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________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २९५ सावधानी पूर्वक चलो, सावधानी पूर्वक चेष्टा करो, गावधानो पूर्वक बैठो, सावधानी पूर्वक शयन करो, सावधानी पूर्व नाज कसे, सावधान र भाषण करो, इस प्रकार पापका बन्ध नहीं होता। लोग सोचा करते हैं, राज्य विद्यामें ही नैपुण्य प्राप्त करना श्रेयस्कर है, धर्म विशपमें श्रम करना विशेष उपयोगी छात नहीं है । वस्तुतः यह महान् श्रम है । भगवतिनसेन सदृश आचार्य कहते है राजविद्यापरिझानादेहिकेऽर्थे दुवा मतिः। धर्मशास्त्रपरिज्ञानान्मतिलोर्कद्वयाश्रिता ।। ४२--२८ ॥" राजविद्याके परिज्ञानसे इस लोकके पदायोंके विषय में वृद्धि मजबूत होती है, किन्तु धर्मशास्त्रके परिवानसे इस लोक तथा परलोकके सम्बन्धमे दृढ बुद्धि होती है। मूला चारमें कितनी उज्ज्वल भावना व्यक्त की गई है "जा गदी अरिहंताणं णिदिदाणं च जा गदी। जा गदो वोदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा ॥९९॥" अरहंतोंकी जो गति है, निष्ठितार्थी-सिद्धोंकी जो अवस्था है तथा चीतमोह आत्माओंकी जो स्थिति है, वह मुझे सर्वदा प्राप्त हो। जन शासनमें प्राचार्यका पद महान् साधनाके उपरान्स प्राप्त होता है। सदाचरण उसकी नींव रहती है। श्री वीरसेम स्वामोका यह पद्य कितना भावपूर्ण है "तिरयण-खग्ग-विहाए-गुत्तारिय मोह-सेण-सिर-णियहो । आइरिय-राय पसियउ परिपालिय-भविय-जिव-लोओ।" वे आचार्य महाराज प्रसन्न हों, जिन्होंने आत्म दर्शन, आत्मबोध और आत्मनिमग्नता रूप रत्नत्रय स्वरूप तलवार के प्रहारसे मोह सैन्यके मस्तक समूहका संहार किया है तथा भष्म जीवोंकी परिपालना की है। __ 'तत्वज्ञान तरंगिणी' में लिखा है कि शुद्धचिद्रूप अर्थात् अपनी निर्मल आत्मा के स्मरण करने में बनध्यय, देशाटन, दासता, भय, पीड़ा आदि कष्टों का पूर्ग अभाव है, फिर भी आश्चर्य है कि विज्ञवर्ग उस ओर क्यों नहीं ध्यान देत ? उनके ये शब्द कितने मर्मस्पर्शी है "न क्लेशो न धनव्ययो न गमनं देशान्तरे प्रार्थना केषाञ्चिन्न बलक्षयो न च भये पोड़ा परस्यापि न । सावधं न च रोगजन्मपतनं नैवात्र सेवा नहि चिद्रूपस्मरणे फलं बहु कथं तन्नाद्रियन्ते बुधाः ॥४-११।"
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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