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जनशासन
उदयमें आनेवाले और अधिक काल तक रस देनयाले कर्मोको असमय में भी उदयमें लाया जा सकता है । कभी-कभी योगबलके आपत् होनेपर,कर्मोको राशि, जो सागरों-अपरिमित कालपर्यन्त अपना फल चखाती, वह ४८ मिनिट-२ घड़ीके भीतर ही नष्ट की जा सकती है। अन्य सम्प्रदायोंकी कर्मके विषय में यह धारणा है-'नाभुक्स सीयते कर्म'-विना फल भोगे कर्मका क्षय नहीं होता ।' पर जैनशासनमें सर्वत्र इस बातका समर्थन नहीं किया जा सकता 1 निकाचना और निघस्ति अवस्थाको प्राप्त कर कर्म अवश्य अपने समयपर फल देंगे। किन्तु अन्य कर्म असमयमें भी अल्प फल देकर अथवा बिना फल दिमे भी निकल जाते हैं। यदि ऐसी प्रक्रिया न होती, तो अनन्तकालसे आत्मापर लदे हुए कर्मोके ऋणसे जीवकी भक्ति कैसे हो सकती घो? जीवमें अवर्णनीय शक्ति है । यदि वह रत्नक वनको सम्हालले, सो करको दर होत रमलगे । कर्म अपना फल देकर आत्मा पृथक हो जाते हैं। क्रम-क्रमसे कौका पृथक् होना 'निर्जरा' कहलाता है ! समस्त कर्मोंके पथक होनेको 'मोक्ष' कहते हैं । आत्मासे कमि सम्बन्धविच्छेद होनेको हो कर्मों का नाश कहते है । यथार्थमें पुद्गलका क्या, किसी भी द्रव्यका सर्वथा नाश नहीं होता। पुदगलकी कर्मत्व पर्यायके शवको कर्म-क्षय कहते हैं।
स्वामी समन्तभदने लिखा है कि असतका जन्म और सत्का विनाश नहीं होता । दीपकके बुझनेपर दीपकका नाश नहीं होता, जो पुद्गलकी पर्याय प्रकाश रूप थी, वही अन्धकार रूप हो जाती है। इसी प्रकार पुद्गल में कर्मत्व शक्तिका न रहना 'कर्म सय' कहा जाता है । जोकि सत्का अत्यन्त विनास असम्भव है । कोके बन्धके कारणोंका उल्लेख करते हुए सस्थार्षमूत्रकार कहते हैं---
"मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः।"-८॥
सत्य स्वरूप अनेकान्त दृष्टिका परित्याग कर एकान्त दृष्टिमें संलग्न होना मिथ्यादर्शन है। अध्यात्म शास्त्रमें, शरीर आदिमें बात्माकी भ्रान्तिको मिथ्यादर्शन कहा है । मिथ्यादर्शन सहित आत्मा बहिरात्मा कहलाता है । समाविशतको लिखा है..
"बहिरात्मा शरीरादो जातात्मभ्रान्तिरान्तरः । चित्तदोषामविभ्रान्तिः परमात्मातिनिर्मल: ।।
१. "नासतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुदगलभावतोऽस्ति ।।"
-यू. स्वयम्भू २४