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________________ परमात्मा और सर्वज्ञता ३५ इस रहस्यको हृदयंगम करनेके पूर्व मीमांसकको कमसे कम यह तो मानना होगा ही कि विश्वको सम्पूर्ण आत्माएँ समान हैं। जैसे खानिसे निकाला गया सुवर्ण केवल सुवर्णको दृष्टिसे अपने से विशेष निर्मल अथवा पूर्ण परिशुद्ध सुबर्णसे किसी अंशमें न्यूनशक्ति वाला नहीं है। यदि अग्नि आदिका संयोग मिल जाए तो वह मलिन सुवर्ण भी परिशुद्धताको प्राप्त हो सकता है। इसी प्रकार इस जगत्का प्रत्येक आत्मा राग, द्वेष, अज्ञान आदि विकारोंका नाशकर परिशुद्ध अवस्थाको प्राप्त कर सकता है। ऐसी परिशुद्ध आत्माओं में उनकी निजातियाँ आवरणोंके दूर होने से पूर्णतया प्रकाशमान होंगी। जो तत्त्व या पदार्थ किसी विशिष्ट आत्मामें प्रतिविम्बित हो सकते हैं, उन्हें अन्य आत्मामें प्रतिबिम्बित होनेमें कोनमी बाघा आ सकेगी ? यह तो विकृत भाविकवादित तथा साधनों का अत्याचार है- अतिरेक है जो आत्मा में विषमता एवं भेद उपलब्ध होता है, अन्यथा स्वतन्त्र, विकासप्राप्त आत्माके गुणोंकी अभिव्यक्ति समान रूपसे सब आत्माओं में हुए विना न रहती । इस सम्बन्ध में यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि विश्वक पदार्थोके अस्तित्वका बोध आमाकी ज्ञानशक्ति द्वारा होता है । जो पदार्थ ज्ञानकी ज्योति में अपना अस्तित्व नहीं बताता उसका अभाव मानना ही न्यायसंगत होगा। हर्बर्ट स्पेन्सरके समान 'अज्ञेयवाद का समर्थन नहीं किया जा सकता । भला उस पदार्थ सद्भावको कैसे स्वीकार किया जाए जो इस अनन्त जगत् में किसी भी आत्माके ज्ञानका विषयभूत नहीं हुआ, नहीं होता है अथवा अनन्त भविष्य में भी नहीं होगा । पदार्थोके अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है, कि में विज्ञान ज्योति के समक्ष अपने स्वरूपको बताने में संकोच न खाएँ। अन्यथा उन पदार्थोंको रहनेका कोई अधिकार नहीं है । यों तो पदार्थ अपनी सहज शक्तिके बलपर रहते ही हैं, उनके भाग्य - विधानके लिए कोई अन्य विधाता नहीं है, किन्तु उनके सद्भाव के निश्चयार्थ ज्ञानज्योति प्रतिविम्बित होना आवश्यक है। इसका तात्पर्य यही है कि प्रत्येक पदार्थ किसी न किसी जाता के ज्ञानका ज्ञेय अवश्य या है तथा रहेगा । जब पदार्थों में ज्ञान के विषय बननेको दाक्ति है, आत्मा में पदार्थों को जानने की सहज शक्ति है और नब आत्म-साधना के द्वारा चैतन्य-सूर्यका पूर्ण उदय हो जाता है तब ऐसी कौनसी वस्तु है जो उस आत्मा के अलौकिक ज्ञानमें प्रतिबिम्बित न होती हो और जिसे स्वीकार करने में हमारे ताकिकको कठिनाई होती है। जिस तरह चलने-फिरने दौड़ने में शरीरकी मर्यादित शक्ति बाधक बन मर्यादा तोत शारीरिक प्रवृत्तिको रोकती है, उस तरहका प्रतिबन्ध ज्ञानशक्तिके विषय में नहीं है 1 पदार्थोंका परिज्ञान करने में परम आत्माको कोई कष्ट नहीं होता । जैसे, बाधक सामग्रीविहीन अग्निको पार्थीको भस्म करने में कोई रुकावट नहीं होती,
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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