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________________ कर्मसिद्धान्त १६९ रहा करता है। हर एक प्रकारके वैभव और विभूतिके मध्यमें रहते हुए भी यदि भोगान्तराव, उपभोगान्तरायका उदय हो जाए तो 'पानी में भी मौन पिपासी'जैसी विचित्र स्थिति शारीरिक अवस्था आदिके कारण उत्पन्न हो सकती है । इन आठ कर्मोमं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तरायको वातिया कर्म कहते हैं, क्योंकि ये आत्माके गुणों का घातकर जीवको पंगु बनाया करते हैं । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रको अघातिया कहते हैं क्योंकि ये आत्माके गुणोंको क्षति नहीं पहुंचाते। हाँ अपने स्वामी मोहनीयके नेतृत्वमें ये जीवको परतन्त्र बना सच्चिदानन्दकी प्राप्तिमें वाधक अवश्य बनते हैं । इन कम ज्ञान, दर्शन आदि आत्मगुणोंके घात करनेकी प्रकृतिस्वभाव प्राप्त होनेको प्रकृति कहते है । कमोंके फलदानको कालमर्यादाको स्थितिबन्ध कहा है। कार्माण वर्गणाओंके पुंज ज्ञानावरण वादि रूप विविध कर्म-शक्तिके परमाणुओंका पृथक्-पृथक् विभाजन प्रदेशबन्द है । और, गृहीत कर्म-पुञ्जमें फल-शन शक्ति-विपाक प्राप्ति को कहते है । इन फर्मो अनन्त भेद है । स्थूल रूपसे १४८ भेदोंका जिन्हें कर्म प्रकृति कहते हैं, वर्णन किया जाता है । इस रचना में स्थान न होनेसे इसके विशेष भेदोंका वर्णन करनेमें हम असमर्थ है। विशेष funreast गोम्मटसार कर्मकाण्ड शास्त्रका अभ्यास करनेका अनुशेष है । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तसोने कर्मोकी बन्ध उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशम, सत्त्व, निघत्ति और निकालना रूप दस अवस्थाएँ बताई है । मन, वचन, कायको चंचलतासे कर्मोंका आकर्षण होता है । श्वात् वे आत्मा के साथ बंध जाते है। इसके अनन्तर अपनी अनुकूल सामग्रीके उपस्थित होनेपर वं कर्म अपना फलदान-रूप कार्य करते हैं, इसे उदय कहते हैं । कर्मोक सद्भावको सत्त्व कहा है । आत्मनिर्मलता के द्वारा कमको उपशान्त करना उपशम है। भावोंके द्वारा कर्मोकी स्थिति, रसदान शक्ति में वृद्धि करना उत्कर्षण और उसम होनता करना अपकर्षण है । सपवचर्या अथवा अन्य साधनों से अपनी मर्यादाके पहिले ही कर्मोको उदयावलीमें लाकर उनका क्षय करना उदोरणा है । कर्मोकी प्रकृतियोंका एक उपभेदसे अन्य उपभेद रूप परिवर्तन करनेको संक्रमण कहते है । उदीरणा और संक्रमण रहित अवस्थाको निवत्ति कहते हैं । जिसमें उदीरणा, संक्रमणके सिवाय उत्कर्षण और अपकर्षण भी न हो, ऐसी अवस्थाको निकाचना कहते है । इससे यह बात विदित होती है कि जीवके भावोंमें निर्मलता अथवा मलिनताकी तरतमता के अनुसार कमोंके बन्ध आदिम होनाधिकता हो जाती है । विलम्बसे १. गोम्मटसार गाथा, ४३६-४४० ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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