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________________ १६८ जैनशासन भिन्न शरीरों के विस्तारके अनुसार जीव संकोच और विस्तार किया करता है।" यह विषय तन्वार्थसूत्रके निम्नलिखित सूत्रसे सरलतापूर्वक स्पष्ट हो जाता है"प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रवीपवत्" (५११६) ___ जिस प्रकार कुम्भकार मृतिका आदिको छोटे बड़े घट आदिके रूपमें परिणत कर दिया करता है उसी प्रकार छोटे बड़े भेदोंसे विमुक्त इस जीवको गोत्र-कर्म कभी तो उच्च कुलमें जन्म धारण कराता है, कभी हीनसंस्कार, दूषित आचारविचार एचं हीन परम्परावाले कुलों में उत्पन्न कराता है। सदाचारके आधारपर उच्चता और कुलीनता अथवा अकुलीनता और नीचताके व्यवहारका कारण उच्च-नीच गोत्र कर्मका उदय है। आज वर्णनावस्था सम्बन्धी उच्चता-नीचता पौराणिकोंकी मान्यता मानी जाती है। किन्तु जैन-शामगर्ने उसे गोत्र कर्मका कार्य बताया है । पवित्र कार्योंके करने से तथा निरभिमान वृत्तिके द्वारा यह जीव उच्च संस्कारसम्पन्न वंशपरम्पराको प्राप्त करता है। शिक्षा, वस्त्र, वेष-भूषा आदिके आधारपर संस्कार तथा चरित्र-हीन नीच व्यक्ति शरीरपरिवर्तन हार बिना उच्च गोत्रवाले नहीं बन सकते, क्योंकि उच्च गोत्रके उदयके लिए उच्च संस्कारपरम्परामें उत्पन्न शरीरको नोकर्म माना है। जीब बहुत कुछ सोचता है। बड़े-बड़े कार्य करनेके मनसूबे भी बांधता है । अनुकूल साधन भी है। फिर भी वह अपनो मनोभावनाको पूर्ण नहीं कर पाता । क्योंकि अन्तराम नामका कर्म दान, लाभ आदिमें दिन्न उपस्थित कर देता है । दातारने किसी व्यक्तिको दीन अवस्था देख्न दयासे द्रवित हो अपने भण्डारीको दान देनेका आदेश दे दिमा; फिर भी, मण्डारी कोई-न-कोई विघ्न उपस्थित कर देता है, जिससे दाता के दानमें और याचकके लाभमे विघ्न आ जाता है। इस अन्तराय कर्मका कार्य सदा बने-बनाये म्लेलको बिगाड़, रंगमें भंग कर देने का {"According to Sankara the hypothesis of the soul having the same size as its body is untenable far from its being limited by the body it would follow that the soul like the body is also inpermanent and if impermanent it would have no final release. The Jains answer these objections by citing analogjes. As a lamp whether placed in a small pot or a large room illumines the whole space, even so does the Jiva contract and expand according to the dinensions of the different wadies," ___-Indian Philosophy. p. 311, Sir Radhakrishnan. २, गो० के० गा० ८४ । + - - .
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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