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________________ कर्मसिद्धान्त जैसे अंगीकार नहीं करता, अथवा जैसे छिलका निकाला गया चावल पुनः धान रूप अशुद्ध स्थितिको प्राप्त नहीं करता, उसी प्रकार परिशुद्ध-बात्मा अत्यन्त धुणित शरीरको धारण करनेका कदापि विचार नहीं करेगा। इस प्रकार शुद्ध आत्माको अशुद बनना जब असम्भव है, तब गत्यन्तराभावात् अनादिसे उसे कर्मबंधन युक्त स्वीकार करना होगा, कारण यह बन्धनको अवस्था हमारे अनुभवगोधर है। कर्मोके विपाकसे यह आत्मा विविध प्रकारको वेष धारणकर विश्वके रंगमंच पर आ हास्य, शोक, शृंगार आदि रसमय खेल दिखाता फिरता है पर जब कमो भूले-भटके जिनन्द-मुद्राको धारणकर शान्त-रसका अभिनय करने आता है तो आस्माकी अनन्तनिघि अर्पण करत हाए कर्म इसके पाससे विदा हो जाते है। जिस कर्मन आस्माको पराधीन किया है वह सांख्यको प्रकृति के समान अमतिक नहीं है । कर्मका फल मुर्तिमान पदार्थके सम्बन्धसे अनुभबमें जाता है, इसलिये वह मूर्तिक है। यह स्वीकार करना तर्फ-संगत है। जैसे चहेके काटनेसे शरीरमें उत्पन्न हुआ शोश्र आदि विकार देख उस विषको मूर्तिमान स्वीकार करते है, जो ४ पुष्प, मति, अनि सेवा : सर्प, सिंह, विष बादिके निमित्तसे दुखरूप कर्म-फलका अनुभव करता है। इसलिये यह कर्म अनुमान द्वारा मूर्तिमान सिद्ध होता हैं। जब कर्म-पुञ्ज (Karinic molecules) स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णयुक्त होनेके कारण पोद्गलिक है और आत्मा उपर्युक्त गुणोंसे अन्य चतन्य ज्योतिमय है, तब ममूर्ति आत्माका मूर्तिमान कर्मोंसे कैसे बन्ध होता है ? मूर्तिक-मूतिकका बन्ध तो उचित है, अमूर्तिकका मूर्तिमानसे बन्छ होमा मानना आश्चर्य-प्रद है ? इस शंकाका समाधान करते हुए आचार्य मकलंकदेव तत्त्वार्थ राजवातिक (पु. ८१ अ० २ सूत्र ७) में लिखते हैं,-''अनादिकालीन कर्मको बन्ध परम्परा के कारण पराधीन आत्माके अमूर्तिकल्वके सम्बन्धमें एकान्त महीं है। बन्ध पर्याय के प्रति एकत्व होनेसे आत्मा कञ्चित् मूर्तिक है और अपने ज्ञामादिक लक्षणका परित्याग न करनेके कारण काव्यत् अमूर्तिक भी है । मद, मोह तथा भ्रमको उत्पन्न करने वालो मदिराको पीकर मनुष्य काष्ठकी भांति निश्चल स्मृति-शून्य हो जाता है तथा कर्मेन्द्रियों के मदिराके द्वारा अभिभूत होने से जोवके सानादि लक्षणका प्रकाश नहीं होता । इसलिये आस्माको मूतिमान निश्चय करना पड़ता है।" १ "अनादि कर्मबन्धसन्तानपरतन्त्रस्यात्मनः अमूर्ति प्रत्यनेकान्तः । बन्धपर्याय प्रत्यकत्वात् स्थानमूतं तथापि ज्ञानादिस्वलक्षणापरित्यागात स्पादमूर्तिः ।.... मदमोह-विनमकरी सुरां पोस्वा नष्टस्मृतिर्जनः काष्ठवदपरिस्पन्द उपलभ्यते, तथ कर्मेन्द्रियाभिभवादारमा नाविभूतस्वलक्षणो मूर्त इति निश्चीयते ।" ११
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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