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________________ .. नशासन : . . .. . ... अखण्ड विश्वास रहता है, कि मेरा मारमा जन्म, जरा, मृत्यु आदिकी आपदाओंसे परे है । इनका खेल शरीर अथवा जड़ पदार्थों तक ही सोमित है । आत्मसाधक पूज्यपालस्वामी तो अंतरात्माके लिए प्रबोधपूर्ण यह सामग्री देते हैं "न में मृत्युः कुतो भीतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा। नाहं बालो न वृद्धोऽहं न युवैतानि पुद्गले ॥" - इप्टोपदेश २९ जब मेरी मृत्यु नहीं है, तब भय किस बातका ? जब मेरा आत्मा रोगमुषत है तम व्यथा कैसी ? अरे, न तो मैं वाला है, न वृद्ध है और न तरुण ही है...यह सब पुद्गलका खेल है। इस प्रसंगमें अमतचन्द्रसूरिके ये शब्द बड़े मार्मिक तथा उद्योधक है जिन मुमुक्ष ओंका अन्त करण संसार, शरीर तथा भोगोंसे निस्पह है उन्हें वह सिद्धान्त निम्चित करना चाहिये कि 'मैं' सर्वदा शुद्ध, चैतन्यमय, अखण्ड, उत्कृष्ट ज्ञान-ज्योति-स्वरूप हैं। जो रागादिरूप भिन्मलक्षण वाले भाव पाये जाते है, उन रूप 'मैं' नहीं हूँ, कारण वे सभी मरेसे भिन्न द्रध्य रूप है।" ऐसे मुमुक्षुकी चित्तवृत्तिपर बनारसीदासजी इस प्रकार प्रकाश डालते हैं :जिन्हकै सुमति जागी, भोगसो भए दिनागि, परसंगत्यागि जे पुरुष त्रिभुवनमें रागादिक भावनिसों जिन्हको रहन न्यारी. कबहूँ मगन ह न रहे धाम धनमें जे सदेव आपके विचारे सरवांग शद्ध जिन्हके विकलतान च्यापे कछ मनमें । तेई मोक्षमारगके साधक कहावे जीव, भावे रहो मन्दिरमें भाने रहो वनमें ॥" इस आत्म-विद्या में यह भलौकिकता है कि-यह वित्तिको दुर्दैवकी कृपा मानती है कि यह मारमा पूर्वबद्ध कर्मका कार्ज विपत्ति के बहाने चुकाकर ऋणमुक्त हो जाता है। मर्यादापुरुषोत्तम महाराज रामचन्द्र प्रभातमें साकेत साम्राज्पके अधिपति बननेका स्वरन देख रहे थे, कि दुर्दैवने कैकेयीको घाणीके रूपमें अन्तराय मा पटका और रामको दनकी और जाना पड़ा । इस भीषण परिवर्तनको देख आत्मज्ञ राम सत्पपसे विचलित नहीं होते । चित्तमे प्रसादको स्थान देते हुए वे अपने इष्टजनोंको कितने मधुर शब्दोंमें अपने बनवासके बारेमे सुनाते है 'राज्ञा मे दण्डकारण्ये राज्यं दत्तं शुभेऽखिलम् ।'' ---- "सिद्धान्तोऽयमदात्तचित्तपरितोक्षाधिभिः सेम्यताम् । शुद्ध चिन्मयमकमेव परमं ज्योतिः सदवारम्यहम् ॥ एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग लक्षणाः। तेऽहं मास्मि यतोऽत्र से मम परव्रज्यं समना मपि ।।"
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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