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________________ कम सिद्धान्त १७३ लिखा है कि 'जब जगत्में अनर्थ और पापका प्रवाह प्रचुर परिमाणमें बहने लगता है तब मानव-समाजमसे हो कोई विशिष्ट व्यक्ति अपनी बास्माको विकसित कर तथा समुन्नत बनाकर तीर्थकर परमात्मा बनता है और विश्वहितप्रद उपदेश दे प्राणियोंका उद्धार करता है।" अवतारवादमें परमात्माको साधारण मानवके घरानलघर लखारा जाता है, जब कि जैनदृष्टिमें साधारण मनुष्यको विकसित कर प्रबुद्ध महामानवके पदपर प्रतिष्ठित करा उस पुण्य मूर्ति के द्वारा सार्वधर्मकी देशना बताई गई है। इस प्रसंगमें यह भी बता देना उचित जंचता है कि साधु, उपाध्याय, आचार्य, अरिहन्त और सिद्ध इन पंच परमेष्ठो नामसे पूज्य माने जानेवाले आत्माओंमें रत्नत्रयधर्म के विकासको होनाषिकताको अपेक्षा भिन्नता स्वीकार को जातो है । वीतरागताका विकाम जिन-जिन आत्माओंमें जितना जितना होता जाता है, उसनी-उतनी आत्मामें पूज्यताकी वृद्धि होती जाती है। परिग्रहका त्याग किये बिना पूजनताका प्रादुर्भाव नहीं होता 1 इस वीतराग दृष्टिके कारण ही जिनेन्द्र भगवान्को शान्त ज्यानमग्न मूर्तियोंमें अस्त्र-शस्त्र, आभूषण आदिका अमाव पाते हैं । इस सम्बन्धमें कविवर भूषरदासजी कहते हैं "जो कुदेव छवि-होन वसन भूषण अभलाई । देरी सों भयभीत होय सो आयुध राखें ।। तुम सुन्दर सर्वांग, सत्र समरथ नहि कोई। भूषण, वसन, गदादि-ग्रहण काहे को होई ।। १९ ।" -एकीभावस्तोत्र । इस प्रकार वस्त्राभूषण आदिरहित सर्वांग सुन्दर मिनेन्द्र मसियोंमें कोई अन्तर नहीं मालूम होता । और, यथार्थमे देखा जाय तो कर्मोका माशकर, जो मात्मत्वका निर्माण होता है उसमें व्यक्तिगत नामघाम आदि उपाधियां दूर हो जाती हैं। उनकी आराधनामें केवल सनके असाधारण गुणोंपर ही दृष्टि जाती है । देखि प, एक मंगल पद्य में जैनाचार्य क्या कहते है "मोक्षमार्गस्य नेतारं मेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ।।" यहाँ किसी व्यक्ति विशेषका नामोल्लेखकर प्रणामाञ्जलि अर्पित नहीं की गई है । किन्तु, यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि जो भी आत्मा मुक्तिमार्गका नेता १. "आचाराणां विधातेन कुटुष्टीनां च सम्पदा । धर्मग्लानिपरिप्राप्तमुच्यन्ते जिनोत्तमाः ॥" -पापुराण २०६, सर्ग ५।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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