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________________ १७२ जनशासन आत्मविकासको चौदहवीं अयोगकेवली नामकी प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। वहाँ शेष कोका क्षयकर आत्माकी परिशुद्ध अवस्था मिलती है । उन्हें सिद्ध परमात्मा कहते हैं । वे संसार-परिभ्रमणके प्रपंचने सदाके लिए मुक्त हो जाते हैं । वे सिद्ध परमात्मा महाकवि पनारसोवासजीके अन्दाम इस प्रकार थपित किए "अविनाशी अविकारं परमरसधाम हो । समाधान सरवज्ञ सहज अभिराम हो । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनन्त हो । जगत सिरोमनि सिद्ध सदा जयवंत हो।" नाटक समयसार ४ । "ध्यान अगनि कर कम कलंक सबै दहे। नित्य निरंजन देव "स्वरूपी' हं रहै ।। ज्ञायवके आकार ममत्व निवारि के। सो परमातम 'सिद्ध' नमू सिर नायके ।।" -सिद्ध पूजासे । अरिहन्त भगवान विश्व-कल्याण निमिस अपनी अनेकान्समयी वाणीके द्वारा उपदेश देते हुए मनुष्य, पशु-पक्षी, देव आदि सभी प्राणियोंको परितृप्त करते हैं। संसार-समुद्र में डूबते हुए जोवोंको मन्तरणका मार्ग बताने के कारण उन्हें तीर्थकर कहा करते है। ऐसे ही महा महिमाशाली लोकोसर आत्माको लोक-भाषामें अबतार पुरुष कहते है 1 जैनधर्ममें भगवदाताके अवतारबादका समर्थन नहीं है । गीताकार बताते है कि, अब धर्मके प्रति ग्लानि उत्पन्न होती है और अधर्मको अभिवृद्धि होती है उस समय परमात्मा आकर उत्पन्न होते हैं। धर्म-संस्थापन और पापके विनाशार्थ कृष्ण कहते हैं कि मैं प्रत्येक युगमें पुनः पुनः उत्पन्न होता हूँ। जनशासन परमात्माको सांसारिक जीवन धारण करने की बातको असंभव जानता है। राग, द्वेष, मोह आदि विकारोंसे अतीत वह परमात्मा क्यों आकर नीची अवस्थामें पहुँच मोहजालको रचता फिरेगा। आचार्य रविषेगने १. "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||६|| परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि यगे युगे ॥७॥" गीता अ० ४ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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