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________________ कर्मसिद्धान्त १७१ शरीरादिकमें आत्माकी भ्रान्ति घारण करनेवाला बहिरात्मा है। मन, दोष और आत्माकै विषयमें भ्रान्तिरहित अन्तरात्मा है । कर्ममलरहित परमारमा है। आत्म-विकासके परिज्ञान निमित्त मापदण्डके लपमें तीर्थंकरोंने जीवको चौदह अवस्थाएं, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं, बतलाई है । बहिरात्मा विकामविहीन है, इसलिए उसकी प्रथम अवस्था मानकर उसे मिष्यात्वगुणस्थान बताया है । तत्वज्ञानकी जागति होनेपर जब वह अन्तरात्मा बनता है तब उसे चतुर्थ आत्मविकासको अवस्थावाला-अविरत सम्बदुष्टि कहते हैं। उस अवस्थामै वह आरम-शक्तिके वैमय और कर्मजालकी हानिपूर्ण स्थितिको पूर्ण रीतिसे समझ तो जाता है, किन्तु उसमें इतना अत्मिबल नहीं है कि वह अपने विश्वासके अनुमार साधना पत्रमें प्रवृत्ति कर सके। यह इन्द्रिय और मनपर अंकुश नहीं लगा पाता; इसलिए उसकी मनोवृत्ति असंयत अविरत होती है। धीरे-धीरे बल-सम्पादन कर वह संकल्पी हिसाका परित्याग कर कमसे कम हिंसा करते हुए संयमका यथाशक्ति अभ्यास प्रारम्भ कर एकदेश-आंशिक संघमी अथवा तो धावक नामक पंचम गुणस्थानवर्ती बनता है और जब वह हिमादि पापोंका पूर्ण परित्याग करता है तब उस महापुरुषको आत्म-विकासकी छठवीं कक्षावाला दिगम्बर-मुनिका पद प्राप्त होता है । वह साधक जब कषायोंको मन्दकर अप्रमत्त होता है तब प्रमाद रहित होने के कारण अप्रमत्त मामक सातवीं अवस्था प्राप्त होती है । इसी प्रकार क्रोधादि शत्रुओंका क्षय करते हुए बह आठवी, नवमी, दसवी, बारहवीं अवस्थाको (पशम करनेवाला ग्यारहवीं श्रेणीको) प्राप्त करते हुए तेरहवें मुणस्थानमें पहुँच कंवली, सर्वज्ञ, परमात्मा आदि शब्दोंसे संकोतित किया जाता है । यह आत्मा चार घातिया कर्मोका नाश करने से विशेष समर्थ हो अरिहन्त कहा जाता है । आत्म-विकासको छठवीसे बारहवीं कक्षा तकके व्यक्तिको साघु कहते है। उनमें जो तत्त्व-ज्ञानको शिक्षा देते हैं, उन्हें उपाध्याय कहते हैं। जिनके समीप तपस्वी लोग आत्मसाधनाके विषयमें शिक्षादीक्षा प्राप्त करत हैं, और जिनका अनुशासन प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते है, उन सत्पुरुषको माधाय पहते है। आचार्यका पद बड़ा उच्च और पवित्र है। अध्यात्मके विश्व विद्यालयमें जितेन्द्रिय ताकी प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण कर स्वरूपोपलब्धिके प्रमाणपत्रको पानेवाले पुण्यशाली पुरुषोत्तमको आचार्यका पद मिलता है। ऐसे ही आचार्य धर्मतत्त्वका प्रतिपादन करनेके लिए उपर्युक्त माने कवल्यको उपलब्धिके अनन्तर आत्माके प्रदेशोंकी स्पन्दन-रहित अवस्थाको
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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