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________________ जैनशासन उपयोग करते हैं और दोनोंको बदनाम करते हैं । मजहबके नामपर झगड़े दुनियामें हुए है और होंगे, पर इन झगड़ोंकी वजहसे मजहबको दुनियासे मिटानेकी कोशिश ऐसी है जैसे रोगको दूर करने के लिए शरीरको मार डालनेकी कोशिश । जबतक दुनियामें दुःख और मोत है तबतक लोगोंको धर्मकी जरूरत रहेगी ।"" ___ यायमूर्ति नियोगो महाशयने धर्मतत्त्व के समर्थनमें एक बहुत सुन्दर बात कही थी-'यदि इस जगत्में वास्तविक धर्मका वास न रहे तो शान्तिके साधनरूप पुलिस आदिके होते हुए भी वास्तविक शान्तिकी स्थापना नहीं की जा सकती। जैसे पुलिस तथा सैनिकमलके कारण साम्राज्यका संरक्षण घातक शक्तियों से किया जाता है उसी प्रकार धर्मानुशासित अन्तःकरणके द्वारा भात्मा उच्छ'खल तथा पापपूर्ण प्रवृत्तियों से बचकर जीवन तथा समाज-निर्माणके कार्यमें उद्यत होता है।" ___ उस धर्म के स्वरूपपर प्रकाश डालते हुए ताकिकचूड़ामणि आचार्य समातभद्र कहते है-"जो संसारके दुखोंसे बचाकर इस जीवको उत्तम सुख प्राप्त करसवे, वह धर्म है।" वैविक दार्शनिक कहते है-''जिससे सर्वांयीण उदय-समृद्धि तथा मुक्तिकी प्राप्ति हो, वह धर्म है।" श्री विवेकामन्द मनुष्य में विद्यमान देवत्यकी अभिव्यक्तिको धर्म कहते हैं ।" राधाकृष्णन् 'सत्य तथा न्यायकी उपलबिचको एवं हिंसाके परित्यागको धर्म मानते है । इस प्रकार जीवन में 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' को प्रतिष्ठित करनेवाल धर्म विषय और को सिवानों के अनुभव पदन में आस हैं । कार्तिकेय आचार्य, धर्मपर व्यापक दृष्टि डालते हुए लिखा है-'वस्थुसहायो पम्मी"-आत्माकी स्वाभाविक अवस्था धर्म है-इमे दूसरे शब्दोंमें कह सकते हैं कि स्वभाव-प्रकृति (Nature) का नाम धर्म है। विभाव, विकृतिका नाम अधर्म है । इस कसौटीपर लोगोंके द्वारा आक्षेप किये गये हिंसा, दम्भ, विषय-तृष्णा आदि धर्म नामधारी पदार्थको कसते हैं तो दे पूर्णतया खोटे सिद्ध होते हैं। कोच, मान, १. "देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्त्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे ।। २॥"-रत्नकरण्डनावकाचार २. "पतोऽभ्युदर निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ।"-वैशेषिकदर्शन १२ 3. Religion is the manifestation of divinity in man. 4. "Religion is the pursuit of truth and justice and abdication of violence." ५. "चारित्तं खलु धम्मो घम्मो जो सो समो ति णिदिको । मोहनखोहविहीणो परिणामो अपणो धम्मो " [ चारित्रको धर्म कहते है। समता, परिणाम, (राग-द्वेषसे रहित संतुलित मनोवृत्ति), मोह तया सोमसे विहीन परिणति धर्म है। ]
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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