hindus towards Jainism in recent historical times."......Rishabhadeva P.68. 3. The discoveries have to very large extent supplied corrobo ration to the written jain tradition and they offer tangible and incontrovertible proof of the antiquity of the Jain religion and of its early existence very much in its present form. The series of twenty four pontifts (Tirthamkaras) each in his distinctive emblem was evidently firmly believed in at the beginning of the Christian era." Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासका प्रकाशमें २२५ अत्यधिक समर्थन हुआ है। वे इस बातके स्पष्ट और अकाट्य प्रमाण है कि जैनधर्म प्राचीन है और वह प्रारंभ में भी दर्तमान स्वरूपमें था। ईस्वी सन्के प्रारंभमें भी चौबीग तीर्थकर अपने-अपने चिह्न सहित निश्चयपूर्वक माने जाते थे।" ____ जब स्मिथ सदृश प्रकाण्ड ऐतिहासिक विद्वान् जनपरंपराके प्रतिपादनसे अविरुद्ध सामग्री को देखकर उसे अकाट्य कहते हैं तब ऐतिहासिक क्षेत्रमें विज्ञ पुरुषोंका जैन मान्यताओं को उचित भावर प्रदान करना चाहिए। जैनवाङ्मयको शब्दावली आदिमें कुछ साश्य देखकर कोई कोई लोग जैन और बौद्ध धर्मोको अभिन्न समझा करते थे, किन्तु अर्वाचीन शोष दोनों धर्मोको भिन्नताको पूर्णतया स्पष्ट करती है । संवत १०७० मे रचित अपने 'धर्मपरीक्षा' नामक संस्कृत ग्रन्थमें अमितगति आचार्य कहते हैं कि भगवान् पार्श्वनाथके शिष्य मोडिलायन नामक तपस्वीने वीर भगवानसे' रुष्ट होकर बुद्ध दर्शन स्थापित किया और अपने आपको शुद्धोदनका पुत्र वुद्ध परमात्मा कहा ।' __ जैन और बौद्ध साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले विमेषज्ञ डाक्टर विमलचरण लाने बताया है कि-कच शब्द जैन वाङमयमें जिस अर्थमें प्रयुक्त होते है, उन शब्दोंको बौद्ध साहित्य में अम्प अर्थ में लिया गया है । कुछ जैन शब्द बौद्धोंमें नहीं पाये जासे हैं। जैसे आकाशका जो भाष जैनोंने ग्रहण किया है, उसका बौद्ध ग्रंथों में अभाव है। जोद पान्दका अर्थ जनों में सचेतन किया गया है। बौद्धोंमें उसे प्राणवाची कहते हैं | जैन शास्त्रों में आसवको अर्थ है कम के आगमनका द्वार, किन्तु बौद्ध शास्त्रोंमें उसे 'पाप' का पर्यायवाची कहा है । जैनियोंके समान बौद्धोंमें निर्जराका भाव नहीं है। पूर्ण स्वतंत्रताका घातक 'मोवस्त्र' का बौद्धोंमें अभाव है। सावन, स्थिति, विधान आदि जैनियों की बातें बौद्ध साहित्यमें नहीं हैं। 'श्रावक' का अर्थ जैनिया में गृह स्थ होता है । बौद्ध 'भिक्खू' को श्रादक कहते हैं । 'रत्नत्रय' का भाव दोनों में जुदा-जुदा है । जैनशास्त्रों में जैसा षड्दव्योंका वर्णन है, वैसा बौद्ध साहित्यमें नहीं है । इन शब्दोंके अर्थोपर गंभीर विचार करते हुए डॉ० कोवीने एक महत्त्वपूर्ण शोध की, कि "भासव', 'संवर' सदश्य शब्दोंका जैन साहित्यमें मूल अर्थमें उपयोग हुआ है और १, "रुष्टः धोवीरनाथस्य तपस्वी मोडिलायनः । शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुधदर्शनम् ।। शुद्धोधनसूतं बुद्धं परमात्मानमवयीन् ।। अ० १८।" 2. "Vide–The Introduction to BHAGAWAN MAHAVIRA AURA MAHATMA BUDDHA. १५ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जैनशागन बौद्ध साहित्य में उसका अन्य अर्थमें (Metaphorically) प्रयोग हुआ है, अतः मूल अर्थका प्रयोग करनेवाला जैनधर्म बौद्धधर्मकी अपेक्षा विशेष प्राचीन है। ___उto जैकोबाकी जनधमकी प्राचीन प्रमाणित कर उसे बौद्धधर्मसे भिन्न सिख करने वाली युक्तिनों में ये मुख्य है परातन बौद्ध साहित्यमें जैनधर्म सम्बन्धी मान्यतामों आदिका उल्लेख पाया जाता है । श्रीघनिकायके ब्रह्मजाल सुतकी टीका 'जलकाय' जीवोंका वर्णन है। उसमें आजोवक संप्रदायकी अात्मामें वर्ण मानने वाली मान्यताका निराकरण किया गया है । सामन्य फलसुत्त पाश्च नायके नियम चतुष्टयका वर्णन है । मजिसमनिकाय में महावीरक आराधक उपाली नामक श्रावकका बौद्धधर्मी बनने का उल्लेख है । उसमें जन धर्म सम्बन्धी मान्यता मन, वचन, कायको दण्डित करनेका वर्णन है । अंतरनिकायम राजकुमार अभय इस जन मान्यताका उल्लेख करता है कि तपश्चर्या कर्मोका नाश होता है और आत्मा पूर्ण ज्ञानको प्राप्त करता है । उसमें दिखप्त और उपाराथ (Oposatha) नामक जैन व तोंका भी उल्लेख है । महावगामें सिंह सेनापति महावीरका पक्ष छोड़कर बोधर्म अंगीकार करता हुआ बताया गया है। दौशास्त्रों में निग्रन्थों-जैनोंका दोद्धोंके प्रतिद्वन्दीके रूप में वर्णन आता है और उनमें कहीं भी यह नहीं लिखा है कि जैनधर्म एक नवीन धर्म है । दूसरी बातममखलि गोबालके द्वारा परिगणित धमौके पभेदोंमें निग्रन्थों की तीसरे सम्बरम गणनाको गई है। नवीन धर्मको इस प्रकार गणनाका महत्त्व नहीं प्राप्त होता। निग्रंन्ध पिताकी अनिय सन्तान 'सच्चचक' (Sachchaka) का युद्धसे विवाद हुआ था। इससे जैनधर्म बौद्धधर्मका भेद है यह बात खंडित होती है। डा. जकोबीका यह भी कथन है कि जैन ग्रन्थों में विद्यमान साक्षियों और परम्पराश्रीको उपेसा करनेके लिए उचित साधनसामग्रीका अभाव है। उनमें जैनधर्मकी प्राचीनताका अनेक स्पलोंपर उल्लेख विद्यमान है। ___ जैनतत्वज्ञानके आधारपर भी जनों की प्राचीनता प्रमाणित होती है । जैनदर्शन में 'जोयों का वर्णन अन्य दर्शन की अपेक्षा जुदा हूँ | जन तत्त्वोंकी गणना करते समय 'गुण'को पपक पदार्थ नहीं बताया है। प्रज्योंमें धर्म और अधर्म द्रव्यों का उल्लेख किया गया है। इससे जोत्री इस निर्णयपर पहुँचते है कि इंडोआर्यन इतिहासके अत्यन्त प्रारंभ कालम जैनधर्मका उद्भव हुआ था ।' 1. Vide:-Introduction Out lines of Jainistn.' •p. XXX to XXXIII. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासके प्रकाशमें ૨૨૭ प्रोफेसर चक्रवर्ती मद्रासने वैदिक साहित्यका तुलनात्मक अध्ययन कर यह शोध की कि कमसे कम जैनधर्म उतना प्राचीन अवश्य है, जितना कि हिन्दूधर्म । उनको तर्कपद्धति इस प्रकार है। थैदिक शास्त्रोंका परिशीलन हिंसात्मक एवं अहिंसात्मक यजोंका वर्णन करता है। 'मा हिस्थात् सर्वभूतानि' जीव सष मत करो' की शिक्षाके साथ 'सर्वमेघे सर्ष हम्पात' सब मेघ यज्ञमें सर्वजीवोंका हनन करनेवाली बात भी पाई जाती है। ऋग्वेदमें मुनःक्षेपकी कथा आई है, उसमें अहिंसात्मक बजके समर्थक वसिष्ठ मुनि है और हिंसात्मक बलिदानके समर्थक विश्वामित्र ऋषि है ह वाचार बार है . अहिंसा पाका समर्थन क्षत्रिय नरेश करते हैं और हिंसात्मक दलिदानकी पुष्टि ब्राह्मणवर्गके द्वारा होती है । दैदिक युगके अनन्तर ब्राह्मणसाहित्यका समय भाया । उसमें पूर्वोक्त धाराद्वयका संघर्ष वृद्धिगत होता है । शतपय बाह्मणमे कुरुपांचालके विप्रवर्गको आदेश किया गया है कि तुम्हें काशी, कौशल, विनेह, मगध की ओर नहीं जाना चाहिए, कारण इससे उनकी शुद्धताका लोप हो जायगा । उन देशोंमें पशुबलि नहीं होती है, वे लोग पशुबलि निषेधको सच्चा धर्म बताते हैं । ऐसी अवस्था में कुरुपांचाल देशयालोंका काशी आदिकी ओर जाना अपमानको आमंत्रित करता है। पूर्वको और नहीं जाने का कारण यह भी बताया है कि वहाँ क्षत्रियोंकी प्रमुखता है, वहाँ साह्मणादि तीन वर्गों को सम्मानित नहीं किया जाता। इससे पूर्व देशोंकी ओर जानेसे कुष्पांचालीय विप्रवर्गके गौरवको सति प्राप्त होगी। वाजसनेयो संहितासे विदित होता है कि पूर्व देशके विद्वान् शुद्ध संस्कृत भाषा नहीं बोलते थे। उनकी भाषामै 'र' के स्थानमें 'ल' का प्रयोग होता था।" इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस समय प्राकृत भाषाका प्रचार था, जिससे पाली तथा अर्वाचीन प्राकृत भाषाकी उत्पत्ति हुई। प्राकुत भाषाका प्रयोग जैन साहित्य में पाया जाता है । उपनिषद्-कालीन साहित्यका अनुशीलन सूचित करता है कि उसमें आत्मविद्याके साथ ही साथ तपश्चर्याको भी उच्च धर्म बताया है। इस युगमें हम देखते हैं कि कुछपांचालीय विप्रगण पूर्वीय देशोंकी ओर गमन करनेको उत्कण्ठित दिखाई पड़ते हैं कारण वहाँ उन्हें आत्मविद्याके अभ्यास करनेका सौभाग्य प्राप्त होता है । पहले जिसको में फुधर्म कहते थे, अब उसे हो प्राप्त करनेको वे लालायित है । याज्ञवल्क्य और राजर्षि जनक आत्मविद्याके समर्थक हैं और अप्रत्यक्ष रीतिरी पशुबलि वाले पुरातन सिद्धान्तका निषेध करते है। इस प्रकार आरमविद्याके रुमर्थक ही पशुबलिके विरोधक थे । इनको ही प्रोफेसर चावर्ती १. “सामणमलिहताण पडिवजह"-युद्वारास अंक ४ । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैनशासन जैनधर्मफे पूर्व पुरुष कहते हैं । जैनधर्मके अनुसार शत्रिय कुलमें उत्पन्न होने वाले चौबीस तीर्थकर ही अहिंसा धर्मका संरक्षण करते हैं। अतएव यह दृढ़ता पूर्वक Kा जा सकता है कि जनधर्म कमसे कम' दिक धर्म के समान प्राचीन अवश्य हैं। कोई-कोई व्यक्ति सोचते हैं, कि वेदमें जैन संस्कृतिक संस्थापक तथा उन्नायकोंका उल्लेख क्यों आता है, जम कि केंद्र अन्य धर्मको पूज्य वस्तु है ? इसके समाधानमें किन्हीं किन्हीं विद्वानोंका यह अभिमत है कि जब तक वेद अहिंसाके समर्थक रहे, तब तक वे जंनियोंके भी सम्मानपात्र रहे। जब 'अजबष्टव्यम्' मंत्रके अर्थपर पर्चत और नारदम विवाद हुआ, तब न्याय-प्रदाताके रूप में मोहवश राजा वसुने 'अन्ज' शब्दका अर्थ अंकुर उत्पादन शक्ति रहित तीन वर्षका पुराना घान्य न करके 'करा' बताया और हिमात्मक बलिदानका मार्ग प्रचारित किया। जन हरिवंशपुराणकी' इस कथाका समर्थन महाभारतमें भी मिलता है । इस प्रकार अहिंसात्मक वेदको धारा पशु बलि की ओर झुकी। अतः अहिंसाको अपना प्राण माननेवाले जैनियोंने वेदको प्रमाण मानना छोड़ दिया। पूर्व में वेदोंका जैनियोंमें आदर था, इसलिये हो वेदमें जैन महापुरुषों से सम्बन्धित मंत्रादिका सद्भाव पाया जाता है, किन्तु वेद है कि साम्प्रदायिक विद्वेषके कारण उस सत्यको विनष्ट किया जा रहा है। केन्द्रीय घारा सभाके भूतपूर्व अध्यक्ष सर षण्मुखं पेट्टोने मद्रासमें महावीरजयंती महोत्सवपर अपने भाषणमें कहा था कि-----आर्य लोग बाहरस भारतमें आए थे। उस समय भारतमें जो द्रविड़ लोग रहते थे, उनका धर्म जैनधर्म ही था । अतः प्रमाणित होता है, कि भारतवर्षके आदि निवासी जैनधर्मफे आराधक रहे हैं । 'ऋग्वेदमें पुरातत्वोंको भारतवर्ष के प्राचीन अषिवासियों के विषयमें महत्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है । आर्य नामसे कहे जाने वाले लोग तो बाहरसे आए थे। उनके सिवाय जो लोग यहाँ रहते थे, उनको वेदमें घृणित शब्दों में 1. "We may make bold to say that Jainism, the religion of Ahimsa (non-injury) is probably as old as the Vedic religion, if not older" Cultural Heritage of India P. 185-8. २. देखो-हरिवंशपुराण पर्व १५, पृ. २६३-२७२ । ३. सदाचार, गुणादिकी अपेक्षा द्रविड़ोंको शास्त्रीयभाषामें आर्य मानना होगा। . Yesterday and Today-Chapter on Glimpse of Ancient India pp. 59-71. by Raibahadur A. Chakravarty M. A, I. E, S.(Retd.) Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास के प्रकाश में २२९ 'द' अनवा 'दाम' कहा है। आदिनिवासी होनेके कारण उनलोगोंने आयोंके स्वदेशमें प्रवेशका प्रतिरोध किया इसलिये शत्रुओंका निन्दनीय वर्णन यागस आर्यों द्वारा होना अस्वाभाविक नहीं है. कवित 'व का गर्म संस्कृति, वर्ण आदि पृथ था 1 उनका वर्ण श्याम था । वे अग्रण्वन (यज्ञब िविहीन), अकर्मन् (वेदिक क्रियाकाण्ड) प्रदेय (देवोंके विषयमें उदासीन), अन्यद्रय ( भिन्न प्रकारके नियमोंके पालन करनेवाले) तथा देववीयु (देवताओंका तिरस्कार करने वाले कारण मांस आदिको ग्रहण करने वाले कथित देवताओं का सम्मान करना उनको संस्कृति के विपरीत है) थे। वे आपके देवताओं, यज्ञ तथा धार्मिक विचारोंका प्रकट रूपमे निषेध करते थे। उनकी नारिकाकी आकृति आयो की अपेक्षा जुदो यौ | अतः उनको 'समास' कहा है। उन्हें 'बा' (Mridhravac ) कहा है. जो उनकी अस्पष्ट भाषा या विरुद्ध वाणीको सूचित करता था । पुरातत्त्वों के मत में ये ही द्रविड लोग थे । उनका असुन्दर चित्रण देवबुद्धिमवा आम किया है | afe लोगोंकी भाषा संस्कृत न थी। वह भाषा प्राकृत थी, जिसके द्वारा में अपने धार्मिक साहित्यका प्रचार करते थे। यह वामिल नामक द्रविड भाषा के अधिक सन्निकट है । अत्यन्त प्राचीन सामिल साहित्य, विशेषतः 'टोसsuम् (Tolkappium) नामक महत्वपूर्ण प्रथमे उपरोक्त बातोंका समर्थन होता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि जनधर्मको प्राचीनताकी जड़ कितनी गहरी हूँ। वह वैदिक धर्मका न तो अंग है, न उनसे प्रभावित है। तुलनात्मक धर्मके विशेषज्ञ विद्यावारिधिको चम्पायनो मेरिस्टरनं अपनी शोषका यह परिणाम प्रकाशित किया है कि धर्म वैज्ञानिक तथा मुख्यवस्थित है। वैज्ञानिक * १. "Religion thell is a science and originated amongst Aryana. Amongst the Aryans it originated with the Jains; not with the non-Jain Aryans. All the chief religious quarrels of men have arisen without exception, through mythology and will end completely, the moment it is thrown away by men. The descendents of former (scientific section) are termed Jainos today; those who allegorised first of all are the Hindus." Kishabhadeva, p. V-XI. 2. "All mythologies as a matter of fact started with the teaching of truth as taught by the Tirthamkaras. From its very nature scientific religion could not have been a hole and corner affair". -Rishabhadeva. p. VI, Refer 'Key of Knowledge & Confluence of Opposites.' Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैनशासन दार्शनिक विचारप्रणालोके अनन्त र रूपकयुक्त (allegorical) धार्मिक विचारधारा प्रचलित हुई । मूल तत्त्वकी ओर ध्मान. न रहने से रूपक तथा पौराणिकताने विवाद और तुन्द प्रारंभ कर दिया | वैज्ञानिक समन्वयकारी प्रणाली के प्रकाश में विरोध, असंभाव्यता आदि दोप क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते है । वनानिक पद्धतिको अंगीकार करनेवालोंके वंशजोंको आज जैन कहते हैं। जिन्होंने पहले-पहले रूपक पा आलंकारिक पौराणिकताको अपनाया में हिन्दू कह जाते हैं। इस दृष्टिसे जैनधर्म वैदिक धर्मसे पूर्वक्ता सिद्ध होता है। सिम्धु नदीके सटपर अवस्थित मोहनजोदड़ो एवं हरपा नामक स्थानों में खुदाईके वारा जो आजसे पाँच हजार वर्ष पूर्व को भारतीय समृद्धि, विकास तथा सम्यताको बताने वाली महत्वपूर्ण राबसे प्राचीन सामग्री उपलब्ध हुई है, उभसे भी जैनधर्मकी प्राचीनतापर प्रकाश परता है और यह सूचित होता है कि प्राचीनतम सामग्री जैनधर्म तथा संस्कृति के स्वतंत्र सद्भावको बताती है । जब कि आज विद्यमान संस्कृतियों और धर्मों का नामोनिशान नहीं मिलता, तब भी जन-संस्कृतिका सद्भाव बतानेवाली महत्त्वपूर्ण सामग्री जनधर्म की प्राचीनताको प्रकट करती है। उक्त खुदाई में उपलब्ध मोल-मुहर नं. ४४९ में डा. प्राणनाथ विद्यालंकारजैसे बैदिक विद्वान जिनेश्वर शब्दका सद्भाव पढ़ते है। रायबहादुर चंबा जैसे महान् पुरातत्त्वज्ञका कथन है कि वहाँकी मोहरोंमें जो मूर्ति पाई जाती है, उसमें मधुराकी ऋषभदेवकी खड्गासन मूतिके समान त्याग अथवा वैराग्यका भाव अंकित है। सील नं० एफ० जी० एच० मे वैराग्य मुद्राके साथ, नीचेके भागमें, ऋषभदेवका सूचक बैलका चिह्व भी पाया जाता है।' !. Ramprasad Chanda :-"Sindh Five Thousand Years ago"-in Modern Review August 1932 plate 11 fig. d&p. 159 "the pose of the image (standing Rishabha in Kayotsarga form from Mathura reproduced in fig. 12) closley resembles the pose of the standing deities on the Indus scals. Among the Egy ptian sculptures of the time of the early dynasties (III-VI) there are standing statuettes with arms hanging on two sides ..... But though these Egyptian statues and the archaic Greek Kouri show ucarly the same pose, they lack the feeling of abandonment that characterises the standing figures of the Indus seals three to five (Plate II. F.G. H.) with a bull (1) in the foreground say be the prototype of Rishabha". -Quoted in the Jain Vidya Vol. 1, no. 1, Lahore. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासके प्रकाशमें २३१ इस प्रकार महत्त्वपूर्ण सामग्रीके प्रकाश में मेजर जनरल फरलोग एम० ए० एफ० आर० एम० का यह कथन हृदयग्राही मालूम होता है.---'पश्चिमीय एवं उत्तरीय मध्यभारतका ऊपरी भाग ईसवी सन्म १५०० वर्षमे लेकर ८७० वर्ष पूर्व पर्यन्त, उन दूरानियोंके अधीन था, जिनको द्रविड़ कहते हैं । उनमें सर्प, वृक्ष तथा लिंगपूजाका प्रचार था :कमर पाराग अत्यन्त संगठित धर्म प्रचलित था, जिसका दर्शन, आचार एवं उपद तपश्चर्या मुव्यवस्थित पो, वह जैनधर्म था । उससे ही ब्राह्मण तथा बौद्धधर्म में मार.म्भिक तपश्चर्याक चिह्न प्रसद्ध हुए। आर्य लोगोंफे गंगा अथवा सरस्वती तक पहुँचने के बहुत पूर्व अर्थात् ईसवी सनसे आठ सौं, नौ सौ वर्ष पहले होने वाले तीर्थकर पारसनाथके पूर्व वाईरा तोयंकरोंने जैनियोंको उपदेश दिया था ।"१ मोहनजोदडोकी सीलको वैराग्ययुक्त कायोत्सन मुद्रा तथा वृधभका चिह्न भगवान् घृषभदेवके प्रभावको द्योतित करते हैं। जिनको यह स्वीकार करना आपत्तिप्रद मालूम पड़ता है, उनको कमसे कम यह स्वीकार करना होगा, कि सिन्धु नदीकी सभ्यताके समर जैनधर्म था, जिसका प्रभाव सीलकी मूर्ति द्वारा अभिव्यक्त होता है। पूर्वोक्त अवतरण में श्रीरामप्रसाद चन्दा सीलोंको वृषभदेवका द्योतक बताते है। जो श्री चन्दा महाशयसे सहमत नहीं, उन्हें पह मानना न्याय्य होगा, कि उस पुरातन काल में एक ऐसी सभ्यता या संस्कृति थी, जिसे आज जैन कहते हैं । उसका प्रभाव सील द्वारा प्रकाशित होता है । अतः सील मा तो जैन तीर्थकर वृषभदेवको धौतित करती है, अथवा जैन प्रभावको सूचित करती है। 1. "All upper, Western, North Central India was theri say 1500 to 800 B.C, and indeed from unknown tines-rules by Turanians, conveniently called Dravids and given to tree, serpent, phalik worship, but there also then existed throughout upper India an ancient ahd highly organised religion, philosophikal ethikal and severely ascetikal viz. Jainism, out of which clearly developed the carly ascetikal features of Brahmanism and Buddhism. Long before the Aryatis reached the Ganges or even Saraswati, Jains had been taught by some 22 prominent Budhas, saints or Tirthamkaras, prior to the historical 23rd Bodha Parsva of the 8th or 9th century B.C,"—Short Studies in the science of Comparative Religion by Major General J. G. R. Furlong F. KA.S, P. 243-44. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैनशासन छ। जिमर जैनधर्मको pre-Aryan--अग्र्योका पूर्ववती धर्म कहते हैं, ।। {philosophics of India P. 60) ऋग्वेद में १५ वामन अवतारका वर्णन है । वाषभदेव नवमें अवतार माने गये है। अतः ऋग्वेदको रचनाके बहुत पहिले जैनधर्मके संस्थापक ऋषभदेवका सद्भान ज्ञात होता है। अतः जैनधर्म प्राग्वैदिक सिद्ध होता है। फरलांग साहब इस परिणामपर पहुंचते हैं कि 'जैनधर्म के प्रारंभको जानना असंभव है।" इससे यह भ्रम भी दूर हो जाता है कि जैनधर्म हिन्दू धर्मको बुराइयों को दूर करने के लिए संशोषित Fri praitri. सप २६ मा जापाई मौलिक और स्वतंत्र है। डा० ए० गिरनाटने लिम्बा है: “जैनधर्ममें मनुष्यको उन्नति के लिए सदाचारको अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। जैनधर्म अधिक मौलिक, स्वतन्त्र तथा सुव्यवस्थित है । प्राह्मण धर्मकी अपेक्षा यह अधिक सरल, सम्पन्न एवं विविधतापूर्ण है और यह बौद्धधर्म के समान शून्य वादी नहीं है।' हिन्दूधर्मका स्वरूप समझनेसे जैनधर्मको स्वतन्त्रताका भाव अनायास हृदयंगम किया जा सकता है। हिन्दूधर्मके प्रकाण्ड विद्वान् डा. राधाकटानका कथन है कि "वेद हिन्दूधर्मका मूलाधार है । हिन्दू यह है, जिसने वेदके आधारपर भारतमें विकास प्राप्त किसी भी धर्म परंपसको अपने जीवन एवं आचरण में अपनाया हो ।'" लोकमान्य तिलफने लिखा है कि "जिसको बुद्धि वेदको प्रमाण 3. 'It is impossible to find the beginning of Jainism'. २, Tirthamkara Mahavira : Life & philosophy by S. C. Diwakar p. 63-65. . "There is very great ethical value in Jainism for man's improvement. Jainism is very original, independent and systematic doctrine. It is niore simple, rnore rich and varied than Brahmanical systems and not negative like Buddhism." Dr, A, Guiernot. ४. "The Veda is the basis of Hindu religion, A Hindu......is one wlio adopts in his life and conduct any of the religious traditions developed in India on the basis of the Vedas" "Religion and Society by Dr. Radhakrishuars-pp. 109-137. ५. 'प्रामापबुद्धिवेदेषु मावनानामकता । उपास्यानामनियमः एतद्धर्मस्व लक्षणम् ।।" Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासके प्रकाशमें २३३ मानती है, वह हिन्दू है ।" हिन्दू कानूनके विशेषज्ञ १० सर हरीसिंह गौरका कथम है कि हिन्दू शब्द शास्त्राधार पर अबस्थित नहीं है । मुसलिम विजेताओंने इम शब्दका निर्माण किया था । पं. जवाहरलाल नेहरूने लिखा है कि "भारतवर्ष के लिए हिन्द शब्दका व्यवहार होता है, जो हिन्दुस्तान शहनका संक्षिप्त रूप है । पश्चिम एशिमा ईरान, टर्की, ईराक, अफगानिस्तान, ईजिप्ट तथा अन्यत्र भारतको पहलेकी तरह आज भी हिन्द कहा जाता है । प्रत्येक भारतीय पदार्थको हिन्दी कहते हैं। हिन्दीका धर्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है । भारतीय मुमलिम अथवा भारतीय ईसाई उतना ही हिन्दी है, जितना कि हिन्दन धर्मको माननेवाला । अमेरिफावासी सभी भारतीयोंको हिन्दू कहते हैं, यह पूर्णतया मिथ्या बात नहीं है । हो ! यदि वे हिन्दी शब्दका प्रयोग करते तो पूर्ण सत्य कमन होता ।' उनका यह कथन विशेष ध्यान देने योग्य है-"बुद्ध धर्म और जैनधर्म यथार्थ में हिन्दूधर्म नहीं है और न २ वैदिकधर्म ही हैं, यद्यपि इनकी उत्पत्ति भारतवर्ष में ही हुई और वे भारतीय जीवन, संस्कृति तथा तत्त्वज्ञान के मुख्य अंग है। भारत में जो कोई बौद्ध अथवा जैन हो, यह भारतीय तत्त्वज्ञान और संस्कृधिनी र प्रतिशः इति है, कि धर्मपी रिसे उगो कोई भी हिन्दू नहीं है।" }, "We are called Hindus, a term for which there is 110 scriptural authority. It is a term carried by the nuslim conquerors of India to describe the non-descript people living in the cisIndus country. At the most the term is about 300 years old, while Hinduism as we practise it today is about 1200 years old'!. -'"Facts and Fancies "by Dr. Sir H, S. Gour p. 405. २. "The correct word for Indian' as applied to country' and culture or the historical continuity of our varying traditions is Hindi from 'Hind' a shortened form of Hindus, Mind is still commonly used for India in the countries of western Asia, in Iran and Turkey, in Iraq, Afganistan, Egypt and elsewhere India has always been referred to and is still called Hind and everything Indian is called Hindi", 'Hindi' las nothing to do with religion and a muder or Christian Indian is as much a Hindi as a person who follows Hinduism as a religion, Americans who call all Indians Hindus are not far wrong. They would be perfectly correct, if they used the word of Hindi", (Discovery-India-pp. 74-75.) Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैनशासन इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है, कि जिस प्रकार पारसी, ईसाई आदि धर्म वैदिकधर्म-जिसे हिन्दूव कहा जाता है- से पृथक् हैं, उसी प्रकार जैन और बौद्ध भी परमार्थतः हिन्दूधर्म नहीं कहे जा सकते। सिंधु नदी से सिंधु समुद्र पर्यन्त जिसको भूमिका है, वह हिन्दुस्थान है, और उसमें जिनके तीर्थस्थान हैं, अथवा जिनकी बहु पितृ-भू है, उसे हिन्दू कहना चाहिए, ऐसी परिभाषा भी निराधार हूँ एवं सदोष भी । खोजा लोगों की पुण्यभूमि भारत है। उनके धर्मगुरु आगाखान भारतीय हैं । परमा कोहि होना, किन्तु यह प्रगट है, कि वे मुसलिमघर्मो होनेसे अहिन्दू माने जाते हैं। इसी प्रकार रोमन कैथलिक ईसाइयोंके पूज्ब गृह सेण्ट जेवियरका निधन बंबईके समीप गोवामें हुआ था, अतः वन स्थल उनका तीर्थस्थान बन गया है; इससे परिभाषाको दृष्टिसे उनकी परिगणना हिन्दुओं में होनी थी, न कि अहिन्द्र ईसाइयों में ऐसा नहीं होता अतः परिभाषा अतिव्याप्ति दूषणयुक्त है । हिन्दुस्तान के अंग काश्मीर में परिभाषा नहीं जाती है, अतः वह अव्याप्त दूषण दूषित होनेके कारण घमंकी दृष्टिसे जैन तथा बौद्धों को हिन्दु मानने के पक्षको प्रबल प्रमाणसे सिद्ध नहीं कर सकती है । ऐसी स्थिति में जैनधर्मका स्वतन्त्र अस्तित्व अंगीकार करना न्याय तथा मत्यकी मर्यादा के अनुकूल है । जनधर्मका साहित्य मौलिक है। इसकी भाषा भी स्वतंत्र है। इसका कानून भी हिन्दू कानूनसे पृथक् है । ऐसी भिन्नताकी सामग्रीको ध्यान में न रक्ष कोईकोई इसे 'आर्यधर्मको शाखा बताने में अपनेको कृतार्थ मानते हैं । महास हाईकोर्ट के स्थानापन्न प्रधान विश्वारपति श्रीकुमारस्वामी शास्त्रीने हिन्दूचलम्बी होते हुए भी सत्यानुरोघसे यह लिखा है - "आधुनिक शोधने यह प्रमाणित "Buddhism and Jainism were certainly not Hinduism or even the Vedic Dharma, yet they arose in India and were integral parts of Indian life, culture and philosophy. A Budd hism or Jain in India is a hundred percent product of Indian throught and culture yet. neither is a Hindu by faith" -ibid P. 73. 1. "Were the matters res integra i would be in clined to hold that modern research has shown that Jains are not Hindu dissenters but that Jainism has an origin and history long anterior to the Smritis and commentaries, which are recognised authorities on Hindu law, usage... In fact Jainism rejects the authority of the Vedas, which form the bedrock of Hin Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासके प्रकाशमें कर दिया है कि जैनधर्म हिन्दूधर्मसे पतभिन्नता धारण करनेवाला उपभेद नहीं है। जैनधर्मका उद्भव एवं इतिहास उन स्मृतिशास्त्रों तथा उनकी टोकाओंसे बहुत प्राचीन है जो हिन्दू कानून और रिवाजके लिए प्रामाणिक मानी जाती हैं। यथार्थ बात तो यह है कि जैनधर्म हिन्दूधर्म के आधारस्तंभ वेदोंको प्रमाण नहीं मामता । यह उन अनेक क्रियाकाण्डोंको अनावश्यक मानता है, जिन्हें हिन्दू लोग आवश्यक समन्नते है।" इस प्रसंगमें बंबई हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति संगलेकरका यह निर्णय भी महत्वपूर्ण होता है कि-"ह गाई कि जैम लोग वेदोंको अपना धर्म ग्रंथ नहीं मानते 1 ब्राह्मणधर्म के समान वे मृतके क्रिया कर्म, श्राद्ध एवं स्वर्गीय व्यक्ति के लिए नवेद्य अर्पण करनेकी बातको स्वीकार नहीं करते हैं उनकी यह भी घारपणा है कि औरस अमवा दत्तकपुत्रस पिनाकी आरमाको कोई भी आत्मीय श्रेय नहीं प्राप्त होता । वे ब्राह्मण धर्मवाले हिन्दुओंसे मृत भ्यक्तिके शरीर-दाह अथवा गढ़ानेके सिवाय अन्य क्रियाकाण्ड न करने के कारण पृथक हैं । माधुनिक duism and denies the efficacy of various ceremonies, which the Hinclus consider essential." Sir Kumarswami Acting Chief:ustice Madras H. Court A, I. R. 1927, Madras 228. 3. "It is true the Jains reject the scriptural character of the Vedas and repudiate the Brahmauical doctrines relating to obsequial ceremonies, the performance of Shradhas and the offering of oblations for the salvation of the soul of the deceased. Amongst them there is no belief that a 5011 by birth or adoption consers spiritual benefit on the father. They also differ from the Brahminical Hindus in their conduct towards the dead, omitting all obsequies after the corpse is burnt or buried. Now it is true as later historical researches have shown that Jainisin prevailed in this country long before Brahiminism came into existence or converted into Hinduism. It is also true that owing to their long association with the Hindus, who formed the majority in the country, the Jajns have adopted many of the customs and evert cerertionies strictly observed by the Hindus and pertaining to Brahminical religion," Mr. Justice Rangrekar Bom, High Court, A. I. R 1939, Bom. 377. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनशासन ऐतिहासिक शोध से यह प्रकट हुआ है कि यथार्थ में ब्राह्मण धर्मके सभाम अपवा उसके हिन्दूपमं हमें परिवर्तित होनेके बहुत पूर्व जैनधर्म इस देश में विद्यमान था। यह सत्य है कि देशमें बहुसंशाक हिन्दुओं के संपर्कवश जैनियों में ब्राह्मण धर्मसे सम्बन्धित अनेक रीति रिवाज प्रचलित हो गये हैं।" यदि अधिक गंभीरताके साथ अन्वेषण एवं शोधका कार्य किया जाय. तो जनधर्मके विषय में ऐसी महत्वपूर्ण बातें प्रकाशम आवेगो, जिम में जगर चकित हो उठेगा । जो धर्म बहत्तर भारतका धर्म रह चुका है, जो चंद्रगुप्त सदृश प्रतापी नरेशोंके समयमें राष्ट्रधर्म रहा है, उसकी बहुमूल्य सामग्री अब्द भी भूगर्भमैं लुप्त है। भारतके बाहर भी जैनधर्मका प्रसार रातनकाल में रहा है। कुछ वर्ष पूर्व आस्ट्रियाके वडापेस्ट नगरफे ममोपची खंत में एक किमानको भगवान महावीरकी मूर्ति प्राप्त हुई थो ।' ___एफ पुरातत्रवेत्ताका कथन है... अगर हम इस मील लम्बी त्रिज्या (Radius) लेकर भारतके किसी भी स्थान को केन्द्र बना वृत्त बनावें तो उसके भीतर निश्चय मे जैन भग्नावशेषों के दर्शन होंगें ।" इससे जैनधर्म के प्रमार और पुरातनकालीन प्रभावका बोध होता है। जमधर्मकी प्राचीनतापर यदि दार्शनिक शैलीसे विचार किया जाय, तो कहना होगा, कि यह अनादि है। जब पदार्थ अनादि-निधन है, तब बस्तुस्वरूपका प्रतिपादक सिद्धान्त क्यों न अनादि होगा? डा पद्धति से विचार करने पर जैनधर्म विश्वका सर्वप्राचीन धर्म माना जायगा । गह धर्म सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान के द्वारा प्रतिपादित सत्यका पुजस्वरूप है, अतः इसमें कालकृत भिन्नताका दर्शन नहीं होता और यह एकविध पाया जाता है । स्मिथ सदृश इतिहासवेताओंने इसे स्वीकार किया है कि जैनधर्मका वर्स मान रूप (Present form) लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भी विद्यमान था । बौद्धपाली ग्रन्थों में भी इसकी प्राचीनताका समर्थन होता है। जैनशास्त्र बताते हैं कि इतिहासातीत काल में भगवान् वृषभ १. Vile Samprati p. 335, R. "A: eminent archaeologist says that if we draw a circle with a radius of ten miles, baving any spot in India as the centre, we are sure to find some Jait remains within that circle" -Vide Kannad Monthly Vivekabhyudaya p. 96, 1940. "The Nigganthas (Jains) are never referred to by the Buddhists as being a new sect, nor is their reputed founder Nataputta spoken of as their fouider, wlience Jacobi piausibly argues Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमके प्राङ्गण में २३७ देवने अहिंसात्मक पर्मको प्रकाशित किया, जिसको पुनः पुनः प्रकाश में लानेका कार्य शेष २३ तीर्थंकरोंने किया। प्राचीनताके बंदकोंके लिए भी जैन सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है। __ पराक्रमके प्राङ्गणमें कुछ लोगोंकी धारणा है कि अब सम्पूर्ण विश्व में वीरताफा कि यात्मक शिक्षा देने में ही मानव जातिका कल्याण है । मह युग 'Survival of the fitnest''जाको बल ताहीको राज' की शिक्षा देता हूमा यह बताता है कि बिना बलशालो बने इस संघर्ष और प्रतिद्वन्दितापूर्ण जगत्में सम्मानपूर्ण जीवन संभव नहीं । बलमुपास्व-शक्तिकी उपासना करो यह मंत्र आज आराध्य है । दीन-हीनके लिये सजीव प्रगतिशील मानव-समाजमें स्थान नहीं है । उन्हें तो मृत्युकी गोदमें चिरकाल पयंत विश्राम लेनेकी सलाह दी जाती है। जैन आचार्य बाबीसिंह सूरि अपने क्षरधूडामणिमें 'पौरभोग्या वसुन्धरा' लिखकर वोरताकी ओर प्रगतिप्रेमी पुरुषों का ध्यान आकर्षित करते है। हिन्दू शास्त्रवार इस दिशामें तो यहाँ तक लिखते है कि बिना शक्ति-संचय किये यह मानव अपने आस्मस्वरूपकी उपलरिध करने में समर्थ नहीं हो सकता । उनका प्रवचन कहता है "मायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।" जनशास्त्रकारों ने इस संबन्ध में और भी अधिक महत्त्वकी बात कही है कि निर्वाण-प्राप्तिके योग्य अतिशय साधनाकी क्षमता साधारण निःसत्त्व दारीर द्वारा सम्पन्न नहीं होती, महान् तल्लीनता रूप शुक्ल-ध्यानकी उपलरिपके लिए बचशरीरी अर्थात् पञ्च वृषभ-नाराच-सहननधारी होना अस्यंत आवश्यक है। that their real founder was older than Mahavira and that this sect preceded that of Buddha.' -Religion of India by Prol. E. V. Hopking p. 283. बौद्धोंने निर्ग्रन्थों (जैनों) का नवीन संप्रदायके रूपमें उल्लेख नहीं किया है और न उनके विख्यात संस्थापक नातपुत्तका संस्थापकके रूपमें हो किया है। इससे जैकोबी इस निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि जनधर्मके संस्थापक महावीरकी अपेक्षा प्राचीन है तथा यह संप्रदाय बौद्ध संप्रदायके पूर्ववर्ती है । १. "उत्तमसंहननस्म एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तमहत् ।' -२० सूत्र ९।२७ । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैनशासन कुछ लोगोंकी एसो भी समझ है कि वास्तविक बीरताके विकास के लिये अहिंसाकी आरावना असाधारण कंटकका कार्य करती है। अहिंसा और वीरतामें उन्हें आकाश-पातालका अंतर दिखाई देता है। वे लोग यह भी सोचत है कि वीरताके लिये मांस भक्षण करना, शिकार खलना आदि आवश्यक है । अहिसात्मक जोवन शिकार तथा मांसभक्षणका मूलोच्छेद किये बिना विकसित नहीं होदा । अतः अहिंसात्मक जैनधर्मको छत्रछाया पराक्रम-प्रदीप बगबर प्रकाश प्रदान नहीं कर सकता। यह जैनधर्मको अहिंसाका प्रभाव था जो वीरभू भारत पगनता के पाशमं ग्रस्त हुआ । एक बड़े नेताने भारतके राजनैतिक अधःपातका शेष जैनधर्म की अहिंसाको शिक्षाके ऊपर लादा था। ऐसे प्रमुख पुरुषोंकी भ्रान्त धारणाओंपर सत्यके आलोकमें विचार करना आवश्यक है। अहिंसात्मक जीवन बीरताका पोषक तथा जीवनदाता है । बिना वीरतापूर्ण अंतःकरण हुए इस जीवके हृदय, अहिंसाकी ज्योति नहीं जगतो । जिसे हमारे कुछ राजनीतिज्ञान निदनीय अहिंसा समझ रखा था यथार्थमैं वह कायरता और मानसिक दुर्बलता है । इस ओर बकराजके वर्णमें वाह्य षवलता समान रूपसे प्रतिष्ठित रहता है। उनकी विसतिम महान् अंतर है। इसी प्रकार कायरता अथवा भीरतापूर्ण वृत्ति और अहिंसामें भिन्नता है । अहिंसाके प्रभावसे आत्मशक्तियोंकी जागति होती है और आत्मा अपने अनंत वीर्यको स्मरणकर विरुद्ध परिस्थितिके आगे अजेय और अभयपूर्ण प्रवृत्ति करने में पीछे नहीं हटता । जिस तरह कायरतासे अहिंसाधानका बोरतापूर्ण जीवन जुदा है उसी प्रकार क्रूरतासे भी उसकी आत्मा पृथक् है । क्रूरता प्रकाश नहीं है। वह अस्पंत अंघों और पशुतापूर्ण विचित्र मनःस्थितिको उत्पन्न करतो है । साधक अपनी आत्मजागृति-निमित्त क्रूरतापूर्ण कृतियोंसे बचता है, किंतु वीरताके प्रांगणमें वह अभय भावसे विचरण करता है वह तो जानता है-'म में मृत्युः, कुतो भीति:'-जब मेरी आत्मा अमर हे तब किसका भय किया जाय ? डर तो अनात्मज्ञके हृदयमें सदा वास करता है । क्रूरताकी मुद्रा धारण करनेवाली कथित वीरताके राज्य में यह जगत् यथार्थ शांति और समृद्धिके दर्शन से पूर्णतया बंचित रहता है। क्रूर सिहके राज्यमें जीवधारियोंका जीवन असंभव बन जाता है । उसी प्रकार क्रूरता-प्रघान मानवसमुदायके नेतृत्वमें अशांति, कलह, असंतोष व्यथा और दुःखका ही नग्न नर्तन दिखाई देगा। जव अहिंसात्मक व्यक्तियोंके हाथमें भारतकी बागडोर थी, 'तर देशका १. चंद्रगुप्त आदि जैन नरेशोंके शासनका इतिवृत्त इस यातका समर्थक है । +-.. -...- +. . . = .. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रम के प्रांगण में २३५ इतिहास स्वर्णाक्षरोंमें लिखा जाने योग्य था । आज उस अहिमाके स्थान में कहीं क्रूरता और कहीं कायरताके प्रतिष्ठित होनेके कारण अगणित विपतियों का दोरदोरा दिखाई पड़ता है। वस्तुस्थितिसे अपरिचित होने के कारण ही लोग भगवती महिलाको क्रूरता और कायरता के फलस्वरूप होनेवाले राष्ट्रीय पतनका अपराधी बनाते थे । उन लोगोंन बीता स्थल तक ही सीमित समझा है किन्तु 'साहित्यक्षपण' ने उसे दान धर्म युद्ध तथा दया इन चार विभागोंसे युक्त बताया हूँ | जैनधर्म की आराधना करनेवालो को हम इस प्रकाया में देखें तो हमें विदित होगा कि जैनधर्मका आलोक किस प्रकार जीवनको प्रकाशपूर्ण बलाता रहा है । L मुख्य कर्तव्य बताये गये इतिहास के क्षेत्र में भारतीय स्वातंत्र्य के अप्रतिम आराधक महाराणा प्रतापको हवंस अपनी सारी संपत्ति समर्पित करनेवाला वीर भामाह अहिंसाका आराधक जैनशासनका पालक था । यदि भामाशाहने अपनी श्रेष्ठ 'दानवीरता' द्वारा महाराणा की सहायता" न की होती तो मेवाड़का इतिहास न जाने किस रूपमें लिखा मिलता जैनशासन में आदर्श गृहस्थ के दो है, एक सो वीगेंको वंदना और दूसरा योग्य पात्रोंको औषधि, शास्त्र, अभय, आहार नामके चार प्रकारका दान देना है। एक जैन साधक शिक्षा देते है"धन बिजुरी जनहार नरभव काही लौजिये।" आज भी जैन समाजमें वानकी उच्च परम्पराका पूर्णतया संरक्षण पाया जाता है। जैन अखबारोंसे इस बातका पुष्ट प्रमाण प्राप्त होगा। असमर्थ जनोंको इस सुन्दर पीलीसे समर्थ श्रीमान् सहायता देने थे कि लेनेवाले कल्पित गौरवकी भावनाको बिना आघात पहुँचे १. "स दान-धर्म-यया च समन्वितदचतुष स्यात् ।" -सा० दे०पो० २३४, ३ । २. "जा घनके हित नारि तर्ज पति पूरा सर्ज पितु शीलहि सोई । भाई म भाई कर रिपुसे पुनि मित्रता मित्र तजे दुख जोई ॥ धनको बनियाँ गिन्यो न दियो दुख देशके भारत होई । स्वार आर्य तुम्हारो ई है तुमरे सम और न या अग कोई ॥" -भारतेन्दु हरियचन्द्र । ३. पुरन को धन दे दियो देस प्रेम की राह । त्याग निसैनी बढ़ गयो चित चित भामासाह ।। ४. फर्मल टाउके कथनानुसार यह धन २५ हजार सैन्यको १२ वर्ष तक भरणपोषण में समर्थ था । -टाम राजस्थान १०२-३ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनशासन कार्य संपन्न किया जाता था । दानकी घोषणा कर दानवीर बननेके बदले साविक भावापन्न धनी श्रावक गुप्त रूपसे सहायता पहुँचाया करते थे । सर्वामम्बर रचित 'नगर' (११ मार्च सन् १९४७, कच्छ प्रान्त के भद्रेश्वर • 'हरिजन' १३१२ में बो पृ० १४३ ) में एक लेख छपा था, कि संवत् पुरमें श्रीमाली जैन जगडू नामक थावक बड़े संपन्न सथा दानशील थे, रात्रि समय सोने के दीनार सिक्का संयुक्त लाइ समूह' को विपुल मात्रा में कुलीन लोगों को अर्पण करते थे । प्रत्येक प्रान्तके बड़े-बूढों से इस प्रकारकी साधर्मी बाकी कथाएँ अनेक स्थल में सुनने में आती है । खेद है, कि काजके युग में यह प्रवृत्ति सुप्तप्राय हो गई है। अब नामवरीको लक्ष्य करके दान देनेका भाव प्रायः सर्वत्र दिखाई पड़ता है । धर्मके क्षेत्रमें वीरता दिखाने में भी जैन गृहस्थोंका चरित्र उदात्त रहा है । बौद्ध शासक के अत्याचारके आगे अपने मस्तक न झुका मृत्युकी गोद में सहर्ष सो जानेवाले, ताकि अकलंकदेखके अनुज बालक निकलंकका धर्म प्रेम वीरताका अनुपम आदर्श है। विपतिकी भीषण ज्वालामेंसे निकलनेवाले जैन धर्मवीरोंकी गणना कौम कर सकता है ? इतिहासकार स्मिथ महाशय ने अपने 'भारतवर्ष के इतिहास' में लिखा है कि 'बोलवंशी पाण्डय नरेश मुन्दरने अपनी पत्नीके मोहश वैदिक धर्म अंगीकार किया और जैन प्रजाको हिंदू धर्म स्वीकार करनेको बाध्य किया ।' जिनके अन्तःकरण में जैनशासनकी प्रतिष्ठा अपने सिद्धान्तका परित्याग करना स्वीकार नहीं किया। तख्तेपर टांग दिया गया। स्मिथ महाशय लिखते है-ऐसी परम्परा है कि ८००० जैनी फांसी पर लटका दिये गये थे। उस पाशविक कृत्यकी स्मृति मदुरा विख्यात मीनाक्षी नामके मन्दिर मे चित्रोंके रूपमें दीवालपर विद्यमान हैं। आज भी मदुराके हिंदू लोग उस स्थलपर प्रतिवर्ष आनंदोत्सव मनाते हैं। जहां जैनोंका संहार किया गया था। इसे व्यतीत हुए अभी वो सदीका समय अंकित थी, उन्होंने फलतः उन्हें फांसी के १. "स्वर्णदीनार संयुक्तान् लाजपिण्डान् स कोटिशः । निशायामर्पयामास कुलीनाय जनाय च ।। " -जगडूचरित्र ६।१३ । 2. " Tradition avers that 8000 ( eight thousand) of thern (Jains) were impaled. Memory of the facts has been preserved in various ways & to this day the Hindoos of Madura where the tragedy took place celebrated the anniversary of the impaleinent of the Jains as a festival (Utsav ) - V. Smith His, of India. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमके प्रांगण में २४१ में हुआ होगा जब कि प्रत्याप्त जनगन्यकार पंडितप्रदर टोडरमलजी, जयपुरके तत्कालीन नरेशके कोपनश हायीके पैरों के नीचे दरवाकर मार डाले गये थे । इस प्रकार आत्माकी अमरतापर विश्वास कर सत्य और वीतराग धर्म के लिए परम प्रिय प्राणोंका परित्याग करनेवाले जन धीरोंका पवित्र नाम धामिक इतिहास में सदा अमर रहेगा । दयाके क्षेत्रमें जैनियों का महत्वपूर्ण स्थान है। आज जब कि जड़वादके प्रभाववश लोग मांसाहार आदिको और बढ़ते जा रहें हैं और असंयमपूर्ण प्रवृत्ति अवमान हो रही है, तब जीवोंकी रक्षा तथा संयमपूर्ण साधना द्वारा मनुष्य भबको सफल करने वाले पुथ्य पुरुषों से जैन समाज आज भी संपन्न है। श्रेष्ठ महिमाके मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनापूर्वक पालक प्रातःस्मरणीय पाग्निचक्रवर्ती आचार्य श्रीशान्तिसागर महाराज सदश वीतराग, परमशान्त दिगम्बर जैन श्वमणोंका सद्भाव दयाके क्षेत्रमें भी अन संस्कृतिको गौरवान्वित करता है। जैनश्चमणोंके दिगम्बरनके गर्भ मे उत्कृष्ट दयाका पवित्र भाव विद्यमान रहता है । एक विद्वानने लिखा है-''जैन मुनिकी वीरता शान्तिपूर्ण है प्रत्येक शोर्यसम्पन्न कार्यके पूर्व में प्रबल इच्छाका सद्भाष पाया जाता है, इस दृष्टिसे इसे क्रियाशील वीरता भी कहते है " संग्राम-भूमिमें जो पराक्रम प्रदर्शित किया जाता है वह दीरताके नामसे विश्व विख्यात है। इस क्षेत्र में भी जनसमाजका महत्वपुर्ण स्थान रहा है। गाधारणतया जैन-तत्त्वज्ञानके शिक्षणसे अपरिचित व्यक्ति यह भ्रान्त धारणा बना लेते हैं कि कहाँ अहिंसाका तत्त्वज्ञान और कहाँ युद्धभूमिमै पराक्रम ? रोनोंमें प्रकाश अंधकार जैसा विरोष है। किन्तु वे मह नहीं जानते कि जैनधर्म में गृहम्पके लिए जो अहिंसाकी मर्यादा वांधी गई है उसके अनुसार वह निरर्थक प्राणिवध न करता हुआ पाय और कतंत्र्यपालन निमिस अस्य-शस्त्रका संचालन भी करता है । इस विषय में भारतीय इतिहाससे प्राप्त सामग्री यह सिद्ध करती कि पराक्रमके प्रांगणमे महावीरके माराधक कभी भी पीछे नहीं रहे हैं । रामबहानुर महामहोपाध्याय पं. गौरीशंकर हीराचंड प्रोमाने 'राजपूताने के वीर' की भूमिकामें लिखा है-"वीरता किसी जातिविशेषको संपत्ति नहीं है । गारत में प्रत्येक जातिमे वीर पुरुष हुए है। राजपूताना सासे धीरस्थल रहा है । गामि दया प्रधान होते हुए भी वे लोग अन्य जातियोंसे पीछे नहीं रहे हैं । पाताप्रियांसे राजस्थानमें मंत्री आदि उच्च पदोंपर बहुधा जैनी रहे हैं, उन्होंने बाकी आपत्तिके समय महान सेवाएं की हैं, जिनका वर्णन इतिहास में मिलता ।' भारतीय इतिहास-प्रसिद्ध सम्राट बिम्बसार-णिक जैनयमका आधार Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैनशासन स्तम्भ था । उसके पुत्र अजातशत्र-फुणिक जैनधर्म के संरक्षक प्रतापी नरेश थे। कलिग, उत्तर भारत तथा पश्चिमोत्तर सीमाप्रांतपर जैन नरेश नंदवर्धनका शासन था। ग्रीकनरेग सिकंदर के रोनापति सिल्यु कसको जैन मम्राट चंद्रगुप्तने ही पराजित कर भारतीय सम्राज्यको सीमाको अफगानिस्तान पर्यंत विस्तारित किया था । स्मिथ महाशयने लिखा है कि . "मैं अब इस बातको स्वीकार करता हूँ कि संभवतः यह परम्परा मूलमे यथार्थ है कि चंद्रगुप्त ने वास्तवमें साम्राज्यका परित्याग कर जैन मुनिका पद अंगीकार किया था | प्रतापी चंद्रगुप्तको भाधुनिक अन्देषणकार जैन प्रमाणित करने लगे हैं । डा. काशीप्रसाद जायसवाल जैसे विचारक विद्वान लिखते हैं-पाँचदी पटीने यंग ए पाक जैन शिलालेख यह प्रमाणित करते हैं कि चंद्रगुप्त जन सम्राट् था, जिसने मुनिराजका पद अंगीकार किया था। मेरे अध्ययनने जनशास्त्रों की ऐतिहासिक जातको स्वी . The literary and legendary traditions of the Jains about Sre nika are so varied and so well recorded that they bear eloquent wittesses to the high respect with which the Jains held one of their greatesc loyal patrons, whose historicity is unfortunately past all doubts. -Jainism in North India, p. 116. Tradition furis that he built many shrines on the summit of Parashatha hill in Bihar.-J. R. A. S. 1824. . २. Cambridge His. of India p. 161.. ३. J. 3. &O. Research Soc. Vol. 4.P.463. %. I am now disposed to believe that the tradition is probably true in its main uutline and that Chandragupta really abdicated and became Jain ascetic. -V. Simith-His. of India p. 146, ५. The Jain books (5th cell. A D) and later Jain inscriptions claim Chandragupta as a Jaiti Iinperial asetic. My studies have compclled me to respect the historical data of Jain writings and see 110 reason why we shuuld not accept the Jain claim that Chandragupta at the end of his reign accepted Jainism and Xxlicated and died as Jain ascetic. I am not the first to accept the view Mr. Rice, who has studied the Jain inscriptions of Sravanbelgola thoroughly, gave verdict in favour of it and Mr. V. Smith has also leaned towards it ultimately. -J. B.O.R.S. Vol. VIII, Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमके प्रांगणमें कार करनेको मले बाध्य किया है। मुझे इस बातको अस्वीकार करनेका कोई कारण नहीं दिखता कि हम क्यों न जनमान्यताको स्वीकार करें कि चंद्रगुप्तने अपने राज्यकालके अन्त में जैनधर्म को स्वीकार किया था, तथा राज्यका परित्याग करके जैनमनिके रूपमें प्राणपरित्याग किये ? इस बात को स्वीकार करने वालों में केवल मैं ही नहीं हूँ। राइस साहब ने, जिन्होंने श्रवणबेलगोलावे जैन शिलालेखोंका भलीभांति अध्ययन किया है, इस बात के समर्थन में अपना निर्णय दिया है, अंतमें स्मिय महार भी इसी और को है।" शादिलिप रायबहादुर श्रीनरसिंहाचार्यका अभिमत' है कि-''चंद्रगुप्त एक सच्चे कोर थे और उन्होंने जैन शास्त्रानुसार सल्लेखनाकर चंद्रगिरि पर्वतसे स्वर्ग लाभ किया।" वे यह भी लिखते है कि श्रवणबेलगोलाके चंद्रवस्ती नामले पंद्रगिरिपर अवस्थित मंदिरको दोघालोंमें सम्राट चंद्रगुप्त के जीवनको अंकित करनेवाले चित्र है। एफ० हबल्यू० टामसने भी यह लिखा है कि चंद्रगुप्त श्रमणोंके भक्तिपूर्ण शिक्षणको स्वीकार करता था जो ब्राह्मणों के सिद्धांतों के प्रतिकूल है। जैनधर्मविद्वेषो वने जैसे जैन देवस्थान, शास्त्रम पहार, जैनम तथा जैन जनताके विनाशका निर्मम क्रूर कार्य किया, उसी प्रकार उन्होंने जैन महापुरुषके चरित्रपर कालिमा लगाने में कमी नहीं की । 'प्रतापी सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य जैनधर्मके आराधक थे, वे क्षत्रिय कुलके शिरोमणि थे और उन्होंने अपने जीवनका अन्त दिगम्बर जैन मुनिके रूप में व्यतीत किया था ।' यह बात प्राचीन प्राकृतिके शास्त्र 'तिलोयपाति से भी समर्पित होतो है.... "मउडधरेसु चरिमो जिणदिक्खं धरदि चंदगुत्तो य । तत्तो मउडधरा दुप्पयज्ज गेव गिण्हंति ।।" ४११४८१ । मुकुटधर राजाबोंमें अंतिम चन्द्रगुप्त नामके नरेशने जिनेन्द्र दीक्षा धारण की इसके पश्चात् मुकुटधारी नरेश प्रजज्याको नहीं धारण करते हैं। १. The hill which contains the foot-prints of his (Chandragupta's) preceptor is called Chandra Giri after his name & on it stands a magnificient temple called Chandra Basti with its carved and decorated walls, portraying scenes from the life of the great Emperor. He was a true hero and attained the heaven from that hill in the Jain manner of Saltekhana. R. "The testimony of Megasthenes would likewise seem to imply that Charidragupta submitted to the devotional teachings of Sramanas as opposed to the doctrines of the Bra]}mins "Vide P. 23. Jainism or Early Faith of Asoka. by F.W. Thomas. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जेनशासन मौर्या ईसाको छठवी सदी में था । भगवान् महावीरफे एकादश मुख्य शिष्यों में सातवें मुनि मौर्य पुत्र थे । मौर्यपुत्रस्तु सप्तमः (हरिवंशपुराण) बौद्धसाहित्य में मौर्य वंशवाले क्षत्रिय बताये गये हैं । अतः चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय थे यह सत्य शिरोधार्य करना उचित है। खेद है कि अब तक भी ऐसे महापुरूषके उच्च फुलको बदलकर उन्हें मुरा नाईनके गर्भसे उत्पन्न बताया जाता है, तथा सरकारी शालाओं तकमें ऐसा प्रचार किया जाता है। वृक्षधर्म भक्त रूपसे विख्यात धर्मप्रिय सम्राट अशोकके साहित्यको पढ़कर कुछ विद्वान् अशोकके जीवनको जनधर्मसे संबंधित स्वीकार करते हैं। प्रो० ककी धारणा है कि अहिंसाके विषयमें अशोक के आदेश बौद्धोंकी अपेक्षा जैनसिद्धान्त से अधिक मिलते हैं । आज जो मशीकका धर्मचक्र भारत सरकारने अपने राष्ट्रध्वज में अलंकृत किया है, उस चक्र-चिह्नमें बोधीस आरोंका सदभाव चौबीस तीर्थकरोंका प्रतीक मानना सम्पन प्रतीत होता है। स्वामी समन्तभाने चक्रवती शान्तिनाथ तीर्थकरके धर्मचक्रको नाणा की किरणोंने सुजिमा--'गाठी नितिगामसम्' कहा है । प्रत्येक तीर्थकरने अपनी करुणामयी प्रवृत्ति और साधनाके पश्चात् धर्मचक्रको प्राप्त किया है, अतः धर्मचक्रके . सच्चे अधिपति २४ तीर्थकरोंकी पवित्र स्मृतिका प्रतीक अशोक स्तंभका धर्मचक्र है । इसके विरुद्ध प्रबल तर्कपूर्ण सामग्रीका सदभाव भी महीं है | अशोकका जैनधर्मसे सम्बन्ध सिद्ध होनेपर धर्मचक्रके आरोंका उपरोक्त प्रप्तीकपना स्वीकार करना सरल हो जाता है। प्रतीत होता है, कि जैसे दिम्बसार श्रेणिकका जीवन पूर्वमें बौद्ध धर्माराधकके रूपमें था, और पश्चात् रानी चेलनाकै, जिसे विद्षी लोगोंने घुणित चित्रित किया है (देखो जयशंकरप्रसाधका चंद्रगुप्त नाटक), समर्थ प्रयत्नसे वह जैन धर्मावलम्बी हो गया और वह जैन संस्कृतिका महान् स्तंभ हुआ, ऐसी ही धर्म परिवर्तनकी बात अशोकके जीवनमें भी रही है। इस समन्वयात्मक दृष्टिसे अशोकको जैन तथा बौद्धधर्मके प्रचारकी बातोंका विरोध नहीं रहता है। 'राजावलिकथे' नामक कन्नष्ठ ग्रंथ अशोकको जैन बताता है 1 महाकार कल्हमने अपने संस्कृत ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में अशोक द्वारा 'कादमीर में जनघर्मक I. "His (Asoka's) ordinances concerning the sparing of animal life agrees much more closely with the ideas of heritical Jains than those of Buddhists"-Indian Antiquary Vol. V. p. 205. "यः शान्त मिनो राजा प्रपत्नो जिनशासनम् । पुष्कलेऽम्र वितस्तापी तस्तार स्तूपमण्डले ।।" राजतरंगिणी अ० १ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i पराक्रमके प्रांगण में २४५ प्रचार करका उल्लेख किया है। डा० टामस भी उपरोक्त बातका समर्थन करते हैं । अफजलके 'आइने अकबरी' से भी अशोकका जीवन जैनधर्मसे संबंधित प्रमाणित होता है । अशोक उत्तराधिकारी सम्प्रतिके बारेमें 'विश्ववाणी' मासिक पत्रिकाने १९४१ में यह प्रकाशित किया था कि सम्राट् संप्रतिने अरबस्तान और फारस में जैन संस्कृतिक केंद्र स्थापित किये थे। वह बड़ा शूरवीर तथा धार्मिक था | Epitone of Jamnista' में संजतिको महान वीर नरेश और धर्मप्रवर्धक कहा है. जिसने सुदूर देशों में जैनधर्म प्रचारका प्रयत्न किया था। महावंश काव्यसे ज्ञात होता है कि वर्तमान सीलोन मिलकी प्राचीन राजपानी अनुराधपुर में जैन मंदिर था जो स्पष्टतया सिंहल द्वीपमें जन प्रभावको सूचित करता है । 3 महाप्रतापीएलसम्राट महामेघवाहन खारवेल महाराज जैन थे । उन्होंने उत्तर भारत के प्रतापी नरेश पुष्यमित्रको पराजित किया था । नन्दनरेशोंके यहाँ भी जैनधर्म की मान्यता थी । यह वात हाथीगुफाके शिलालेखसे विदिव होती है । दक्षिण भारत के इतिहासपर दृष्टि डालनेसे ज्ञात है कि प्रतापी नरेश तथा गगराज्य के स्थापक महाराज कोंगुणी दर्मतने आचार्य सिंहनंदिके उपदेशसे शिवमा समीप एक जिन मंदिर बनवाया था। इनके वंशज अदिनोत नरेशने अपने मस्तकपर जिनेंद्र भगवान्की मूर्ति विराजमान कर कावेरी नदीको बाढ़ की अवस्थायें पार किया था। एक शिलालेख में इन्हें शौर्यको मूर्ति तथा गज, अश्व एवं धनुविद्या में प्रवीण बताया है। इनके उत्तराधिकारी दुर्विनीत नरेश प्रभु, मंत्र और उत्साहशक्तिसमन्वित महान मोठा तथा विद्वान थे। महाराज नीतिमार्ग 1. Early Faith of Asoka by Thomas. 3. "Samprati was a great Jain monarch and a staunch supporter of the faith. He erected thousands of temples throughout the length and breadth of his vast empire and consecreted large number of images, He is said to have sent Jain missi onaries and ascetics abroad to preach Jainism in tre distant countires and spread the faith amongst the people there."— Epitome of Jainism. ३. दान लेसनेपके जैनीमसका हिंदी अनुवाद पृष्ठ ६० देखो । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैनशासन और ब्रूतग जिनधर्मपरायण राजा थे।" बूतग शास्त्रज्ञ और शस्त्रज विख्यात था । महाराज मारसिंह गंगवंशफे शिरोमणि पराक्रमी निर्भीक, धार्मिक जैन नरेश थे। पांचवी सदी में कदंब नरेश मगश वर्मा और उनके पुत्र रविवर्मा अपने पराक्रम मोर जैनधर्मके प्रेमके लिए प्रख्यात थे । रविवर्माने कातिक सुदीके अष्टाहिका पर्वको महोत्सवपूर्वक मनाने की राजाज्ञा' प्रचारित की थी। राष्ट्रकूटों में जैनधर्मको विशेष मान्यता थी । सम्राट अमोघवर्ष जिनेन्द्रभक्त, विद्वान्, पराक्रमी, पुण्यचरित्र तथा व्यवस्थापक नरेश थे। उनका विश्व के चार विख्यात नरेशों में स्थान था । नवमी सदी का एक अरब देशका यात्री लिखता है" कि अमोघवर्षके राज्य में सर्व-प्रकारको सुव्यवस्था थी । लोग शाकाहारी थे । सन् ८५१ में एक टूसरा करबका यात्री लिखता है-"अमोघवर्षके राज्यमें धन सुरक्षित था, पोरी डकैतीका अभाव या वाणिज्य उन्नतिके शिखरपर था, विदेशियों के साथ सम्मानपुर्ण बहार होता था ।" राष्ट्रकूट वंशम मंकेग, श्री विजय, नरसिंह आदि अनेक पराक्रमी जैन प्रतापी पुरुष हुए है । अमोघवर्षने अपने जीवन के संध्याकालमें दिगम्बर जैनमुनिकी मुद्रा भगवत् जिनसेनाचार्य के प्राध्यास्मिक प्रभाववश घारणा की थी। राष्ट्र कूटवंव शके जनवीरोंके परित्रके अध्येता विद्वान का अल्टेकर अपनी पुस्तक 'राष्ट्रकुट' में लिखते है -जन नरेशों तथा सेनानायकोंफ ऐसे कार्योको देखते हुए यह बात स्वीकार करने में हम असमर्थ हैं कि जनधर्म तथा बौद्ध धर्मको शिक्षाके कारण हिन्दू भारत में सांप्रामिक शौर्यका ह्रास हुआ है।" १. "येन संप्रतिना.......साधुवेषधारिनिकिकर जनप्रेषणेन अनार्य देशेऽपि साधुविहारं कारितवान् ।" -खरतरगच्छावलिसंग्रह, पृ० १७ । २. Mediaevat jainistra pp. 10-30. 5. Ibid and Some Historical Jain kings and Heroes. -Jain Antiquary Vol, vii No lp. 21. ४, Med, Jainism pp. 30-34. 4. "Raskitrakuta territory was vast, well peopled commercial and fertile. The people mostly lived on vegetable diet."Bombay Gaz. yot, I pp. 526-30. "In the face of achievements of the Jain princes and generals of this period, we can hardly subscribe to the theory that Jainism & Buddhism were chiefly responsible for the military emasculation of the population, that led to the fall of the Hindu India,"—The Rastrakutas p. 316-17 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमके प्रांगण में २४७ *धारवाड़, बेलगांव जिलों में शासन करने वाले महामण्ड लेबर नरेशों में महान योदा, मेरद, ५८वोराम, शांतिवर्म, कलारोन, कन्नकर, कार्तवीर्य, लक्ष्मी देव, मल्लिकार्जुन आदि जैनपाइसनके प्रति विशेष अनुरक्त थे । दसवींने तेरहवीं मदी तक कोल्हापुर, बेलगांवमें अपने पराक्रमके द्वारा शांतिका राज्य स्थापित करने वाले शीलहारनरेश जैन थे। महाराज विक्रमादित्यने घालुक्योंपर आकभग किया था । उनको कलिकाल विक्रमादित्य भी कहते थे । जिनधर्मके प्रति विशेष भक्तिधश उन्होंने कोल्हापुरके जिन्नमन्दिरके लिये बहुत भूमिदान की घो। सामन्त परसाती निम्ब महाराजन कोल्हापूरके विख्यात लक्ष्मी मन्दिरके समीप भगवान् नमिनाथका कलापूर्ण जिनमन्दिर मनवाया था, उसके वाह्य भागमे ७२ वडगासन दि० जनमूर्तियां विद्यमान हैं 1 किन्तु आज यह वैष्णष मन्दिर बना लिया गया है। भगवान् मेमिनायक स्थारर विष्णुको दो __जैन सेनापति बोप्पणको एक शिलालेख में बड़ा प्रलापी बताया है । पचित्री से बारहवीं शताब्दी पयंत ममूर, मुंबई प्रांत एवं दक्षिण भारत में चालुक्यवंशीय जैन नरेशोंका शामन था । इनमें सत्याश्रय द्वितीय पुलकेशी नामक जैन नरेशका नाम विशेष विख्यात है। अपने शिलालेखमें कालिदासका उल्लेख करने वाले जन कवि रविकीसिं द्वारा निर्मित ऐहोलके जिनमन्दिरोंको पुलकेशीने सहायता प्रदान को श्री। विमलादित्य, विजयादित्य, विनयादित्य, तैलप, जयसिंह तृतीय आदि जैन नरेशोंके शासन में जनमासन म्यूब विकसित रहा । कलचुरि नरेशों में म्हामण्डलेश्वर बिज्जल अपने पराक्रम और जिनेन्द्रभक्तिके लिये विख्यात थे । उनके पुत्र सोमेश्यरने भी जैनधर्मकी बढ़त सेवा की और लिंगायतोंके अत्याचारोंमे उसे बचाया । जैन नरेश बिज्जल महाराज के मन्त्री वसवराजने लिंगायत धर्मकी Somc HistJain kings and Heroes, 8. The temple has changed hands. Sheshshayiji has occupiec the place of Neminatha, All the basadis (Jain temples) in Kolhapur and near about have received grants at the hands of Nimbadev,--Kundnager Loccit. p. 11. 3. Ibid, y. The Chalukyas were without doubt the great supporters of ___ Jainism.-V. Smith His of India p. 444. 4. King Bijjal ruled peacefully with glory. He built many a Jain temple. His exploits as a warrior as well as supporter of the laith are well parrated in a Kanarese work called Bijjal Cha Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैनशासन स्थापना की थी । उसने बिज्जल के प्राणहरण करने के लिए शीलहार नरेशले युद्ध करते समय छलकर विधदूषित बम खिलाए। किन्तु सुचतुर वैद्योंके प्रयत्न से बिजली मृत्यु न हुई । पश्चात् जब दसवका पता चलाया गया तब उसने कुएंमें गिरकर अपने प्राण गंवाया । दोर) के शासक होयसाल नरेश जंन थे। उन्हें सम्यक्त्व-चूड़ामणि, दक्षिण चक्रवर्ती आदि पदोंसे समलंकृत किया गया था। महाराज विनयादिरयके जिनभक्त पुत्र एरसंग महान योद्धा थे. उन्होंने श्रमणबेलगोलाके जिन मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराया था। बलाल द्वितीयने बारहवीं सदी में मैसूर में राज्य किया। इनकी महारानी शांतला देवीने श्रमणबेलगोला में सवतिगंधकारण वस (मन्दिर) बनवाकर वहाँ शान्तिनाथ भगवान्‌को मनोज्ञ मूर्ति त्रिराजमान कराई थी। मैसुरका प्रसिद्ध चामुण्डी पर्यंत मारवल जैनतीर्थ के नामसे बारहवीं शताब्दी में प्रख्यात था। श्रृंगेरी, जो शंकराचार्यका विशिष्ट स्थान है, जैनधर्मका महत्वपूर्ण स्थान था । महाराज नरसिंहके वोर सेनापति हल्लने श्रमण-बेलगोला में सुन्दर जैन मन्दिर बनवाये थे । होयसाल राज्य के अन्तिम नरेशद्वय जैन थे । ईसवी सन् १९६० के शिलालेख में राचमल्ल और मारसिंह द्वितीय प्रधान सेनापति चामुण्डरायका उल्लेख आया है । इनके विषय में कहा जाता है- " चामुण्डराय से बढ़कर वीर सैनिक, जैनधर्मभक्त सत्यनिष्ठ व्यक्तिका कर्नाटकने कभी भी दर्शन नहीं किया।" जैनशास्त्रों में चामुण्डरायको धामिकताकी प्रशंसा की गई है । अपने जीवन में चामुण्डरायको लगभग १८ बार युद्धस्थल में अपने पराक्रमको सफल प्रमाणित करने का अवसर प्राप्त हुआ। शौर्यमूर्ति चामुण्डरायका साहित्यिक जीवन भी विशेष महत्त्वपूर्ण है। संग्राम-भूमिमें इन्होंने श्रेष्ठ अहिंसापूर्ण प्रवृति करनेवाले महामुनियोंके धर्मावरणको समझानेवाला चारित्रसार नामक ग्रन्थ rite. He was succeeded by his son, Someshwara, who also was a supporter of Jainism and saved it from the onslaughts of the Lingayats. — Rice, Mysore & Coorg. p. 79. t. The well-known Chamundi hill near Mysore was once a Jain Tirtha-hMeaiaevat Jainismn p 259. २. "Another seat of Jainism was Sringeri" - Mediaeval Jainism 206. p. 3. "A braver soldier, a more devout Jain, and a more honest man than Chamundraya, Karnataka had never seen,"-Medieval Jainism. p. 102. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमके प्रांगण में २४९ लिखा। इनके समान जिन भक्त सेनापति हल्ल और अमात्य गंगका नाम आता हूं। हलने श्रवणबेलगोला में चतुर्विगति जिनालय बनवाया था । दक्षिण भारतकी जैन वीरांगनाओं में जक्कैयावी, अक्कलदेवी, सवियच्ची, भैरवीदेवी विशेष विख्यात हूँ। महारनी भैरवी देवीने युद्धभूमि में अपने प्रतिपक्षी के दांत खट्टे किये थे । इस प्रकार दक्षिण भारतका इतिहास और वहांके महत्वपूर्ण अगणित शिलालेख जैनवीर पुरुषोंके पराक्रम तथा शौर्यको स्पष्टतया प्रतिपादित करते हैं । श्रीविश्वेश्वरनाथ रेऊ कृत 'भारत के प्राचीन राजवंश' (पृष्ठ २२७-२८ } और रायबहादुर ओझा जी के 'राजपूतानाका इतिहास' ( पृष्ठ ३६३) से विषित होता है कि वीरभूमि राजपूताना में शासन करनेवाले चौहान, सोलंकी, गहलौत आदि जैनधर्मावलंबी वीर पुरुष थे। अजमेर के नरेश पृथ्वीराज प्रथमने जैनमुनि अभयदेबके प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित की थी। उसने रणथंभोर के जैनमंदिरको सुवर्ण जटित दहलान बनवाई थी। पृथ्वीराज द्वितीय जैन के संरक्षक थे। उनके घाचा महाराज सोमेश्वर जनधर्म के प्रेमी थे। सोलंकी नरेश अश्वराज तथा उनके पुत्र अल्ण देव निभक्त थे। परिहारवंशी काक्कुक नरेश कीर्तिशाली तथा जैनधर्मावलंबी थे । महाराज भोजके सेनापति कुलचंद्र जैन थे। सोलंकी नरेश मूलराजने अहिलवाड़ा में मनोज्ञ जिनमंदिर बनवाया था । प्रतापी नरेशराज जयसिंह के मंत्री मुजल और शांतु जैन थे। महाराज कुमारपाल अनेक युद्धविजेता तथा जिनधर्म भक्त थे। उन्होंने अशोककी भांति धर्मप्रचारमें अपनी शक्ति लगाई थी; अनेक जैन मंदिरोंका निर्माण तथा हजारों प्राचीन शास्त्रोंका संग्रह कराया था। राठौरनरेश सिद्धराज जैन थे। मम्मट तथा धवल महाराज भी न ये मारवाड़क नरेश विजयसिंह सेनापति डूमराज जैनने अठारहवीं सदी के महाराष्ट्रों के साथ के युद्धमें प्रशंसनीय पराक्रमका परिचय दिया था। बीकानेर के दीवान एवं सेनानायक अमरचंद जी जेनने भटनेरया जवतालाको 2. If it be asked who in the beginning were firm promoters of Jain doctrine (they were) Raya (Chamundaraya), the minister of Rachmalla, after him Ganga, the minister of king Vishnu, after him IIulla, the minister of king Narsimhadeva, if any others could claim as such, would they not be mentioned ? -Epi. Garn, Ins, at Sravanl elgola p. 85. 2. Minister general Ilulla's contribution for the cause of Jain Dharma was the construction of famous Chaturvimasti Jainalaya at Sravanbelgola, Ibid. p. 142, Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनशासन युद्ध में जीता था। वीरशिरोमणि जिनभक्त सोलंकी राज्यके मंत्री आभने यवनोंको पराजित कर अपने राज्यको निरापद किया था । हिमय और कनिंगहमने जिस मोर सुहृलदेवको जैन माना है, उमने बहराइच में मुस्लिम सैन्यको पराजित किया था। उस समय यवन पक्षने बड़ी विचित्र चाल खेली थी । अपन समक्ष गोपंक्ति इकट्ठी कर दी थी। इसमें गोभक्त हिंदूसंन्य और शासक कि-काव्यविमूढ़ हो स्तब्ध हो गए थे और मोचते थे---यदि हमन शत्रपर शस्त्र प्रहार किया तो गोबधका महान् पाप हमारे सिरपर सवार हो हमें नरक पहुँचाये बिना न रहेगा। ऐसे कठिन अवसरपर वीर सुहल देवने जनधर्मको शिक्षाका स्मरण करते हुए आक्रमणकारी तथा अत्याचारी यवन सैन्यपर वायवर्षा की और अंत में जपश्री प्राप्त की। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि भारतीय इतिहासकी दृष्टि में जैनशासकों तथा नरेशोंका पराक्रमके क्षेत्र में असाधारण स्थान रहा है। यदि भारतवर्षके विशुद्ध इतिहासकी, वैज्ञानिक प्रकाशमें सामग्री प्राप्त की जाय और उपलब्ध सामग्रीपर पुनः सूक्ष्म चितना की जाय तो जनशासनके साराधकोंके पराक्रम, लोकसेवा आदि अनेक महत्त्वपूर्ण बातोंका ज्ञान होगा। विशुद्ध इतिहास, जो सांप्रदायिकता और संकीर्णताके पंको अलिप्स हो यह प्रमाणित करेगा कि कमसे कम समस्त भारतवर्ष में भगवान महावीरके पवित्र अनुशासनका पालन करनेवाले जैनियों द्वारा भारतवर्षकी अभिवृद्धिमें अवर्णनीय लाभ पहुंचा है। आज कहीं भी जैनधर्म के शासक नरेश नहीं दिखाई देते । इसका कारण एक यह भी रहा है कि देशमें जब भी मातभूमिकी स्वतंत्रता और गोरक्षाका अवसर आया है तब प्रायः जैनियों ने स्वाधीनताके सच्चे पक्षका समर्थन किया और उसके लिए अपने सर्वस्व तथा जीवननिधिको तनिक भी परवाह न को। जब सन् १९३५ में हम दक्षिण फर्नाटक पहुंधे थे, तब हमें मूडबिद्री (मंगलोर) में पुरातन जनराजवंशके टिमटिमाते हुए छोटेसे दीपकके समान श्रीयुप्त धर्मसाम्राज्यपाले यह समझनेका अवसर मिला, कि किस प्रकार उन लोगोंकी राज्यशक्ति क्षीण और नष्ट हुई। उन्होंने बताया कि जब हैदरअली, दीपू सुलतान आदिका अंग्रेजोसे यश पाल रहा था, उस समय हमारे पूर्वजोंने अंग्रेजोंका साथ नहीं दिया था और कूटनीतिके प्रसादले जब जयमाला अंग्रेजोंके गलेमें पड़ी तब हम लोगोंको अपने राज्यसे हाथ धोना पड़ा । इस प्रकाशमें यह बात दिखाई पड़ती है कि किस प्रकार जैन नरेशोंको अपना अस्तित्व तक होना पड़ा । स्वायियोंकी निगाहमें जहां वे असफल माने जामगे, बल्ला स्वाधीनताके पुजारियों के लिये के लोग सुरत्वसम्पन्न दिखाई पड़ेंगे। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रम के प्रांगण भारतवर्षने अपनी असहाय अवस्थामें स्वाधीनताके लिये जो अहिसात्मक राष्ट्रीय संग्राम छेरा था, उसमें भी जैनियोंन तन, मन, धन, द्वारा राष्ट्रको असाधारण सेवा की है । यदि राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राममे आहुति देने वालोंका धर्म और जातिके अनुसार लेखा लगाया जाय तो जैनियोंका विशेष उल्लेखनीय स्थान पाया जायगा । प्रायः स्वतंत्र व्यसायशील होने के कारण जैनियोंने कांग्रेसके नेताओंकी गदीपर बैठनेका प्रयत्न नहीं किया और दे सैनिक ही बने रहे, इस कारण सेनानायकोंकी मुची में समुचित संख्या नहीं दिखाई पड़तो। सुभाष बाबूने जो आजाद हिन्द फौजका संगठन किया था, उस में भी अनेक जैनों ने भाग लेकर यह स्पष्ट कर दिया कि जैनियों की शिक्षा संग्राम-स्थलमें सत्य और न्यायपूर्ण स्वत्वोंके संरक्षणनिमित्त साधारण गृहस्यको सकारत्र संग्राम से पोछे कदम हटाने को नहीं प्रेरित करती। आजादी के मैदानमें धीरोंको आगे बढ़े चलों का ही उपदेश दिया गया है । जैनधर्मकी शिक्षा वीरताको सजग करने की उपयुक्त मनोभूमिका सैयार करती है । आत्मा किस प्रकार संसारके जाल से छूटकर शाश्वतिक आमन्दप्रय मुक्तिको प्राप्त करें इस ध्येयकी प्रतिनिमित्त जन साधक कष्टोंसे न घबड़ाकर विपत्तिको सहर्ष आमंत्रित कर स्वागत के लिए तत्पर रहता है । सत्यार्प सूत्रकारने कहा है-"धर्ममार्ग से विचलित न हो जावें तथा कर्मोकी निर्जरा करने के लिये कष्टोंको आमंत्रण देकर सहन करना चाहिये ।' भौतिक सुखोंका परित्यागकर आत्मीक आनन्दके अधीश्वर जिनेन्द्रोंकी आराधनाके कारण सांसारिक भोगलालसासे विमुख होते कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तिको विलम्ब नहीं लगता, अतः सत्यपथपर प्रवृत्ति निमित्त प्राणोत्सर्ग करना उनके लिये कोई बड़ी बात नहीं रहती। सिसरोने कहा है No man car. bc brave, wild thiuks palu the greatest evil, not temperate, who considers plcasusc thc highest good." -- "जो व्यक्ति कष्टको सबसे बुरी चीज मानता है वह वीर नहीं हो सकता तथा जो सुखको मर्वश्रेष्ठ मानता है, यह संयमी नहीं बन सकता।" इस प्रकारसे यह स्पष्ट होगा, कि जनधर्मको शिक्षा वीरता के लिये कितनी अनुकूल तथा प्रेरक है । ओ जरा भी सुखोंका परित्याग नहीं कर सकता, वह जीवन उत्सर्गकी अग्निपरीक्षा में कैसे उत्तीर्ण हो सकता है ? जेम्स फडने आजके भोगाकांक्षी तरुणोंकी इन शब्दों में आलोचना की है, 'Young man dream of martyrdom and Are unable to sacrifice a single pleasure.' इस विवंचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्मका शिक्षण पराक्रम और पौर्यसे विमुख नहीं कराता है । भारतवर्ष में जबतक जैन शिक्षाका तथा जनदृष्टिका प्रचार था, तब तक देश स्वतंत्रताके शिखर पर रामासीन था। जबसे भारतवर्ष ने Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनशासन क्रूरता, पारस्परिक कलह, भोगलोलुपता तथा स्वार्थपरताकी जघन्य पत्तियोंका स्वागत किया और साम्प्रदायिकताको विकृत दृष्टि से वैज्ञानिक धर्मप्रसारके मार्ग में परिमित मधाएं सालों लावामिका अत्याचार कि तब से स्वाधीनताके देवता फूष कर मार और दैन्य, दुर्बलता तथा दासताका दानव अपना तांडव नृत्य दिखाने लगा । एक विद्वान्ने जन अहिंसाके प्रभावका क्ष्णन करते हुए कहा था"यदि भल्प संख्यक जैनियोंकी अहिंसा लगभग ४० कोटि मानव समुदायकी हिंसनवृत्तिको अभिभुसकर उसपर अपना प्रभाव दिखा सकती है, तब सो अहसाकी गजवकी ताकत हुई।" ऐसी अहिंसाके प्रभावके आगे दासता और दंभरूप हिंसमवृमि पर प्रतिष्ठित साम्राज्यवादका झोपड़ा क्षणभरमें नष्ट-भ्रष्ट हुए बिना नहीं रहेगा। वास्तवमें देखा जाए तो भारतवर्ष के विकास और अभ्युत्थानका जनशिक्षण और प्रभावके साथ घनिष्ठ संबंध रहा है । निष्पक्ष समीक्षकको यह बात सहजमें विदित हो जायगी । कारण जब जनधर्म चंद्रगुप्त आदि नरेशोंके साम्राज्य में राष्ट्रधर्म बन करोड़ों प्रजाजनोंका भाग्यनिर्माता था, तब अहां यथार्थ में दधकी नदियां बहती थीं। दुराचरणका बहुत कम दर्शन होता पा। लोगों को अपने धनों में ताले तक नही लगाने पड़ते थे। स्वयं की भल और दूसरों के अत्याचारोंके कारण जबसे जनशासनके ह्रासका आरंभ हुआ तबसे उसी अनुशतसे देशको स्थितिमें अन्सर पड़ता गया । प्रो. आपंगर सदृश उदारचरित्र विद्वानोंके निष्पक्ष अध्ययनमे निष्पन्न सामग्रोसे जात होता है, कि जनधर्म, जनमंदिर, जनशास्त्रों तथा जैनधर्माराधकोंका अत्यन्त क्रूरतापूर्ण रीतिसे शैव आदि द्वारा विनाश किया गया । वे लिखते है, कि 'पेरियपरमम्' में वर्णित शेष विद्वान् शिवप्तान संवधरके चरिबसे ज्ञात होता है कि पांड्य नरेशने जनधर्मका परित्यागकर शवधर्म स्वीकार किया और जैनोंपर ऐसा अत्याचार किया, कि 'जिसकी तुलना मोरय दक्षिण भारतके धार्मिक आंदोलनोंके इतिहास में सामग्री नहीं मिलेगी। सम्बन्धर रचित प्रति दस परमें एक ऐसा मार्मिक पद्य है जो जैनियों के प्रति भयंकर विद्वेषको व्यक्त करता है। इस पांड्य नरेशका समय ६५० ईस्वी अनुमान किया जाता है । ऐले ही अत्या 1. The Jains were also persecuted with such rigour and cruelty that is almost unparalled in the history of religious movement in South India. The soul-stirring hymns of Sambandhar, every tenth verse of which was devoted to anathematise tlic Jains clearly indicate the bitter pature of the struggle. -J.G. P. 154. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पराक्रमके प्रांगण में २५३ चारों के कारण जनधार पल्लव नकि यहा कि विपत्तिसे आक्रान्त हुआ। जैनधर्मके परम विद्वेषी संबंधर के प्रयत्नसे जैनोंके हिन्दुओं द्वारा संहारके चित्र मदुराक पीनाक्षो मन्दिरके स्वर्णकमल युक्त सरोवरके मंडपकी दीवालमें सुरक्षित रखे गए । 'इतने मासे संतुष्ट न होने के कारण ही मानो उस दुर्घटनाका अभिनय वर्ष में होनेवाले द्वादश उत्सवों में से पांच उत्सदोंमें किया जाता है । बसवराजके नेतस्थमें लिंगायतोंने कलचूर्य राज्यसे जैनियों का १२वीं सदीके अंत में महार किया। तिरुज्ञान संबंधर के समय में परस्वामी एक और शव साने जैनधर्मके संहार कराने में अग्निमें घताहतिका कार्य किया । 'अप्परस्वामीके बारे में कहा जाता है, कि वह पहले जैन था, पश्चात् एक विशेष घटनासे अप्परस्वामी ने शंवधर्म अंगीकार कर लिया । इस कार्य में उनकी बहिन की बड़ी सत्परता रही। अप्परस्वामी के पेट में एक बार बड़ी पीड़ा उठी, अप्परस्वामीने शिव मंदिरमे पहुँचकर भक्ति की, इससे पेटकी पीड़ा दूर हो गई, मोर वह कट्टर शंद हो गया। सांप्रदायिकोंने यह प्रयत्न किया कि उनलोगोंकी जैन हिसिनी नीतिपर आवरण पड़ जाय, और उस्टा जैनियोंको उनके हिसन के लिए प्रयत्नशील रहनेका दोषी बनाया जाय, किन्तु मदुराके मीनाक्षी मन्दिरकी जैन संहारकी चित्रावली, संहारस्मृति उत्सव मनाना तथा "परिम्पपुराणम् "में जैनधर्मके प्रति विषपूर्ण उद्गार प्रोफेसर आयंगरके इस कथन को पूर्णतया सत्य प्रमाणित करते है कि इनके निमित्तसे जो संहारका कार्य हुभा है यह ऐसा भयंकर है, कि उसकी तुलनाकी सामग्री दक्षिण भारत में कहीं भी नहीं मिलेगी। आज जनधर्म आराधक थोड़ी संख्या रह गए और अन्य धर्मपालकोंकी जन गणनामें असाधारण अभिवृद्धि हुई । यदि बारमविकास और अभ्युदयके तत्व जैनधर्म के शिक्षण में न होते तो देशके ह्रास और विकासके साथ अनुपात सम्बन्ध अथवा अन्वय व्यतिरेकभाच नहीं पाया जाता। जिस जैनशासनमें ईश्वरको दासताको भी स्वीकार न कर बौद्धिक और आस्मिक स्वाधीनताका चित्र विश्व के t. As though this were not sufficient to humiliate that unfortu tiate race, the whole tragedy is enacted at five of the twelve annual festivals at the Madura temple : p. 167. 8. At the close of the 12th cen. the Lingayatas under the ledership of Basava persecuted the Jains in the Kalachurya dominion. P.26. ३. देखो-'साप्ताहिक भारत"-पेज ६, १० नवम्बर स. ४७-अप्पर स्वामीपर लेख । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनशासन समक्ष रखा; जिस शिक्षणके द्वारा अगणित आत्माओंने कर्म-शत्रुओंका संहारकर परम निर्वाण रूप स्वाधीनता प्राप्त की, उस धर्मके शिक्षणमें व्यक्तिगत व राष्ट्रके पतनका अन्वेषण मृगका परीचिकामे पानी देखने जैसा है । जैन शासकमा आदर्श भगवान् शांतिनाथ सदृश चक्रवर्ती तीर्थकरका चरित्र रहता है, जिन्होंने साम्राज्यकी अवस्था में नरेंद्रचक्र पर विजय प्राप्त की थी और अन्तम भोगोंको क्षणिक और निस्सार समम मोह-शत्रुके नानिमित्त अतःबाह्य दिगम्ब रत्वको अपनाकर कर्मसमूहको नष्ट किया । वास्तव में विकास और प्रकाशका मार्ग बौरता है। इस वौ रतामे दोनोंका संहार नहीं होला । यह वीरता अन्याय और अत्याचारको पनपने नहीं देती। जैनधर्म प्रत्येक प्राणीको महावीर बननेका उपदेश देता है और कहता है'बिना महावीर देने तुम्हें सच्चा कल्याण नहीं मिल सकता, महाबीरकी दृत्ति पर ही व्यक्ति अथवा समष्टिका अभ्युदय और अभ्युत्थान निर्भर है। कहते हैं, एक प्रतापी राजा अपने विजयोल्लासमें मस्त हो, सोचता था, कि इस जगत्में ऐसा कोई व्यक्ति नही बचा, तो मेरे समक्ष अपने पराक्रमका प्रदर्शन कर सके, उसी समय छोटेसे निमित्त से उसे क्रोध आ गरा, नेत्र रक्तवणं हो गए । कुछ कालके उपरान्त अन्तःकरणमे शान्तिका शासन स्थापित होने पर विवेक ज्योति जागी, तब जप यह भान हुआ, कि मेरी महान् विजयकी कल्पना तत्वहीन है; मैंने अपने अन्तःकरण में विद्यमान प्रच्छन्न शत्रु क्रोधादिका तो नाश ही नहीं किया । तब वह लज्जित हुआ | आचार्य बायोमसिंह लिखते है, जब गोषरकुमार काष्ठांगारके अत्याचारकी कथा सुनते ही अत्यन्त क्रुद्ध हो गया था, तब मार्यनंबो गुरुने यही तत्त्व समझाया था, वत्स, सच्चे शष पर यदि तुम्हें रोष है, तो इस क्रोध पर क्यों नहीं बुद्ध होते, कारण इसने तुम्हारे निर्वाण-साम्राज्य तकको छीन लिया है। जी बंधरकुमारने अपने पराक्रम, पुरुषार्थ एवं पुण्य के प्रभाव से अपने राज्यको पुनः प्राप्त तो कर लिया, किन्तु आस्म-साम्राज्यको प्राप्त करने के लिये अम्तमें उन्हें सब अनात्म पदार्थोंका परित्याग कर जिनेन्द्रकी शरण ली । अन्तमें वे कृतार्थ हुए, कृतकृत्य बने, और मोहारिजेता बन अविनाशो जीवनके भविपत्ति हो गए। राह्य रिपुओं की विजय के लिए अस्त्र, शस्त्र', सैन्यादिकी आवश्यकता पड़ती है, किन्तु इस जीवको जन्मजरामरण को विपदाओं के फन्दे से बचाने वाली १. इस लोकमें जन्म, जरा, मुत्युझे बचने के लिए कोई भी शरण नहीं है । हां, जन्म जरा, मरण रूप महाश का निवारण करनेकी सामर्थ्य जिन शासनके सिवाय अन्यत्र नहीं है। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय यदि किसी में शक्ति है तो वह है कारिविजेता जिनेन्द्र को वीतरागताका लोकोत्तर भार्ग । पूलाचार में कहा है-- "जम्म-जरा-मरण-समाहिदम्हि सरणं ण विज्जदे लोए। जम्भमरणमहारिउवारणं तु जिणसासणं मुत्ता ।" पुण्यानुबन्धी वाङ्मय भरवती सरस्वतीक भण्डारको महिमा नसा है सके प्रसाद यह प्राणी मोहान्धकारसे बचकर भालोकमय आत्मविकासके क्षेत्रमें प्रगति करता है। इस युग में इतने वेगसे विपुल सामग्री भारतीक भव्य भवन में भरी जा रही है कि उसे देख कविकी सूक्ति स्मरण भाती है "अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रं स्वल्पं तथायुबंवश्च विनाः । सारं ततो ग्राहमपास्य फल्गु हसर्यथा क्षीरमिवाम्बुराशेः ।।" शास्त्रसिन्धु अपार है। जीवन थोड़ा है । विघ्नोंकी गिनती नहीं है । ऐसी स्थितिमें ग्रन्थ-समुद्रका अवगाहन करने के असफल प्रयासके स्थान में सार बातको ही ग्रहण करना उचित है। असार पदार्थका परित्याग करना चाहिये, जैसे हंस अम्युराशिमें से प्रयोजनीक दुग्ध मात्रको ग्रहण करता है। साधक उस ज्ञानराशिसे ही सम्बन्ध रखता है, जो आत्मामें साम्यभावकी वृद्धि करती है तथा इस जीवको निर्माणके परम प्रकाशमय पधमे पतेचाती है। जो ज्ञान राग, द्वेष, मोह, मात्सर्य, दीनता आदि विकृतियों को उत्पन्न करता है, उसे यह कुमान मानता है। सत्पुरुष ऐसो सामग्रीको आत्मविघातक बताते है. जो आविष्कारके सदमें प्राणघातक, विष, फन्दा, यंत्र आदिके नामसे जगत्के समक्ष आती है ।' महापुराणकार भगवजिमनसेने वास्तव में उनको ही कवि तथा विद्वान् माना है जिनकी भारतीमें धर्म-कथांगत्व है । उनका कथन है-- १. "विसर्जतकूलपंजरबंधादिसु विणुवएसकरणेण । जा वलु पवटा मई मइ अण्णाणं त्ति पं वति ।।" -गो. जी. ३०२ । २. "त एवं कवयो लोके त एक प विचक्षणाः । येषां धर्मकथांगत्वं भारतो प्रतिपद्यते ।।" -महापुराण १, ६२ । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनशासन "धर्मानुबन्धिनी या स्यात् कविता संघ शस्यते। शेषा पापानवायैव सुप्रयुक्तापि जायते ॥" -महापुराण १-६३ । धर्मसे सम्बन्धित कविता ही प्रशंसनीय है। अन्य सुचित कृतियां भी धनिबंधिनी न होने के कारण पापकर्मोक आगमनको कारण है। ऐसे रचनाकारोंको मिनसेन स्वामी कुकवि मानते हैं । जिन साक्षरोंकी समझ में यह बात नहीं आती, कि रागादि रससे परिपूर्ण आनन्द रसको प्रवाहित करने वाली रचनाओं में क्या दोष है, उनको लक्ष्यबिन्दुमें रखते हुए आदर्शवादी कवि मूषरवासजी लिखते है "राग उदै जग अन्ध भयो सहर्ज सब लोगन लाज गवाई। सीख बिना नर सीख रहे विषयादिक सेवनकी सूघराई ।। ता पर और रचे रस-काव्य कहा कहिए तिनको निठुराई । अन्ध असूझनकी अंखियान मैं, झोंकत हैं रज राम दुहाई ।।" कविवर विधाताको भूलको बताते हुए कहते हैं"ए विधि ! भूल भई तुम तें, समुझे न कहाँ कसतूरि बनाई। दीन कुरंगनके तन में, तन दन्त धरै, कहना नहि आई ।। क्यों न करी तिन जीभन जे रस काप करें पर कों दुखदाई । साधु अनुग्रह दुर्जन दण्ड, दोऊ सधते विसरी चतुराई ।।" माधुनिक कोई कोई विद्वान् उस रचनाको पसन्द नहीं करते, जिसमें कुछ तत्त्वोपदेश या सदाचार-शिक्षणकी ध्वनि (didactic tone) पाई जाती है । वे उस विचारधारासे प्रभावित है जो कहती है कि विशुद्ध, सरस और सरल रचनामें स्वाभाविकताका समावेश रहना चाहिये । रचनाकारका कर्तव्य है कि चित्रित किए जाने वाले पदार्थोफे विषवमें दर्पणको वृत्ति अंगीकार करे । जहां तक जनानुरंजनका प्रश्न है, यहां तक तो यह प्राकृतिक चित्रण अधिक रस-संबर्धक होगा, किन्तु मनुष्य जीवन ऐसा मामूली पदार्थ नहीं है, जिसका लक्ष्य मधुकरके समान भिन्न भिन्न सुरभिसम्पन्न पुष्पोंका रसपान करते हुए जीवन व्यतीत करता है। मनुष्य-भीवन एक महान निधि है, ऐसा अनुपम अवसर है, जबकि साधक आत्मशक्तिको विकसित करते हुए जन्म-जरा-मरणविहीन अमर जीवनकै उस्कृष्ट और उज्ज्वल आनन्दकी उपलब्धिके लिये प्रयत्न करे । भतएब सन्तोंने जीवन के प्रत्येक अंग तथा कार्यको तबही सार्थक तपा उपयोगी माना है, जबकि यह आत्मविकासकी मधुर ध्वनिसे सपस्थित हो । भोगी व्यक्तियोंको धर्मकथा अच्छी नहीं लगती। महापुराणकार जिनसेन तो कहते है कि 'पवित्र Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २५७ धर्मकथाको सुनकर ममत् पुरुषों के चित्त में व्यथा उत्पन्न होती है, जैसे महाग्रहसे विकारी श्यक्तियोंको मन्त्र-विद्याके श्रवण द्वारा पीड़ा होती है' ।' अत एव महापशए पवित्र और हिपल शिराओं को देना अपना कर्तव्य समान है । लोकप्रशंसा अथवा विरक्तिका उनके सन्मार्गानुशासन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उनका ध्येय प्रशंसाके प्रमाणपत्र संग्रह करना नहीं रहता है। उनका लक्ष्य सम्मानका प्रकाशन रहता है । जिमसेम स्वामी कहते हैं "परे तुष्यन्तु वा मा वा कविः स्वार्थ प्रतीहताम् । न पराराधनात् श्रेय: श्रेयः सन्मार्गदेशनात् ॥" १-७६ 1 पाश्चास्योंके भारत-भूपर पदार्पण करनेयः अनन्तर देश-विदेदा में अन्य संग्रह तया उनके प्रकाशन, परिशीलन मादिना एक नयोन युग अवतरित हुआ। उस समय अन्य वाङ्मय तो प्रकाश में आया, किन्तु जर समाजने शुद्धताके विशेष ममत्त्ववक्ष, अथवा विमियों द्वारा ग्रन्थनाशकी भीति के कारण अपनी चमत्कारक अमूल्य कृतियोंको साहित्यिक कलाकारों के समक्ष लाने में अत्यधिक शैथिल्यका परिषम दिया, ऐमी ही सांप्रदायिक दृष्टि द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण जैन साहित्यकी रचनाएँ भी अन्य धर्मी बताई गईं। ईसाकी प्रथम शताब्दी में एलाचार्य (कून्दकुन्द द्वारा रचित जैन ग्रंथ 'कुरल' काध्यको एक तिरुवल्लुवर नाम के अछूत शूद्रकी कृति कहा जाता है। सौभाग्यसे प्रतिभाशाली विद्वान् प्रो० चक्रवर्तीने पन्धका अन्त परीक्षण करके ऐसी सामग्री उपस्थित की, कि जिसमे सत्य शोधकों को 'कुरल' को जैन रचना स्वीकार करना होगा। जैसे मंगलाचरणके पद्यमें किसी भी हिन्दू देवताकी वन्दना न करके उनको प्रमाण किया है "Hc who walked on lotus"-जो कमल पर चलते थे । जन पुराणोंमें यह बताया गया है, कि जिनेन्द्रले परणोंक नीचे देवन्द कमलोंकी रचना करते है । तामिल महाकाव्य नीलकेशीके जैन टीकाकार समय रिवाकर मुनिवर कुरलको "my own bible'' हमारा धर्मग्रन्य कहते हैं । सांप्रदायिकोंफे नर सथा कलंकपूर्ण कृत्योंके कारण ही साधारण मति साधु घेतस्क व्यक्ति धर्ममात्रको प्रणाम कर सामान्य सदाचारको ही सुखोजीवनका आधारस्तंभ मान प्रवृत्ति करते हैं। कम लोगों को इस बात का यथार्थ अबवोत्र है ----.-- १. "असतां दूयते चित्तं श्रुत्वा धर्मकयां नतीम् । ___मन्त्र विद्यामिवाकर्ण्य महाग्रहयिकारिणाम् ।।" १.८६ । २. ''पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र पत्तः 1। पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ।।"-भक्तामर. ३६ । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जैनशासन कि जिस प्रकार अलाउद्दीन, गजनवी, गोरी सदश, यवनोंने भारतीय मठ, मन्दिरों, अन्यभण्डारोंका अनन्त करतापूर्वक विनाश किया, उससे भी कहीं आगे बढ़कर धार्मिक अत्याचारोंका निशाना धन्धि विप्रवर्ग के इशारेपर हिन्दू नरेशोंने किया था । हमारे बहुमूल्य साहित्यका कैसा निमम नाश किया गया, इसका वर्णन सहृदय विद्वान प्रो. बार० साताचार्य, एम० ए० एल. टी. अपने कन्नड़ जैन साहित्य सम्बन्धो अंग्रेजी लेख करते हुए लिखत है ' ReligiP : securics:, it :IRTAI.ce, irgutry, cotiservat isrn and the like have done much 10 put keep from the public al] that is valuable in Kanada Jaitt litcrature. Thousands of bastis lave beea destroyed, and the librarics sct on firc. Several thousands of palmyra njanuscripts have been throwa into the Kayeri os the Tungabhadra and ille havoc of worins has been cqually destructive of the vast treasures of learning." (J.G. P. 178, P. XVI), जिस प्रकार कूटनीतिश अंग्रेज भारतवासियोंका स्वार्थवश भान्त चित्रण करते हुए उनको लकड़हारे और पानी भरनेवाले (Hewers of wood and drawers of water) लिखते थे, उसी प्रकारको दुषित भावनावाले एक पादरी महादाय लिखते हैं- जैनियों के पास महत्व पूर्ण साहित्यका अभाव है, जिस धर्ममे इस प्रकारको मुख्य बातें मानो जायें, कि ईश्वरको नहीं मानो, मनुष्यकी पूजा करो, क्रूर सादिका संरक्षण करो, उस धर्मको जीवित रहनेका अधिकार नहीं है ।''१ योल नरेशोंके राज्यमं जैन मन्दिर, महादिका अपार नाश किया गया। इस सम्बन्धम भायगाका कथान है-The Chola sovereigus had ever remained bitter enemies of the faitli and who is there that does not know of Raja Chul's terrible destruction of the Jain templc and ironasteries and the ravaging of the country as far as Puligeri ? & The Jains have no literature worthy of the name. A religion in which the chick point insisted on are that one should decry Gül, worsirip man & nourish vermin has indeed no right to exist," {W. Hopkins-Religion of India p. 207. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २५९ गुजरातके नरेश अजय देवने शिवभक्तिके अतिरकवश बारहवीं सदी में जैनियों. का अत्यन्त निर्मम संहार किया और जैन प्रमुख लोगों की बड़ी बेरहमोके साथ इत्या को। श्री आर्चेल (Archael) ने इसे हर हान्दोमे गत किया ₹-- 'Ajayadeva a Shiva King of Gujarat (1174-1176) began his rcign by a merciless persecution of the Jains, torturing their leaders to drath' से अवर्णनीय अत्याचारोंके होते हुए भी डैनिदोंने कभी भी अन्य संप्रदायके देवताओंकी मूर्तियों, मठों, मन्दिरोंका धंस नहीं किया। अनेक कट्टर विद्वान् जैनोंके प्रति अनादरका ही प्रचार करते रहते थे। उपर जैन साहित्यके प्रति साम्प्रदायिक विद्वानों द्वारा भ्रान्त प्रचार भी रहा, अतः अब भारतीय वाङ्मयके विषय में विपक्ष साहित्यिकोंने प्रकाश डाला, तब भी जैन वाइमायके बारे में प्रान्त धारणाओंकी अभिववि हई । मेग्डाना जैसे पश्चिमके पण्डितोंकी "India's Past' पुरातन भारत सम्बन्धी रखनाओंमे जैन अन्योंकि विषयमै अत्यन्त अल्प प्रकाश प्राप्त होता था। कभी-कभी तो ऐसा मालूम पड़प्ता भा, कि भारतीके भण्डारमें जैन ज्ञानी जनोंने कुछ सामग्री समर्पित भी की थी या नहीं; यह निश्चित रूपसे नहीं कह सकत थे । साम्प्रदायिकता अथवा भ्रान्त धारणाओं के भंवरसे जैन वाङ्मयका उद्धार कर जगत्का ध्यान उस ओर आकन पित करने का श्रेय डा. जैकोबी, डा० दल सदृश पाश्चात्य पंडितोंको है। उन्होंने अपार श्रम करके जैन शास्त्रोंको प्राप्त किया। उनका मनन तथा परिपोलन करके जगत्को बताया कि जैन वाङ्मयके कोपमें अमूल्य ग्रन्थ राशि विद्यमान है और वह इतनी अपूर्व तथा महत्वपूर्ण है, कि उसका परिचय पायें बिना अध्ययन पूर्ण नहीं समझा जा सकता। इन विदेशी मध्येताओं के प्रसादसे यह बात प्रकाश आई कि जैन आचार्यों तथा विद्वानोंने जीवन में प्रत्येक अंगपर प्रकाश डालने वाली बहुमून्य सामग्री लोकहितार्य निर्माण की यो । जैन दाङ्मयका विशेष रसपान के कारण तन्मय होनेवाले पा० हटल कितनो सजीव भाषामें अपने अन्तःकरण के उद्गारोंको व्यस्त करते है--"Now what would Sanskrit poetry tsc thc without the large Sanskrit literature of the Jains. The more I learn to know, the more my admiration rises."-"जैनियों के इस विशाल संस्कृत साहित्यके अभावम संस्कृत कविताको 1. "Thus we see that persistent perscutions were directed against the Jains and to the credit of Jainism heit spoken that it 11ever altcmpted to use the sword against other religions." Vide Article "Jain church in mediaevel Iridja. J. G.P. 125, Vol XVIl, 4. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जैनशासन क्या दशा होगी ? जैन साहित्यका जैसे-जैसे मुझे ज्ञान होता जाता हूँ, वैसे-वैसे ही मेरे चिलमें इसके प्रति प्रशंसाका भाव बढ़ता जाता है ।" जैन साहित्य के विषय में प्रो० हाकिन्स लिखते है- "जैन साहित्य, जो हमें प्राप्त हुआ है, काफी विशाल है । उनका उचित अंग प्रकाशित भी हो चुका है । इससे जैन और बौद्ध धर्मक सम्बन्ध बारेमें पुरातन विश्वासों संशोधनकी आवश्यकता उत्पन्न होती हैं वेम्स विसेट प्रिंट नामक अमेरिकन मिशनरी अपनी पुस्तक "India and its Faiths" (५० २५८) में लिखते हैं- " जैन धार्मिक ग्रन्थोंके निर्माणकर्ता विद्वान् बड़े व्यवस्थित विचारक रहे हैं । वे गणित में विशेष दक्ष रहे हैं। वे यह बात जानते है कि इस विश्व में कितने प्रकारके विभिन्न पदार्थ है। इनको इन्होंने गणना करके उसके नक्शे बनाये हैं। इससे वे प्रत्येक बातको यथास्थान बता सक्ते है ।" यहाँ लेखककी दृष्टिके समक्ष जैनियोंके मोम्मटमार कर्मकांड में वर्णित कर्म प्रकृतियों का सूक्ष्म वर्णन विद्या है, जिसे देखकर विस्मित हुए बिना नहीं रहता। विस्मयका कारण यह है कि उस वर्णनमें कहीं भी पूर्वापर विरोध या अभ्यवस्था नहीं आती। डा० वासुदेवशरण अग्रवाल, अपने "जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री" शीर्षक निबन्धमें लिखते हैं- "हर्षकी बात है कि बौद्ध साहित्य से सब बातों में बरावरोका टक्कर लेने वाला जैनों का भी एक विशाल साहित्य है । दुर्भाग्य से उनके प्रामाणिक और सुलभ प्रकाशनका कार्य बौद्ध साहित्यकी अपेक्षा कुछ पिछड़ा हुआ रह गया। इसी कारण महावीरकाल और उनके परवर्ती कालके इतिहास निर्माण और तिथि क्रम निर्णय में जैन साहित्यका अधिक उपयोग नहीं हो पाया। अब शनैः शनैः यह कमी दूर हो रही है ।" डा० अप्रषाल लिखते हैं- "जैन समाजकी एक दूसरी बहुमूल्य देन है वह मध्यकाल का जैनसाहित्य है जिसकी रचना संस्कृत और अपभ्रंश में लगभग एक सहस्र वर्षों तक (५०० ई० PL 1. The Jain literature left to usis quite large and enough has been published already to make it necessary to revise the old belief in regard to the relation between Jainism and Buddhism. -- The Religions of India P. 286. २. “The writers of the fain sacred books are very systematic thinkers and particularly 'strong on arithmetic. They know just how many different kinds of different things there are in the universe and they have them all tabulated and numbered, so that they shall have a place for every thing and every thing in its place." p. 258. महा Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २६१ १६०० ई०) होती रही । इमको तुलना बोद्धोंके उस परवर्ती संस्कृत माहित्यमे हो सकती है, जिसका सम्राट् कनिष्क या अश्वघोषके समयमे बनना शुरू हुआ और बारहो शताब्दी अर्थात् नालन्दाके अस्त होने तक बनता रहा । दोनों साहित्योंमें कई प्रकारकी नमानसाएं और कुछ विषमताएं भी हैं। दोनों में वैज्ञानिक ग्रन्थ अनेक हैं । काश्य और उपाख्यानोंकी भी बहुतायत है । परन्तु बौद्धोंके सहज यान और गुह्य समाजसे प्रेरित माहित्य प्रभाव जैन लोग बच्चे हैं। जैन साहित्यम ऐतिहासिक काव्य और प्रबन्धकी भी विशेषता रही। मध्यकालीन भारतीय इतिहास के लिए इस विशाल पेन साहित्यका पारायण अत्यग्स मावश्यक है। एक ओर 'पशस्तिलकचम्यू' और 'तिलकमंत्ररो' जैसे विशाल गद्य ग्रन्थ हैं जिनमें मुसलिम कालसे पहलेकी मामन्त संस्कृतिका माछा चित्र है, दुमरी और पुष्पदन्तवृत्त 'महापुराण' जैसे दिग्गज ग्रन्थ हैं, जिनसे भाषाशास्त्रक अतिरिक्त सामाजिक रहन-सहन का भी पर्याप्त परिचय मिलता है। वायभट्ट की बादम्बरीके लगभग ५०० वर्ष बाद लिखी हुई तिलकमंजरी नामक गल व था संस्कृत सादिका एक अत्यन्त मनोहारी अन्य है। संस्कृतिमे मम्बधित पारिभाषिक शब्दोंका बड़ा उत्तम संग्रह इस ग्रंथ से प्रस्तुत भी किया जा सकता है। "उपमितिभवनपधकथा' और 'सपराइसमकहा' भी बड़े कशा ग्रन्थ है, जिनमें स्थान स्थान पर तत्कालीन मांस्कृतिक चिय पाये जाते हैं।' देवानन्दमहाकाव्य, कुमारपालचरित्र, प्रभावकचरित्र, जम्बूस्वामी चरित तथा हीरसौभाग्यकाक्ष्य में इतिहासकी वहुमूल्य सामग्री विमान है । भानुचन्द्रचरितम्' से सम्राट अधर और उनके प्रभुत्व दरबारीजनों के चरित्र पर महत्थपूर्ण प्रकागा पड़ता है। बनारसोबासजी महाकविफे 'अर्धकथानक' के द्वारा अकबर तथा जहांगीरकालीन देशकी परिस्थितिपर प्रकाश पड़ता है तथा यह भी विदित है कि मुस्लिम मरेशोंके प्रति प्रजाजनका कितना माद अनुराग रहता था। काशी गवर्नमेन्ट संस्कृप्त कालेज के प्रिंसिपल डा. मंगल देवते 'न विद्वांसः संस्कृतमाहित्यं च' नामक संस्कृत भाषामें लिखे गए विचारपूर्ण सुन्दर निबन्ध में 'अमरकोष' नामक प्रख्यात संस्कृत कोषको जेन रचना स्वीकार की है । उन्होंने आत्मानुशासन, धर्मशर्माभ्युदय, सुभाषितरत्न सन्योह, मात्र चूड़ामणि, लिदसमस्त्रमण्डनं. यशस्तिलवचा-पू, जीउन्धरनम्पू आदिको शब्दमौन्दर्य, ननावातुर्य, अर्थगंभोर ताके कारण विद्वानोवे लिए सम्माननीय बताया है । अलंकार नास्त्र के रूप में अलंकार चिंतामणिको भी महत्वपूर्ण कहा है । १. अनेकांत वर्ष ५, किरण १२, पृ० ३९४ । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जैनशासन माकरणके क्षेत्रमें जैनेन्द्र, शाकटायन, शटदार्णव. कौमार, त्रिविक्रम, चिन्तामणि प्रभृत्ति उपला भाष्यों एवं मूल अन्योंकी गणना करने पर जैन व्याकरण के लगभग तीस ग्रन्थ पा जाते हैं । पाणिनीयके साथ जनेन्द्रको सूक्ष्मदृष्टि से तुलना करने पर जैनेन्ट्रकार महषि पूज्यपादका शब्दशास्त्र पर अधिकार, मूत्ररचनापाटव, अर्थबहुलता तथा अल्पशब्दप्रयोग आदि दात समीक्षकके अन्तःकरण पर अपना स्थान बनाए बिना नहीं रह सकती । खेद इतना है, कि जिस प्रकार पाणिनीय व्याकरण के अध्ययनादि द्वारा उसका प्रचार किया जाता है, उसी प्रकार जैनेन्द्र व्याकरण के प्रति आत्मीयता तथा ममत्व नहीं है । जहां वैयाकरणों की दुनियाम अर्धमाकाकी म्यूनता पुत्रोत्पत्ति सदृदा आनंद प्रदान करती है, वहां जैनेन्द्र के सूत्रोंमें अनेक शब्दोंका लाधव दन पूज्यपाव स्वामोकी लोकोत्तरता प्रकाशित होती है और कषिकी यह उक्ति सार्थक प्रतीत होती है "प्रमाणमकलंकस्य पुज्यपादस्य लक्षणम् । धमञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमाश्चिमम् ।।" पदि असाम्प्रदायिक तथा मार्मिक विचारक भावसे जन रचनाओंके साथ अन्य कृतियोंकी तुलना की जाय, तो ज्ञानीजनोंकों जैनबाङ्मयको यथार्थ पहनाका बोध हो। जैन रचनाओंका उचित परिशोलन, इनपर आलो वनाओं का निर्माण किया जाना एवं शुद्ध अनुवादोंका प्रकाशमैं आना अत्यन्त आवश्यक है। कालिवासका मेघदूत संसारमें विख्यात हो गया है, किन्तु जमनी ममस्यापूर्ति करते हुए भगवान् पार्श्वनाथका जोषन गुम्फित करने वाले भगवत् किनसेनके पाश्र्वाभ्युदयका कितने लोगोंने दर्शन किया है ? अब तक ऐसी महनीय रचना का हिन्दी अनुवाद अथवा मेघदूत और पाभ्युिदयका तुलनात्मक अध्ययन सा रचनाएं प्रकाशित नहीं हुई। सहृदय मामिक विद्वान् प्रो० पाठक जिम पाश्र्वान्युदया. मेघदूतकी अपेक्षा विशेष कवित्वपूर्ण रचना संसारके समक्ष उद्घोषित करने हैं, उसके प्रति जम समाजको उपेक्षा अथवा अन्य लोगों की अनासक्ति इस तथ्य को समझने में सहायता प्रदान करती है, कि महत्त्वपूर्ण, गंभीर तथा आनन्ददायी जन माहित्यका अप्रचार क्यों हुमा तथा लोक उसको गरिमामे क्यों अपरिचित रहा और अब भी अपरिचित है ? पावदियकी महत्ताको प्रकाशित करने वाला यह पद प्रत्येक उदार श्रीमान् एवं विद्वान्के लक्ष्यगोचर रहना चाहिये 1. "The first place among Indian poets is alloted to Kalidas by consent of all. Jinasena the author of great any claims to be considered a better genius than the author of Cloud Messenger नेघदूत"- Prof. K. B. Pathak. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय श्रीपाश्र्वात् साधुतः साधुः कमठात् खलतः खलः । पाश्वभ्युदयत: मान्यच वा दृश्यते ॥" साधुतामें भगवान् पाश्र्वनाथके सदृश अन्य नहीं दिखता है और दुष्टता करने में कमठके समान कोई और नहीं है। पाश्वनाथ भगवान्के अभ्युदयका वर्णन करने वाले पार्वाम्पुदय कान्य सदृश रचना भन्यत्र नहीं है । __ महाकवि हरिचन्दका घमंशामाभ्युक्य अनुपम रत्न है। रही बात जीवन्धरचाम्पूफे विषय में चरितार्थ होती है । संस्कृतज्ञोंके संसारमें वाणकी यह सूक्ति सुप्रसिद्ध है कि हरिचन्द्र महाकविकी गद्य रचना श्रेष्ठ है-'भट्टारहरिचन्दस्य पबन्धो नपायते' । महाकवि अहसासका पुषदेवचम् अत्यन्त मनोहारिणी, पांडित्य एवं कवित्व पूर्ण रचना है । मुनिसुव्रतकापकी रचना भी अत्यन्त सुन्दर है। मनोहर एवं गंभीर अनुभवपूर्ण मुभाषित रत्नोंसे अलंकृत तथा विशुद्ध विचारोंका प्रेरक क्षत्रचूडामणिकाव्यका रसास्वाद प्रत्येक सरस्वतीभक्तको लेना चाहिए । आचार्य यादोभसिंह का जीबंधरस्वामीके चरित्रको प्रकाशित करने वाला 'गचिन्ताममि' जैसा अपूर्व, गंभीर, कवित्व एवं ज्ञानपूर्ण महाकाव्य जिसके अध्ययन गोचर हुआ है, उसे विदित होगा, कि 'कादम्बरी' ही गद्यजगट्टकी श्रेष्ठ कृति नहीं है; किन्तु गद्य चिन्तामणि और यशस्तिलकचम्पू नामकी जैन रचनाएँ भी है । इस प्रकाश कुछ भक्तोंका यह कीतन कि 'बाणोच्छिष्टमिदं जगत्' अतिशयोक्ति अथवा भक्तिपूर्ण उद्गार माना जायमा । महाकवि वीरनंदिका चंद्रप्रभचरित्र यथार्थमं सुशंके सदृश आनन्द तथा शान्ति प्रदान करता है। कविवर हस्तिमहलका मैपिलोकल्याग तथा विकासकोरव नामक नाटक नाट्य साहित्य में महत्त्वपूर्ण है। यदि सहृदय साहित्यिक जैन काव्यरचनाओंका मनन तथा परिशीलन करें, तो उले यह अनुभव हरेगा, कि जिस प्रकाश तत्त्वज्ञान के क्षेत्रमें अन ऋषियों तथा ज्ञानी जनों ने अपूर्व सामग्री प्रदान की है; उसी प्रकार साहित्य-संसारको भी उनकी बेन अनुपम है। जैन विद्वानों ने संस्कृत भाषा तक ही अपनी कल्याणदायिनी रचनाओंको सीमित नहीं किया, किन्तु अन्य भाषाओं में भी उनकी रचनाएँ गौरवशालिनी है । प्रत्येक जीवनोपयोगी विषय पर जैन मुनीन्द्रोंने लोकहितार्थ प्रकाश डालनेका सफल प्रयत्न किया है। प्रोफेसर घूलर का कथन है कि 'जैनियोंने व्याकरण, 1. “The Jains have accomplished so much inportance in gra mmar, astronomy, as well as in some branches of letters that they have won respect even from their enemies, and some of their works are still of importance to European science. The Kanarese literary language and the Tamil and Telgu rest on the four:dations laid by the Jains monks." -Indian Sects of the Jains-p 22. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जैनशासन ज्योतिष तथा अन्य ज्ञान के विषयों में इतनी प्रवीणता प्राप्त की है, कि इस विषय में उनके शत्रु मी उनका सम्मान करते हैं । उनके कुछ शास्त्र तो यूरोपीय विज्ञानके लिए अब भी महत्त्वपूर्ण है। जैन साधुओं द्वारा निर्मित नौंव पर तामिल, तेलग तथा कन्नड़ साहित्यिक भाषाओंकी अवस्थिति है। प्राकृत विमर्श विचक्षण राब. नरसिंहाचार्य एम. ए. अपने 'कर्णाटककविचरिते' ग्रन्थमें लिखते हैं-'कन्नड़-भाषाके प्रपद्य कवि जैन हैं। अब तक उपलब्ध प्राचीन और उत्कृष्ट रचनाओंका श्रेय जैनियों को है।' कन्नड़ साहित्य के एक मर्मज दिद्वान् लिखते हैं-“कन्नड़ भाषाके उच्च कोटि के साठ कवियों में पचास कवि जैन हुए हैं । इनमें से चालीस कवियों के समक्ष कवि इतर संप्रदायोंमें उपलब्ध नहीं होने ।" कविरत्नत्रयके नाम से विख्यात जैन रामायणकार महा कवि पंप, शान्तिनाथ पुराणके रचयिता महाकवि पुन्न एवं अजितनाथपुराणके रचयिता कविवर रन्न जैन ही हुए हैं। महाकवि पंप तो कन्नड़ प्रान्त में इतनो अधिक सार्वजनिक वंदनाको प्राप्त करते हैं, जितनी कि अन्य भाषाओंक श्रेष्ठ कवियों को भी प्राप्त नहीं होती। जिनका संपर्क कटिक आदि प्रान्तीय साहिस्थिकों के साथ हुवा हो वे आनते हैं, कि अष्ठ जेन रचनाकारोंक प्रसादसे जैनेत र बन्धु भो जैन तरवज्ञानके गंभीर एवं महत्वपूर्ण तत्त्वसे भी परिचित तथा प्रभावित रहते है । अध्यापक श्री रामास्वामी आयगर का कथन है कि तामिल साहित्यको जो जैन विद्वानोंकी दन है, वह तामिल भाषियोंके लिये अत्यम्स मूल्यवान् निधि है। तामिल भाषामें जो संस्कृत भाषाके बहवसे शब्द पाये जाते है, यह काम जैनियों द्वारा सम्पन्न किया गया था। उन्होंने ग्रहण किये गये संस्कृत भाषाके शब्दोंमें ऐसा परिवर्तन किया, कि व तामिल भाषाकी ध्वनिपत नियमोंके अनुरूप हो जायें। । कानड़ साहित्य भी जैनियोंका अधिक ऋणी है । वास्तविक बात तो यह है, कि वे उस भाषाके जनक है। कन्नड़ भाषा विषयमें श्री राइसका कथन विशेष 1. "The Jain coatribution to Tamil literature for the most precious possessions of the Tamilians. The largest portion of the Sanskrit derivjations found in the Tamil language was introduced by the Juins. They altered the Sanskrit, which they borrowed in order to bring it in accordance with Tamil euphonic rules. The Kanarese literature also owes a great deal of the Jains. In fact they were the originators of it." Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २६५ उपयोगी है' '१२ वीं सदी के मध्य तक केवल जैन साहित्य ही पाया जाता है, तथा उसके पश्चात् भी बहुत काल तक जैन साहित्य प्रमुख रहा है । उसमें अधिक प्राचीन रचनाएँ एवं अत्यन्त उच्च बहुसंख्यक ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं ।" जैन साहित्य के महत्त्वको हृदयंगम करने वाले एक महान् साहित्यसेवीने हमसे एक बार कहा था, कि "जैन साहित्यके द्वारा जैनधर्म जीवित रहेगा ।" इस साहित्य के प्राणपूर्ण रहनेका अन्यतम कारण यह भी है कि जैनसाहित्यके निर्माण में तपोवनवासी, शान्त, निक्कुल, परम मात्त्विक प्रवृत्ति तथा आहारवाले, उदासचरित्र तथा महान् जानी मुनीन्द्रोंका पुण्य जीवन प्रधान कारण रहा है। सास्विक जीवनशाली तथा प्रतिभावान् व्यक्तियोंकी रचनाका रस, गंभीरता और माधुर्य इतरी कृतियों कैसे आ सकता हूँ ? भगवान् महावीर प्रभुको दिव्य तथा सर्वांगीण सत्यको प्रकाशमें लाने वाली दिध्वनिको अर्थतः ग्रहणकर श्रमणोत्तम गौतम गणधरने आचारांग आदि द्वादश अंगोंकी रचना को उनका स्वरूप और विस्तार आदि परिज्ञानार्थं गोम्मटसार अवकाण्डकी ३४४ से ३६७ गाया पर्यन्त विवेचनका परिशीलन करना चाहिये | उससे प्रमाणित होता है कि जिनेन्द्रकी वाणी में महापुरुषोंका पुण्य चरित्र, सदाचरण का मार्ग, दार्शनिक चिन्तना तथा इस जगत्के आकार-प्रकार आदिका अनुयोग चतुष्टयके नामसे अत्यन्त विशद वर्णन किया गया है । यहाँ यह शंका सहज उत्पन्न होती है, कि साधक के लिए उपयोगी आत्मनिर्मलताप्रद आध्यात्मिक साहित्यका हो निर्माण आवश्यक था। अन्य विषयोंका विवेश्वन जैन महर्षियोंने किस लिए किया ? इसका समाधान यह है कि मनुष्यका मन चंचल बन्दर के समान है, जिसे कर्मरूपी बिच्छूने डंस लिया है और जिसने मोहरूपी सोब मदिराका पान किया है। वह अधिक समय तक आध्यात्मिक जगत् में विचरण करनेमें असमर्थ है; अतः वह अमागं में स्वच्छंद विहार कर अनर्थ उत्पन्न न करें, इस पवित्र उद्देश्यसे अन्य भी विषयोंका प्रतिपादन किया गया, जिनमें जिस लगा रहे और साधक राग, द्वेषसे अपनी मनोवृत्तिको बचाये । जैनशासन के ग्रंथोंका अन्तिम लक्ष्य अथवा व्येय आत्मनिर्मलता तथा विषय १. Until the middle of the 12th Cen. it is exclusively Jain and Jain literature continues to be prominent for long after. It includes all the more ancient and many of the most eninent of Kanarese writings." Vide Prof. M. S. Ramawsami Ayanger's article "The Jains in the Tamil Countries"-Jain Gazette P. 166 Vol. (XV). Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैनशासन विरक्ति है; इसीलिये साहित्यकी रचनाओं में लोकरुचिका लक्ष्य करते हुए उसमें आकर्षणनिमित्त श्रृंगारादि रसों का भी यथास्थान उचित उपयोग किया गया है, किन्तु वहाँ उस शृङ्गार तथा भोगको जीवनके लिए असार सहमश्री बता आत्मज्योति के प्रकाश में स्वरूपोपलब्धिकी ओर प्रेरणा की गई है, ऐसी स्थिति में यहाँ शृंगारादिरसोंकी मुख्यता नहीं रहती है । भवन्त गुणभद्र स्वामीने आत्म शासन में एक सुन्दर शिक्षा दी है - "बुद्धिशाली व्यक्तिको उचित है कि अपने मनरूपी बम्दरको श्रुतस्कन्ध-द्वारूप महान् वृक्ष में रमावे ।" यक्ति, ज्योतिष यादि विषयोंमें चित्त लगनेपर मनकी चंचलता दूर होती है। वह शान्त एवं निरुपद्रव हो जाता है । नत्रभी सदी में रचित महावीराचार्य के गणित सार-संग्रह में जैन दृष्टि से गणितशास्त्रपर मार्मिक प्रकाश डाला गया है । गणित ग्रन्थके विशेपक्ष प्रो० दत्त महाशयने इस गणित ग्रंथके विषय में लिखा है? त्रिभुज (Ra tional triangle) के विषय में विशेष बातोंको प्रकाशमें लानेका यथार्थम महावोर आचार्यको है। आधुनिक इतिहासवेत्ता भूलसे यह श्रेय उक्त आचार्य के पश्चाद्वर्ती लेखकों को देते हैं । दर्शन और न्याय के क्षेत्र में समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाषन्त्र, अनन्तवीर्य अभयदेव, वादिक्षेत्र, हेमचन्द्र मल्लिषेण, यशोविजय आदिको रचनाएँ इतनी महत्वपूर्ण हैं, कि उनका सम्यक् परिशीलन अध्येताको जैनशासनकी ओर आकथित किये बिना नहीं रहता। स्वामी समन्तभद्रकी रचनाएँ अपनी लोकोत्तरता तथा असाधारणताके लिए विख्यात है। उनका देवागमस्तोत्र fraके समस्त चिन्तकोंके लिए चिन्तामणिके समान हैं। विधानन्वि सदृश अनेक चिन्तकोने उस स्तोत्र के अनुशीलन के फलस्वरूप जैनशासनको स्वीकार किया। उस ११४ श्लोक प्रमाणस्तोत्रपर तार्किक तपस्वी अकलंकदेवने अष्टशती टीका आठ सौ श्लोक प्रमाण जनाई । उसपर आचार्य विद्यानन्दिने आठ हजार श्लोक प्रमाण अष्टसहस्री नामकी विश्वातिशायिनी टीका बनाई। इस रचनाके विषय में स्वयं प्रथकार ने लिखा है१. "अनेकान्तात्मार्थ प्रसवफलभातिविनते वचः पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखागतयुते । समुत्तु सभ्यपततमतिमूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनम् | " = -- आत्मानुशासन । १७० २. What is more inportant for the general history of mathema - tics, certain methods of finding solutions of rational triangles, the credit for the discovery of which should very rightly go to Mahavira, are attributed by modern historians, by mistake to writers posterior to him. -Bulletin Cal, Math. Soc. XXI 116, Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धो वाङ्मय "श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । स्वसमय पर समय सद्भावः ॥॥" विज्ञायते यव 'मथार्थ में सुनने योग्य शास्त्र तो हजारों शास्त्रों के श्रवणमें क्या सार है ? सिद्धान्त दया पर समय-अन्य सिद्धान्तोंका अवबोध होता है २६७ अष्टसही है। उसे सुनने के अनन्तर इस एक ग्रंथके द्वारा ही स्वसमय अपने ין भगवद्गीता की आज के युग में सुन्दर एवं तात्त्विक निरूपणके कारण बहुत प्रशंसा सुनने में आती है, इसी दृष्टिसे यदि हम मागमस्तोत्रपर विश्वार करें तो निष्पक्ष भाव से हमें गीताके समान विशेष गौरव देवागमस्तोत्रको प्रशन करना न्याय होगा, कारण उसमें त्रिविध दार्शनिक भ्रान्त धारणाओंकी दुर्बलताओं को प्रकट करते हुए समन्वयका असाधारण और अपूर्व मार्ग उपस्थित किया गया | जैन आचार्य परंपरामें समन्तभद्र स्वामीके पाण्डित्यपर बड़ी श्रद्धा तथा सम्मानकी भावना व्यक्त की गई है । आचार्य वीरमन्दि कहते हैं 1 "गुणान्विता निर्मवृत्तमौक्तिका नरोत्तमैः कण्ठविभूषणीकृता । न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा व भारती ॥" गुणान्वित- डोरायुक्त, निर्मल एवं गोल मुक्ताफल संयुक्त पुण्यात्माओं के द्वारा कण्ठमें धारण की गई हारयष्टि हो दुर्लभ नहीं है, किन्तु समन्तभद्रादि आचार्योंकी वाणी भी दुर्लभ है। कारण वह भी गुणान्वित-ओज, माधुर्य आदि गुणसम्पन्न है, वह भी निर्मलचरित्र मुक्तात्माओंके वर्णनसे युक्त हैं. महान् मुनीन्द्रों आदि उस सरस वाणी से अपने कण्ठको अलंकृत किया है । इसी प्रकार तामिल रचनाओंमें नोलकेशी नामका महान् विचारपूर्ण तथा दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाकर अहिंसा तत्त्वज्ञानकी प्रतिष्ठा स्थापित करनेवाला काव्य समयवियाकर वामन मुनिको टीका सहित राव बहादुर प्रोफेसर श्री ए० चक्रवर्ती एम० ए० मद्रास के द्वारा प्रकाश में आया है। उसमें भी तुलनात्मक पद्धतिसे सत्यकी उपलब्धिका सुन्दर प्रयत्न किया गया है। श्रीचक्रवर्तीकी ३२० पेजको भूमिका अंग्रेजी में छपी है। इससे तामिलसे अपरिचित व्यक्ति भी उसका रसास्वादन कर सकते हैं । जोचक विन्तामणि त्रिषष्ठिचरित्र, नन्नूल कनड़ीको उज्ज्वल जैन रचनाएँ मद्रास विश्वविद्यालय ने बी० ए० एम० ए० के क्रम में रखी हैं । जैन्ह प्रत्यकारोंने भाषाको भाव प्रकाशन करनेका साधनमात्र माना। इस कारण इन्होंने संस्कृतको हो देववाणी-विद्वानोंकी भाषा समझ अन्य भाषाओं के प्रति उपेक्षा नहीं को, प्रत्युत हर एक सजीव भाषा के माध्यम से वीतराग जिनेन्द्रant पवित्र देशनाका जगत् में प्रसार किया । वैदिक पण्डित संस्कृतके सौन्दर्य पर Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैनशासन ही मुग्ध थे, किन्तु जैनियोंने पुरातन युगमें प्राकृत नामक जनताको भाषाको अपने उपदेशका अबलम्बन बना अत्यन्त पुष्ट, प्रसन्न तथा गंभीर रचनाओं द्वारा उसके भण्डारको अलंकृत किया। ईसवी के प्रारंभ कालमें पुष्पदन्त, भूतबलि, गुणधर, कुन्दकुन्द, यतिवृषभ आदि मुनीन्द्रोंने अपनी महत्वपूर्ण रचनाओं के द्वारा प्राकृतभाषाके मस्तकको अत्यन्त समुन्नत किया है। पुष्पदम्त भूतलि कृत खटलंडागमको ४६००० फ्लोक प्रमाण प्राकृत भाषामें सूत्र रचनरके प्रमे यकी अपूर्वता विश्वको चक्रिप्त करनेवाली है। लगभग ६ हजार इलोक प्रमाण प्राक्त सूत्रोंपर वीरसेनाचार्यने बहत्तर हजार लोक प्रमाण अवल! टीका नामका सर्वाङ्ग सुन्दर भाष्य रचा । भूतबलि स्वामीका ४० हजार श्लोक प्रमाण महावन्य ग्रन्थ विश्थ' साहित्वको अनुपम निधि है । गुणधर आचार्यन १८० गाथाओं में कवायाभूत बनाया, जिसकी टीका जयधमला ६० हजार श्लोक प्रमाण धोरसेन स्वामो तथा उनके शिष्य भगव जिनसेनने की है । कुन्दकुन्न मुनीन्द्रन अध्यात्म नामक परा-विद्याके अमृतरमसे आपूर्ण अनुपम ग्रंथराज समयसार की रचना को। उसके आनन्दनिझरके प्रभायमें जगत्का परिताप संतप्त नहीं करता। 'उनको यह शिक्षा प्रत्येक साधकके लिए श्वासोच्छ्वात्तको पवनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है और प्रत्येक सत्सुरूपको उस साक्ष हृदयमें समुपस्थित रखना चाहिये, “मेरो आत्मा एक है। अविनाशी है। ज्ञान-दर्शन-शक्तिसम्पन्न है। मेरी आत्माको छोड़कर शेष सब बाहरी वस्तुएँ है । यथार्थमें वे मेरो नहीं है । उनका मेरो आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध हो गया है ।" मेरी कात्मा जब विनाश-रहित है, तब वनपात भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं कर सकता है। शरीरके नाश होनेसे मेरी आत्माका कुछ भी नहीं बिगड़ता है । कारण, शरीर मेरी आत्मासे पृथक् है । मेरी आत्मा तो एक है, एक थी, और यथार्थतः एक ही रहेगी। जिसकी इस सिद्धान्तपर श्रद्धा जम चुकी है बद् न मृत्यु से भरता है, न विपतिसे घबड़ाता है और न भोगविषयोंसे व्यामुग्ध हो बनता है । वह साधक एक यही तन्व अपने हृदय पटलपर उत्कीर्ण करता है. 'एगो मे सासदो आदर णाणसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सब्वे संजोगलक्खणा ॥" 'प्राकृत भाषाके पश्चात् उद्भूत होनेवाली विभिन्न प्रांतीय भाषाओंकी मध्यवतिनी अपनश नामको भाषाम भी जैन कवियों ने स्तुत्य कार्य किया है। १. श्वेताम्बर आगमनन्धोंकी विपुलराशि इसी भाषाके भण्डारका बदमूल्य भाग है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पानुबन्धी वाङ्मय २६९ अब तक इस में लिखे गये उपलब्ध बहुमूल्य ग्रन्थोंमें जैन रचनाओं को हो विपुलता है । यह भाषा श्रुतिमधुर मालूम होती है। इसके विषयमे यह कथन यथार्थ है- 'बेसिल अना सब मन मिट्ठा"। इस भाषा में पुष्पवन्त महाकविका महापुराण अत्यन्त कीर्तिमान् है । ये पुष्पदन्त पटुखंडागमके रचयिता पुष्पदन्त स्वामीले भिन्न है। ये नवमी सदीम हुए हैं, इनके पिता-माता पहिले शिवभक्त ब्राह्मण मे पश्चात् उन्होंने जनधर्म स्वीकार किया था । अपने माता-पिता के द्वारा अंनधर्मको अंगीकार करनेपर पुष्पदन्सने भी नशासनको स्वीकार किया होगा, ऐसा प्रतीत होता है। इनकी रचना शब्द, अर्थ रसप्रवाह आदिको दृष्टिरो अपूर्व सौंदर्य है | महाकविके महापुराण में १२२ संचिय हैं। श्लोकसंख्या लगभग २० हजार है। यदि राष्ट्र भाषामें इसका अनुवाद मूल सहित प्रकाशित किया जाय तो साहित्यरसिकों को महान् बानन्द प्राप्त होगा । कविके णायकुमारचरिउ और जसहर चरिउ भी प्रख्यात ग्रन्थ है । इधू कविकी दशलक्षण पूजा प्रसिद्ध हैं, वह बहुत रसपूर्ण है । कवि हरिवंशपुराण, रामपुराण, सिद्धचक्रचरित्र सम्मत्तगुणनिधान आदि लगभग चौबोस ग्रन्थ पुराण, सिद्धान्त, अध्यात्म तथा छन्द शास्त्र आदिके सोलहवीं सदी में बनाये थे । कनकामर सुनि रचित करकण्डु चरित्र भी एक सुन्दर रचना है । उसमें करकण्डुन रेशका आकर्षक चरित्र दिया है । यदि अपभ्रंश साहित्यका गहरा अध्ययन किया जाय तो भारतीय इतिहास और साहित्य के लिये बहुमूल्य और अपूर्व सामग्री प्राप्त हुए बिना न रहेगी। अभी पं० राहुल जीने स्वयंभू कक्षि रचित पउमचरिउका भनन किया, तो उन्हें यह प्रतिभास हुबा, कि रामचरितमानस के निर्माता विख्यात हिन्दीकवि तुलसीदासजीकी रचना पर पउभचरित्रका गहरा प्रभाव है । यह बात श्री राहुलजीने सन् १९४५ को सरस्वती में प्रकट की है। इसी प्रकार न जाने कितनी अंधकारमें पड़ी हुई बातें प्रकाश में आयेंगी और कितनी भ्रान्त धारणाओंका परिमार्जन होगा ? हिन्दी भाषा में भी बनारसीदास, भैया भगवतीदास, भूधरदास यानतराय, दौलतराम, जयचन्द, टोडरमल, सदासुख और भागचन्द आदि विद्वानोंने बहुमूल्य रचनाएँ को हैं, जिनसे साधकको विशेष प्रकाश और स्फूर्ति प्राप्त हुए बिना न रहेंगी। हजारों अपूर्व अपरिचित ग्रंथोंके विषय में परिज्ञान कराना एक छोटेसे लेखके लिये संभव है। अतः हमने संक्षेप में उस विशाल जैनवाङ्मयरूप समुद्रकी इस १. इनके परिचय के लिए इसी संस्थासे प्रकाशित 'हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास' पुस्तक देखना चाहिए । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन संक्षिप्त लेख रूप वातायन द्वारा अत्यन्त स्थूलरूप से एक झलकमात्र दिखाना उचित समझा जिससे विशेष जिज्ञासाका उदय हो । अब हम कुछ अवतरणों द्वारा इस बातपर प्रकाश डालेंगे कि, जैन रचनाओंमें कितनी अनुपम, सरस, शांत तथा स्फूर्ति पूर्ण सामग्री विद्यमान है । अमृतचन्द्रसूरि अपने आध्यात्मिक ग्रन्थ नाटक समयसार ने लिखते हैं'जब तात्त्विक दृष्टि उदित होती हैं. तब यह बात प्रकाशित होती है कि आत्माका स्वरूप परभाव से भिन्न है, वह परिपूर्ण है, उसका न बारम्भ है और न अवसान है । वह अद्वितीय है, संकल्प-विकल्प प्रपंचसे वह रहित है ।' २७० आत्मा अमर है, इस विषय में अमृतबन्द सूरिका कितना हृदयग्राही स्पष्टीकरण है ? वे कहते हैं- प्राणोंके नाशका हो तो नाम मृत्यु है । इस आत्माका प्राण ज्ञान है, जो अविनाशी रहनेके कारण कभी भी विनष्ट नहीं होता । इस कारण आत्माका भी कभी मरण नहीं होता। अतः ज्ञानी जनको किस बातका डर होगा ? वह निर्भयतापूर्वक स्वयं सदा स्वाभाविक ज्ञानको प्राप्त करता है । 'जो. पूज्यपाद स्वामी कितनी उज्ज्वल तथा गंभीर बात कहते हैंपरमात्मा है, वही मैं हूँ, (आत्मपना दोनों में विद्यमान है) जो में हैं, वही परमात्मा है । ऐसी स्थिति में मुझे अपनी आत्मा की ही आराधना करना उचित है, अन्यको नहीं ।' बुषजनजी लिखते हैं "मुझमें तुझमें भेद यों, और भेद कछु नाहि । तुम तन तज परब्रह्म भए, हम दुखिया तन मांहि ॥" १. "आत्मस्वभावं परमावभिन्नमापूर्ण माद्यन्तविमुक्तमेकम् । विलोन संकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥ ' ३. २. " प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणा: किलास्यात्मनो । ज्ञानं तत् स्वयमेव शाश्वतमा नोच्छियते जातुचित् ॥ तस्यातो मरणं न किंचन भवेत् तद्भः कुतो ज्ञानिनो । निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥' - सतसई । ना० स० १० । - ना० स० ६।२७ । "यः परमात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्वतः । अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।" - समातिन्त्र २१ । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २७१ आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किस अवस्थामें होता है, इस पर स्वामी पपाद कहते हैं— 'जब अन्तःकरण-जल राग-द्वेष, मोहादिको लहरोंसे चंचल नहीं रहता है, तब साधक आत्मतत्वका साक्षात्कार करता है । अन्यलोग उस तत्वको नहीं जानते है । उनका यह भी कथन है कि इस शरीर में आत्म-दृष्टि या आत्मचिंतनाके कारण यह जीद शरोरन्तर धारण करनेके कारणको प्राप्त करता है | विदेहस्वकी उपलब्धि-शरीर रहित अपने आत्म स्वरूपकी प्राप्ति का बीज है आत्मा में ही आत्मभावना धारण करना । इप्टोपदेशमें कहा है-"तस्त्रका निष्कर्ष है— जीव पृथक् है और पुद्गल भी पृथक है। इसके सिवाय जो कुछ भी कहा जाता है, वह इसका ही स्पष्टीकरण है " इस कारण आत्मज्ञानी ऋषि कहते हैं- - जिस उपाय से यह जीव अविद्यामय अवस्थाका परित्याग कर विद्यामव-ज्ञानज्योतिमय स्थितिको प्राप्त कर सके, उसकी ही चर्चा करो, दूसरोंसे उसके विषय में पूछो, उसको ही कामना करो । इतना ही क्यों इसी विषय मन भी हैंगओ आत्माका स्वरूप वाणीके अगोचर है अतः शुद्ध तात्त्विक दृष्टिसे कहते हैं fs आत्माको उपलब्धि के विषय में प्रतिपाद्य एवं प्रतिपादकपनेका अभाव है । आचार्य कहते हैं— 'जो में अन्योंके द्वारा शिक्षित किया जाता है, अथवा जो मैं दूसरोंका उपदेश देता हूँ । यथार्थ में यह अक्ष चेष्टा है; कारण मै विकल्पासीत वचन-अगोचर स्वभाव वाला हूँ । १. " रागद्वेषादिकल्लोलंरलो लं यन्मनोजलम् । स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं सतत्त्वं नेतुरो जनः ॥३५॥" २. “देहान्तर्गतज देहेऽस्मिन्नात्मभावना । बीजं विदेहनिष्पत्तेः आत्मन्येवात्मभावना ॥७४॥ ३. "जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसो तत्त्वसंग्रहः 1 यदन्यदुच्यते किञ्चित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ||५०||” ४. "तद्भूयात् तत्परान् पृच्छेत् तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥ ५३॥ | " ५. यत्परं प्रतिपाद्योऽहं यत्परान्प्रतिपादये । उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥ १९॥" - स० त० । -स० तं । - स० तं० । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन gent स्वामीकी यह उक्ति बहुत गायिक तथा तत्वस्पर्शी है१ जो पदार्थ जीवका उपकारी होगा, अर्थात् जिससे आत्माको पोषण प्राप्त होता है, उससे शरीर की भलाई नहीं होगी। जिससे शरीरका पोषण या हित होता है, उससे आत्माका हित नहीं होगा । कारण दोनोंके हितोंमें परस्पर विरोधीपना है ।' २७२ इस आध्यात्मिक सत्य का प्रयोग भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में भी ज्योति प्रदान करता था । भारतीय हित और विदेशियों के कल्याण में परस्पर संघर्ष था । अतः जिन बातों से भारतकी भलाई होती थी, उनसे विदेशियोंके स्वार्थका विद्यात होता था, तथा जिनसे विदेशियोंकी स्वार्थपुष्टि होती थीं, उनसे स्वदेशका अहित होना अवश्यम्भावी था । ज्ञानार्णवकार प्रत्येक आत्माको अपरिमित शक्ति, अनिन्द तथा ज्ञानका अक्षय भण्डार बताते हुए कहते है "अनन्तवीर्यविज्ञान- दुगानन्दात्मकोऽप्यहम् । आत्मविद्याकी उपलब्धि के विषयमें योगीश्वर पूज्यपाद का कथन है*- 'जैसे जैसे स्वरूपके अवबोधका रम प्राप्त होने लगता है. वैसे वैसे प्राप्त हुए भी विषयऔर अच्छे नहीं लाने सम्राट् भरतेश्वरको आत्म चिन्तन में जो रस प्राप्त होता था, वह राजकीम वैभव के द्वारा लेशमात्र भी नहीं प्राप्त होता था । तत्त्वका सम्यक् बोध होनेपर विवेकी जीवकी परिणतिमें एक नवीन स्फुरण होता है । विश्वके लोकोत्तर वैभवका अधिपति भरत प्रभातमें जगते ही १. " यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् । यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्थापकारकम् || " २. " यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि श" ३. "प्रातरुन्मीलिताक्षः सन् संध्यारागारणा दिशः । सदा भोजणेवानुरजिताः ॥ ११६ ॥ प्रातरुद्यन्तमुद्भूतनं शान्तमसं रविम् । भगवत्केवलार्कस्य प्रतिविम्वममस्त सः ॥ ११७|| " "प्रातरुत्थाय धर्मस्थः कुतधर्मानुचिन्तनः । तन्नोऽर्थकामसंपत्ति सहामात्यन्यरूपयत् ॥४१ १२०॥ | r - इ० उ० १९ । " एव धर्मप्रियः सम्राट् धर्मस्यानभिनन्दति । मस्येति निखिलो लोकस्तदा धर्मे रतिं व्यधात् ॥१४१, ११०॥ - ३० उ० ३७ । -महापुराण, जिन सेन Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २७३ प्राची दिशाको अरुण वर्णयुक्त देख उसे जिनेन्द्र चरण कमलकी लालिमासे अनुरजित सोचता था, और अपने प्रकाश द्वारा रात्रिके अन्धकार के उन्मूलनकारी सूर्यको देखकर उसे भगवान वृषभना यः कैवल्य सूर्यकी प्रतिबिम्बसे कल्पना करता था । वह जागते ही धर्मजोंके साथ धर्मके विषयमें अनुचिंतन करता था चात् अर्थ-काम-संपत्ति के विषयमें अमात्य वर्गके साथ विचार करता था। जहां वैभवको वृद्धि में साधारण मानव आत्माको पूर्णतया भूलकर कोल्हू के बैलफी जिन्दगीका अनुकरण करता है, वहां तत्वज्ञानी सम्राट् सदा धर्मकी प्रधान चिन्ता करते थे, कारण उसमें विचक्षणको विलक्षण आह्लाद प्राप्त होता है। इसके सिवाय उस मंगलमय धर्मकी शरण में जानेसे सर्व कार्योंकी अनायास सिद्धि भी होती है । हो लिये भरतेश्व र विषय में महापुराणकार कहते हैं "तथापि बहुचिन्त्यस्य धर्मचिन्ताऽभवद् दृढा । धर्मे हि चिन्तिते सर्वं चिन्त्यं स्यादनुचिन्तितम् ॥ ११४, ४१ ।। प्रजापति नरेशकी धार्मिक अनुरक्ति के कारण जनतामें भी सदाचरणका विकास तथा धार्मिक जागृति अनायास होतो थी । यदि यह दुष्टि जनताके भाग्यविधाताओंके जीवन में अवतरित हो जाय, तो आजका संकटमय तथा कलंकपूर्ण संसार नवीन कल्याणभूमि बन सकता है । अपभ्रंश भाषाके सुन्दर शास्त्र 'परमात्मप्रकाश' में योगीन्द्रदेव लिखते हैं'शरीर-मन्दिर में जो आदि तथा अन्तरहित एवं केवलज्ञानरूप ज्योतिर्मय आत्मदेव विद्यमान है, वही यथार्थ में परमात्मा है । २ परमार्थ दृष्टिको प्रधानाने आचार्य कितनी मार्मिक बात कहते हैं-mera ! अन्य तीर्थोंको यात्रा मत करो। अन्य गुरुको सेवा भी अनावश्यक है। अन्य देवका चितन भी न करो। केवल अपनी निर्मल आत्माका ही आश्रय लो।' आचार्य कहते हैं--"यह आत्मा हो तो परमात्मा है। कर्मोदय के कारण वह आराध्य के स्थान में आराधक बनता है। जब यह आत्मा अपनी ही आस्मा मे स्वरूपका दर्शन करने में समर्थ होता है, तब यही परमात्मा हो जाता है ।" तु । · के वाणपुरं तत्तणु सो परमप्पु गितु 11 " - ५० प्र० ३३ । २. "अष्णुजि तित्यु में जाहि जिय, अपणु जि गुरु म सेबि । अण्णु जि देउ म विति तुहुं, अप्पा विमलु मुवि ||१६|| " ३. "एहु जु अप्पा सो परमप्पा कम्मविसेसे जायउ जया । जाम जाणइ अध्ये अप्पा, सामई सो जि उ परमप्पा ॥ ३०५ ॥ " १८ १. "देहा वेथलि जो वसड, देउ अणा r Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनशासन राग अथवा स्नेहके कारण ही यह जीव अपने अनस, अक्षय आनंदके भण्डारसे वंचित हो दुःखमम संसारमे परिभ्रमण करता है। इस विषयको स्पष्ट करने के लिये आचार्य तिलके उदाहरणको कितनी सुन्दरताके साथ उपस्थित करते हैं देखो ! तिलोंका समुदाय स्नेह (तेल) के कारण जलसिंचन, परोंके द्वारा कुचला जाना, एवं पुनः पले जानेको पीडाका अनुभव करता है । स्नेह शब्द ममता तथा तेल इन दो अोंको द्योतित करता है । उनको ध्यानमें रखते हुए ही आचार्य महाराज समझाते हैं कि जैसे स्नेहके कारण तिलोंका कुचला जाना तथा पेले जाने का कार्य किया जाता है, इसी प्रकार स्नेहके कारण यह जीव संसारको अनंत दुःखाग्निमें निरंतर जला करता है।' अपने कृत्योंके विपासका उत्तरदायित्व प्रत्येक जीव पर है, अन्य व्यक्ति इसमें हिस्सा नहीं बटाते; इस सिद्धान्तको स्पष्ट करते हुए कवि कहते हैं-- "हे जीव ! पुत्र. स्त्री आदिक निमित्त लाम्खों प्राणियोंकी हिंसा करके तू जो दुष्कृत्य करता है, उसके फलको एक तू ही सहेगा।' ___ आजके युगमें उदारता, समता, विश्वप्रेम आदिके मधुर शब्दोका उच्चारण करते हुए अपनी स्वार्थपरताका पोषण बड़े बड़े राष्ट्र करते हैं, और करोड़ों क्ष्यक्तियों के न्यायोचित और अत्यन्त आवश्यक स्वत्त्वों का अपहरण करते है, उनको इस उपदेशके दर्पणमें अपना मुख देखना श्रेयस्कर है। कधि आत्माके लिए कल्याणकारी अथवा विपत्तिप्रद अवस्थाके कारणको बताते हुए साधकको अपना मार्ग चुननेको स्वतन्त्रता देते हैं और कहते है 'देखो ! जीवोंके बघसे तो नरकगति प्राप्त होती है, और दूसरोंको अभयपद प्रदान करनेसे स्वर्गका लाभ होता है । ये दोनों मार्ग पास में ही बताये गये हैं । 'जहिं भावह तहिं लगा'-जो बात तुम्हें रुचिकर हो, उसी लग जाओं'। कितना प्रास्त और समुज्ज्वल मार्ग बताया है। जो जगतको अभय प्रदान १. "जलसिंचणु पणिद्दलणु, पुणु पुणु पौलण दुबखु । हह लग्गवि सिलणिया, जति सहतउ पिक्खु।।२४६॥" २. "मारिषि जीवह लक्खडा, जं जिय पार करीसि । पुत्तकलत्तहं कारणई, तं तुई एक सहोसि ॥२५५।।" -परमात्मप्रकारात ३. "जीय वर्घतह गरयगइ, अमरपदाणे सग । बेपह जबला दरिसिया, जहिं भावइ तहिं लागु ॥२५७।।" Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २७५ फरेगा, वह अभय अवस्था तथा आनन्दका उपभोग करेगा । जो अन्यको कष्ट दंगा, उसे विपत्ति की भीषण दादाग्निमें भस्म होना पड़ेगा। जिसे कल्याण चाहिये, उसे पूर्वोक्त सदुपदेशको ध्यान में रखना चाहिये । __ लोग अपनी आत्माको भूल जाते है। अन्योंका परिशीलन और तपःसाधनामें अपनेको कृतकृत्य समझते है। ये यह नहीं सोपते, कि बिना इकाईके अकेले शून्योंका भी कुछ मूल्प या महत्व होता है ? इस दृष्टिको भाचार्य महाराज कितनी सष्टताके साथ बताते है __जिसके हृदयमें निर्मल आरमाका यास नहीं होता; तत्त्वतः क्या शास्त्र, पुराण एवं तपश्चर्या उसे निर्वाण प्रदान कर सकती है ?' 'यथार्थमें निर्वाण प्राप्तिको प्रथम सीढ़ी आत्मदर्शन है । आत्म-दर्शन, आत्मअवबोध तथा आत्मनिमग्नताके द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है'। पाहत दोहामें रामसिंह मुनि आत्मबोधको परमकला बताते हुए कहते हैं "'अक्षरारूढ़ स्याही मिश्रित (अन्योंको) को पढ़ पढ़कर तू क्षीण हो गया, किन्तु तूने इस परमकलाको नहीं जाना, कि तेरा उदम कहाँ हुआ और तू कहां लीन हुमा ।' जीवन अल्पकाल स्थायी है, अतः उपयोगी और कल्याणकारी चाइमयका हो अभ्यास करना चाहिये । इस विषय में कवि कहते है____ "शास्त्रोंका अन्त नहीं है जीवन अल्प है, और अपनी बुद्धि ठिकाने नहीं है। अतः वह बात सीखनी चाहिये, जिससे जस और मरणके पंजेसे छुटकारा हो जाय ।" मोही प्राणीको पुनः प्रबुद्ध करते हुए कहते हैं "देख माई ! विषयसुख तो केवल दो दिनके है, और पुनः दुखको परिपाटीपरंपरा है । अरे आत्मन् ! भूलकर भी तू अपने कंधेपर कुल्हाड़ी मत भार ।" १. "अप्पा णियमणि णिम्मलउ, णिपमें वसइण जासु । __ सत्यपुराणई तव चरणु, मुस्खु जि करहि कि तासु ॥९९॥" -परमात्मप्रकाश । २. "सम्मग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" -त. सू० ११ । ३. "अकादरचडिया मसि मिलिमा पाढतो गम खोण । एक्क ण जाणी परमकला कहिं उग्गउ कहि लोण ॥१७३॥" ४. "अन्तो गरिय सुईणं कालो थोवो वयं च दुम्मेहा । तं गवर सिनिस्खयन्वं जि जरमरणश्वयं कुणहि ! १९८॥" ५. "बिसयसुहा दुइ दिवहड़ा पुणु दुक्खहं परिवाहि । भुल्लउ जीव म वाहि तुह अध्यावधि कुहारि ॥१७॥" Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जैनशासन "अरे मूड़! जगतिलक आत्माको छोड़कर अन्यका ध्यान मत कर। जिसने मरकतमणिको पहिचान लिया है यह क्या कांचको कोई गणना करता है । जो लोग को भोको चाहते हैं, वे असंभवको उपलब्धि के लिये प्रयत्नशील है। कवि सरल किन्तु मर्मस्पर्शी शैलीसे समझाते है - दो तरफ दृष्टि रखनेवाला पचिक मार्ग में नहीं बढ़ता है। दो मुखबाली सुई कंसा - जीर्णवस्त्रको नहीं सी सकती, इसी प्रकार इंद्रियसुख और मुक्ति साथ-साथ नहीं होती ।' भवन्त गुणभद्र एक हृदयग्राहो उदाहरण द्वारा उस तत्वको समझाते हैं कि साधक का सच्चा विकास परिषद् द्वारा नहीं होता- तराजू के नीचे ऊँचे पल यह स्पष्टतया समझाते हुए प्रतीत होते हैं, कि ग्रहण करने की इच्छा वालोंकी अधोगति होती है और अग्रहणकी इच्छा वालोंकी ऊर्ध्वगति होती है ।" कितना मार्मिक सर्वोपयोगी उदाहरण है यह तराजूका वजनदार पलड़ा नीचे नाता है, जो परिग्रहवारियो के अघोगमनको सूचित करता है और हल्का पलड़ा ऊपर उठता है, जो अल्पपरिग्रहालोंके गम की ओर संकेत करता है । गुणभद्र स्वामी उन लोगोंको भी आत्मोद्धारका सुगम उपाय बताते हैं, जो तप के द्वारा अपने सुकुमार द्वारीरको क्लेश नहीं पहुंचाना चाहते है, अथवा जिनका शरीर यथार्थ में कष्ट सहन करने में असमर्थ है। वे कहते हैं तू कष्ट सहन करने में असमर्थ हैं, तो कठोर तपश्चर्या मत कर; किन्तु यदि तू अपनी मनोवृत्तिके द्वारा वश करने योग्य क्रोधादि शत्रुओं को भी नहीं जीवता है, तो यह तेरी बेसमझी है ।" १. "अप्पा मिल्लिवि जगतिल मूढ म साथहि अणु । जि मरगज परियाणियउ तहू कि कच्चह्न गण्णु २२७१ ॥ " २. "बे पंचेहि ग गम्मइ बेमुह सूई ण सिज्जए कंथा । विणि ण हुंति अयाणा इंदियसोक्वं मोक्खं च ॥ २१३।। " - पाहु दोहा । "दो मुख सुई न सीवे कन्या । दो मुख पन्थी च न पन्था । यों व काज न होहिं सयाने विषय भोग अमोल पवाने || " ३. "अवो जिधूक्षणो यान्ति यान्त्यूर्ध्व मजिघृक्षवः । इस दन्तो वा नामोन्नामी सुलान्तयोः ॥११५४|| ४. "करोतु न चिरं घोरं तपः क्लेशासहो भवान् चित्तसाध्यान् कषायादीन् न जयेद्यत्तदज्ञता ॥ २१२ ॥ आत्मानुशासन । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २७७ वास्तवमें मानसिक विकारोंपर विजय हो सच्चा विकास और कल्याण है । मानसिक पत्रिका विशुद्ध जीवनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है | महाकवि बनारसीदासजी की वाणी कितनी प्रबोधपूर्ण है--- "समुझे न ज्ञान कहे करम किए सो मोक्ष, ऐसे जीव विकल मिध्यात की गहल में | ज्ञान पक्ष गहे कहे आतमा अवन्ध सदा, करते बुन्द डूे से महकमें जथायोग्य करम करें ममता न धरे, रहें सावधान ज्ञान ध्यानकी टहल में । सेई भव-सागर के ऊपर हुवै तरें जीव, जिन्हको निवास स्यादवादके महल में ।।" पावतीवाज में दोहे कितने सरल, सरस तथा शान्तिरस पूर्ण हैं ! कैसा भी मोहाकुल व्यक्ति हो, इनके द्वारा चैतन्यकी स्फूर्ति हुए बिना नहीं रहेगी | महाकवि आसवेवसे बात करते हुए ब्रह्मविलास में कहते है"चल चेतन तहं जाइये, जहाँ न राग विरोध । निज स्वभाव परकाशिये, कीजें आतम बोध ॥१॥ तेरे बाग सुज्ञान है, निज गुण फूल विशाल | साहि विलोकहु परम तुम, छाड़ि आल जंजाल ॥२॥ अहो जगत के राय, मानहु एती बीनती । त्यागहु पर परजाय, काहे भूले भरम में ॥३॥ तुम तो पुनो चंद, पूरन जोति सदा भरे । पड़े पराए फन्द, चेतन चेतन राय जु ॥४॥ निज चन्दाकी चांदनी, जिह घट में परकास । तिहि घटमें उद्योत ह्रय, होय तिमिरको नास ॥५॥ जित देखत तित चाँदनी, जब निज नयननि जोत ! नेन मिचत पेखे नहीं, कौन चांदनी होत ॥६॥ या मायासे रावके, तुम जिन भुलहु हंस | संगति यात्री त्यागके, चीन्हों अपनी अंस" कविका यह कथन कितना उपयोगी है J "रागन कीजें जगत् में राग किए दुःख होय | देखहु कोकिल पींजरें, गह् डारत लोय ||८|| त्याग बिना तिरबो नहीं, देखहुँ हिये विचार | तूंजी लेपहि त्यागती, तब तर पहुंचे पार 11 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन १० ॥ तन ऊपर जम जोर है, 'जिनसो' जमहुं डराय । तिनके पद जो सेइये, जमकी कहा बसाय ॥ मेनासे तुम क्यों भए 'मैं' नासे सिध होय । 'मैं' नांहीं वह ज्ञान में, मैं न रूप निज जोय ॥११॥ ॥ जैनी जाने जैन ने जिन जिन जानी जैन | जेने जैजैन जनजाति लिने चार मांहि जौलों फिरे, धरे चारसों प्रीति । तौलों चार लखे नहीं, चार खूंट यह रीति ||१३|| जे लागे दस बीस सों, ते तेरह पंचास | सोलह बासठ कीजिये, छांड चार को वास || १४ || " मोहकी प्रगाढ निद्रामें मग्न संसारी प्राणीका कितना अंकित किया गया है भावपूर्ण चित्र यहाँ २७८ कलपना । " काया चित्रशाला में करम परजंक भारी, मायाकी संवारी सेज चादर शयन करे वेतन अचेतनता नींद लिए, मोहकी मरोर यहै लोचनको उदे बल जोर यह श्वासको शब्द विषय सुखकारी जाकी दोर ऐसे मूढ़ दशामें धावे भ्रम जाल में यह मगन रहे न पावे रूप सिंह उपना || घोर, सपना । काल 1 अपना ।। " संसार में धन, वैभव, विक्रम प्रभाव आदि संपन्न पुरुषको पूजा होती हैं, और ऐसी विशेषता समलंकृत व्यक्तिका सम्मान किया जाता है । आत्माका इससे कोई पारमार्थिक हित संपन्न नहीं होता । जीवका यथार्थ कल्याण उस संवर भावनासे होता है, जिसके द्वारा कर्म बन्धन नहीं होता। इसी कारण कविवर मुगल शासकको प्रणाम न कर ज्ञान सम्राट्की इन मार्मिक शब्दों द्वारा अभिवन्दना करते हैं: रह्यो गुमानी ऐसो, आ "जगत के मानी जीव असुर दुःखदानी महा भीम है । ताको परिताप खंडिको परगट भयो, धर्मको घरेया कर्म रोगको जाके परभाव आगे भागें नागर नवल सुख- सागर की हकीम है ॥ परभाव सब सीम है | r Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय संवरको रूप धरै साधे शिवराह ऐसो , ज्ञानी पातशाह ताको मेरी तसलीम है।" इनकी रचना नाटक सभपसार अध्यात्म अमृत रससे पूर्ण अनुपम कृति है। यह कविको प्राणपूर्ण लेखनीका प्रसाद है कि ब्रह्मविद्राका प्रतिपादन शुष्क न होकर अत्यन्त सरस, आह्लादजनक तथा आकर्षक बना है । अन्य विषयमें स्वयं कविका कथन कितना अंतस्तलको स्पर्श करता है - "मोक्ष चढ़वेको सोन, करमको करै बौन , जाफे रस भौन बुद्धि लोन ज्यों घुलत है। गुनिनको गिरंथ निरगुनीनको मृमम पंथ , जाको जस कहत सुरेश अकुलत है। याहीके सपक्षी सो उड़त ज्ञान-गगन मांहि, पाहीके विपक्षी जमजालमें हलत हैं। हाटक सो विमल विराटक सो विस्तार , नाटकके सुने हिए फाटक यों खुलतु हैं।" यह अभिमानी प्राणी बात बातमें अपनी नाककी सोचा करता है, वह यह नहीं सोचता कि वस्तुत: यह नाक घोड़ेसे मांसका पिंड है, जिसका आकार 'तीन' सरोखा दिखता है। ऐसी नाकके पीछे यह न सो सद्गुरूकी आज्ञाका ही आदर करता है, और न यह विचारता है, कि मेरा स्वभाव पद पदपर लड़ाई लेना नहीं है । वह तो अपनी कमरमें खडग बांधकर अकष्टता हुआ 'नाक' की रक्षार्थ उद्यत रहता है । सुन्दर भावके साथ लालित्यप्रदुर पदावली ध्यान देने योग्य है "रूपकी न झांक हिए, करमको डांक पिये, ज्ञान दबि रह्यो मिरगांक जैसे घनमें । लोचनकी ढांकसों न माने सद्गुरु हांक , डोलै पराधीन मूढ़ रांक तिहूं पनमें । टांक इक मांसकी डली-सी तामें तीन फांक , तीनको सो आंक लिखि राख्यो काह तन में। तासों कहें 'नांक' ताके राखिबेको कर कांक , लोकसों खरग बांधि बांक धरै मनमें ।।" यह जीव अनादिसे शरीरको अपना मान रहा है, उसे अत्यन्त सुबोध तथा हृदयग्राही उदाहरण द्वारा इन भव्य शब्दों में समझाते हैं "जैसे कोऊ जन गयो धोबीके सदन तिनि ; पहर्यो परायो वस्त्र मेरो मानि रह्यो है । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० जैनशासन धनी देखि कह्यो भैया यह तो हमारो वस्त्र , चीन्हो पहचानत ही त्याग भाव लह्यो है ।। तैसे ही अनादि पुदगल सों संजोगी जीव , संगके ममत्वसों विभाव तामें बह्यो है । भेदज्ञान भयो जब आपा पर जान्यो तब , न्यारो परभावसों सुभाव निज गह्यो है ।।" अपनी हीन परिस्थिति होते हुए बार-बार विपदाओंफे बादल घिरे देख जब साहस वाच टूटतः हो जप्त Iमर पारा दिया बड़ा पथ्यकारी होगा "वहाँकी कमाई "भैपा' पाई तू यहाँ आय , अब कहा सोच किए हाथ कछू परिहै । तब तो बिचारि कछू कियो नाहि बंधसमें , याको फल उदै आयो हम कैसे करिहैं । अब कहा मोच किए होत है अज्ञानी जीव , भुगते ही बने कृत्य कर्म कहूँ टरिहैं । अबकै सम्हालके विचार काम ऐमो कर, जात निदानन्द फंद फेरिमें न परिहै ।।" एकान्त पक्षको सत्पथ भान कर उसे अपना मत मानने वालोंको मतवारा समझते हुए कथि 'शान्त रसधारे' का समर्थन करते हुए कहते हैं "एक मतवारे कहें अन्य मतवारे सब , मेरे मत-बारे पर दारे मत सारे हैं। एक पंच-तत्ववारे एक एक-तत्व वारे , एक भ्रम-मतबारे एक एक ग्यारे हैं। जैसे मतवारे बक तैसे मत-वारे बक, तासों मतबारे नके बिना मतबारे हैं। शान्ति-रसवारे कहें मतको निधारे रहैं, तेई प्रान प्यारे लहैं, और सब बारे हैं ।" एक समप्र जिनेन्द्र भक्ति में तल्लीन एक कविको इस प्रकारकी समस्या पूर्ति दी गई, जिसमें अकबर की स्तुतिके प्रभावसे नहीं बचा जा सकता था। उस पालाकीके फन्देसे बचते हुए कविने अपने पवित्र आदर्शको किस प्रकार रक्षा की इसका परिज्ञान इस पथ से होगा Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय "जिय बहुतक वेष धरे जगमें , छबि भा गई आज दिगम्बर को। चिन्तामणि जब प्रगट्यो हियमें , तब कौन जरूरत इम्बर की ।। जिन तारन-तरन हि सेव लिए , परवाह करे को जम्बर की। जिहि आस नहीं परमेसुरकी , मिलि आस करो सु अकबर को ।।" दुनिया ऐसा कौन है, जो झलेसे परिचित न हो ? कपि पावन एक ऐसे विलक्षण तथा विशाल लोक-यापी झूलेका वर्णन करते हैं, जिसमें सभी संसारी घूमते है । एक तत्वज्ञानी ही लेके चक्करसे बचा है---- "नेह औं मोहके खंभ जामें लगे, चौकड़ी चार डोरी सुहावे । चाहकी पाटरी जास पे है परी, पुण्य मो पाप 'जी' को झुलावे ।। सात राजू अधो सात ऊंचे चले, सर्व संसारको सो भमावे । एक सम्यक ज्ञानि ही झूलना सों, कूदिके 'वृन्द' भव पार जावे ।।" -छन्दशतक ७९ 1 इस झूलेका वर्गम कविने मूलना छादमें ही किया है यह और मनोहर बात है। भैया भगवतीदासजी सुखि रानीके द्वारा चाहन्यरायको समझाते हैं कि अमूल्य मनुष्यभवको प्राप्तकर आत्माका अहित नहीं करना चाहिये । किहमा सरस तथा जीवनप्रद संवाद है ''सुनो राय चिदानन्द, कहो जु सुबुसि रानी कहै कहा बेर बेर नकु तोहि लाज है । कैसी लान ? कहो, कहां, हम कछु जानत न हमें इहां इन्द्रिनिको विषे सुख राज है।" इस पर सुबुद्धि देवी पुनः कहती हैं "अरे मूढ़, विषय सुख सेये तू अनन्ती बार अजहूं अघायो नाहि, कामी शिरताज है । मानुष जनम पाय, आरज सुखेत आय, जो न चेते, हसराय तेरो ही अकाज है॥" __ अपने स्वरूपको सनिक भी स्मरण न करनेवाले आत्माको किसनी ओजपूर्ण वाणीमें सम्झाम करने का प्रयत्न किया गया है । 'भैया' कहते हैं--- Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जैन शासन "कौन तुम ? कहां आए, कौने बौराए तुमहि, काके रस राचे, कछु सुध है धरतु हो । तुम तो सयाने पै सयान यह कौन कीन्हों, तीन लोक नाथ के दीनसे फिरतु हो।" बड़े मधुर शब्दों में आत्माको समझाते हुए 'ज्ञानमहल' के भीतर बुलाते हैं और समझाते हैं, कि ऐसे अपूर्व स्थलको छोड़कर भूल में भी बाहर पाँच मत धरना-परपदार्थमें आसक्ति नहीं करना । "कहां कहां कौन संग लागे ही फिरत लाल आवो क्यों न आज तुम ज्ञानके महल में । नेकहु विलोकि देखो, अन्तर सुदृष्टि सेती कैसी कैसी नीकि नारि खड़ी हैं टहलमें ।।" यहां क्षमा, करुणा आदि देवियोंको ज्ञान के पटलों अवस्थित जताया है। उनको सुन्दरता एवं महत्ता अपूर्व है । कवि कहते हैं “एकन ते एक बनी सुन्दर मुरूप घनी, उपमा न जाय गनी रातको चहलमें। ऐसी विधि पाय कहूँ, भूलि हूँ न पाय दीजे, एतो कह्यो वाम लोजे बीनती महल में ॥" कविवर बनारसोवास साधना प्रेमीसे छह माह पर्यन्त एकान्त में बैठकर चित्तको एक और करने की प्रेरणा करते हुए कहते हैं "तेरो घट सर तामै तु ही है कमल वाकी तू ही मधुकर है सुवास पहिचानु रे । प्रापति न हे कछु ऐसें तू विचारतु है सही हमें प्रापति सरूप यों ही जानु रे ॥" जब ममाधिको अवस्था उत्पन्न होती है तब भेद बुद्धि नहीं रहती। कहते है-- "राम रसिक अरु राम रस कहन सुननके दोय । जब समाधि परगट भई, तव दुविधा नहि कोय ॥" भक्तिके क्षेत्रमें भक्तामर, कल्याणमन्दिर, एकोभाव, विषापहार आदि स्तोत्रोंके रूपमें बड़ी पवित्र और यात्मजागृतिकारिणी रचनाएँ है । साहित्यको दृष्टिसे भी भक्तिसाहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है। भस्तामरके मृगपत्ति भीति निवारक पदाका श्री हेमराजपाने कितना सजीव अनुवाद किया है Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय "अति मद मत्त गयन्द कुंभथल नखन विदार। मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारे ।। बांकी दाढ़ विशाल, बदनमें रसना लोले । भीम भयानक रूप देखि जन परहर डोले। ऐसे मृगपति पग तलें, जो नर आयो होय । शरण गए तुव चरणको बाधा करे न कोय ।। ३९ ।।" जिनंन्द्रदेवकी आराधनाकं प्रभावसे अग्निकृत उपद्रव भी नष्ट हो जाता है । इस विषयमें कविवर कहते है "प्रलय पवनकर उठी आग जो तास पढन्तर । बमै फुलिंग शिस्त्रा उतंग पर जल निरन्तर ।। जगत् समस्त निगलके भस्म कर देगी मानो। उडाटात दव-अतुल योर न दिशा उठानो। सो इक छिन में उपशमें, नाम नीर तुम लत । होय सरोवर परिन में विकसित कमल समेत ॥ ४० ॥' इससे समुद्र सम्बन्धी विपत्ति भी दूर हो जाती है । मानलंग आचार्य भक्तिके रसमें तल्लीन हो कितने हृदय-स्पर्शी उद्गार व्यक्त करते हैं"अम्भोनिधौ क्षभितभीषणनकचक्रपाठीनपीठभयदोल्वणवाडवाग्नौ । रंगत्तरंग-शिखर-स्थितयानपानास्त्रास बिहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ।।" इसे हेमराजजी इन शब्दोंमें उपस्थित करते हैं-- "नक चक्र मगरादि मच्छ करि भय उपजावे । जामें बड़वा-अग्नि दाहतं नोर जलावें ।। पार न पावे जास थाह नहि लहिए जाकी। गरजे अति गंभीर लहरकी गिनती न ताकी 11 सुख सो तिर समुद्र को जे तुम गुन सुमराहि । लोल कलोलनके शिखर, पार मान ले जाहि ॥ ४४ ॥'' मानतुंग मुनिवरने कितन सुन्दर सानुप्रास पद्य द्वारा जिनेन्द्रकी महिमा बताई है"नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ, भूतैर्गुण (वि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं अइह नात्मसमं करोति ।१० ___ इस पद्यमें 'भकार' की एकादश चार आवृत्ति विशेष ध्यान देने योग्य है । हिन्धी अनुवादमें मूलके सौन्दर्य का प्रतिबिम्ब तो न आ सका । उसमें उसका भाव इस प्रकार बताया है Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ जैनशासन "न हि अचंभ जो होहिं तुरन्त । तुमसे तुम गुण वरणत सन्त ।। जो अधनीको आप समान | करें न सो निन्दित धनवान || " आचार्य मानतुंग जिनेन्द्रदेवको बुद्ध, शंकर, विधाता, पुरुषोत्तम शब्दोंसे सम्बोधित करते हुए अपने गुणानुराग को इन गंभीर शब्दों द्वारा स्पष्ट करते हैं "बुद्धस्त्वमेव विबुधाचितबुद्धिबोधात् त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रयशङ्करत्वात् । धातामि धीर शिव-मार्ग विधेविधानात् artतं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि ||२५|| " कविरन श्री गिरिधर शर्माने इस रूपमें लिखा है"तू बुद्ध है विबुध पूजिन बुद्धिवाला कल्याण कर्तुवर शंकर भी तुड़ी है । तु मोक्षमार्ग विविधारक है विधाता हे व्यक्त नाथ पुरुषोत्तम भी तुही है || " कल्याणमन्दिर स्तोत्रमें कहा है" त्वं तारको जिन ! कथं भविनां त एव त्वाद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृर्तिस्तरति यज्जलमेष नूनमन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥ यहां कवि भगवान् से कहता है 'आप सारक नहीं है, क्योंकि मैं अपने चिसमें आपको विराजमान कर स्वयं आपको तारता है। इसी बातको बनारसीबासजी हिन्दी पद्यानुवादमें इस प्रकार समझाते हैं "तू भविजन तारक किमि ते चित धारि तिहि ले यह ऐमें कर जान तिरहि मसक ज्यों गर्भित होहि ? तोहि ॥ स्वभाव | इसका वाव ॥। १० ।। " समान के उत्तरार्ध द्वारा कहते हैं कि जैसे पवनके प्रभाव से मशक जल में तिरती है, उसी प्रकार आपके नामके प्रभावसे जीव तरता है । एकीभावस्तोत्र में जिनेन्द्रकी भक्ति गंगाका बड़ा मनोहर चित्रण किया है । नयरूप हिमालयसे यह गंगा उदित हुई है और निर्वाणसिन्धु में मिल जाती है । रविराज सूरि कहते हैं "प्रत्युत्पन्ना नयहिमगिरेरायता चामृताब्धेः या देवत्वसदकमलयोः सङ्गता भक्तिगङ्गा । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय चेतस्तस्यां मम रुचिवशादाप्लुतं क्षालिताह: कल्माषं यद्भवति किमियं देवः" भूषरवासजी हिन्दी अनुवाद में इसे इस प्रकार स्पष्ट करते हैं— " स्याद्वाद - गिरि उपज मोक्ष सागर लौं धाई । तुम चरणाम्बुज परस भक्ति-गंगा सुखदाई ॥ मोचित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरन तामैं । ra वह हो न मलीन कौन जिन संयम या ?" २८५ जय महाकवि अपने विषापहारस्तोत्र में युक्तिपूर्वक यह बात बताते हैं कि परिग्रहरहित जिनेन्द्रको आराधना से जो महान् फल प्राप्त होता है, वह धनपति कुबेर से भी नहीं मिलता है । जलरहित शैलराजसे ही विशाल नदियाँ प्रवाहित होती हैं । जलराशि समुद्र से कभी भी कोई नदी नहीं निकलती । कविवर कहते हैं— "तुङ्गात्फलं यत्तदकिञ्चनाच्च प्राप्यं समृद्धान्त धनेश्वरादेः । निरम्भसोऽप्युच्च तमादिवाद्रेनेंकापि निर्यात धुनी पयोधेः ॥ १९ ॥ " इसका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है--- "उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित् न धरन तें । जो प्रापति तुम थकी नांहि सो धनेसुरन तँ ॥ उच्च प्रकृति जल विना भूमिधर धुनी प्रकासे । जलधितर ते भयो नदी ना एक निकासे || १५ || " महाकवि कहते है, जिनेन्द्र भगवान्की महत्ता स्वतः सिद्ध है, अम्य देवोंके दोषी कहे जाने से उनमें पूज्यत्व नहीं आता। सागरको विशालता स्वाभाविक है। सरोवरको लघुताके कारण सागर महान् नहीं बनता । कितना भव्य तर्क है ! वास्तविक बात भी है, एकमें दोष होनेसे दूसरे में निर्दोषत्व किस प्रकार प्रतिष्ठित किया जा सकता है ? कविकी वाणी कितनी रसवती है"स नीरजाः स्यादपरोऽधवान् वा तद्दोषकीयैव न ते गुणित्वम् । स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥ " १. "पापवान व पुण्यवान् सो देव बताये । तिनके गुन कई नाहि तू गुणी कहाई ॥ निज सुभावरी अम्बू राशि निज महिमा पावे | स्तक सरोबर कहे कहा उपमा बढि जावे ।।" NAAM - विषापहार ११ । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जैनशासन कविवर वृन्दावन, मनरंगलाल, बख्तावर, रामचन्द्र आदिने चौबीस तीर्थकरोंको पूजा तारा पवित्र भक्तिका प्रदर्शन किया है । भगवान् चंद्रप्रभ अष्टम तीर्थकरको वैराग्य प्राप्त हुआ है। वे अब मुनिपद स्वीकार कर रहे हैं। उन्हें मुनि अवस्थामें चन्द्रपुरीमें महाराज पन्द्रदत्तने दुग्ध का आहार कराया था। भगवान स्फटिककी शिलापर विराजमान हो तपोवनमें श्रेष्ठ ध्यानमें निमग्न हो गये थे। भगवानका शारीर समन्तभद्राचार्य ने 'चन्द्रमरीचिगौरम्' कहा है। इस शुभ्रताको सुचित करनेवाली साधन-सामग्री में कवि वृन्दावनजीको कितनी मनोहर कल्पनाकी प्रेरणा प्रदान की, यह सहृदय भक्तजन विचार सकते हैं। कवि कहते है"लखि कारण ह्वे जगते उदास । चिन्त्यो अत्तुप्रेक्षा सुख निवास ॥४॥ तित लोकान्तिक बोध्यो नियोग 1 हरि शिविका सजि धरिपो अभोग । सापें तुम चढ़ि जिन चन्दराय । ता छिनकी शोभा को कहाय ॥५॥ जिन अंग सेत, सित चमर ढार | सित छत्र शीस गल गलकहार । सित रतन जड़ित भूषण विचित्र । सित चन्द्र चरण चरचे पवित्र ।।६।। सित तन-द्युति नाकाधीश आप। सित शिविका कांधे धरि सुचाप ।। सित सुजस सुरेश नरेश सर्व । सित चितमें चिन्तन जात पर्व ।।७।। सित चन्द्रनगर ते निकसि नाथ । सित बन में पहंचे सकल साथ। सित शिलाशिरोमणि स्वच्छ छांह । सित तप तित धारयो तुम जिनाह॥८॥ सित पयको पारण परम सार । सित चन्द्रदत्त दीनो उदार। सित करमें सो पय धार देत । मानो बांधत भव-सिन्धु संत ॥९॥ मानों सुपुण्य धारा प्रतच्छ । तित अचरज पन सुर किय ततच्छ । फिर जाय गहन सित तप करन्त । सित केवल ज्योति जग्यो अनन्त । १०"। -वृन्दावन चौबीसी पूजा | भगवान् शान्तिनायका स्तवन करते हुए कविकुर डामणि स्वामी समन्तभद शान्तिका लाभ कर यान्तिके नाय बनने का मार्ग बताते हैं"स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्तविधाता शरणं गतानाम् । भूयाद् भवक्लेशभयोपशान्त्य शान्तिजिनो मे भगवान् शरण्यः 1३" -१० स्वयंभू ८० | "वे शान्तिनाथ भगवान मेरे लिये शरण है, जिन्होंने अपनी आरमामें विद्यमान दोषोंका ध्वंस करके आत्म-शान्ति प्राप्त की है, जो शरणमें माने वाले जीवोंको शान्ति प्रदान करते हैं। वे शान्तिनाथ भगवान् संसारके संकट तथा भौतिको उपशान्ति करें।" Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २८७ कितनी सुन्दर बात आचार्य महाराजने बताई है, कि यथार्थ शान्तिको उद्भूति आत्मनिर्मलता द्वारा प्राप्तव्य है। वह शान्ति बाहरी वस्तु नहीं है 1 प्रकाण्ड तार्किक होते हुए भी स्वामी समन्तभद्रकी कबितामें मधुरता तथा सरसताका अपूर्व सम्मिश्रण पाया जाता है। महाकवि हरिव अपने धर्मशर्माभ्युदयमें लिखते हैं "वाणी भवेत् कस्यचिदेव पुण्यः शब्दार्थसन्दर्भविशेषगर्भा । इन्दुं विनाऽन्यस्य न दृश्यते द्युत् तमोघुनाना च सुधाधुनी च ॥ ११६ ॥ शब्द तथा भाव की रचनाविशेषसे समन्वित दाणी पुण्योदयसे किसी विरले भाग्यशाली पुण्यात्माको प्राप्त होती है । अन्धेरेको दूर करने वाली तथा अमृतके निर्झरसे समन्वित (शीतल तथा शान्ति प्रदान करने वाली ) ज्योति चंद्रके सिवाय अन्यत्र नही पाई जाती । भगवान् महावीर की तर्कशैली से अभिवन्दना करते हुए स्वामी समन्तभद्र कहते हैं - 'भगवन् । आपके शासनके प्रति तीव्र विद्वेष भाव धारण करने वाला भी यदि विचारक दृष्टि तथा मध्यस्थ भाव संपन्न हो आपके शासनकी परीक्षा करे, तो उसके एकान्त पाप अभिनिवेशरूप सीग लण्डित हो जायेंगे अर्थात् वह एकान्त पक्षका अभिमान छोड़ेगा और वह अभद्र (मिथ्यात्वी) होते हुए भी आपके शासनका श्रद्धालु हो समन्तभद्र ( सम्यग्दृष्टि ) हो जायगा । 'अभद्र मी समन्तभद्र होगा' यदि वह समदृष्टि तथा उपपत्ति चक्षु-विचारक दृष्टि संपन्न हुआ कितने युक्ति, प्राण तथा सत्यसमर्पित शब्द है । "कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डितमानश्रृंगो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥" - युक्त्यनुशासन ६३ । 'प्रचेतस' नामक दिगम्बर मुनिराजकी महिमाको महाकवि हरिचन्द्र कितनी विलक्षण एवं विचक्षण-प्रिय पचति प्रकाशित करते हुए कहते है"युष्मत्पदप्रयोगेण पुरुषः स्याद्यदुत्तमः । अर्थोऽयं सर्वथा नाथ लक्षणस्याप्यगोचरः ॥" -६० शर्मा० ३५३ । युष्मत्- 'पद' - आपके चरणारविन्द के प्रसाद से 'पुरुष उत्तम' हो जाता है । युष्मत् 'पद' प्रयोगसे 'उत्तम पुरुष' बनानेकी विशेषता आपमें है । यह बास व्याकरण शास्त्रको परिधि भी बाह्य है । व्याकरण शास्त्र तो 'युष्मत् पदके' प्रयोगसे मध्यम पुरुषको बताता है । यहाँ कचिने 'युष्मत् पद' और 'पुरुष: स्याद्यदुत्तमः' शब्दों द्वारा रचतामें एक नवीन जीवन डाल दिया। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जैनशासन प्रायः सभी विद्वान विषाताको इसलिये उलाहना देते हैं, कि उसने खलसबके निर्माण करनेकी अन चेष्टा क्यों की ? महाकवि हरिजन विधाताके अपवादको अपनी कल्पना-चातुरी द्वारा निवारण करते हैं। ये कहते हैं कि विधाताको विशेष प्रयत्न द्वारा खल जगत्का निर्माण करना पड़ा । इससे सत्पुरुषोंका महान् उपकार हुआ । बताओ सूर्यको महिमा अन्धकार अभावमें और मणिको विशेषता कांचके असदभावमें क्या प्रकाशित होती ? कवि कहते हैं "खलं विधात्रा सुजता प्रयत्नात् कि सज्जनस्योपकृतं न तेन । ते तमांसि धुमणिमणिर्वा विना न काचैः स्वगुणं व्यक्ति ।।" -०२० १, २२। दुनिया कहती है 'सल' का कोई उपयोग नहीं होता, किन्तु महाकवि 'खल' शब्द के विशिष्ट अर्थपर दृष्टि डालते हुए उसे महोपयोगी कहते है-- "अहो खलस्यापि महोपयोगः स्नेहQहो यत्परिशीलनेन । आकर्ण मापूरितमात्रमेताः क्षीरं क्षरन्त्यक्षतमेव गावः ॥" 4. श० १, २६ । आश्चर्य है, स्खलका (म्जलीका) महान उपयोग होता है । स्खल स्नेहसोही-प्रेम रहित (सली स्नेह-तैल रहित होती) होता है । इस खल खली) का प्रसाद है, जो गाएं पूर्णपात्र पर्यन्त लगातार क्षीररस प्रदान करती हैं। कबिन 'खलमें' दुर्जनके सिवाय स्खलीका अर्थ सोचकर कितनी सत्य और सुन्दर बात रच डाली। इस प्रकारका विचित्र जादू हरिचन्द्रकी रचनामें पद पदपर परिदृश्यमान होता है। बढ़ापेमें कमर झुक जाती है, कमजोरीके कारण पर पुरुष लाठी लेकर चलता है। इस विषयमें कयिकी उत्प्रेक्षा कितनी लोकोत्तर है, यह सहृदय सहज हो अनुभव कर सकते हैं "असम्भूतं मण्डनमङ्गयष्टेन्ष्टं क्व मे यौवनरत्नमेतत् ।। इतीव वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नधोऽधो भुवि बम्भ्रमीति ।।" __ -धर्मशर्माभ्युदय ५९।४ । मेरे शरीरका स्वाभाविक आभूषण योषनरत्न कहाँ खो गया इसी लिये ही मानो आगे से मुके हुए शरीर वाला वृद्ध नीचे-नीचे पृथ्वीको देखता हुआ चलता है। तार्किक पुरुष जर काश्य-निर्माण प्रवृत्ति करते हैं तब किन्हीं विरलोंको मनोहारिणी, स्निग्ध रचना करनेका सौभाग्य होता है। स्वामी समन्तभद्र सदृश Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धो वाल्मय २८९ दार्शनिकता, ताकिकता और कवित्वका मनोहर सम्मिश्रण बड़े पुण्यसे प्राप्त होता है। आचार्य सामने जीवन भर तक की अभ्यास किया और पश्चात् यशस्तिलकचम्पू-जैसी श्रेष्ठ रचना प्रारम्भ की, तब यह शंका हुई कि भला शुष्क तार्किक क्या काव्य बनाएगा ? इसके समाधानमें सोमवेव सूरि लिखत है "आजन्म-समभ्यस्तात, शुष्कात्तत्तिणादिव ममास्याः । मतिसूरभेरभवदिदं सूक्तिपयः सुकृतिनां पुण्यः ।।" -यश ति० १.१७ । मैंने जीवनभर अपनी बुद्धिरूपी कामधेनुको शुष्क तर्फरूप तृण खिलाया है । सत्पुरुषोंके पुष्यसे उससे यह सूक्तिरूप दुग्धको उदभूति हुई है। इस बुद्धिरूप कामधेनुने यशस्तिलकचम्पू नामक विश्ववन्दनीय अनुपम रचना सोमदेव जैसे ताकिकसे प्राप्त करा दी। साकिक प्राचन्द्रको कल्पनामें भी जीवन है। दुष्टोंके उपप्रवसे सस्पुरुषोंको कृतिपर सदा पानी फिर जाया करता है। अतः कहीं सज्जन लोग अपने पुण्यकार्यसे विरत न हो जावें इससे प्रभाचाच प्रेरणा करते हुए कहते हैं-'मानवान् पुरुष दुर्जनोंके घिरायके कारण उद्विग्न होकर अपने मारपकार्यको नहीं छोड़ देते हैं, किन्तु ये उस दुर्जनसे स्पर्धा करते हैं। ईद्र सदा कमलके विकासको दूर कर उसे मुकुलित किया करता है, किन्तु इसका सूर्यपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, वह पुनः पुनः प्रतिदिन पम-विकासनकार्यको किया करता है।' कितमी सुम्बर स्लीसे सत्पुरुषोंको साहस प्रदान करते हुए सन्मार्ग में लगे रहने की प्रेरणा को है"त्यजति न विदधानः कार्यमुद्विज्य धीमान् खलजनपरिवृत्तः स्पर्धते किन्तु सेन । किमु न वितनुतेऽकः पद्मबोधं प्रबुद्धः सदपहृतिविधायी शीतरश्मियंदोह ।।''--प्रमेयक० १० २। सुभाषित एवं उज्ज्वल शिक्षाओंकी दिशामें जैनवाङ्मयसे भी बहुमूल्य सामग्री प्राप्त होती है। सामणि काय अन्यमें प्रत्येक पद्य सुन्दर सूक्तिसे भलंकृत है । ग्रन्थकारकी कुछ शिक्षाएं बहुत उपयोगी हैं । वे कहते हैं "विपदस्तु प्रतीकारो निर्भयत्वं न शोकित्ता ।" ३, १७ ॥ विपत्तिको दूर करनेका उपाय निकिता है। शोक करना नहीं । कोई-कोई म्यक्ति वस्तुच्वंसकर्ताकी शक्ति और बुद्धिको प्रशंसा करते हैं, और निर्माताको अल्पधेय प्रदान करते हैं, उनके भ्रमका निवारण करते हुए कवि कहते हैं Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनशासन ___ " हि शक्यं पदार्थानां भावनं च विनाशवस् ।" २, ४९ । वस्तुको नष्ट कर देना-मारको बिगाड़ देमा नसा तरल है, वैमा रस कार्यको सनाना सरल नहीं है। संसार-समुनमें विपत्तिरूपी मगरादि विद्यमान हैं। उस समुद्रमें गोता लगानेवाला मृत्युको मुख में प्रवेश करता है। समुद्र के तौर पर ही रहनेवालोंकी भलाई है । कवि कहते हैं__"तीरस्थाः खलु जीवन्ति न हि रागाब्धिगाहिनः ।" ८, १ । यहां तटस्यवत्तिको कल्याणकारी बताया है। नम्रता तथा सौजन्यका प्रदर्शन मत्पुरुषोंके हृदयपर ही प्रभाव डालता है, दुष्ट व्यक्ति तो नम्रताको दुर्बलताका प्रतीक समझ और अधिक अभिमानको धारण करता है____ "सतां हि नम्रता शान्त्यै खलानां दर्पकारणम् ।" ५, १२ । गरीबी के कारण कीतियोग्य भी गुण प्रकाशमें नहीं आते । अकिंचनको विद्या भी उचिप्तरूपमें शोभित नहीं हो पाती । "रिमतस्य हि न जागर्ति कीर्तनीयोऽखिलो गणः । हन्त किं तेन विद्यापि विद्यमाना न शोभते ॥" ३,७ । साधारणतया मनोवृत्ति अकृत्यकी ओर मुकती है, यदि खोटो शिक्षा और मिल जाय, तो फिर क्या कहता है "प्रकृत्या स्यादकृत्ये धीर्दुःशिक्षाणं तु किं पुनः ।।''३, ५०। ईर्ष्या, मात्सर्य के द्वारा अवर्णनीय क्षति होती है। भारतवर्ष के अधःपात में शासकोंका पारम्परिक मात्सर्थ भाव विशेष कारण रहा है। कविवर कहते हैं "मात्सर्यात किं न नश्यति ।" ४, १७१ शिष्ट अन परस्पर सम्मिलनके अवसरपर पारस्परिक कुशलताकी चर्चा करते है । इस सम्बन्ध में भूघरवासजी कहते है "जोई दिन कटै सोई आव में अवश्य घटै, बूंद बूंद रीते जैसे अंजुली को जल है। देह नित छीन होत, नेन तेजहीन होत, जोवन मलीन होत, छीन होत दल है। आय जरा नेरी, तके अंतक-अहेरी आये, परभो नजीक जात नरभो विफल है। मिलके मिलापो जन पूछते हैं कुशल मेरी, ऐसी दशा माही मित्र ! काहे की कुशल है ?" -जनशसक ३७॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय प्रमादिका लाभ होनेपर अपने स्वास्थ्य आदिकी उपेक्षा करते हुए लोग आनन्दित होते हैं। कुशलक्षेम समझते हैं । जीवन्धरचम्पूमें हरिचना कवि कहते है- असि कृषि शिल्प वाणिज्य आदि षट् कर्मोके द्वारा समची कुशलता-क्षेभ वृत्ति नहीं मिलती है। उसके द्वारा मनेक प्रकारकी लालसा-लता विस्तृत होती है। सम्ची फुशलता निर्वाणमें है । आत्मस्वरूप अमाप्त भानन्दमें कुशलता है। वह मारमाके ही द्वारा साध्य है। कितना भावपूर्ण पद्य है."कुशलं न हि कर्मषट्क जातं विविधाशा-व्रतति-प्ररोहकन्दम् । अपवगंजमात्मसाध्यमाहुः कुशलं सौख्यमनन्तमात्मरूपम् ।।" सोगले मरि नवापेके कारण धरम हा केशों के विषयमें बताते हैं—'ये केश तुम्हें तपश्चर्याका पाठ पढ़ाने आये हैं । ये मुक्तिलक्ष्मीके दर्शनके झरोखे के मार्गतुल्य है । चतुर्थ पुरषार्ष (मोक्ष) रूपी वृक्ष अंकुर सान है । परमकल्याणरूप निर्वाण के आनन्दरसके आगमनद्योतक अग्रदूत है।' आचार्यने इन केशोंमें कितनी विलक्षण तथा पवित्र कल्पना की है और शिक्षा भी दी है"मुक्तिश्रियः प्रणयवीक्षणजालमार्गाः पुंसां चतुर्थपुरुषार्थतरुप्ररोहाः । निःश्रेयसामृतरसागमनाग्रदूताः शुक्ला कचा ननु तपश्चरणोपदेशाः ।।" -यशस्ति. २. १०४, पृ. २२५ । लोकविद्या अथवा व्यवहारक्तूशलताके बारे में वे कहते है"लोकव्यवहारज्ञो हि सर्वज्ञोऽन्यस्तु प्राज्ञोऽप्यधज्ञायते एव ।" ६५, १८४ । लोकव्यवहारका ज्ञाता सर्वश सदृश माना जाता है। अन्य व्यक्ति महान् शानी होते हुए भी तिरस्कृत होता है । आचार्य कहते हैं__ "उत्तापकत्वं हि सर्वकार्येषु सिद्धीनां प्रथमोऽन्तरायः 11" सम्पूर्ण कार्योंकी सफलतामें आद्य विघ्न है शान्तताका अभाव, अर्थात मिजाजका गरम हो जाना। संसारमें शत्रुओंको वृद्धि करनेको औषधि अन्यको निन्दा करना है"न परपरिवादात्परं सर्वविद्वेषणभेषजमस्ति ।" १२, १७७ । वाणीकी कठोरता शस्त्रप्रहारसे भी अधिक भीषण होती है । कहते है-. "वापारुष्यं शस्त्रपातादपि विशिष्यते।" २७, १७९ । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ जैनशासन प्रिय वाली वाला मयूर जैसे सर्वोका उच्छेद करता है, उसी प्रकार मधुरभाषी नरेश शत्रुका विनाश करता है । "प्रियंवदः शिखीच द्विषत्सर्पानुच्छादयति ।। १२८, १४४ । शस्त्रोपजीवियोंके विषय में आचार्य कहते है"शस्त्रोपजीविनां कलहमन्तरेण भक्तमपि भुक्तं न जीर्यति । १०३,१३७ । शस्त्रञ्जारा जीविका करनेवालोंका कलह के बिना खाया हुआ अन्न तक हजम नहीं होता है । "चिकित्सागम इव दोष विशुद्धिहेतुर्दण्डः । १ १०२ । जैसे वैद्यकशास्त्र शरीर के विकारोंको दूर करता है, उसी प्रकार दण्ड द्वारा दोषोंका भी अभाव होता है । आचार्य सोमदेवका कथन है " अपराधकारिषु प्रशमः यतीनां भूषणं न महीपतीनाम् ॥" अपराधी व्यक्तियोंके प्रति शान्त व्यवहार साधुओंके लिये अलंकार रूप, है, नरंशोंके लिए नहीं । शासन व्यवस्थाके लिए अपराधीको उचित दण्ड देना चाहिये। महाराज पृथ्वीराजने मुहम्मदगोरीको पुनःपुनः छोड़ने में भूल की । यह सूत्र बताता है कि यतिका धर्म भूपतिने स्वीकार करके जो अकर्तव्यतत्परता दिखाई, उससे पृथ्वीराजको बुदिन दिखे और देशकी संस्कृतिको अभिभूत होने का अवसर आया । राजद्रोहियों अथवा दुष्टोंका तनिक भी विश्वास नहीं करना चाहिये । कारण जी० १० वा० ३७, पृ० ७८ । Γ "अग्निरिव स्वाश्रयमेव दहन्ति दुर्जनाः ।" जी० वा० । आचार्य कितने महत्वको शिक्षा देते हैं 'न मह्ताप्युपकारेण चित्तस्य तथानुरागो तथा विरागो भवत्यल्पेनाप्यपकारेण' महान् उपकार करनेसे चित्तमें उतना अनुराग नहीं होता जितना विराग रिका कपन है कि अल्प भी अपकार या क्षति पहुँचनेसे होता है । सोमदेव प्राणवातकी अपेक्षा कीर्तिका लोप करना अधिक दोषपूर्ण है"यशोवधः प्राणिवयाद गरीयान् ।" भगवान बाहुबलि स्वामी के द्वारा युद्धमें तत्पर युद्धके लिये अपनी उत्कण्ठा व्यक्त करते हुए कहते है - यशस्तिलक | भरतेववर के दूत से Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वामय ' कलेवरमिदं त्याज्यम् अर्जनीयं यशोधनम् | जयश्रीविजये लभ्या नाल्पोदर्को रणोत्सव: 1 " २९३ ge, ther यह शरीर तो त्या है। यदि मृत्यु होती है तो कोई भयकी बात नहीं है, धन प्राप्ति तो होगी । यदि विजय हुई तो जमश्री प्राप्त होगी। इस प्रकार यह रणोत्सव महान् परिणामवाला हूँ | स्वाधीनता के विषय में वासिंहसूचिका कथन विरस्मरणीय है "जीवितात्तु पराधीनात्, जोवानां मरणं वरम् । —क्षत्रचूडामणि १, ४० । पांडित्यप्रदर्शन के क्षेत्र में भी जैन ग्रंथकारोंने अपूर्व कार्य किया है। महाकवि जयका राघवपांडवीय - द्विसंधान अनुपम पाण्डित्यपूर्ण कृति है । प्रत्येक rathi fear बलपर रामायण और महाभारतकी कथा वर्णितकी गई है । रचना अत्यन्त मधुर सरस तथा कवित्वपूर्ण है। सप्तसंधान काव्य में भगवान् ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ पार्श्वनाथ, महावीर, राम तथा कृष्ण इन ७ महापुरुषोंका चरित्र निबद्ध है। प्रत्येक लोकके सात-सात अर्थ पाये जाते हैं । इसी प्रकार २४ तीर्थकरों के चरित्रयुक्त चतुविंशतिसंधान नामका काव्य है । स्वामी समग्र स्तोत्रकाव्य जिनशतक एकाक्षरी द्वयक्षरी आदि चित्रालंकारभूषित अपूर्व रचना है जो रचनाकारके भाषावर अप्रतिम अधिकारको सूचित करता है | एक जैन आचार्यने चित्रालंकारका उदाहरण देते हुए एक पद्य बनाया है. जिसका मर्म बड़े-बड़े पांतिके अभिमानी अबतक न जान सके वह पद्य यह है "का व गो घ ङ चच्छो जो झ टठडढण I था द धन्य प फ ब भ मा या राला व श ष सः ॥" बौद्ध धर्मका मूल सिद्धान्त 'सर्व क्षणिकम्' है, जैन धर्मने पर्याय दृष्टिसे पदार्थको क्षणिक माना है; इस क्षणिकताका आचार्य पद्मनंजिने शरीरको लक्ष्यकर कितना वास्तविक तथा सजीव वर्णन किया है- " यद्येकत्र दिने न भुक्तिरथवा निद्रा न रात्री भवेत् विद्वात्यम्बु पत्रवद्द नतोऽभ्याशस्थितात् यद्भुवम् । अस्त्रव्याधिजलावितोऽपि सहसा यच्च क्षयं गच्छति भ्रातः कात्र शरीर के स्थितिमतिर्नाशेऽस्य को विस्मयः ।। " १. "लोकं पराधीनं जीवितं विनिम्बितम् । निजबलवि भवसमार्जित मृगेन्द्रपदसंभावितस्य मृगेन्द्रस्येव स्वतंत्रजीवनमविनिन्दितमभिवन्दितमनवद्य पतिधमिति ॥ "जी० ० का ० । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनशासन ____ अरे भाई ! यदि एक दिन भी भोजन नहीं प्राप्त होता है, अथवा रात्रिको नींद नहीं आती है तो यह शरीर अग्नि समीप में कमलपत्रके समान मुरचा जाता है; अस्त्र, रोग, जल आदिफे द्वारा जो सहसा विनाशको प्राप्त होता है, ऐसे शरीर में स्थिरताकी बुद्धि कैसी ? इसके नाश होने पर भला क्या आश्चर्यकी बात है ? __भगवान् पार्श्वनाथके पिता महाराज विश्वसेनने उनसे गृहस्थाश्रमा प्रवेश करने को कहा, उस समय उनके चित्त में सच्चे स्वात्रीन बनने की पिपासा प्रबल हो उठी और उन्होंने अपनेको इन्द्रियों तथा विषयोंका दास बनाना अपनी दुर्बलता समझी, अतः उन्होंने निर्माण के लिये कारण रूप जिनेन्द्रमा धारण को। वादिराज सूरिने पावनाथचरिथमें भगवान के मनोभावों को इस प्रकार चित्रित किया है-- "दोषदृष्ट्या सदियो विषयरतग ? प्रक्षालनाद्धि पतस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥ १३-.११ ।।" यदि सदोग दृष्टिवश विषय त्यागने योग्य है. तब उनको ग्रहण करने में क्या प्रयोजन है ? कीचड़ में अपने अंगको डालकर धोने की अपेक्षा उस पंकको न छूना हो मुन्दर है। जिस विनयकी ओर आज लोगोंका उचित ध्यान नहीं है, उस विनयकी गुरुताको आचार्य श्री इन शब्दों द्वारा प्रकाशित करते है "विणएण विष्पहीणस्स, हदि सिक्ला निरस्थिया सव्वा । विशओ सिक्खाफलं, विणयफलं सब्बकल्लाणं ।" -मुलाचार पृ०, ३०४ । -विनय विहीन व्यक्ति की संपूर्ण शिक्षा निरर्थक है । शिक्षाका फल विनय है और बिनयका फल सर्वकल्याण है। शील पारगकी ओर उत्साहित करते हुए वे कहते है__ "सीलेणवि मरिदवं णिस्सीलेणवि अवस्स मरिष्वं । जइ दोहिंवि मरियध्वं वर हु सोलत्तणेण मरियन्वं ।।५।९५॥" शीलका पालन करते हुए मृत्यू होती है. और शील शून्य होते हुए भी अवश्य मरना पड़ता है । जब दोनों अवस्थाओं में मृत्यु अवश्यंभाविनी है, तब शोल सहित मृत्यु अच्छी है। निवृत्तिके समुन्नत शैलपर पहुँच नेमें असमर्थ व्यक्ति किस प्रकार प्रवृत्ति करें, जिससे वह पापपंकसे लिप्त नहीं होता है, इसपर जैन गुरु इन शब्दोंमे प्रकाश डालते हैं "जदे परे जदं चिट्ठ जनमासे जबसये । जदं भुजेज्ज भासेज, एवं पावं ण वज्झइ ।।" Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २९५ सावधानी पूर्वक चलो, सावधानी पूर्वक चेष्टा करो, गावधानो पूर्वक बैठो, सावधानी पूर्वक शयन करो, सावधानी पूर्व नाज कसे, सावधान र भाषण करो, इस प्रकार पापका बन्ध नहीं होता। लोग सोचा करते हैं, राज्य विद्यामें ही नैपुण्य प्राप्त करना श्रेयस्कर है, धर्म विशपमें श्रम करना विशेष उपयोगी छात नहीं है । वस्तुतः यह महान् श्रम है । भगवतिनसेन सदृश आचार्य कहते है राजविद्यापरिझानादेहिकेऽर्थे दुवा मतिः। धर्मशास्त्रपरिज्ञानान्मतिलोर्कद्वयाश्रिता ।। ४२--२८ ॥" राजविद्याके परिज्ञानसे इस लोकके पदायोंके विषय में वृद्धि मजबूत होती है, किन्तु धर्मशास्त्रके परिवानसे इस लोक तथा परलोकके सम्बन्धमे दृढ बुद्धि होती है। मूला चारमें कितनी उज्ज्वल भावना व्यक्त की गई है "जा गदी अरिहंताणं णिदिदाणं च जा गदी। जा गदो वोदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा ॥९९॥" अरहंतोंकी जो गति है, निष्ठितार्थी-सिद्धोंकी जो अवस्था है तथा चीतमोह आत्माओंकी जो स्थिति है, वह मुझे सर्वदा प्राप्त हो। जन शासनमें प्राचार्यका पद महान् साधनाके उपरान्स प्राप्त होता है। सदाचरण उसकी नींव रहती है। श्री वीरसेम स्वामोका यह पद्य कितना भावपूर्ण है "तिरयण-खग्ग-विहाए-गुत्तारिय मोह-सेण-सिर-णियहो । आइरिय-राय पसियउ परिपालिय-भविय-जिव-लोओ।" वे आचार्य महाराज प्रसन्न हों, जिन्होंने आत्म दर्शन, आत्मबोध और आत्मनिमग्नता रूप रत्नत्रय स्वरूप तलवार के प्रहारसे मोह सैन्यके मस्तक समूहका संहार किया है तथा भष्म जीवोंकी परिपालना की है। __ 'तत्वज्ञान तरंगिणी' में लिखा है कि शुद्धचिद्रूप अर्थात् अपनी निर्मल आत्मा के स्मरण करने में बनध्यय, देशाटन, दासता, भय, पीड़ा आदि कष्टों का पूर्ग अभाव है, फिर भी आश्चर्य है कि विज्ञवर्ग उस ओर क्यों नहीं ध्यान देत ? उनके ये शब्द कितने मर्मस्पर्शी है "न क्लेशो न धनव्ययो न गमनं देशान्तरे प्रार्थना केषाञ्चिन्न बलक्षयो न च भये पोड़ा परस्यापि न । सावधं न च रोगजन्मपतनं नैवात्र सेवा नहि चिद्रूपस्मरणे फलं बहु कथं तन्नाद्रियन्ते बुधाः ॥४-११।" Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जैनशासन ममता त्याग करनेसे रागद्व ेष आदि दोष दूर होते हैं अतः समता तस्वका प्रेमी ममताका स्याग करें, तो कल्याण हो। वे कहते हैं "रागद्वेषादयो दोषा नश्यन्ति निर्ममत्वतः । साम्यार्थी सततं तस्मात् निमत्वं विचिन्तयेत् ॥१० २०|" जिस प्रकार मेघमंडल पर सूर्यकी किरणें पड़कर अपनी मनोरम छटासे जगत्को प्रमुदित करती हैं, उसी प्रकार सत्कविकी कल्पनाकी किरणों द्वारा पदार्थका स्वरूप बड़ा आकर्षक, आनन्दप्रद तथा भाव प्रदर्शक बन जाता है । राजा भरत कुमार भगवान्मनाथके चरणोंका अनुसरण कर दिगम्बरकी दीक्षा धारण कर ली। इस घटनाको अपनी महाकविसुलभ कल्पना से सजाते हुए जिनसेन स्वामीके शिष्य गुणभद्राचार्य कहते हैंचक्रवर्ती सम्राट् भरतेश्वरने देखा कि आदि भगवान्‌का शासन विश्वव्यापी बन गया है, उनके महान भारको वारण करनेके योग्य यह जयकुमार अच्छा पात्र है, यह सोचकर भरतराजने जयकुमारको प्रभुचरणों में समर्पित किया। कैसी मुखद सुन्दर तथा सुश्राव्य कल्पना है यह । महाकविकी वाणीका विज्ञजन रसास्वाद करें--- "एष पात्रविशेषस्ते संबोढुं शासनं महत् । इति विश्वमहोशेन देवदेवस्य सोऽर्पितः ॥ २८/४७॥” साधुत्व स्वीकार करने के पूर्व प्रतापो सेनापति जयकुमार में महाकवि जिनसेन को एक बड़ा दोष दिखता था, कि उसके श्री कोर्ति, वीरलक्ष्मी तथा सरस्वती ये अश्यन्त प्रिय चार स्त्रियों है । कीति तो ऐसी विचित्र है, कि वह गृहलक्ष्मी न बनकर त्रिभुवनमें विचरण करती है, लक्ष्मी अत्यन्त वृद्धा है । (कारण उसके वैभवका पार नहीं है) । सरस्वती भी अधिक जीणं हे - (शास्त्राभ्यासी होने के कारण उसका श्रुताभ्यास बहुत बढ़ा चढ़ा हूं) वीरश्री शत्रुओंका क्षय होने के कारण शान्त सबुवा ( उसमे चैतन्यपता नहीं मालूम पड़ठा) दिखती है। यह ब्याज स्तुति है । जिमसेम स्वामीके शब्द सुनिए --- "अयमेकोऽस्ति दोषोऽस्य चतस्रः सन्ति योषितः । श्रीः कीर्तिर्वीरलक्ष्मीश्च वाग्देवी चातिवल्लभा ॥ ३१६॥ कीतिबंहिश्वरा लक्ष्मीरतिबुद्धा सरस्वती जीर्णेतरापि शान्तेव लक्ष्यते क्षतविद्विषः ||" - महापु० ४३३२०१ स्पृहा-आकांक्षा ही सच्चे सुखकी उपलब्धिमें बाधक है अतः निस्पृहत्त्रमें हो कया है इस faeusो सुभाषितरत्न संदोह में माचार्य अमितगति इन सुन्दर शब्दोंमें समझाते है Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुषन्धी बाङ्मय २९७ "किमिह परम सौख्यं निस्पृहत्वं यदेतत् । किमथ परमदुःखं सस्पृहत्व यदेतत् ।।१४।।" भर्वत्र यही कहा जाता है कि चरित्रका सुधार करना चाहिये । उस चरित्रका स्वरूप जानना आवश्यक है। अमितगति स्वामी कहते है कषाय-क्रोधादि विकारोंपर विजय प्राप्त करना ही चरित्र है । कोष, मान, माया, लोभ, भय, घृणा, काम, तृष्णा मादिक अधीन रहते डाए चरित्रका दर्शन नहीं होता । "कषायमुक्तं कथितं चरित्रं कषायवृद्धावपघातमेति । यदा कषायः शममेति पुंसस्तदा चरित्रं पुनरेति पूतम् ॥२३३॥ कविका कथन है कि सम्ससमागमके द्वारा तमोभाव नष्ट होता है, रजोभाव दूर होता है, सात्त्विक वृत्तिका आविष्कार होता है, विवेक उत्पन्न होता है, सुख मिलता है, न्याय वृत्ति उत्पन्न होती है, धर्ममें चित्त लगता है तथा पापबुद्धि दूर होती है अतः साधुजनकी संगति द्वारा क्या नहीं मिल सकता है ? "हति ध्वान्तं हरयति रजः सत्त्वमाविष्करोति प्रज्ञा सूते वितरति सुखं न्यायवृत्ति तनोति । धर्मे बुद्धि रचयतितरां पापबुद्धिः धुनीते पुसा नो वा किमिह कुरुते संगतिः सज्जनानाम् ।।४६८॥" संसारमै पुण्यका ही ठाठ दिखता है, जिसके पास पुण्य की संपत्ति है, यह सर्वत्र जयशील होता है; किन्तु बिना पुष्य के महनीय कुलादिमें जन्म लेते हुए भी विपत्तिपूर्ण जीवन बिताना पड़ता है। इसीगे कहा है, कि शूर तथा विद्वान् होते हुए भी पाडोको वनमें भटकना पड़ा, अतः शौर्य और पांरित्यके स्थानमें भाग्य बमा चाहिए __ "भाग्यवन्तं प्रसूयेथाः मा शूरान्मा च पण्डितान् । शूराश्च कृतविद्याएच वने सोदन्ति पाण्डवाः ॥" इस विषयमें सुभाषितरत्नसंदोहमें कहा है "पुरुषस्प माग्यसमपे पतितो वज़ोपि जायते कुसुमम् । कुसुममपि भाग्यविरहे वज्रादपि निष्ठुरं भवति ।। बान्धवमध्येऽपि जनो दुःखानि समेति पापपङ्कन । पुण्येन वैरिसदनं यातोऽपि न मुच्यते सौख्यम् ।।" पुरुषके माग्य जगनेपर वज्रपात भी पुण्य सदृश हो जाता है, किन्तु अभाग्य होनेपर कुसुम भी कठोर हो जाता है । पापोदयसे अपने बंधुओंके मध्यमें रहता हा भी यह दुःखी होता है तथा पुण्योदयसे शत्रु के परमें भी सुखको शप्त करता है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ जैनशासन उस पुण्य, जिसके वलपर भाग्यका सितारा चमकता है, के अर्जनका उपाय महात्माओंने जिनन्द्र पूजा, सत्पात्रदान, अष्टमी, चतुर्दशी रूप पर्वकालमें उपवास तथा शीलका धारण करना कहा है "दानं पूजां च शीलं च दिने पर्वण्युपोषितम् ।। धर्मश्चतुर्विधः सोऽयमाम्नातो गृहमेधिनाम् ।।"-महापु० १०४॥४१॥ पुण्य प्रवृत्तियोंको प्रबुद्ध करनेसे संसारका अम्युदय ही उपलब्ध होगा, अमर जीवन और अविनाशी आनन्दकी उपलधि तो विभाव का परित्याग कर स्वभावको और प्रवृत्ति करनेसे होगी । तस्वशानसरंगिणोका यह कथन वस्तुतः यथार्थ है "दुष्कराण्यपि कार्याणि हा भाग्यशभानि च । बहूनि विहितानीह नंब शुद्धात्मचिन्तनम् ।।" मैने अनेक दुःखसाध्य शुभ तथा अशुभ कार्य किए; किन्तु खेद है अपनी दिशुद्ध आत्माका कभी चिन्तन न किया । यदि यह आरमा पगवलम्बनको छोड़कर अपनी आरम-ज्योतिवी ओर दष्टि कर ले, तो यह अनाथ न रह त्रिलोकीनाथ बन जाय । यह उक्ति कितनी सत्य है "तीन लोकका नाथ तू, क्यों बन रहा अनाथ ? । रत्नत्य निधि साथ ले, क्यों न होय जगनाथ ? ॥ विवंकी मानवकी प्रवृत्तियोंका चरम लक्ष्य अमृतत्वकी उपलब्धि है; जैन महापुरुषोंने उसको लक्ष्य करके ही अपनी रचनाओंका निर्माण किया है। कारण उस लक्ष्य के सिवाय अन्म तुच्छ ध्येयोंकी पूति द्वारा क्या परम साध्य होगा? इसीसे उपनिषदकार ने कहा है "येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम् ?' एक वीतराग ऋषिक शब्दोंमें सच्चा विद्वान् तो यह है, जो अपने इसी शरीरमें परम आनन्दसंपन्न तथा राग-द्वेषरहित अहंन्तको जानता है। महापुरुष परमात्मपदको अपनेसे पृथक् अनुभव नहीं करते। हमने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराजसे यह वास अनेक बार सुनी थी कि इमारा भगवान् बाहर नहीं है, हृदयक्र भीतर बैठा है। जिसमें ऐसी आत्म दर्शनको सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है, वही वस्तुतः ज्ञानवान् कहे जानका पात्र है। वही सच्चा साधक तथा मुमुक्ष है । उसे साध्यको प्राप्त करते अधिक काल नही लगता । १. जिसके द्वारा मुझे अमृतत्य नहीं मिले, उससे मुझे क्या करना है ? २. ''परमाल्लादसम्पन्नं रागद्वेषविर्जितम् । बर्हन्तं देहमध्ये तु यो जानाति स पंडितः ।" Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २९५ इंद्रने भगवान् वृषभदेवके मुनि दीक्षा लेने पर जो चमत्कारजनक स्तुति की थी, उसे व्याजस्तुति अलंकारसे सुसज्जित कर आचार्य जिनसेन कितने मनोहर शब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं प्रभो, आपकी विरायता समझमें नहीं आती; राज्यथी से तो आप विरक्त हैं, तपोलक्ष्मीमें आसक्त है तथा मुक्ति रमाके प्रति आप उत्कण्ठित है । ___ आपमें समानदीपना मी कसे माना जाय; आपने हेय और उपादेयका परिज्ञान कर संपूर्ण हेय पदार्थों को छोड़ दिया और उपादेय को ग्रहण करनेकी आकांक्षा रखते है । आपमें त्याग भाव भी कैसे माना जाय, पराधीन इंद्रियजनित सुखका आपने परित्याग किया और स्वाधीन सुस्त्रकी इच्छा करते है, इससे तो यही ज्ञात होता है कि आप थोड़े आनन्दको छोड़कर महान सुखकी कामना करते हैं। पूज्यपाद महर्षिकी वाणी महत्वपूर्ण है। अनित्यानि शरीराणि विभबो नव शाश्वतः । सन्निहितं य सदामृत्युः कर्तव्यो धर्म संग्रहः ।। शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है । मृत्यु समीपमें है । अतः दयाधर्मका संग्रह करना श्रेयस्कर है। __भागचंद, दौलतराम, भूघरदास, धानतराय आदि कवियोंने अपने भक्ति तथा रसपूर्ण मजनोंके द्वारा ऐसी सुन्दर सामग्री दो है, कि एक ही पद्मके पढ़नेसे साधकको आत्मा आनंदित हो उठती है। इस अवसरपर हमें भूपरवाप्तजीका भजन स्मरण आता है, जिसमें कविने जीवनको चरखेसे सुलमाकी है। कितना मार्मिक मषन है यह "चरखा चलता नाही, चरखा हुआ पूराना ।।टेक।। पग-खूटे द्वय हालन लागे, उर मदरा खखराना ।। छीदो हुई पांखड़ी पसली, फिर नहीं मनमाना ।।१॥ १. "राज्यनियां विरक्तोऽमि संरक्तोऽसि तपःश्रियाम् । मुक्चिश्चियां च खोत्कण्ठो गतैय ते विरागता 1। २३७ ।। ज्ञात्वा हेयमुपेयं च हित्वा हेयमिवाखिलम् । उपादेयमुपादिरसोः कथं ते समदर्शिता ।। २३८ ।। पराधीनं सुखं हित्वा सुखं स्वाघोनमीप्सतः । स्यक्त्वाल्पा विपुलां चति वाच्छतो विरतिः म्य ते ॥२३९॥" -महापुराण पर्व १७ । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन रसना तकलीने बल खाया, सो अब कैसे खर्ट । सबद-सूत सूधा नहिं निकसे, घड़ी घड़ी फल टूटे ।। २ ।। आयु-मालका नहीं भरोसा, अंग चलाचल सारे। रोग इलाज मरम्मत चाह, वेद बाढई हारे ।। ३ ।। नया चरखला रंगा-चंगा, सबका चित्त चुराच । पलट दरन गए गुन अगले, अब देखे नहि भावे ।। ४ ।। मोटा महीं कातकर भाई, कर अपना सुरझेरा। अन्त आगमे ईधन होगा, 'भूधर' समझ सबेरा ।। ५॥" X उनका यह पद भी कितना प्रबोधक है, जिस में कविघर प्रभुको भक्ति के लिए प्रेरणा करते है "भगवन्त भजन क्यों भूला रे; यह संसार रैनका सुजन धन पारि बरला मात ॥ इस जोवन का कौन भरोसा, पावक में तृण पूला रे । काल कुदार लिए सिर ठाड़ा, क्या समझे मन फूला रे ॥ २ ॥ स्वारथ साधं पांच पांव तू, परमारथको लूला रे।। कहुँ कैसे सुख पैहे प्राणी, काम करे दुःखमूला रे ।। ३॥ मोह पिशाच छल्यो मति मार, निज कर कंध वसूला रे । भज श्रीराजमतीवर 'भूधर' दुरमति शिर धूला रे ॥ ४॥" X आत्माको सवार मानकर उसे सावधान करते हुए कहते हैं. शरीररूपी घोड़ा महा पुष्ट है, इसे सम्हालकर रखो, अन्यथा यह धोखा देगा । विनमविषयी कहते है "घोरा झूठा है रे, मत भूले असवारा । तोहि मुधा ये लागते प्यारा, अन्य होयगा न्यारा | घोरा झूठा चरै चीज अरु पुरै कैदसों, ऊबट चले अटारा । जीन कसे तय सोया चाहै खानेकी होशियारा ॥ २ ॥ खुब खजाना खरच खिलाओ, यो सब न्यामत चारा। असवारीका अवसर आवे, गलिया होय गॅवारा ॥३॥ छिन् ताता छिनु प्यासा होवे, सेव करावन हारा । दौर दूर जंगल में हार, सूरै धनी विचारा ॥ ४ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुबन्धो वाङ्मय करह चौकड़ा चातुर चौकस, द्यो चाबुक दो चारा 1 इस घोरेको 'विनय' सिखावो, ज्यों पावो भव पारा ।। ५ ॥" कषिदर बनारसीदास जीका यह पद कितना अनमोल है "रे मन ! कर सदा सन्तोष, जातें मिटत सब दुख-दोष । रे मनः ॥ १॥ बढ़त परिग्रह मोह बाढ़त, अधिक तृषना होति । बहुत इंधन जरत जैसें अनि ऊंची जोति ॥ रे मन० 11 २ ।। लोभ लालच मूल जनसो, कहत कंचन दान । फिरत आरत नहिं विचारत, धरम पनकी हान ।। रे मन० । ३ । नारकिनके पाद सेवत सकुच मानत संक । ज्ञानकरि बूझे 'बनारसि' को नृपत को रंग ।। रे मन० ॥ ४॥ वे इस पदमें कितमे पवित्र भावोंको प्रगट करते हैं "दुविधा कब जेहै या मन की । दु० ॥ कब निजनाथ निरंजन सुमिरौं, तज सेवा जन जन की । दु० ॥१५॥ कब रुचि सौं पीवे इंगनातक, बूंद अखय पद धन की। कम शुभ ध्यान धरौं समता गहि, करूं न ममता तनकी ॥ २ ॥ कब घट अन्सर रहै निरन्तर, दिकृप्ता सुगुरु वचन की। कब सुख लहीं भेद परमारथ, मिट धारना धनकी ।। ३ ।। कब घर छडि होहु एकाकी, लिये लालसा वनको। ऐसी दशा होय कब मेरी, ही बलि बलि वा छनको ।। ४ ।।" कवि भागबजीका यह पद कितना अनमोल है "जीव ! तू तो भ्रमत सदीव अकेला। कोई संग न साथी तेरा टेक ॥ अपना सुख दुःख आपहि भुगतै होत कुटुम्ब न भेला । स्वार्थ भये सब बिछुरिजात है, बिघट जात ज्यों मेला ॥ १ ॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेनशासन रक्षक कोइ न पुरन है जब, आयु अंत की बेला। फूटत पार बंधत नहीं जैसे, दुदर-जल का ठेला ।। २ ॥ तन धन जोबन दिनसि जात ज्यों, इंद्रजालका खेला। भागचंद इमि लखकर भाई, हो सतगुरुका चेला ।। ३ ।" अजर अमर-पदकी हुयो भाकाला फारसेवामा साधक यही चितन करता है। कि अब मेरो अविद्या दूर हो गई। जिन-हासन के प्रसादसे सम्यक्-ज्ञानज्योति प्राप्त हो गई। अब मैंने अपने अनंत शक्ति, ज्ञान तथा आनन्दके अक्षय भंडाररूप आत्मतत्त्वको पहचान लिया, अतः शरीरके नष्ट होते हुए भी मैं अमर ही रहूंगा। कितना उद्बोधक तथा शान्तिप्रद यह पद्य है "अब हम अमर भए न मरेंगे। या कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों कर देह धरेंगे ।। टेक | रागद्वेष जग बन्ध करत हैं, इनको नाश करेंगे। मरयो अनन्त काल ते प्राणी, सो हम काल हरेंगे ॥ १ ॥ देह विनासी हों अविनासी, अपनी गति पकरेंगे। नासी नासी हम थिरवासी, चोखे हो निखरेंगे ।। २ ।। मरयो अनन्तबार बिन समझो, अब दुःख-सुख बिसरेंगे। 'आनन्दधन' 'जिन' ये दो अक्षर, नहि सुमरे सो मरेंगे ॥३॥"" इस प्रकार जैनवाङ्मयका परिशीलन और मनन करनेपर अत्यन्त दीप्तिमान तत्त्व-रूम निधियोंकी प्राप्ति होगी। तार्किक अलंक जैनवाङ्मयरूप समुद्रको हो विश्व के रत्नोंका आकर मानते है । आज अज्ञान, पक्षपास, प्रमाद आदिके कारण विश्व इन रत्नों के प्रकाशसे वंचित रहा । आशा है कि अब मुज्ञजन सद्विचारोंको स्नानि जनवाङ्ममका स्वाध्याय करेंगे। आत्मसाधनाको अगाध सामग्री जैनशास्त्रों में विद्यमान है। इस वाङ्मयका सम्यक् अनुशीलन करनेवाले भगवती भारतीकी सदा अभिवंदना करते हुए हृदयसे कहेंगे "तिलोयहि मंडण धम्मह खाणि । सया पणमामि जिणिदहवाणि ॥" - - - १. यह भजन गांधीजीकी भजनाचलिमें भी संग्रहीत किया गया है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वसमस्याएं और जेनधर्म विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म ३०३ आज यन्त्रवाद (Industrial Revolution) के फलस्वरूप विश्व में अनेक अघटित घटनाओं और विचित्र परिस्थितियों का उदय हुआ है। उसके कारण उत्पन्न हुई विपत्तियों व्यथित अन्तःकरण विश्वशान्ति तथा अभिवृद्धि निमित्त धर्मका द्वार खटखटाता है और कहता है कि हमें उच्च तत्त्वज्ञान और गंभीर अनुभवपूर्ण दार्शनिक चिन्तनाओंवाले धर्मकी अभी उतनी जरूरत नहीं है, जितनी उस विद्याकी, जो कलह, विद्वेष, अशान्ति, उत्पीड़न आदि विपत्तियोंसे बचाकर कल्याणका मार्ग बतावे । जो धर्म मर्दुमशुमारीको विशिष्ट वृद्धिके आधारवर अपनी महत्ता और प्रचारको गौरवका कारण बताते हैं, उनके आराधकोंकी बहुसंख्या होते हुए भी अशान्तिका दोरदौरा देख विचारक व्यक्ति उन धर्मोसे प्रकाश पाने की कामना करता है, जिसकी आधारशिला प्रेम और शान्ति रही है, और जिसकी वृद्धिके युग में दुनियाका चरित्र सुवर्णाक्षरोंमें दिखने लायक रहा है। ऐसे जिज्ञासु विश्वकी वर्तमान समस्याओं के बारेमें जैनशासनसे प्रकाश प्राप्त करना चाहते हैं । अतः आवश्यक है कि इस सम्बन्धमें जैन तीर्थंकरोंका उज्ज्वल अनुभव तथा शिक्षण प्रकाशमें लाया जाय । धर्म सर्वांगीण अभ्युदय तथा शान्तिका विश्वास प्रदान करता है, अतः मानना होना, कि प्रस्तुत समस्याओं की गुत्थी सुलझानेकी सामर्थ्य धर्म में अवश्य विद्यमान मौर्य जैन- नरेशों सदृश चन्द्रगुप्त हूँ | इतिहास इस बातको प्रमाणित करता है, कि के शासन में प्रजाका जीवन पवित्र था। वह पापखे अलिप्तप्राय रहती थी। वह समृद्धिकै शिखरपर समासीन थी। वर्तमान युगमें भी इस वैज्ञानिक धर्मके प्रकाशमें जो लोग अपनी जीवनचर्या व्यतीत करते हैं, वे अन्य समाजोंको अपेक्षा अधिक समृद्ध, सुखी तथा समुन्नत हैं। यह बात भारत सरकारका रेकार्ड बतायगा, जिसके आधारपर एक उत्तरदायी सरकारी कर्मचारीने कहा था कि - "फौजदारी का अपराध करनेवालोंमें अनियोंको संख्या प्रायः शूश्य है !" आज लोगों तथा राष्ट्रोंका शुकाव स्वार्थपोषण की ओर एकान्ततया हो गया है । 'समर्थको ही जीनेका अधिकार है, दुर्बलोंको मृत्युकी गोदमें सदा के लिए सो जाना चाहियें, यह है इस युगकी आवाज । इसे ध्यान में रखते हुए शक्ति तथा प्रभाव सम्पादन के लिए उचित-अनुचित कर्तव्य - अकर्तव्यका तनिक भी विवेक बिना किए बल या छलके द्वारा राष्ट्र कथित उन्नतिकी दौड़के लिए तैयारी करते " है। हम हो सबसे आगे रहें, दूसरे चाहे जहाँ जायें, ईर्ष्यापूर्ण दृष्टि ) के कारण उच्च शिक्षान्तोंकी वे उसी इस प्रतिस्पर्धा (नहीं नहीं, प्रकार घोषणा करते हैं, Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जैनशासन जैसे पंचतंत्रका वृद्ध यात्र अपनेको बड़ा भारी अहिंसावती बसा प्रत्येक पथिकसे कहता था - 'दं सुवर्ण-कणं गृह्यताम्' । जिस प्रकार एक गरीब ब्राह्मण व्याघ के स्वरूपको चक्करमें आ प्राणोंमें हाथ धो बैठा था, वैसे ही उच्च सिद्धांतोंको घोषणा करने वालों के फन्दे में लोग फँस जाते हैं, और अकथनीय विपत्तियों को उठाते हैं। आश्रितों का शोषण, अपनी श्रेष्ठताका अहंकार, घृणा तीव्र प्रतिहिंसा की भावना आदि बातें आजके प्रगतिगामी या उन्नतिशील राष्ट्रोंके जीवनका आधार है । यो सेवा करा प्रायः यानिक आश्वासनका विषय बन रही है। सभी भौतिकवादका अधिक विकास होनेके कारण पहले तो इनकी आँखें विज्ञान के चमत्कार के आगे चकाचौंध युक्त सी हो गई थीं, किन्तु एक नहीं, दो महायुद्धोंने विज्ञानका उन्नत मस्तक मीचा कर दिया। जिस बुद्धिवैभवपर पहले गर्म किया जाता था, आज वह लज्जा का कारण बन गई। अणुबम (atom bomb ) नामकी वस्तु इस प्रगतिशील विज्ञानकी अद्भुत देन है, जिसने अल्पकालमें लाखों जापानियोंको स्वाहा कर दिया । लाखों बच्चे, स्त्री, असमर्थ पशु, पक्षी, जलचर आदि अमेरिकाकी राजकीय महत्त्वाकांक्षाकी पुष्टिकी लालमानिमित्त क्षणभर में अपना जीवन खो बैठे 1 कितना बड़ा अन्धेर है ! कुछ जननायकों के चित्तको संतुष्ट करने के लिए अन्य देश अथवा राष्ट्र के बच्चों, महिलाओं नादिके जीवनका कोई भी मूल्य नहीं है। वे क्षणमात्रमें मौत के घाट उतार दिये जाते हैं । यह कृत्य अत्यन्त सम्योंके द्वारा संपादित किया जाता है। सम्राट् अशोकने अपनी कलिंगविजय में जब लाख से ऊपर मनुष्यों की मृत्यु का भीषण दृश्य देखा, तो उस चण्डाशोककी मात्मामें अनुकम्पाका उदय हुआ । उस दिनसे उसने जगत् भर में अहिंसा, प्रेम, सेवा, भादिके उज्ज्वल भाव उत्पन्न करने में अपना और अपने विशाल साम्राज्यको शक्तिका उपयोग किया। अशोकके शिलालेखकी सूचना नं० १३ में अपने वंशज के लिए यह स्वर्ण शिक्षा दी थी- "के यह न विचारें कि तलवार से विजय करना विजय कहलाने के योग्य है। वे उसमें नाश और कठोरता के अतिरिक्त और कुछ न देखें। वे धर्मको विजयको छोड़कर और किसी प्रकारकी विजयको सच्ची विजय न समझें। ऐसी विजयका फल इहलोक तथा परलोक में होता है।" किन्तु काजको कथा निराली है । होरेशिमा द्वीपमें विपुल जनसंहार होते हुए भी अमेरिकाकी आंखों का खून नहीं उतरा और न वहाँ पश्चातापका ही उदय हुआ। पचात्ताप हो भी क्यों, किसके लिए ? आत्मा है क्या चीज ? जबतक श्वास है, तब तक ही जीवन है। जो अपने रंग तथा राष्ट्रीयताके हैं, उनका ही जीवन मूल्यवान् है, दूसरोंका जीवन तो बासपात के समान है । यह तत्वज्ञान कहो, या इस नशेके कारण बड़े राष्ट्र मानवता के मूल Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वसमस्याएं और जैनधर्म ३०५ तत्त्वोंका सनिक भी आदर करनेको तयार नहीं होते। जहाँ तक विवाद (lebatre) का प्रसंग है, वे मानवता, करुणा, विश्वप्रेमकी ऐसी मोहक चर्चा करेंगे, और अपने कामों में इतनी नैतिकता दिखावेंगे, कि नीति-विज्ञानके आचार्य भी फित होंगे, किन्तु अवसर पड़ने पर उनका आचरण उनके असली रूपको प्रकट कर देता है। रामायण में वर्णित बकराजने पम्पा सरोवर के समीप रामचन्द्रजी सदृश महापुरुषको अपने चरित्रके बारे मे भ्रमाविष्ट कर दिया था, और वे उसे परम धार्मिक सोचने लगे थे। पोछे उनका भ्रम दूर हुआ था, इसी प्रकार आधिभौतिक विज्ञानके द्वारा जगतकी विचित्र अवस्था हुई है । महाकवि कवरने बहुत क कहा है ___ "इल्मी तरक्कियोंसे जबां तो चमक गई। लेकिन मजबनके कोको गो ..." प्रख्यात वैज्ञानिक प्रो० एम० पोलाइमने बृटिश एसोसिएशन के समक्ष दिये गये अपने एक भाषणमें यह बात स्वीकार की है, कि यूरोपमें 'उन लोगोंका नेतृत्व है, जो हमें यह बात सिखलाते हैं, कि केवल भौतिक पदार्थ ही सत्य है।' इन भौतिकवादियों के द्वारा संचालित वार्मिक संस्थाओं में भी प्रायः कृत्रिमता, स्वार्थपोषण, स्ववर्गका श्रेष्ठत्व-स्थापन, कटप्रवृत्ति आदि विकृतियों का विशेष सद्भाव पाया जाता है । वे प्रायः अपने सदृश कृत्रिम तथा फूटवृत्तिके धारकोंको उपचवाफे आसनपर आसीन करते है, किन्तु जिनसे वयार्थ प्रकाश प्राप्त होता है, उनको ये अन्धकारमें रखते है। __ पन्त्रवादके विशेष प्रचार के कारण पहलेको अपेक्षा वस्तुओंकी उत्पत्ति अधिक विपुल परिमाणमें हो गई है, किन्तु फिर भी इस समुचिके मध्य गरीबीका कष्ट (Poverty and prosperity) बढ़ता ही जाता है। आजकी राजनीतिकी पास ही ऐसी विचित्र है, कि उसके आगे अपने स्वार्थ तथा मान (Prestige) पोषणके सिवाय अन्य नैतिक तत्त्वोंका कोई स्थान नहीं है । हजरत मसीहने जो यह वताया है कि "This world is a bridge, pass thou ovcr it, but build not upon it |' 'यह जगत् एक पुलके सदृश है। उसपर होकर तुम चले जाओ, इसपर मकान मत बांछो'-उसे विस्मृत करने में ही आजके सम्पन्न देश अपनेको कृतार्थ मान रहे हैं । धनसंचय करना ही इनका एकमात्र कार्य है । धन के द्वारा शान्ति प्राप्त करना असम्भव है । महर्षि गुलभत कहते है "रे धनेन्धनसंभार प्रक्षिप्याशाहताशने । ज्वलन्तं मन्यते भ्रान्तः शान्तं संधूक्षणे क्षणे ॥" आत्मानुशासम ८५ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जैनशासन 'अरे भाई, आशा-अग्निमें घनरूपी ईन्धन डालकर जलनेके अणमें प्रदीप्त देखते हुए भ्रमयश तुम उसे शान्त हुआ समझते हो।' भगवान् कुन्थुनामने चक्रवर्तीके महान् साम्नाज्यका परित्याग किया था, और वे विषय-मुखसे विमुख हुए थे। इस विषयमें स्वामी समन्तभद्र बड़ी महत्वपूर्ण बात बताते हैं "तृष्पाचिषः परिदहन्ति न शान्तिरासा मिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवृद्धिरेव । स्थित्यैव कायपरितापहरं निमित्तमित्यात्मवान्विषयसौख्पपराङ्मुखोऽभूत् ।।" -वृ० स्वयम्भू० ८२ । "तुष्णाग्नि जीवोंको सदा जलाती है | इन्द्रियोंके प्रिय भोगों के द्वारा इन ज्वालाओंको शान्ति न होकर वृद्धि होती है । मह बात कुन्युनाय स्वामीने अनुभव द्वारा निश्चित की, तब उन्होंने शरीरके संतापका निवारण करने में निमित्त रूप विषय-सुखों के प्रति विमुखवृत्ति अंगीकार की; कारण वे मात्मवान थे ।" आजके अध्यात्म दृष्टि शुन्य देश भोग और विषयोंकी आराधना करने में मग्न है। इसकी पूतिके निमित्त उन्हें कोई भी पाप या अनर्थ करनेमें तनिक भी संकोच नहीं होता । अपने और अपनोंके आरामके लिए घे सारे संसारको भी दुःखफे ज्वालामुस्लीमे भस्म होते देखकर आनन्दित रह सकते हैं । वे यह नही सोचते कि इस अन्धाराषनाका परिणाम कभी भी सुखद नहीं हुआ है । आत्माको संस्कृत बनाना (Soul Cuiture) उन्हें पसन्द नहीं है। उन्हें इसके लिए अवकाश नहीं है । स्व० रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक अमेरिकन से कहा था-"पाप लोगों के पास अवकाश नहीं है । कदाचित् है भी, तो आप उसका उचित उपयोग करना नहीं जानते । अपने जीवनकी दौड़में तुम इस वातको सोमने के लिए तनिक भी नहीं रुकते कि, तुम कहीं और किस लिए जा रहे हो। इसका यह फा निकला, कि तुम्हारी उस सत्यदर्शनकी शक्ति चली गई।" कारलाईल जैसा विद्वान् कहता है "Know thyself''-अपनी प्रास्माको जानो 'के स्थान में अब यह बात सोखो "Know thy work and do it"!. Rabindranatha Tagore said to me, "You Americans bave 10 leisure; or if you have, you know not how to use it. In the rush of your lives, you do not stop to consider, where you are rushing to nor whai is it all for. The result is that you have lost the vision of the Eternal." --Vide James Bisset Pratt-India & its Faiths p. 473. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म ३०७ अपने कामको जानो और उसे पूरा करो। अध्यात्मवादी यह कभी नहीं कहता कि अपने कर्तव्यपालन में प्रमाद करो । उसका यह कथन अवश्य है, कि शरीर के साथ आत्मा की भी सुधि लेते रहो। स्वामी (आत्मा) की चिन्ता न कर सेवक (शरीर) की गुलामी में ही अपनी शक्तिका व्यय करना उचित नहीं है। अधिक कार्यव्यस्त व्यक्ति से शान्त भावसे पूछ ३० ज करोगे ? शान्ति पूर्वक जीवन क्यों नहीं बिताते ? तो यह कहेगा, मुझे इसमें ही आनन्द मालूम पड़ता है। हाँ, यदि वह व्यक्ति अन्तःनिरीक्षण ( Introspection ) का अम्पास रखे, तो वह यह स्वीकार करेगा, कि कोल्हू के बैल के समान जीवन विवेकी मानवके लिए गौरवकी वस्तु नहीं कहा जा सकता । गोजीने अमेरिकाको एक महत्त्वपूर्ण सन्देश दिया था - "वह (अमेरिका) को उसके सिहासन या सख्तसे हटाकर ईश्वर के लिए थोड़ी जगह खाली करे ।" गान्धीजीने यह भी कहा, "मेरा खयाल है कि अमेरिकाका भविष्य उजला है । लेकिन अगर वह उनकी ही पूजा करता रहा, तो उसका भविष्य काला है ।" उनका यह वाक्य कितना सुन्दर है, "लोग चाहे जो कहें, धन आखिर तक किसीका सगा नहीं रहा । वह हमेशा बेबफा ( बेईमान ) दोस्त साबित हुआ है" - (हरिजन सेवक १०-११-४६, ३९९ ) । विश्वशान्ति स्थापन के विषय में गंभीर विचार करते हुए अरिस्टर चंपलराजीने अपनी पुस्तक "The Change of Heart" (P. 57 ) में लिखा है, कि वास्तविक शान्तिकी कामना करनेवाले जिनशासनभक्त तथा अन्य अल्प व्यक्ति है । शान्तिभंग करनेवाले अपरिमित संख्या वाले हैं उनमे से एक वर्ग (१) उन धर्मान्धों (Fanatics) का है, जो सोचते हैं कि अपने रक्तपातपूर्ण कार्यों द्वारा अपने ईश्वरको प्रसन्नताको प्राप्त करेंगे, और ईश्वर से क्षमा भी प्राप्त कर लेंगे। उस ईश्वर से बड़े-बड़े पुरस्कार पाने की इन भक्तों को आशा है । साम्प्रदायिक विद्वेषप्रज्वलित करनेवाले तथा अमानुषिक कृत्यों द्वारा इस भूतलपर नारकीय दृश्य उपस्थित करनेवाले इन मजहवी दीवानों द्वारा विश्व में यथार्थ ऐक्य तथा शान्तिका दर्शन दुर्लभ बन जाता है 1 इनके सिवाय दूसरा वर्ग ( २ ) शिकारीको भावना ( Hunter 's Spirit ) के नशेमें चूर है। वे दूसरों को संपत्ति मा भूमि-रक्षण में सहायता इसी बाधारपर देते हैं, कि तुम यह स्वीकार करो कि बल हो सच्चा है (Might in right) | तुम उनको बलशाली स्वीकार करो । उनको धारणा है कि संसारमें दुर्बल मनुष्योंका संहार करके ही वे योग्य बनते हैं । शान्ति के उपासकोंकी संख्या या प्रभाव इतना अल्प है, कि वे आजके कूटनीतिशोके छल-प्रपंचके विरुद्ध कुछ भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकते । पन Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जैनशासन और सत्ताके बलपर सत्यका द्वार प्रायः अवरुद्ध रहा करता है । वे सत्ताधीश शिकारी की मनोभावना वाले कहीं भी जाते हैं और दूसरोंकी दुर्बलताओं से लाभ उठा प्रजातन्त्र जनतन्त्र, साम्राज्यवाद, साम्यवाद आदि मोहक सिद्धान्तोंके नामपर स्वार्थ पोषण करते हैं ऐसी व्याघ्रवृत्ति वाले राष्ट्रों या उनके नेताओं कारण विश्वशान्तिपरिषद् League of Nations प्राय: विनोदजनक ही रही । गये-बड़े सम्मेलन पवित्र उद्देश्योंके संरक्षण तथा बृहत् मानवजातिमें बन्धुत्व स्थापनार्थ किये जाते हैं, किन्तु शिकारी भावना समन्वित प्रमुख पुरुषोंके प्रभाववश अंधेके रस्सी बॅटने और नकरी द्वारा बेटी रोके चरे जाने जैसी समस्या हुआ करती है । पश्चिम में विज्ञानने ईश्वरके अस्तित्वको मानने में अस्वीकृति व्यक्त की, जड़तत्त्वको ही सब कुछ बताया इस शिक्षणके कारण वहाँ धार्मिक उन्हों की यो समाप्ति हो गई, किन्तु धर्मान्धताके अन्त होनेका यह परिणाम नहीं हुआ, कि विशुद्ध धार्मिक दृष्टिवाले सत्पुरुषोंका विकास हुआ हो । विश्वविद्यालयोंकी शिक्षाने ऐसे मनाध्यात्मिक व्यक्तियोंकी नवीन सृष्टि की, जो अपना सानंद अस्तित्व तथा समृद्धिको चाहते हैं। इसमें बाधा आती हो, तो उसे निवारण करनेके लिए चे किसने भी मनुष्यों को यममन्दिर में भेजने को तैयार है। पशुओंको तो वे बेजबान होनेके कारण बेजान मानते हैं । वास्तव दृष्टिले देखा जाय तो आत्मतत्त्व अविनाशी हूँ | इसमे आदर्श की रक्षा करते हुए मृत्युके मुखमें प्रवेश करना कोई बुरा नहीं है। सोमवेवसूरि कहते हैं > "कण्ठगतैरपि प्राणैर्नाशुभं कर्म समाचरणीयं कुशलमतिभिः ||" -नी वा० ३७, २०१ उत्कृष्ट बुद्धिवाले व्यक्तियोंको कष्ठगत प्राण होनेपर भी निन्दनीय कार्य नहीं करना चाहिए । यह है भारतीय पवित्र भादर्श | जड़वादी प्राणरक्षा के नामपर जगत् भरके संहारको उद्यत होता है, तो आदर्शवादी आध्यात्मिक अपने ध्येयकी रक्षार्थ जीवनका भी मोह नहीं करता है। मोगासक्त संसारको महर्षि कुन्यकुन्छकी चेतावनी ध्यान में रखनी चाहिए। "एक्की करेदि पावं विसयनिमित्तेण तिष्यलोहेण रियतिरियेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥ १५ ॥ " - बारहअणुस्खा | यह जीव पांच इन्द्रियोंके विषयोंके अधीन हो तीव्र लालसापूर्वक पापोंको t अकेला करता है मोर 'अकेला' ही उनका फल भोगता है । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वसमस्याएं और जैनधर्म महाकवि वाल्मीकि अपने जीवन के पूर्व भागमें महान लुटेरा डाकू था। एक बार उसकी दृष्टि में उपरोक्त तत्व लाया गया, कि तुम्हारा इपतीसे प्राप्त धन सब कुटुम्बी सानम्म उपभोग करते है, किन्तु वे इस पापमें भागोदार नहीं होंगे; फल तुम्हें ही अकेले भोगना पड़ेगा। वाल्मीकि ने अपने कटुम्बमें जाकर परीक्षण किया, तो उसे ज्ञात हुआ, कि पापका बंटवारा करनेको माल उड़ानेवाले कुटुम्बी लोग तैयार नहीं है। इसने डाकू वाल्मीकिक हृदय-चन्नु खोल दिए और उसने डाकूका जीवन छोड़कर ऐसी सुन्दर जिन्दगी बना ली, कि अबतक जगत रामायणके रचयिताके रूपमे उस महाकविको स्मरण करता है ।। इस युगके साम्राज्यवादी, सिक्रेटर अथवा भिन्न-भिन्न राजनैतिक विचारधारा वालोंको भी यह नग्न सत्य हृदयंगम करना चाहिए, कि आज परिस्थिति अथवा विशेष साधनयश उनके हाथमें सत्ता है, बल है और इससे वे मनमाने हरमें शिकारीके समान दीन-होन, अशिक्षित अथवा असभ्य कहे जानेवाले मनुष्योंकी स्वतंत्रताका अपहरण करें, उनका धन अपहरण करें तथा उमको संस्कृतिको चौपट करें; किन्तु इन अनधोका दुष्परिणाम भोगना ही पड़ेगा। प्रकृतिका वह अबाधित नियम, 'at you sow, so you reap-जैसा बोओ, तैसा काटो' इस विषयमें तनिक भी रियायत न करेगा | कथित ईश्वरका हस्तक्षेप भी पापपसे न बचावेगा। वैज्ञानिक धर्म तो यही शिक्षा देता है, कि अपने भाग्यनिर्माणको शक्ति तुम्हारे हो हापमें है, अन्यका विश्वास करना भ्रमपूर्ण है । अभी तो राजनैतिक जगतके विधातागण अपने आपको सांस्य के पुरुष समान पवित्र समानते है और यह भी सोचते है, कि अपने राष्ट्रहिसके लिए जो कुछ भी कार्य करते हैं वह दोष उनसे लिप्त नहीं होता । जैसे प्रकृतिका किया गया समस्त कार्य पुरुषको बाधा नही पहुँचाता । यह महान् भ्रमजाल है। कर्तृत्व और मोक्सृत्य पृथक्पृषक नहीं है । कारण भुक्ति-क्रियाकतव हो तो भोक्तृत्व है । अगत्का अनुभव भी इस बातका समर्थन करता है 1 अनशासन सबको पुरुषार्थ और आत्मनिर्भरताकी पवित्र शिक्षा देता हुआ समझाता है, कि यदि तुमने दूसरों के साथ न्याय तथा उचित व्यवहार किया, तो इस पुण्याचरणसे तुम्हें विशेष शान्ति तथा आनन्द प्राप्त होगा । यदि तुमने दूसरोंके न्यायोचित स्वत्वोंका अपहरण किया, प्रभुताके मदमें आकर असमर्थों को पादाक्रान्त किया, तो तुम्हारा आगामी जीवन विपत्ति की घटासे घिरा हुआ रहेगा। इस आत्मनिर्भरताकी शिक्षाका प्रचार होना आवश्यक है । पदि प्रभुताके मद-मत्त व्यक्तिको समझमें यह आ गया, कि पशु-जगतुके नियमोंका हमें स्वागत Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जैनवासन नहीं करना चाहिए तो कल्याणका मार्ग प्रारंभ हो जायगा । ज्ञानवान् मानवका कर्तव्य है कि वह अपने जीवन की चिन्तनाके साथ अपने असमर्थ अथवा अज्ञानी बन्धुओंको बिना किसी भेद-भावके समुन्नत करनेका प्रयत्न करे । चालाकी, छल और प्रपंच करनेवाला स्वयं अपनी आत्माको धोखा देता है । अन्य धर्मगुरुओं के समान जनशासन इसना ही उपदेश देकर कुतकृत्य नहीं बनता है कि 'तुम्हें दूसरोंका उपकार करना चाहिए । बुरे कामका फल अच्छा नहीं होगा। जैनधर्म विज्ञान (Science) है, तब उसमें प्रत्येक बातका स्पष्ट तथा सुव्यवस्थित वर्णन जब है । उममें यह भी बताया है, कौनसे कार्य बुरे है, उनसे बचने का क्या उपाय है आदि । सत्य, शील, अस्तेयता, कल्प परिग्रह प्रेम । विश्व शांगि दोलोना लिन काल न लेम ।। आज जो पश्चिम में घनकी पूजा (Mammon-worship ) हो रही है, उसके स्थानमें वहां करुणा, सत्य, परिमित परिग्रहवृत्ति, अचौर्य, ब्रह्मचर्यकी मारा. घना होनी चाहिए। विद्याधन जैसे देनेसे बढ़ता है, इसे लेनेवाला और देनेवाला आनन्दका अनुभव करता है, इसी प्रकार करुणा और प्रेमका प्रसाद है। करुणाकी छायामें सब जीव मानन्दित होते हैं । दूसरे प्राणीको मारकर मांस खाना, शिकार, खेलना आदि करुणाके विघातक हैं। मांसाहार तो महापाप है। मांसाहारीकी करुणा या अहिंसा ऐसी ही मनोरंजक है, जैसे अन्धकारसे उज्ज्वल प्रकाश की प्रादुभूति होना । जब तक बड़े राष्ट्र या उनके भाग्यविधाता मांस-भक्षण, शिकार मद्यपान, व्यभिचार, आदि विकृतियोंसे अपनो और अपने देशकी रक्षा नहीं करते, तब तक उज्ज्वल भविष्यको कल्पना करना कठिन है । हिंसादि पापोंमें निमग्न व्यक्ति दूसरोंके दुःखोंके निवारणको सच्ची बात नहीं सोच पाता।' असात्त्विक आहारपान से पशुप्ताका विकास होता है सुखका सिन्धु कहाँ ही दिखाई पड़ता है, जहां करुणाकी मन्दाकिनी बहा करती है। कोई व्यक्ति तर्क कर सकता है कि आजके युग में उपरोक्त नैतिकताके विकासको चर्चा अर्थ है, कारण उसका पालन होना असम्भव है । ऐसी बासके समापानमें हम यह बताना चाहतं है, कि यदि कुछ समर्थ व्यक्ति अपने अन्स:कर पामें पवित्र भावोंके प्रसारकी गहरी प्रेरणा प्राप्त कर लें, तो असम्भव भी सम्भव हो सकता है। अकेले गान्धीजीने अपनी अन्तरात्माकी आवाजके अनुसार देशमें अहिंसात्मक उपायसे राजनैतिक जागरणका कार्य जठाया था, आज स्वतंत्र १. प्रदीपो भक्ष्यते ध्वान्तं फज्जलं च प्रसूपते । या भक्ष्यते मन्नं तादृशी आयते मतिः ।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म भारतवर्ष तथा विश्ष भी यह अनुभव करता है, कि उस पक्सिने देशमें कितनी शक्ति और चेतना उत्पन्न की । आवश्यकता है जीवन उत्सर्ग करनेवाले सम्चे, सहृदय, विचारशील सत्पुरुषों की । पवित्र जीवन के प्रभावसे पशु-जगत्में भी नसगिक क्रूरता आदि नहीं रहने पाती, तब तो यहाँ मनुष्योंके उद्धारको बात है, जो असंभव नहीं कहीं जा सकती 1 आज ओ दुनियामें रंगभेद, राष्ट्रभेद आदिकृत विषमताओंका उदय है, वह अल्पकालमें दूर हो सकता है, यदि समर्थ मानवसंसारमें ऋषिवर उमास्वामीकी इस शिक्षाका प्रसार हो सके। पूंजीवादको समस्या भी सुला सकती है, यदि सम्पत्तिशालियोंके हृदयमं यह बात जम जाय कि---"पहारम्भपरिपहरवं नारकायायुष:"-'बहुत आरम्भ और परिग्रहके कारण नरकका जीवन मिलता है।' इससे अर्थको ही भगवान मान भजन करनेवालों को पना भविष्य जान कर जीवन-परिवर्तन की बाल हृदय में उदिप्त होगी । “अस्पारस्परिपहत्वं मानुषस्य" --'घोड़ा प्रारम्भ और घोड़ा परिग्रह मनुष्यायुका कारण है।' छल प्रपत्रके जगत में निरन्तर विचरण करनेवाले राजनीतियों को आचार्य बताते हैं-"माया तैर्यायोमास्य'-'मायाघारके द्वारा पशुका जीवन प्राप्त होता है ।' कूटनीतिज्ञ सपने षडयन्त्रों को बहुत छिपाया करते है, इस आदत के फलस्वरूप पक्ष-जीवन मिलता है, जहाँ जीव अपने दुःख-सुखके भावोंको वाणी के द्वारा व्यक्त करनेमें असमर्थ होता है । इतनी अधिक छिपानेकी शक्ति बढ़ती है। पविनाचरण, जितेन्द्रियता, संयम (Self Control) के द्वारा सुरस्वकी उपलब्धि होती है। आचार्य उमास्वामीके कथनसे यह स्पष्ट होता है, कि आज पाप-पंको निमम्न प्राणी अपनी अमर आत्माको नीच पर्याय में ले जाता है, जहां दुःख ही दुःख है। आज जो वर्गकी ष्ठता, (Racc-Superiority) अथवा रंगभेद (Colour Distinction) की ओटमें अभिमान और घृणाके बीज दिखते है, उसका फल सूत्रकार बताते हैं-- 'परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचंर्गोत्रस्य ॥" -त. सू० ६.२५ दसरेकी निन्दा, अपनी प्रशंसा करना, दुसरेके विद्यमान गुणोंको डांकना और अपने झूठे गुणोंका प्रकट करना इन कार्योके द्वारा यह जीव निन्दनीय तथा तिरस्कारपूर्ण अवस्थाको प्राप्त करता है। आज जो अनंक राष्ट्रोंमें घृणा, जातिमत अहंकार आदि विकार समा गये है वे उन राष्ट्रोंका इतना भीषण विनाश करेंगे, जितना लाखों अशुन मका प्रयोग भी १. 'आरंभ' हिंसन कार्यको कहते है । 'परिग्रह' ममत्वभावको कहते हैं । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जैनशासन नहीं करेगा । आत्मगत दोषोंके द्वारा जीव हरे पतन है, कि जहांसे विकासका मार्ग ही गणनातीत कालके लिए रुक जाता है । साक्षी सफलता मद मस्त हो आश्रित व्यक्तियों और देशोंको अपने मनके अनुसार नचाता है, उन्हें कष्ट पहुँचाता है। उनका चिरस्थायी नैतिक पत्तन हो, इस उद्देश्यसे वह उन्हें पापपूर्ण व्यसनोंमें फँसाता है और कहता है कि हम क्या करें, इन्होंने स्वयं पापों को आमंत्रित किया है। ऐसे घूतके चरित्रपर सोमदेवसूरि प्रकाश डालते हुए कहते है "स्वव्यस नतर्पणाय धूतैर्दुरोहितवृत्तयः क्रियन्ते श्रीमन्तः ! -नी० वा० ३८, २० 'भूतं लोग अपनी आपत्ति के निवारणार्थं श्रीमानों को पापमार्ग में आसक्त कराते हैं ।" किसी राष्ट्रको दीन हीन दुःखी बना शोषणनीति द्वारा विषय-विला. सिता में मग्न होने वालोंको यह सूत्र प्रकाश प्रदान करता है, कि दूसरोंको दुःखी करनेसे, शोकाकुल करनेसे तथा उनके प्राणघात आदिसे यह जीव अपने लिए विपत्तिका बीज बोता है"दुःखशोकतापाक्रन्दनवध परिदेव नान्यात्म परोभयस्थानान्यसद्वेद्यस्य " ० सू० ६, ११ "दुष्प्रणीतो हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वविद्वेषं करोति ॥ ६११०४ | 'काम, क्रोध अथवा अज्ञानवश दण्डका अनुचित प्रयोग सर्वत्र विद्वेषके भावको उत्पन्न करता है । जहाँ परस्पर सद्भावना, सहानुभूति, सच्चा प्रेमका निर्झर न बहे, वहाँ तो एक प्रकारसे नरकका राज्य समझना चाहिए। समाज या राष्ट्रके भाग्यविधाताका कर्तव्य है कि यह जनताकी अधोमुखी वृत्तियोंपर नियंत्रण रखें और उसमें सद्भावनाओंका प्रकाश फैलाने तथा मेघमाला के समान अमृतवर्षा करके इस भूतलको सर्वप्रकारसे संपन्न और समृद्ध करे। शोषण में प्रवीण वर्गको सोचना चाहिए कि इस अस्थायी मनुष्य जोवनमें अधिक धनकी तृष्णा द्वारा हमारा कल्याण नहीं है, कारण मरने के बाद कुछ भी साथ नहीं जाता। अतः अपने आश्रितजनों को कमसे कम जीवनकी आवश्यक सामग्री अवश्य प्राप्त कराना चाहिए। सच्चा आनन्द केवल अपना पेट भरने में नहीं है, बल्कि अपने आश्रित सभी लोग सुखी हों, और उन्हें कोई कष्ट नहीं है, ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेमें है । अनशास्त्रकारोंने कहा है, जो गृहस्थ दान नहीं देता है, उसका घर श्मशान तुल्य है | यदि शक्ति त्याग (दान) का तत्त्व धनिकों के अन्तःकरणमें प्रतिष्ठित हो जाय, तो अर्थदान् और अर्थविहीनोंका संघर्ष दूर होकर मधुर सम्बन्धोंकी स्थापना हो सकती है। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरुसम्याएँ और फेर ३१३ इस जोवनसंग्राम में सदा अपराजित जीवन रहे, इसलिए योग्य गृहस्थ उन वीरोंकी कुछ समय तक एक चित्त हो, वंदना तथा गुणानुचितन करता हैं, जिन्होंने भौतिक दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त की है, साथ ही काम, क्रोध, लोभ, मान, मोहादि रिपुओं को भी पराजित किया है। इस आदर्शको आराधनासे आत्मा मुग्ध नहीं बनता है। दान देनेसे सहानुभूति तथा सहयोगका सच्चा भाव राजम रह समाजको मंगलमय बनाता है। तीव्र स्वार्थ भावना पतनको और प्रेरणा करती है । हृदय में वदि प्राणीमात्रके प्रति "समता सर्वभूतेषु" की भावना प्रतिष्ठित हो जाय, तो आन्तरिक साम्यकी अवस्थिति में बलपूर्वक स्थापित किये गये कृत्रिम साम्यवादकी ओर कौन झुकेगा ? आजके युगमे सहयोग, परस्पर सहायता, सहानुभूति, ऐक्य, उदारता, प्रेम, प्रामाणिकता, संतोष, स्पष्टवादिता, तो निर्भीकता, स्वस्त्रीसन्तोष, संत्रम सदृश सद्गुणोंकी यदि अभिवृद्धि हो जाय, faraमें बहुत विषमता तथा विवाद उत्पन्न करनेवाले विवादोंका अवसान हुए बिना न रहे। राज्य शासनकी कोई भी पति हो, उसके प्रवृत्तिका पोषण होता है, तो वह श्रेष्ठ है। शासन पद्धति साध्य नहीं, है । साध्य है शान्ति, समृद्धि तथा मनुष्य जीवनकी सफलता । उन्नति के लिए विविध धर्मग्रन्थ अहिंसा, सत्य, शील आदिका उल्लेख मात्र करते हैं, किन्तु वे यह स्पष्टतया नहीं बताते कि इन सिद्धान्तोंका सम्यक् परिपालन किस प्रकार सम्भव है ? भीतर यदि पूर्वोक्त सावन जैनशासन में इस बातका पूर्णतया स्पष्ट विवेचन किया गया है, कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरियह वृत्तिका पोषण करनेकी चर्यां किस प्रकार है और किस प्रकारकी प्रवृत्तिसे इसका विनाश होता है। गृहस्थ अवस्था में कमसे कम कितनी प्रवृति करे और किस क्रमिक विकासपूर्ण पद्धतिसे आगे बड़े ? महान् साधक श्रमणके पदको प्राप्त कर कैसे चर्या करे ? जैन भाषार ग्रन्थों में इस विषयपर विशद विवेचन किया गया है। उदाहरणार्थ अपरिग्रह व्रतको देखिये । साधारण गृहस्थका कर्त्तव्य है कि अपनी आवश्यकतानुसार धनधान्य, वर्तन, वस्त्र, मकानादिको मर्यादा बांधकर शेष पदार्थोके प्रति किसी प्रकारका ममत्व या तृष्णा न करे उसका ममस्य मर्यादित पदार्थों तक हो सीमित हो जाता है। इस व्रतको निर्दोष पालने के लिए पांच अतीचारों दोषों का त्याग आवश्यक है। इस विषयके महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रत्नकरंड श्रावकाचार में स्वामी समन्तभद्र कहते हैं "अतिवाहनातिसंग्रहृविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विपाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ ६२ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जैनशासन प्रयोजनसे अधिक सवारी रखना, आवश्यक पदार्थीका अधिक संग्रह करना, दूसरेके वैभवको देखकर विस्मय धारण करना। इससे यह व्यक्त होता है, कि धन दौलतके प्रति तुम्हारे हृदयमें मोह है । बहुत लोभ करना, बहुत भार लादना ये पाँच अतीचार-दोष परिग्रहपरिमाणवतो कहे गये हैं। इरा परिग्रहपरिमाणवतके स्वरूप में यह बताया है कि अपनी आवश्यकता तथा मनोवृत्तिके अनुसार धन, धान्यादिकी मर्यादा बांध लेनेसे चित्त लालचके रोगसे मुक्त हो जाता है। मर्यादाकं बाहरफी संपत्तिके बार में "सतोषिकेषु निस्पृहता का भाव रखना आवश्यक कहा है। अहिंसा के विषय मे बताया है कि वह प्राथमिक साधक यह प्रतिज्ञा करे कि मैं संकल्प पूर्वक मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत. कारित, अनुमोदना द्वारा किसो भो प्रस जीव (mobile creature) का प्राप्तधात न करूगा, तब उसे स्थूल हिंसाका त्यागी कहेंगे । इम परिभाषासे पंस भक्षण, शिकार खेलना भादिका त्याग इस अहिंसकके लिए अनिवार्य है ! उसक पंच अतीचार इस प्रकार कहे गये हैं, १ अंगोंको छंदना, २ दुर्भावपूर्वक बांधना, ३ पीड़ा देना, ४ बहुत बोझा लादना, ५ आहार देने में त्रुटि करमा वा आहार न देना । इनके त्याग द्वारा अहिंसात्मक दृष्टिका पोषण होता है । रत्नकर४श्रा व काचार, सामारधर्मामृत आदि ग्रन्थोंसे यह विषय स्पष्टतया तथा व्यवस्थित रूपसे समझा जा सकता है । इस विषयका प्रतिपावन पूर्णत या मनोवैज्ञानिक है । जैनियों में जो अहिंसात्मक नत्ति का यथाशक्ति पालन है, उसका कारण वैज्ञानिक शैलीसे प्रकाश डालने वाले सत्साहित्यका स्वाध्याय, प्रभाव तथा प्रचार है। इन अहिंसा आदि व्रतों के श्रेष्ठ आराधक दिगम्बर जैन महामुनि आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज से मैंने एक बार पूछा था--"महाराज, इस युगमें उम्नति तथा शान्तिका उपाय क्या है ?" आचार्य महाराजने जी समाधान किया था, यथार्थ में विश्व की विकट समस्याक्षोंका सरल सुधार उसोमें निहित है। महाराजने कहा-'बिना पाप और पापतिका त्याग किये, न व्यक्तिका सुधार हो सकता है, न समाजका, न राष्ट्रका, और न विश्वका । जिस जिस जीवने हिंसा, छ, छोरी, कुशील तथा अधिक तृष्णाका यथाशक्ति परित्याग किया है, उसका स्तना कल्याण हुआ है । जिन्होंने हिंसादि पापोंकी बोर. प्रवृत्ति की है, वे दुःखी हए है। वास्तवमें जगत्का मच्चा कल्याण आचार्य महाराजके कयनानुसार "पाप तथा पापबुद्धिके परित्यागमें हैं।" महर्षि कुम्बकुम्वका कितना पवित्र उपदेश है "जिणक्यणमोसहमिणं विसयसुहविरेयण अमियभूयं । जरमरणवाहिहरणं स्वयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥"-दर्शनप्राभूत Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म 'जिम भगवान्को वाणो परमौषधि रूप है । यह विषय सुखफा त्याग करावी है । यह अमत रूप है। मरा-मरण, व्याधिको दूर करती है तथा सर्व दुःखोंका क्षय करती है।' यह जिनेन्द्र दाणी शिक्षक संपत्ति है। प्रत्येक व्यक्ति की यह अधिकार है, कि इस अभयप्रद अमृतवपिणी जिनवाणीके रसास्वादन द्वारा अपने जीवनको मंगलमय बनावे ! यह वीतरागका शासन पहले समस्त भारतमें वन्दनीय था। यह राष्ट्रधर्म रह चुका है। सांप्रदायिक संकटों तथा बन्धिोंके लोमहर्षण करनेवाले अत्याचारों के कारण इसके आराधकोंकी संख्या कम हुई । इन अस्याचारों के कारण और स्वरूपपर प्रकाश डालना आवश्यक नहीं प्रतीत होता। आज विज्ञान प्रभाकरके प्रवाशके कारण जो सांप्रदायिकताका अन्धकार म्यून हा है, उससे इस पवित्र विशाके प्रसारको पूर्ण अनुकूलता प्रतीत होती है । जिनवाणोकी महत्ताको हृदयंगम करने वाले व्यक्तियोंका कर्तव्य है कि इस आत्मोद्वारक तत्त्वज्ञानके रसास्वादन द्वारा अपने जीवनको प्रभावित करें, और जगतको भी इस ओर आकर्षित करें, ताकि सभी लोग अपना सच्चा पल्याण कर सके। इस कार्य में निराशाके लिए स्थान नहीं है । सत्कार्योंका प्रयत्न सतत चलता रहना चाहिए। जितने जीवोंको सम्यक्ज्ञानको ज्योति प्राप्ति होगी. उतना ही महान् लाभ है। कम से कम 'बयः पन्नवतोजत्येव"-प्रयत्न करनेवालोंका तो अवश्य कल्याण है । हमें संगठित होकर संसारके प्रांगण में यह कहना चाहिए जिनवाणी सुधा-सम जानिके नित पीजो धीधारी। १. आंघचरितम्, Indian Antiquary, Saletore's Medieval jainism, Dr. Von Glasenapp's Jaininus, Smith's History of India, आदि पुस्तकोंसे इस बातका परिज्ञाम हो सकता है। २. ''आत्मा प्रभावनीयः रत्नत्रयतजसा सततमेव । दानतपोजिमपूजाविधातिशयपत्र जिनधर्मः ।"-पु. सि० श्लोक ३० । -रत्नत्रयके तेज द्वारा अपनी आत्माको प्रभावित करे तथा दान, तपश्चर्या, जिनेन्द्रदेवको पूजा एवं विद्याकी लोकोत्तरताके द्वारा जिनशासनके प्रभावको जगत्में फैलाबै । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनशासन कल्याणपथ जबसे भारतने महिमात्मक संग्राम द्वारा स्वातंत्र्य प्राप्त किया है, सबसे सर्वत्र अहिंसाके महत्त्वकी महिमा लाई गाली है । सीमा शिसार अवस्थित जैन विचारखोलीमे जगत् मार्ग-प्रदर्शन प्राप्त करना चाहता है । विश्वके अप्रतिम विद्वान् जाज बर्नाडशा जैन तत्वज्ञानपर अत्यन्त अनुरवत हो गये थे। जैन-अहिंसाके आदेशको शिरोधार्य कर 'शा' महाशय निरामिष भोजीका जीवन व्यतीत करते थे। उन्होंने श्री देवदास गांधीमें कहा था, कि "जैनधर्मके सिद्धान्त मुझे अत्यन्त प्रिय है। मेरी आकांक्षा है, कि मृत्यूके पश्चात् मैं जैन परिवार में जन्म धारण करूं।" जैन विचारोंका गांधीजी के जीवनपर गहरा प्रभाव रहा है। उनकी अहिंसात्मक साधनाके प्रति अपूर्व निष्काको देम्स, पश्चिमके बड़े-बड़े विद्वान् गांधीजीको जनधर्मका अनुयायी मानसे रहे हैं। सी० एफ० एण्ड महाशमने एक बार बताया था, कि जद राष्ट्र के पध-प्रदर्शन में वापुका मार्ग तिमिर-तिरोहित बन जाता था, और वे आत्मप्रकाशके लिए लम्बे-लाचे उपवासोंका माश्रय लेते थे, उस समय व प्राय. जैतशास्त्रों के मम्मक् अनशीलनमें निरत देखे जाते थे, जिसके प्रसादसे वे अपनी अहिंसात्मक साधनाके क्षेत्रमें सफलतापूर्वक उत्तीर्ण होते रहे हैं। अपने असहयोग-आन्दोलनको भारम्भ करने के कुछ समय पूर्व महावीर जयतीके समारंभका अध्यक्ष बन बापून अन्नमदाबादमें कहा था, "जैनधर्म अपने अहिंसा-सिद्धान्तके कारण विश्व-धर्म होनेके पूर्णतया उपयुक्त है ।" सन् १९४७ एशिया महासम्मेलन के सदस्योंके समक्ष प्रकाण्ड विद्वान् मा कालिदास माग पूर्व मंत्री रायल एशियाटिक सोसाइटी बंगालने बड़े महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किये १. "His parents were the followers of the Jain school......p.9; Before leaving India his mother made him take the three vows of Jain, which prescribe abstention from wine, meat and sexual intercourse. p. 11, Vide "Mahatma Gandhi by Roman Rolland," AM. K. Gandhi's mother was under Jain influence"p. 101 vida George Catlin's book on "In the path of Mahatma Gandhi." Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ ३१७ थे, कि 'आजकी राजनीति संरक्षणात्मक नियमोंने पूर्णतया पृथक् होकर मानवजाति ध्वंसकी धमकी दे रही है। हम कुछ वर्गों या युगों पर्या और बोखा दे सकते हैं, किंतु हम इतिहास के निर्मम निर्णय से नहीं बच सकते हैं। अनेक महान राष्ट्र राज्य तथा साम्राज्य पराजित हो चुके अथवा वे पुरातन विनष्ट वस्तुओंकी श्रेणी मे समाविष्ट हो गये हैं । यदि हम यह आशा करते हैं तथा चाहते हैं कि हमारा विनाश न हो और हम मानव-सभ्यता के समुदायको कुछ समर्पण करें, तो हमें जैन महापुरुषोंसे सहमत होना होगा और अपने अस्तित्व हेतु महिलाको अपना मौलिक सिद्धान्त स्वीकार करना होगा ।" देखा है इस प्रसंग में भारतीयत गणतंत्र शासन के माननीय अध्यक्ष डा० राजेप्रसादजी द्वारा २४ जनवरी सन् १९४९ को दिया गया सन्देश वडा उद्घोषक है कि " जैनधर्म संसारको महिलाकी शिक्षा दी है। किसी दूसरे धर्म अहिंसाकी मर्यादा यहाँ तक नहीं पहुंचाई। आज संसारको अहिमा की आवश्यकता महसूस हो रही है, क्योंकि उसने हिंसाके नग्न-ताण्डव को और आप लोग डर रहे हैं, क्योंकि हिंसा के साधन आज इतने बढ़ते जा जा रहे हैं, कि युद्धमें किसीके जीतने या हारनेकी बात होती, जितनी किसी देश या जाति के सभी लोगोंको केवल निस्सहाय बना देने की ही नहीं, पर जीवनके मामूली सामानसे भी वंचित कर देनेकी होती है ।" इसलिए वे कहते हैं, रहे हैं और इतने उम्र होते इतने महत्वकी नहीं "जिन्होंने अहिसा मर्मको समझा है वे हो इस अंधकारमें कोई रास्ता निकाल सकते हैं" । राजेन्द्रबारे ये शब्द बड़े विचारपूर्ण हैं, "नियोंका मान मनुष्य समाज के प्रति सबसे बड़ा कर्तव्य यह है कि यह इसपर ध्यान के और कोई रास्ता यूँ निकालें।" १. “Politics totally divorced from the laws of survival is threatening man-kind with utter extinction. We may go an bluffing for a few years or decades more, but we cannot escape the relentless verdict of the history. Many great nations, kingdoms and empires have already vanished or have encumbered the gallery of dead antiquities. But if we hope and aspire to continue and to contribute to the stock of human civilization, we must agree with the Jain pioneers and accept non-violence as the basic principle of our existence." "International University of Non-violence, An Appeal" P. 3. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाता प्रमुख पुरुषोंके ऐसे आंतरिक उद्गारोंसे यह बात स्पष्ट हो जाती है, कि मानवताके परित्राणार्थ भगवती अहिंसाकी प्रशान्त छायाका आश्रय लिए बिना अब कल्याण नहीं है । वास्तविक सुख, शाश्वतिक शान्ति और समृद्धिका उपाय करतापूर्ण प्रवृत्तिका परित्याग करने में है । वैज्ञानिक आविष्कारीक प्रसादस हजारा मीलकी दूरीपर अवस्थित देश अब हमारे गड़ोसी सदृश हो गये है। और हमार सुख-दुःखकी समस्याएं एक दुसरेके सुख-मुःखसे सम्बन्धित और निकटवतिना बनता जा रही हैं 1 एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्रमे पूर्णतया पृथक् रहकर अध अपना अदभुत आलाप छेड़ते नहीं रह सकता है । ऐसी परिस्थिति में हमें सब नल्याणकी,-दूसरे शब्दों में जिसे मायका मागं कहेंगे, और दष्टि देनी होगी। इस सत्रावयम सब जीयोंका सर्वकालीन तथा सर्वांगीण उदय अर्थात विकास विद्यमान होगा। 'सक शब्द का अमिधेय 'जोवमात्र' के स्थान में केवल 'मानव समाज' मानना ऐसा ही संकीर्णता और स्वार्थ भावपूर्ण होगा, जैसा ईसाके 'Thou siait not ki' इस वचनका 'जीववध निषेधके' स्थानमै केवल 'मनुष्य यध निषेध' किया जाना। करीम १७०० वर्ष पूर्व जैनाचार्य समन्तभद्रन भगवान महावीरके अहिंसात्मक शासनको 'सर्वोदय तीर्थ' शब्द द्वारा संकीर्तित किया था। यह मर्वोदय तीर्थ स्ववे अविनाशी होते हुए भी राव विपत्तियोंका विनाशक है । इस अहिंसात्मक तीर्थम अपार सामथ्यका कारण यह है कि उसे अनन्त शक्तिके भण्डार लेजाज आहाका बल प्राप्त होता है; जिसके समक्ष संसारका केन्द्रित पमबल नगण्य बन जाता है । आज क्रूरताका वारुणी पीकर मछित और मरणासन्न संसारको वीतराग प्रकी करुणारस सिक्त संजीवनी के सेवनकी अत्यन्त मायश्यकता है। हिंसात्मक मागस प्राप्त अभ्युदय और समृद्धि वर्षाकालीन क्षुद्र जन्तुओंके जीवन सदश अल्पकाल तक ही टिकती है और शीघ्र ही विनष्ट हो जाती है। करुणामय मा अबलम्ब नसे शीन जयश्री प्राप्त होती है। इस सम्बन्ध में महाकवि शेक्सपियरका यह कथन बड़ा महत्वपूर्ण है कि २'जब किसी साम्राज्यको प्राप्ति के लिए क्रूरतापूर्ण और करुणामय उपायोंका आश्रय लिया जाय, तब ज्ञात होगा, कि माताका मार्ग खीन ही विजय प्रदान कराता है।" इस युग में हम गणनातीत नकली वस्तुओंको देखते है. इसी प्रकार आज यथार्थ दयाके देवताके स्थान में मक्कारीपूर्ण कृत्रिम अहिंसाको देखते हैं, जिसका अन्तःकरण हिंसात्मक, पाप पुंज प्रसारणाओंका कीड़ामल है। एसे अद्भुत १. "सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तदेव । युक्त्यनुशासन (६२) 2. "When lenity and cruelty play for a kinom, the gentler gamister is the soonest winner-King enry V. Act II, CVI. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ ३१५ अहिंसावादी मधुर-पद-विन्यास में प्रवीण, सुन्दर पक्ष सुसज्जित प्रियभाषी मयूरके समान मनोज्ञ मालूम पड़ते हैं, किन्तु स्वेष्ट सामग्री के समक्ष आते ही, इनकी हिसन वृत्तिका विश्वको दर्शन हो जाता हूँ। ऐसी प्रवृत्ति क्या कभी मधुर फलकी प्राप्ति हो सकती है ? कहते हैं, 'किसीने एक वृक्ष के लहलहाते हुए सुनहरी रंगके पुष्पोंपर मुग्ध हो उस वृक्ष की इस आशा से आराधना आरंभ की, कि फल कालम वह रत्नराशिको प्राप्त करेगा, किन्तु अन्त में उन-उन ध्वनि देनेवाले फलोंकी उपलब्धि उसका दिया। इस वृद्धि वालोंकी उनको चित्तवृत्तिके अनुसार महिलाकी अदभुत रूप-रेखाको देखकर, ataण भविष्यका विश्वास होता है । हिंसा गर्भिणी नीतिको उदरसे उत्पन्न होनेबाली विपत्तिमालिके द्वारा faraht शाचनीय स्थिति दिवेको व्यक्तियोंको जागृत करती है । 1 कहते हैं, इस युगका धर्म समाज सेवा है, और मानवताकी आराधना हो वास्तविक ईश्वरोपासना है । इस विषय में यदि सूक्ष्म दृष्टिसे चिन्तन किया जाय, तो विदित होगा कि यथार्थ मानवता केवल वाणीकी वस्तु बन गई है और उसका अन्तःकरण से तनिक भी स्पर्श नहीं है। पं० जवाहरलाल नेहरूको स्पष्टोक्ति महत्त्वपूर्ण है कि " भाजके जगत्ने बहुत कुछ उपलब्धि की है. किन्तु उसने उद् घोषित मानवता के प्रेमके स्थानमें घृणा और हिंसाको अधिक अपनाया है तथा मानव बनानेवाले सद्गुणोंको स्थान नहीं दिया है।" विशेषकर ऐसा उशहरण को मिलेगा कि जब जापानियति युद्धकालमें अंग्रेजों के बड़े जहाज 'रिपल्स'और 'प्रिंस आफ वेल्प' डुबाये थे, तब एक प्रमुख अंग्रेजको उन जहाजांके डूबनेका उतना परिताप नहीं था, जितना कि उस कार्य में जापानियोंका योग कारण था। उसने कहा था, कदाचित् पीतांग जापानियों के स्थान में तांग जर्मनों द्वारा य ध्वंस कार्य होता, तो कहीं अच्छा था । ऐसे संकीणं, स्वार्थी एवं जघन्य भावनापूर्ण अन्तःकरणमें मानवता का जन्म कैसे सम्भव हो सकता है ? १. "सुवर्णसदृणं पुष्प फलं रत्न भविष्यति । आश्या रोग्य वृक्षः फलकाले दण्डनायते ।। " 2. "The world of today has achieved much but for all its decl. ared love for humanity it has based itself far more on hatred and violence than on the virtues that make man human." -Discovery of India P. 687. . "An Englishman occupying a high position said that he would have preferred if the Prince of Wales and the Repulse had been sunk by the Germans, instead of by the yellow Japanese."-Ibid, p. 544. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जैनशासन आजकी दुर्दशाका कारण अस्टिस शुगमन्वरलाल जैनी इन मार्मिक साब्दों द्वारा व्यक्त करते हैं, १. 'जड़वादके राक्षसने युद्ध और सम्पत्तिके रूपमें जगत्को इस जोरसे जकड़ लिया है, कि लोगान अपनी वास्तविकताको भुला दिया है और वे अपनी अर्ध जागृत चेतनामें स्वयंको 'आत्मा' अनुभव न कर केवल 'मंत्र' समसते हैं"। इस प्रकारकी विवेकपूर्ण वाणीकी विस्मृतिक कारण विश्वको महायुद्धोंमें अपनी बहुत कुछ बहुमूल्य आहुति अर्पण करनी पड़ी। तास्विक बात तो यह है, कि हिंसात्मक जीवन के लिए जगत् को कुछ त्याग कुछ समर्पण रूप मूल्य चुकाना होगा । जबतक विषय-लोलुपतासे मुख नहीं मोड़ा आयगा, तबसक कल्याणके मन्दिरमें प्रवेश नहीं हो सकेगा। आदर्शचरित्र मानव वासनाओंको प्रगामांजलि अर्पित करनेके स्थान में उनके साथ युद्ध छेड़कर अपने आश्मश्चलको जगाता हुआ जयशील होता है । वह आत्माको अमरतापर विश्वास धारण करता हुआ पुण्यजीवन के रक्षार्थ प्राणोत्सर्ग करनेसे भी मुस्ख नहीं मोड़ता है । सत्पुरुष सुकरात ने अपने जीवनको संकटाकुल भले ही बना लिया और प्राण परित्याग किया, किन्तु जीवनको ममतावश अनीतिका मार्ग नहीं ग्रहण किया । अपने स्नेही, साथी कीटोसे वह वाहता है, कि आदर्श रक्षणके आगे जीवन कोई वस्तु नहीं । कर्तव्य पालन करते हुए मुत्युकी गोद में सो जाना श्रेयस्कर है। ये शन्द कितने मर्मस्पर्शीं है, "हमें केवल जीवन व्यतीत करनेको अधिक मूल्यवान नहीं मानना चाहिए, बल्कि बादर्श जीवनको बहुमूल्य जानना चाहिए।" आजका आदर्शच्युत मानव अपनी स्वार्थ-साधनाको प्रमुख जान विषयान्ध बनता जा रहा है । ऐसा विकास, जिसका अंतस्तल रोगाक्रान्त है, भले ही बाहरसे मोहक तथा स्वस्थता दिखे, किंतु न जाने किस क्षण हृदय-स्पंदन रुक आनेसे चिनाशका उग्र रूप धारण कर इस जीवको चिर पश्चात्तापकी अग्निमें जलाये। स्वतन्त्र भारतने अशोकके धर्मचक्रको राज्यचिह्न बनाया है। यदि उस धर्म चक्रकी मर्यादाका ध्यान रखकर हमारे राष्ट्रनायक कार्य करें, तो यथार्थमें देश अपराजित और संशोक बनेगा। धर्मचक्र प्रगति और पुण्य प्रवृत्तियोंका सुन्दर प्रतीक है। इसके मंगलमय संदेशको हृदयंगम करते हुए भारतीय शासन अन्य { "The monster of materialism has got such a grip of the world in the form of mars, and mammon, that men have so for forgotten their reality and that they sub-consciously believe the mselves to be more machines instead of souls." R. "We should set the highest value, not on living but on living -Trial and Death of Socrates. well." Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ ३२१ राष्ट्रों नमःणमें समा रहको सहन सकता है: चक्र करुणापूर्ण शासनका अंग है। धर्मको विश्वमान्य व्याख्या करुणाका भाव ही तो है। गभित्तामणि में लिखा है-- "दया-मूलो भवेद्धर्मो दया प्राणानुकम्पनम् ।" । धर्म दयामूलक है तथा जीवधारियोंपर अनुकम्पाका भाव रखना दया है। स्वामी समन्तभनने चक्रवर्ती तीर्थकर शान्तिनाथ भगवान्के धर्मवकको 'बयारोषितिधर्मचकम्"-करुणाकी किरणोंसे संयुक्त धर्मचक्र कहा है। नवमी सदीके महाकवि जिमसेनने जैनधर्मके प्रथम तीर्थकर भगवान् वृषभदेवको प्रणामांजलि अर्पित करते हुए लिखा है कि "वे श्रीसमन्वित, संपूर्ण ज्ञान साम्राज्य के अधिपति, धर्मचक्रके धारक एवं भव-भयका भंजन करनेवाले है।" इस चक्रको 'सर्व-सौख्यप्रदायो' कहा गया है। अझिा विद्याकी ज्योति द्वारा विश्वको आलोकित करनेवाले वृषभनाथ आदि महावीर पर्यन्त चोवीस तीर्थंकरोंका बोध करानेवाले चौबीस बारे अशोकचक्रमे पाये जाते हैं । यह बात विश्वफे इतिहासदेत्ता जानते है, कि अहिला महाविद्याका निर्दोष प्रकाश जैन तीर्थंकरोंसे प्राप्त होता रहा है । आइने अकबरी आदिसे ज्ञात होता है कि अशोकके जीवनका प्रारंभ काल जैनन्त्रम से सम्बन्धित रहा है। भारतके प्रधान मन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरून अमेरिकावाभियोंको राष्ट्रध्वजका स्वरूप समताते हुए कहा था कि यह चक्र उन्नति और धर्म मार्गपर चलनेके आह्वानको धोतित करता है । भारतकी आकांक्षा है कि वह चक्र द्वारा प्रकाशित आदर्शका अनुगमन करे ।' यदि भारत राष्ट्र धर्मचक्र के गौरवके अनुरूप प्रवृत्ति करने लगे, तो एक नवीन मंगलमय जगतका निर्माण होगा, जहाँ शक्ति, संपत्ति, समृद्धि तथा संपूर्ण उज्ज्वल कलाओंका पुण्य समागम होगा । अब तक लोकनायकों तथा ग्राम-पुरवासियों द्वारा करुणा कल्पलताके मूल में प्रेम, त्याग, शील, सत्य, संयम, अकिंचनता माविका जल न पढ्ढेचंगा, तब तक सुवास संपन्न आनन्द रूप सुमनोंकी कैसे उपलब्धि होगी? जब तक हम जोबदयाके कार्यक्रम को महत्वपूर्ण मान उस और शक्ति नहीं लगाते, तब तक पापचक्रको अनुगामिनी विपदाएँ दूर नहीं होंगी। महापुराणकार जिनसेन स्वामीका कथन है, कि धर्मप्रिय सम्राट भरसके शासनमें सभी प्रभाजन पुग्प परित्र बन गये थे, कारण शासक का पदानुसरण 1, Thic Chakra signifies progress and a call to tread the path of righteousness. India wished to follow the ideal symbolised by the wheel." -Speech at Vancouver (America) vidc Statesman, 6-11-49. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जेनशासन शासित वर्ग किया करता है । इस सदाचरणके प्रसादसे मर्वत्र समृद्धि और आनंद का प्रमार था। कविका यह कथन विशेष अर्थपूर्ण है कि सुकाल और सुराज्यवाले राजामें बड़ा निकट सम्बन्ध है ।' भारतीय शासकोंमें महाराज कुमारपाल बड़े समर्ष और लोकोपकारी नरेश हो गये हैं, जिनके प्रश्रयमे साहित्य और कलाका मड़ा विकास हुआ । कुमारपाल प्रतिबोध से ज्ञात होता है कि महाराज कुमारपाल अपने अन्तःकरणको द्वादश अनुप्रंक्षाओ-सद्भावनाओंसे विमल बनाते हुए अनासक्तिपूर्वक राज्यका कार्य करते थे। मामादिक सेवन में प्रवृद्धि हुई है । सोमदेव सुरिने कहा है"यत्स्यात्प्रमादयोगेन प्राणिषु प्राणहायनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिया तु सतां मता ||"-यशस्तिलक । अगावधानी अथवा रागद्वेषादिके अधीन होकर जो जीवधारियोंका प्राणहरण किया जाता है, वह हिरा है। उन जीवोंका रक्षण करना अहिंसा है । ससारमै हिसाकी महत्ताको सभी वम स्वीकार करते है। भुरालिम बादशाह अकबरने मांसाहारका परित्याग कर दिया था, 'जानवरोंको मारकर नमके मांसभक्षण द्वारा अपने पेटको पशुओंका कब्रस्तान मत बनाओ' । जिन्होंने पशु बलिदान को धर्मका अंग मान लिया है, उनके हृदय में यह बात प्रतिष्ठित करनी है कि बंदारे दीन-हीन प्राणियोंके प्राणहरणस भी कहीं कल्याण हो सकता है ? यथार्थम अपनी पशुतापूर्ण चित्त वृत्तिका बलिदान करने से और करूणाके भावको जगानेस जगज्जननीकी परितृप्ति कही जा सकती है। एसी कोन जननी होगी, जो अपनी संतति रूप जीवधारियोंके रक्त और मोससे आनंदित होगी ? जबसक विश्व वपन्यके जनक कर्म के बंधमें कारण हृदयको हिसात्मक विचारोंसे धोकर निर्मल नहीं किया जायगा, तब तक वाह्य प्रयत्लासे सौख्यकी सृष्टि स्वप्न साम्राज्य सदृश सुखकर समझो जायगी । प्रत्येकके हृदय मींदामें दयाके देवताकी मंगलमय आराधना जब तक नहीं होगी, सब तक निराकुल और निरापद सुखकी साधन-सामग्री नहीं प्राप्त हो सकती। अन्तःकरणका घाव बाहरी मरहम पट्टीसे जैसे आराम नहीं हो सकता है, वैसे ही क्रूरतापूर्ण त्ति के कारण ओ जीव पापाचरण जानकर या बिना जाने करता है, उसका परिमार्जन किए बिना. विश्वशान्तिकी बातों आदिसे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। 'अहो रूपम्, महो ध्वनि:' के आदर्श पर पारस्परिक गौरव के आदान-प्रदान द्वारा भी जगनती जटिल समस्याएं १. 'सुकालश्व सुराजा च वर्ष सन्निहित द्वयम् ।। -महापुराण ४१, १९ । २. "इय बारह भाव मुणिविराय, मगमति वियभिव-भवविरा। रज्जु वि कुणतु चितइ इमाउ, परिहरिवि कुगइकारण पसाउ ।।" Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ ३२३ नहीं सुलझ सकती है । शहरी सोडा, साबुन आदि द्रश्योंमे वस्त्रको मलिनता दूर की जाती है, किन्तु हृदयकी मलिनताको घोने के लिए करुणाके 'अमृत-सर में गहरी डुबको लगाए बिना अन्य उपाय नहीं है। यदि इनके हृदय में बापूके प्रति मपता और अद्धाका भाव है, तो क्यों नहीं उनके करुणा प्रसारके पुण्य कार्यमें आगे आते है ? कलकत्तकै कालोमन्दिरमें देषीके आगे रक्सको वंतरिणी देखकर गाँघोजी की आत्मा आकुलित हो गई थी, और उनका करुणापूर्ण अन्तःकरण रो पड़ा था । अपनी अन्तबदनाको व्यक्त करते हुए बापू अपनी आत्मकथाम लिखते हैं कि "'जब हम मन्दिर में पहुंचे, तब खूनकी बहती हुई नदीसे हमारा स्वागत हुआ। यह दृश्य में नहीं देख सका 1 मैं बेचन और म्याकुल हो गया । मैं उस दृश्यको भी नहीं विस्मृत कर सकता हूं। मुझे बुद्धदेष को कथा याद आई। किन्तु मुझे वह कार्य मेरी सामर्थ्य के परे प्रतीत हुआ । मेरे विचार जो पहले थे, वे आज भी उसी प्रकार है। मेरी अनवरत यही प्रार्थना है, कि इस भूतल पर ऐसी महान् आत्माका नर अथवा नारोके रूपमें आविर्भाव हो, जो मन्दिरको हिसा बन्द करके उसे पवित्र कर सके । यह बड़ी विचित्र बात है, कि इतना विज्ञ, बुद्धिमात्, त्यागी तथा भावुक वंग-प्रान्त इरा बलिदानको सहन करता है ? धर्म नाम पर कालीके समक्ष किया जानेवाला भीषण जीववध देखकर मेरे हृदयमें वंगाकिनो जीवनको यातले की सनापूस नई "महाजीफे पूर्वोक्त उद्गारोंसे यह स्पष्ट है कि वे जीवघ और खासकर धर्मक नाम पर बलिदान देखकर वर्णनातीत ज्ययाको अनुभव करते थे, किन्तु देशव परतंत्र होनेके कारण वे अपनी सीमित-सामर्यसे भी अपरिचित न थे, इसीसे वे अपने परमाराध्य परमेश्वर से प्रार्थना कर समर्थ करणाके प्रसारमें उद्यत आत्माके आविर्भावकी भाकांक्षा करते थे । सौभाग्यकी बात है, कि आजका शासन सूत्र 1. "We passed on to the temple. Ile were greeted by rivers of blood. I could st bcar to stand there. I was exasperated and restless. I have never forgotten that sight ...... I thought of the story o! BUDDHA but I also saw thal the task was beyond my capacity: 1 hald today the same opuion as I held then, it is my constant prayer that there may be born on earth some great spirit' man or wernan, who will......purify the temple. How is it that Bengal with all iis kuowledge, irtelligence sacrifice and emotion tolerates this salighter: Tlie terrible sacrifice offered to Kali in the name of religion enhanced my desire to know Bengal life. -Vide-Gandhiji's Autobiography, Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ जैनशासन उन लोगोंके हाथमें हैं जो बापू परम भक्त है। जिस दिशामें सूर्यका उदय होता है, उसे 'पूर्व' नाम से पुकारा जाता है उसी प्रकार जिस व्यक्ति, समाज मा राष्ट्र में हिंसा की प्रतिष्ठा होती है, वहाँ हो सुखके हेतु पवित्र धर्मका वास होता है। एक दिन जैनधर्माचार्य श्री शान्तिसागर महाराजसे मैंने जैन तीर्थ गजपंथामें पूछा था कि आजकल विपद्ग्रस्त मानवता के लिए भारतीय शासनको आप कल्याणका क्या मार्ग बतायेंगे ? आचार्यश्रीने कहा, लोगों को जैन शास्त्रों में वर्णित रामचन्द्र, पांडवों आदिका चरित्र पढना चाहिये कि उन महापुरुषोंने अपने जीवन में किस प्रकार धर्मकी रक्षा की और न्यायपूर्वक प्रजाका पालन किया। आचार्यश्रीने यह भी कहा, "सज्जनों का रक्षण करना और दुर्जनोंका दात करना यह रात है। राजाको सच्चे धर्मका लोप नहीं करना चाहिये और न मिथ्या मार्ग का पोषण हो करना चाहिए। हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीसेवन तथा अतिलोभ इन पंच पापों के करने वाले दंडनीय हैं, ऐसा करनेसे राम-राज्य होगा । पुष्दकी भी प्राप्ति होगी । हिंसा आदि पापही धर्म तथा अन्याय है। गृहस्थ इन पापों का स्थूल रूपसे त्याग करता है। सत्य बोलने वालेको डंड देना और झूठ बोलनेवालोंका पक्ष करना अनोति है" उन्होंने यह महत्वको बात कहो, राजा पर यदि कोई आक्रमण करे, तो उसे हटानेको राजाको प्रति आक्रमण करना होगा । ऐसी विरोधी हिंसाका त्यागी गृहस्य नहीं है। शासकका धर्म हूँ कि वह निरपराधी जीवोंकी रक्षा करे, शिकार खेलना बन्द करावे, देवताओंके लिए किये जाने वाले बलिदानको रोके । दारू, मांसादिका सेवन बन्द करावे । परस्त्री अपहरणकर्ताको कड़ा दंड दे जुआ, मांस, सुरा, वेश्या, आखेट, चोरी, परांगना इन साठ भ्यसनोंका सेवन महापाप है। इनकी प्रवृत्ति रोकना चाहिए। ये अनर्थकं काम समझानेसे बन्द नहीं होंगे। राज्य नियमको लोग डरते है । अतः कानूनके द्वारा पापका प्रचार रोकना चाहिये । जीवों को सुमार्ग पर लगाना अत्याचार नहीं है । ऐसा करने से सर्वत्र शान्तिका प्रादुर्भाव होया ।" जिनकी अद्भुत अहिंसा केवल मनुष्ययातको हो हिंसा घोषित करती है और जो पशुओं प्राणहरणको दोषास्पद नहीं मानते हैं, उनको दृष्टिको उन्मीलित करते हुए विश्वकक्षि रवीन्द्रबाबू कहते हैं, "हमारे देशमें जो धर्मका आदर्श है, वह हृदयकी चीज हैं। बाहरी घेरे में रहने की नहीं है। हम यदि Sanctity of life जीवनकी महत्ताको एक बार स्वीकार करते हैं तो फिर पशु-पक्षी, कीट, पतंग आदि किसपर इसकी हद्द नहीं बांध लेते हैं। हम लोगोंके धर्मकी रचना स्वार्थ के स्थान में स्वाभाविक नियमने ली है। धर्मके नियमने ही स्वार्थको संयत रखने की चेष्टा की हूँ । " जिस अन्तःकरण में जीव दमाका पवित्र भाव जग गया, वह सभी प्राणियों को अपनी करुणा द्वारा सुखी करनेका उद्योग करेगा । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ करुणाका भाव अविभक्त रहता है। जहां आत्मीयों के प्रति स्नेह और दूसरोंके प्रति विद्वेषका भाव रहता है, वहां पवित्र महिसाकं सिवाय अन्य भानवाचित सद्गुणोंकी भी मृत्यू हो जाती है। अतएक जीवन में सामजस्य, स्थिरता और सात्विकताको अवस्थिति के लिए करणामूलक प्रवृत्तियोंका जागरण जरूरी है। भोगासकृव्यक्ति Sanctity of knife चाकू के प्रयोग को पवित्र सानता हुआ दया से दूर हो रहा है। कहते हैं, अमेरिकाके राष्ट्रपति एक समय आवश्यक कार्यसे भव्यभूषायुक्त होकर शाही सवारीपर जा रहे थे, कि मार्ग में एक वराहको पंकमें निमग्न देखा और यह सोचा कि यदि इसकी तत्काल सहायता नहीं की गई, सो यह मर जायगा. अतः करुणापूर्ण हृदयकी प्रेरणासे वे उसी समय कीसदमें घुस गए और उस दुःखी जीवके प्राणोंका रक्षण किया । लोगों ने उनसे पूछा कि ऐसा उन्होंने स्वयं क्यों किया, दूसरेको आशा देकर भी वे यह कार्य कर सकते थे? उन्होंने उत्तर दिया कि उस प्राणीको छटपटाते देख मेरे हृदय में बड़ी वेदना हुई, अतः मैं दूसरेका सहारा लेने के विषयमें विचार तफ न कर सका और तुरन्त प्राण बचाने के कार्य में निरत हो गया । वास्तव में जहां सच्ची अहिंसाकी जागृति होती है, वहां मनुष्य अमनुष्यका भेद नहीं किया जाता है । इस करुणाके कार्य से मनुष्यको अनुपम आनन्द प्राप्त होता है। करुणाकी निधिको जगदको कितना ही दो, इससे दातारमें कोई भी कमी नहीं आती, प्रत्युत वह महान् आत्मीक शक्तिका संग्रह करते जाता है । वेदान्तीको भाषामें जैसे सर्वत्र मह्मका वास कहा जाता है, इस शैलीसे यदि सत्य तत्त्वका निरूपण किया जाय, तो कहना होगा, सर्व उन्नतिकारी प्रवृत्तियों में अहिंसाका अस्तित्व अवश्यंभायी है। __ जितने अंशमें अहिंसा महाविद्या का अधिवास है, उतने अंशमें ही वास्तविक विकास और सुख है। 'अमृतत्वका कारण अहिंसा है, और हिंसा मृत्यु और सर्वनाशका द्वार है। गीतामें कहा है-कल्याणपुर्ण कार्य करनेवाला दुर्गतिको नहीं प्राप्त करता है। आज कल्याण करने की उपदेशपूर्ण वाणी सर्वत्र सुनी जाती है, किन्तु आवश्यकता है पुण्याचरणको १ पथप्रदर्शक लोग प्रायः असंयम और प्रसारणापूर्ण प्रवृत्ति करते है, इससे उनकी वाणी का जगत्के हृदयपर कोई भी असर नहीं पड़ता है। थी चंपतराय जनमे इसीलिए यह महत्त्वपूर्ण बात लिखी थी, कि "आज कमणा और १. "अमृतन्य हेतुभूत अहिंसा-रसायनम् ।" -अमृतचर सूरि । २. 'न हि फल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तात गच्छति ।" - गीता । . Mercy and pity are altogether unknown or only meant to mask hypocricy and vice under their cloaks." -Eng. Jain Gaz. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जैनशासन दयाका पता नहीं है । उनको ओटमें तो कपट और दुराचारको छुपाया जाता है।" जैनशासन कहता है, यदि तुम हिंसादि पापोंमें मग्न रहे आए, तो न तो नेता लोग तुम्हें बचा सकेंगे और न दूसरे तुम्हलायेंगे में कारण हम दुःखी हो रहे हैं। भोग और वैभवको परमार्थ सत्य माननेवाले यह सोचते हैं कि जनताका जीवन स्तर (Standard of living) जितना अधिक बड़ा होगा, उतनी ही अधिक शान्ति और समृद्धि होगी। यह एक मधुर तथा मोहक भ्रम है। इसे तो सभी मानेंगे कि जीवनको आवश्यक वस्तुओं से कोई भी व्यक्ति वंचित न रहे, किन्तु विलासितावर्द्धक एवं आमोद-प्रमोदप्रद पदार्थोंके fear ही बात उपयुक्त योजना कल्याणकारी न होगा ? भारतीय दृष्टि से तो वास्तविक सहिमाका उद्भव तब प्रारम्भ होता है, जब व्यक्ति या समाज यथाशक्ति अपनी रावश्यकताओं तथा भोगकी सामग्रीको मर्या दिल करते हुए क्रमशः उनको भी चटाते जाते हैं। हसीमे विश्वके अमर्यादित वैभवका अभिपति चक्रवर्ती, दिगम्बर श्रमणको महात् मान, अपनी प्रणामांजलि अर्पित करते हुए उनको चरण-रजसे अपने को कृतार्थ सोच यह आकांक्षा करता है, कि आत्मा जागृतिका सूर्य उदित होकर मेरी भोग-तंत्रताको निबिड़-निशाको दूर करे। जैनशासन में दिगम्बर गुरु, दिगम्बर मूर्तिको माराधनाका यही अंतस्तत्व है। चैत्रथभते अपने 'अर्थशास्त्र' में कितनी सुन्दर बात लिखी है, ""प्रत्येक व्यक्तिको सभी सेव्य पदार्थोंकी प्राप्ति हो सके, अर्थात् उसकी इच्छानुसार उसका जीवन स्तर बना दिया जाय, यह संभव नहीं हूँ। हो | यदि सभी लोग जैन सदृश होते तो यह संभव था, कारण भारतीयोंके जैन नामक वर्ग में अपनी गौतिक आका क्षात्रको संयत करना तथा उनका विरोध करना पाया जाता है। दूसरा उपाय यह होगा कि यदि दिव्य लोकसे बहुधा तथा विपुल मात्रामें भोग्य पदार्थ आते 1. "But it is quite impossible to provide every body with an many consumer's goods, that is with as high standard of living as he would like. If all persons were like Jains-members of an Indian sect, who try to subdue and extinguish their physical desires, it might be done, If consumer's goods descended frequently and in abundance from the heavens, it might be done. As things are it cannot be done." -Economics by Ferderic Bentham p. 8. Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ जायें, तो काम बन जाय; किन्तु वस्तुस्थितिको दृष्टि पयमें रखते हुए ऐसा नहीं किया जा सकता है। अतएव आजके भोग प्रचुर जगत्को जीवन-नौकाको विपत्तिकी भंवरसे बचाने के लिए अपरिग्रहाद' रा संयत-मनोवृत्ति रूप उज्ज्वल आलोक-स्तंभ (Light House} की आवश्यकता है। परिग्रहको द्धि आत्माको दबाते हुए इस जीवको गतप्राणसा बना देती है। इसीसे आवार्य नेपिचंद्र सिद्धान्त पक्रवर्तीने 'मुच्छा परिगहो' परिग्रहको मूच्र्छा बताया है। लौकिक मूमि बेहोशीके कारण बाह्म घस्तुओंका उचित भाव नहीं रहता है इसी प्रकार हम अलोकिक मूच में बाह्य वस्तुओंका हो भान रहता है, किन्तु नित्य तथा आनंदके सिंधु अपनी बात्माको पूर्णतया विस्मति होती है । आमकी मूठित-मानवताको अपरि_प्रह्वादको संजीवनी सेवन कराना आवश्यक है । अमर्यादित होवन स्तर बढ़ाने क्या कभी भी तृप्सिकी उपलब्धि हो सकी है ? परिग्रहवादके शिखरपर समासीन ___ अमेरिकाक जीवनका सम्यक् परिशीलन करनेवाले विद्वान रा० कुमार स्वामीने लिखा था 'स्नान टच, रेडियो, रिफिजेरेटर नादि मानन्दप्रद पदार्थों की अपेक्षा जीवन विशेष महत्वपूर्ण है ! मुझे तो यह प्रतीत होता है, कि जीवन-स्तर जितना सहा होता है, संस्कृति उतनी ही अल्प होती है । ऐसा कैसे ? पचास प्रतिशतसे अधिक अमेरिकन लोगोंमें ऐसे मिलेंगे, जिन्होंने अपने जीवन में कोई ग्रन्थ हो नहीं खरीदा हो; और उनका ही जीवन-स्तर सारे विश्व में सबसे ऊंचा है। साक्षरता शिक्षा नहीं है और शिक्षा संस्कृति नहीं है । समृद्ध कहे जानेवाले देश बास्तविक शान्ति तथा आनन्दसे वंचित है, अमेरिकामे आधी संख्या अनिद्रा रोगसे पीडित है। आत्मघात बढ़ रहा है। गठिया, बहमूत्रादि रोग प्रवर्धमान है। पेट के अल्सर के मरीज दूसरों एक पाये जाते है। अपराष वृद्धिंगत हो रहे हैं । अमेरिकासे भागत हिप्पी कहते हैं इभ सुखी नहीं हैं। इन वैभवसे पान्ति नहीं मिलती ( Tirthankar Mahavirn : life & Phie losophy) P. A, VII ___t. Life is larger than tath-tubs, radios and refrigerators, I am afraid the higher the standard of living, the lower the culture, Why; more than fifty percent or Americans have never bought a book in their life time and the Americans have the highest standard of living in the world. Literacy is not edication and education is not culture," -Vedanta Keshri Oct. 47, p. 234, Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जेनशासन समृद्ध और मुखी भारतके भाग्य विधाता चंद्रगुप्त मौर्यके प्रधान सचिध चाणक्यके प्रभाव और शक्तिको कौन नहीं जानता, किन्तु कवि विशाखपतके शब्दोंमें उस महान व्यक्तिका निवास स्थान एक साधारणसी झोपड़ी थी 1 उसकी दीवाले जीणं थीं । अर्थके प्रति निस्पृह व्यघितयोंकी बुद्धिमें ही मानवताके विकासको मंगल-ज्योति दिखाई पड़ती है । मोहिनो भूति घाली आधुनिक सम्पताको कठोर शब्दोंमें आलोचना करते हुए विश्व संस्कृतिका भविष्य' निबन्ध रा० राधाकृष्णन् कहते है, "माधुनिक सम्यता आर्थिक बर्बरताकी मंजिलपर है। वह तो अधिकांश रूपमें संसार और अधिकार के पीछे दौड़ रही है । और आत्मा तथा उसकी पूर्णताको ओर ध्यान देनेको परवाह नहीं करती है। आजकी व्यस्तता वेगगति और नैतिक विकास इतना अवकाश ही नहीं देती कि मालिका स्तरित पिकासका काम कर सके।" वे यह भी लिखते है कि हम अपरेको सम्प इसलिए नहीं कह सकते कि, आधुनिक वैज्ञानिक वायुयान, रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन और हाइपराइटर काम में लाते हैं । बंदरको साइकिल चलाना, गिलासमें पानी पीना और तम्बाखूका पाइप पीना सिखा दिया जा सकता है, फिर वह रहेगा बंदर ही । शल्पिक निपुणताका नैतिक विकाससे बहुत कम सम्बन्ध है ।" अतः सच्चे कल्याणको दृष्टिमे आवश्यक है कि फाल्पनिक सम्पसाके घाल-शिखर पर समासोन जगत्का नपा उतारा जाय और यह तत्त्व समझाया जाय, कि सच्ची सम्यताका जागरण सदाचरण, अहिंसात्मक वृत्ति तथा संतोषपूर्ण जीवनसे होता है ।' 'सदय हृदय हुए' बिमा मनुष्य यथार्थमें नररूपधारी राक्षस ही बन जाता है । मानवताका पथ राक्ष सी जीवनके पूर्ण परिवर्तन करने में हैं। जहाँ तक पुण्याचरणका सम्बन्ध है, वहां तक यह कहना होगा कि शासक और शासितोंको संयम और सदाचार का समान रूपसे परिपालन करना आवश्यक है। शासकको अन्यायका पक्षपाती न होकर न्याय, सत्य, कणाका वादक होना चाहिए । पापियों की दिखनेवालो उन्नति सुरचाप सदृा अल्पकाल में ही विनष्ट होनेवाली है। डा० : इकपालका पश्चिमको भोग चतुर सभ्यता के प्रति कितना सुन्दर और सत्य कथन है१. "उपलशकलमेतभेदक गोमयानां वटुभिरुपहताना बहिषां स्तूपमैतत् । शरणमपि समिद्भिः मुथ्यमाणाभिरभि विनमितपटलान्तं दृश्यते जोर्णकुडयम् ।।"-मुद्राराक्षस अक ४, १५ । २. “विश्वभित्र" दीपावली अंक, २१-१७-४९, -१६ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ "तुम्हारी सहजीव अपने खंजरसे आपही खुदकुशी करेंगी। जो शास्त्रे नाजुक पे आशियाना बना नापायादार होगा ।।" जिस प्रकार घमंचन के प्रेमी सम्राट अशोकने सत्य, अहिंसा, शील, सदाचार आदि पुण्य प्रवृत्तियोंके प्रचारमे अपने सम्पूर्ण परिवार तथा शासन शक्सिको लगाकर देशमें नूतन जीवन ज्योति जगा दी थी, उसी प्रकार यदि हमारा भारतशासन हिंसाके विश्व युद्ध बोलकर 'दया पर दैवतम् की सर्वत्र प्रतिष्ठा स्थापित करने के उद्योग में लग जाय, तो भारत यथार्थ में अशोक सुखी और अपराजित बनकर जगत्को समृद्ध करने में सच्ची सहायता दे सकता है। महावीर, बुद्ध, राम, कृष्ण, ईसा, भूसा, नानक, जरदस्त आदि प्रमुख भारतीय धर्मोके महापुरुषों के जन्म दिनोंको बेषाम अहिंसा दिवस घोषित कराकर जनतामें सस्प और अहिंसाके पुण्यभाय भरनेका कार्य सहज हो हमारे शासक कर सकते हैं । संपूर्ण विश्वका अहिंसाकी ओर ध्यान खींचने के लिए यादे एक "अंतर्राष्ट्रीय वधुत्व' दिन मनानेका राष्ट्रसंघके द्वारा कार्य किया जाय, तो महज ही कार्य मन सकता है। राष्ट्रसंघका सांस्कृतिक विभाग इस सम्बन्ध महत्त्वपूर्ण सेवा कर सकता है। आज जो आर्थिक संकट है उसके सुधार हेतु किन्हीं की धारणा है, कि औद्योगिक उरकान्ति के कारण जो सम्पत्तिका एक जगह पुंजीकरण प्रारंभ हुआ, उसकी चिकित्सा है संपत्तिको समाजको वस्तु बनाया जाय, ताकि सभी समाम रूपसे उसका लाभ ले सकें। इस प्रक्रिया में अतिरेकवादका दोष विद्यमान है। जमधर्मका अपरिग्रहवाब इसको दवा है । यह ठीक है, कि धन संपन्न वर्गको अपनेको धनका ट्रस्टी सरीखा समन अनावश्यक द्रव्यको लोकहितमें लगाना चाहिए । इसीसे कविने कहा है कि 'महान् पुरुष मेघके समान द्रव्य-जलका संग्रह करके अगत् हितार्थ उसका पुनः परित्याग करते हैं।' जैन आचार्योंने गृहस्थके आवश्यक दैनिक कार्यो में त्यागको परिगणना की है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है, कि बल के द्वारा किसी के संगृहीत अर्थको समाजको सम्पत्ति मान छीन लिया जाय । द्रव्यमा सम्यक उपयोग न करनेवालोंका उन्मूलन करने के स्थान में उनका समुचित सुघार उचित है। दूसरे पदार्थ प्रायः पर्वतमालाके समाद मनोरम मालूम पड़ते हैं। इसी प्रकार विविध वादोंसे समाकुल रूस आदि देश सुखी और समृद्ध बताए जाते हैं, किन्तु उनके अंतस्तत्त्वसे परिचित लोग कहते हैं, कि वहां आतंकवादका 'मारूवाध' निरन्तर बजता है । रूसमें पांच वर्षतक बन्दी रहनेवाले पोलेण्डके एक उच्च सेनानायनाने 'ग्लोब' के संवाददातासे कोलंबोसे आस्ट्रेलिया जाते समय कहा था, कि रूसकी सरकार यस्तुतः Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शासन प्रजातंत्रपर नहीं, आतंकवादपर अधिष्ठित है। रूसियोंको यह नही ज्ञात है कि वाहरकी दुनिया में क्या हो रहा है। वे अनेक प्रकारकी परतवताओंकी सुनहरी सांकलोंसे जकड़े हुए है। जो भी हो, भारतवर्षका कल्याण पश्चिमकी अन्धआराधनामें नहीं है। इसकी आधिक समस्याका सुन्दर सुधार गांधीजीकी विचारपूर्ण योजनाओं के सम्यक विकासमें विद्यमान है । यथार्ष में जीवदया, सत्य, अचौर्य मादि सबृत्तियोंका सम्यक् परिरक्षण करते हुए जो भी देशी विदेशी लोकोपयोगी उपाय चा. योजनाएं का उनका अभिनन्दन करने में कोई बुराई नहीं है। हां, जिस योजना द्वारा हिंसा आदिका पुण्य ज्योति कोण हा, यह कमी भी स्वागत करने योग्य नहीं है। __ आर्थिक समस्याके सुधारके लिए पश्चिमी प्रक्रियाको भयावह बताते हुए पाचा पान्तिसागर महाराजने कहा था, "पूर्वभवमें दया, दान, तपादिके द्वारा इस जन्म में धन वैभव प्राप्त होता है । हिंसा दि पांच पापोंके आचरण से जीप पापी होता है, और यह पापके सदयसे दुःख पाता है। पापी और पुण्यात्माको समान करना अन्याय है। सबको समान बनाने पर व्यसनोंकी वृद्धि होगी। पापी जोदको धन मिलने पर वह पाप कर्मों में अधिक लिप्त होगा।" माचार्य श्रीन यह भी कहा कि "सरजन शासके गरीबोंके उद्धारका उपाय करता है। हृष्ट पुष्ट जीविका विहीन गरीमोंको वह योग्य इन्धों में लगाता है । अतिवृक्ष, अंगहीन, असमर्थ दोनोंका रक्षण करता है।" मारतीय संस्कृति अन्यन्त पुरातन है। अगणित परिवर्तनों और प्रान्तियों के मध्यम भी उसके द्वारा जगतको अभम और आमन्द प्राप्त हुआ है । अतः भारतमें उत्पन्न विषम समस्याओं का उपचार भारतीय सन्तोंके द्वारा चिर परीक्षित करुणामूलक तथा त्याम-रामपित योजनाओंका अंगीकार करना है। जिस शैलीपर गुलाबका पोषण होता है, उस पद्धति द्वारा कमलका विकास नहीं होता, इसी प्रकार भौतिकवादके उपासक पपिचमकी समस्याओं का उपाय आध्यात्मिकताफे भाराधक मारतके लिए अपाय तथा आपत्तिप्रद होगा 1 भारतोद्वारकी अनेक योजमाओंमें जीवघातको भी, पश्चिमकी पद्धतिपर लपयुक्त माना जाने लगा है, यह बात परिणाममें भमंगलको प्रदान करेगी। अहिंसानुप्राणित प्रवृत्तियों के द्वारा ही वास्तविक कल्याण होगा। जो जो सामाजिक, सौकिक, रास्नैतिक आर्थिक समस्याएं मूलतः हिंसामयी है, उनके द्वारा शाश्वप्तिक अभ्युदयको उपलब्धि कभी भी नहीं हो सकती है। जैन तीर्थकरोंने अपनी महान साधनाके द्वारा यह सत्व प्राप्त किया कि आत्माका पोषण वस्तुतः सब ही होगा, जब कि यह अपनी लालसाओं और दासनाओंकी अमर्यादित वृद्धि को रोककर व्यसनाओंपर नियन्त्रण करेगा । भोग और विषयोंको मोहनी धूलिसे अपने ज्ञान चक्षुओंका रक्षण करना चाहिए। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणपथ 331 जिस अन्तःकरणमें इस जगत्की क्षणिकता प्रतिष्ठित रहेगी, वह मानव अपथ में प्रवृति नहीं करेगा। ऐसे मात्मवान्' पुरुषाधियोंके सभी काम मंगलमय विश्वनिर्माण में सहायक होते हैं / अस्वस्थ. प्रतारित और पीड़ित मानवताका कल्याण प्राणी मात्र के प्रति धन्धुत्वका व्यवहार और पुण्याचरण करने में है / इसके द्वारा समन्तभद्र संसारका निमणि हो सकता है / महाबीर भगवान् ने कहा है 'धम्म यरह सपा, पावं दूरेण परिहरह। 1. सदा धर्मका पालन करो और पापका पूर्ण परित्याग कसे /