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________________ शासन विश्वके बैभव आदिसे आत्माकी प्यास बुझाना यह अज्ञ जीव मानता है । किन्तु, वैभव और विभूतिके बीच में विद्यमान व्यक्तियों के पास भी दीन-दुस्खी जैसो आत्माकी पौड़ा दिखायी देती है । देखिए न, आमका धन-कुबेर माना जानेवाला हेनरी फोर्ड कहता है कि-"मेरे मोटरके कारखाने में काम करनेवाले मजदूरों का जीवन मुझसे अधिक आनन्द-पूर्ण है। उनके निश्चित जीवनको देखकर मुझे ईया-सी होती है कि यदि मैं उनके स्थानको प्राप्त करता तो अधिक सुन्दर होता।" कैसी विचित्र वात यह है कि धन-हीन गरीव भाई आशापूर्ण नेत्रोंसे धनिकोंकी ओर देखा करते हैं, किन्तु वे धनिक कभी-कभी सतष्ण नेत्रोंसे उन मरीत्रों के स्वास्थ्य, निराकुलता आदिको निहारा करते हैं। इसीलिए योगीराज पूज्यपाद ऋषि भोगी प्राणियोंको सावधान करते हुए कहते हैं-"कठिनतासे प्राप्त होनेवाले, कष्ट-पूर्वक संरक्षण योग्य तथा विनाश-स्वभाव वाले धनादिके द्वारा अपने आपको सुखी समझनेवाला व्यक्ति उस ज्वरपीड़ित प्राणीके समान है जो गरिष्ठ धी निर्मित पदार्थ खाकर क्षण-भरके लिए अपने में स्वस्थताकी कल्पना करता है।" भौतिक पदाघोंसे प्राप्त होनेवाले सुस्त्रोंकी निस्सारताको देखने तथा अनुभव करने वाला एक तार्किक कहता है-'हे भाई, अगत्की वस्तुओंसे जितना भी आनन्दका रस खोंचा जा सके, उसे निकालने में क्यों चूको ? शून्यको अपेक्षा अल्प लाभ क्या दुरा है।' इस तार्किकने इस बातपर दृष्टिपास करने का कष्ट नहीं उठाया कि जगत्के क्षण-स्थायी भानन्दमें निमग्न होनेवाले तथा अपनेको कृतकृत्य मानने वाले व्यक्तिको कितनी करुण अवस्था होती है, जब इस आस्माको वर्तमान शरीर तथा अपनी कही जानेवाली सुन्दर, मनोहर, मनोरम प्यारी वस्तुओंसे सहसा नाता तोड़कर अन्य लोक की महायात्रा करने को बाध्य होना पड़ता है। कहते हैं। सम्राट सिकन्दर जो विश्वविजयके रंगमें मस्त हो अपूर्व साम्राज्यसुखके सुमधुर स्वप्न में संलग्न था, मरते समय केवल इस बातसे अवर्णनीय आन्तरिक व्यथा अनुभम करता रहा था कि मैं इस विशाल राज-वैभवका एक कण भी अपने साथ नहीं ले जा सकता । इसीलिए, जब सम्राट्का शव बाहर निकाला गया, तब उसके साथ राज्यको महान् वैभवपूर्ण सामग्री भी साथमें रली गयी थी । इस समय सम्राट्के दोनों खाली हाथ बाहर रखे गये थे जिसका यह तात्पर्य था कि विश्वविजयको कामना करने वाले महत्त्वाकांक्षी तथा पुरुषार्थी ६. "दुरज्यनासुरक्ष्येण नश्वरेण धनादिना ! स्वस्थम्मन्यो जनः कोऽपि स्वरवानिव सपिंषा ।। १३ ॥" -इष्टोपदेश
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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