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________________ इतिहास के प्रकाशमें २१७ "सिद्धार्थचैत्यवृक्षाश्च प्राकारवनवेदिकाः स्तूपाः सतोरणा मानस्तम्भा स्तम्भाल्स केतवः ॥ २१४॥ | " यह भी वर्णन आया है कि बड़े रास्ते के मध्य में ९ स्तूप थे, जिनपर अरिहन्त तथा सिद्ध भगवान् की मूर्तियों विराजमान थीं । (२६२-६५) । अतः यदि सूक्ष्म परीक्षण किया जाय तो जिन शोधकोंने जैनियोंमें स्तूप नहीं होते इस भ्रमवश स्तूप मात्र देख उन्हें बौद्ध कह दिया है, उन्हें महत्त्वपूर्ण संशोधन अनेक स्थलोंके विषय में करना न्यायप्राप्त होगा। इतिहासकारोंने बहुतसी जैनपुरातत्त्वको महत्त्वपूर्ण सामग्रीको अपनी भ्रान्त धारणाओंके कारण बौद्ध सामग्री घोषित कर दिया है। स्मिथ साहब यह बात स्वीकार करनेका सोजन्य प्रदशित करते हैं कि कहीं कहीं मूलमे जैन स्मारक बौद्ध बता दिये गये हैं । डा० फ्लीट अधिक स्पष्टतापूर्वक कहते हैं कि समस्त स्तूप और पाषाणके कटघरे बौद्ध ही होंगे, इस पक्षपात जैन दोनों को जैन माने जाने में बाधा उत्पन्न की, और यही कारण है कि अब तक केवल दो ही जैन स्तूपों का उल्लेख किया गया है। २. उत्कल - उड़ीसा प्रान्त में पुरी जिलेके अन्तगंत उदयगिरि खण्ड गिरिके जैन मन्दिरका हाथीगुफावाला शिलालेख जैनधर्मकी प्राचीनताको दृष्टिसे असाधारण महत्वपूर्ण है। उस लेख में "नमो अरहंतानं नमो सब सिद्धानं " बादि वाक्य उसे जैन प्रमाणित करते हैं । यह ज्ञातव्य है कि शिला लेखमें आगत 'नमो सर्व मित्रानं ' वाक्य आज भी उड़ीसा प्रान्त में वर्णमाला शिक्षण प्रारम्भ कराते समय 'सिद्धिरस्तु' के रूप में पढ़ा जाता है। तेलगू भाषा में 'ॐ नमः शिवाय' 'सिद्धं नमः' वाक्य उस अवसर पर पड़ा जाता है। महाराष्ट्र प्रान्तमें भी 'ॐ नमः सिद्धस्यः' पढ़ा जाता है। हिन्दी पाठशालाओं में जो पहले 'अरे नामा सी' पढ़ाया जाता था वह 'ॐ नमः सिद्धम् का ही परिवर्तित रूप है। इससे भिन्न-भिन्न प्रान्तीय भाषाओं पर अत्यन्त प्राचीनकालीन जैन प्रभावका सद्भाव सूचित होता है । 2. "In some cases monuments which are really Jains, have been erroneously described as Buddhists" V. Smith1. "The prejudice that all stupas and stone railings must necessarily be Buddhist, has probably prevented the recognition of Jain structures as such, and upto the present only two undou bted Jain stupas have been recorded, Dr. Fleet Imp. Gaz...Vol. 11, p. 111. . English Jain Gazette p. 242 of 1920 Article by Prof, B. Sheshagiri Rao M, A on "Periods of Andhra culture."
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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