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________________ समन्वयका मार्ग स्याद्वाद "यत्किञ्चित्संसारे शरीरिणां दुःखशोकभयबीजम् । दौर्भाग्यादि समस्तं तद्धिसासम्भवं ज्ञेयम् ॥ १२९ -- ज्ञानार्णव पु० १२० । J इस संसार में जीवोंके दुःख शोक, भयके याजस्वरूप दुर्भाग्य आदिका दर्शन होता है, वह सब हिंसासे उत्पन्न समझना चाहिए | एक कविने कितना सुन्दर कहा है "Whoever places in man's path a snare, Himself will in the sequel stumble there, Joy's fruit upon the branch of kindneas grows, Who sows the bramble, will not pluck the rose. ' जो दूसरेके मार्ग में जाल बिछाता है, वह स्वयं उसमें गिरेगा। करुणाको शाखा आनन्दके फल लगते हैं । जो कोटा वोता हूं यह गुलामको नहीं पावेगा । "P समन्वयका मार्ग - स्याद्वाद साधना के लिए जिस प्रकार पुण्य-जीवन और पवित्र प्रवृत्तियोंकी आवश्यकता है, उसी प्रकार हृदयसे सत्यका भी निकटतम परिचय होना आवश्यक है मनुष्यकी मर्यादित शक्तियाँ हैं। पदार्थोंके परिज्ञानके साधन भी सदा सर्वथा सर्वत्र सबको एक ही रूप में पदार्थोंका परिचय नहीं कराते । एक वृक्ष समीपवर्ती व्यक्तिको पुष्प पत्र | दिप्रपूरित प्रतीत होता है, तो दूरवर्ती को उसका एक विलक्षण आकार दीखता है । पर्वतके समीप आनेपर वह हमें दुर्गम और भीषण मालूम पड़ता है, किन्तु दूरस्थ व्यक्तिको वह रम्य प्रतीत होता है- दूरस्था भूषरा रम्याः"। इसी प्रकार विश्वके पदार्थोंके विषय में हम लोग अपने-अपने अनुभव और अध्ययनका विश्लेषण करें, तो एक ही वस्तुके भिन्न-भिन्न प्रकार के अनुभव मिलेंगे; जिनको अकाट्य होनेके कारण सदोष या भ्रमपूर्ण नहीं कहा जा सकता । एक 'संखिया' नामक पदार्थके विषयमें विचार कीजिए । साधारण जनता उसे विष रूपसे जानती है, किन्तु वैद्य उसका भयंकर रोग निवारण में सदा प्रयोग करते हैं । इसलिए जनताकी दृष्टिसे उसे मारक कहा जाता है और वैद्योंकी दृष्टिसे लाभप्रद होनेके कारण उसका सावधानीपूर्वक प्रयोग किया जाता है। तथा प्राण रक्षाकी जाती हैं ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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