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________________ धर्म और उसकी आवश्यकता माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, आदि जघन्य वृत्तियोंके विकाससे आत्माकी स्वाभाविक निर्मलता और पवित्रताका विनाश होता है । इनके द्वारा आरमामे विकृति उत्पन्न होती है जो आत्माके आनन्दपवनको स्वाहा करती है । नहाप कुंदकुछ सदाचारको धर्म कहते हैं। अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदिकी अभिवृद्धि एवं अभिव्यक्तिसे आत्मा अपनी स्वाभाविकताके समीप पहुँचते हुए स्वयं धर्म-मब बन जाता है । हिंसा आदिको जीवनोपयोगी अस्त्र मानकर यह पूछा जा सकता है कि अहिंसा, अपरिग्रह आदिको अथवा उनके साधनोंको धर्म संज्ञा प्रदान करनेका क्या कारण है ? राग-द्वेष-मोह सादिको यदि धर्म माना जाय तो उनका आत्मामें सदा सद्भाव पाया जाना चाहिए । किन्तु, अनुभव उन क्रोधादिकोंके अस्थायित्व अतएव विकुतपनेको ही बताता है। अग्नि के निमित्तसे जल में होनेवाली उष्णता जलवा स्वाभाविक परिणमन नहीं कहा जा सकता, उसे नैमित्तिक विकार कहेंगे । अग्निका सम्पर्क दुर होनेपर वही पानी अपनो स्वाभाविक शीतलताको प्राप्त हो जाता है। शीतलताके लिए जैसे अन्य सामग्रीकी आवश्यकता नही होती और वह सदा पायी जा सकती है, उसी प्रकार अहिंसा, मृदुता, सरलता आदि गुण क्त अवस्थाएँ खात्मामें स्थायी रूपमें पायी जा सकती है। इस स्वाभाविक अवस्थाके लिए बाह्य अनात्म पदार्थकी आवश्यकता नहीं रहती, क्रोधादि विभावों अथवा विकारों की बात दूसरी है। इन विकारोंको जाग्रत तथा उत्तेजित करने के लिए बाह्य सामग्रीको आवश्यकता पड़ती है। बाह्य साधनोंके अभाव में क्रोधादि विकारों का विलय हो जाता है। कोई व्यक्ति चाहनेपर भी निरन्तर क्रोधी नहीं रह सकता। कुछ कालके पश्चात् शान्त भाबका आविर्भाव हुए बिना नहीं रहेगा । आरमाने स्वभावमें ऐसो बात नहीं है । यह धात्मा सदा क्षमा, ब्रह्मचर्य, संयम आदि गुणोंसे भूषित रह सकता है। इसलिए, क्रोध-मान-माया-लोभ, राग-द्वेष-मोह आदिको अथवा उनके कारणभूत सापनोंको अधर्म कहना होगा । आत्माफे क्षमा, अपरिग्रह, आर्जव आदि भायों तथा उनके साधनोंको घर्म मानना होगा, क्योंकि वे आत्माओ निजी भाव है।' सात्त्विक आहार-विहार, सत्पुरुषोंकी संगति, वोरोपासना आदि कार्यों १, भारतीय धर्मोका अथवा विश्वके प्रायः सभी धोका अध्ययन करनेसे झात होगा कि उन घमौकी प्रामाणिकता का कारण यह है कि परमात्मानं उस धर्म के माम्य सिद्धान्तोंको बतानेवाले अन्यकी स्वयं रचना की है। जब परमात्मा
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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