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________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २६१ १६०० ई०) होती रही । इमको तुलना बोद्धोंके उस परवर्ती संस्कृत माहित्यमे हो सकती है, जिसका सम्राट् कनिष्क या अश्वघोषके समयमे बनना शुरू हुआ और बारहो शताब्दी अर्थात् नालन्दाके अस्त होने तक बनता रहा । दोनों साहित्योंमें कई प्रकारकी नमानसाएं और कुछ विषमताएं भी हैं। दोनों में वैज्ञानिक ग्रन्थ अनेक हैं । काश्य और उपाख्यानोंकी भी बहुतायत है । परन्तु बौद्धोंके सहज यान और गुह्य समाजसे प्रेरित माहित्य प्रभाव जैन लोग बच्चे हैं। जैन साहित्यम ऐतिहासिक काव्य और प्रबन्धकी भी विशेषता रही। मध्यकालीन भारतीय इतिहास के लिए इस विशाल पेन साहित्यका पारायण अत्यग्स मावश्यक है। एक ओर 'पशस्तिलकचम्यू' और 'तिलकमंत्ररो' जैसे विशाल गद्य ग्रन्थ हैं जिनमें मुसलिम कालसे पहलेकी मामन्त संस्कृतिका माछा चित्र है, दुमरी और पुष्पदन्तवृत्त 'महापुराण' जैसे दिग्गज ग्रन्थ हैं, जिनसे भाषाशास्त्रक अतिरिक्त सामाजिक रहन-सहन का भी पर्याप्त परिचय मिलता है। वायभट्ट की बादम्बरीके लगभग ५०० वर्ष बाद लिखी हुई तिलकमंजरी नामक गल व था संस्कृत सादिका एक अत्यन्त मनोहारी अन्य है। संस्कृतिमे मम्बधित पारिभाषिक शब्दोंका बड़ा उत्तम संग्रह इस ग्रंथ से प्रस्तुत भी किया जा सकता है। "उपमितिभवनपधकथा' और 'सपराइसमकहा' भी बड़े कशा ग्रन्थ है, जिनमें स्थान स्थान पर तत्कालीन मांस्कृतिक चिय पाये जाते हैं।' देवानन्दमहाकाव्य, कुमारपालचरित्र, प्रभावकचरित्र, जम्बूस्वामी चरित तथा हीरसौभाग्यकाक्ष्य में इतिहासकी वहुमूल्य सामग्री विमान है । भानुचन्द्रचरितम्' से सम्राट अधर और उनके प्रभुत्व दरबारीजनों के चरित्र पर महत्थपूर्ण प्रकागा पड़ता है। बनारसोबासजी महाकविफे 'अर्धकथानक' के द्वारा अकबर तथा जहांगीरकालीन देशकी परिस्थितिपर प्रकाश पड़ता है तथा यह भी विदित है कि मुस्लिम मरेशोंके प्रति प्रजाजनका कितना माद अनुराग रहता था। काशी गवर्नमेन्ट संस्कृप्त कालेज के प्रिंसिपल डा. मंगल देवते 'न विद्वांसः संस्कृतमाहित्यं च' नामक संस्कृत भाषामें लिखे गए विचारपूर्ण सुन्दर निबन्ध में 'अमरकोष' नामक प्रख्यात संस्कृत कोषको जेन रचना स्वीकार की है । उन्होंने आत्मानुशासन, धर्मशर्माभ्युदय, सुभाषितरत्न सन्योह, मात्र चूड़ामणि, लिदसमस्त्रमण्डनं. यशस्तिलवचा-पू, जीउन्धरनम्पू आदिको शब्दमौन्दर्य, ननावातुर्य, अर्थगंभोर ताके कारण विद्वानोवे लिए सम्माननीय बताया है । अलंकार नास्त्र के रूप में अलंकार चिंतामणिको भी महत्वपूर्ण कहा है । १. अनेकांत वर्ष ५, किरण १२, पृ० ३९४ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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