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________________ १३० जेनशासन हती पहा स्तुओंके विषय में भिन्न-भिन्न प्रकारको दृष्टियो सुनी जाती हैं और अनुभवमें भी काती हैं। इन दृष्टियोंपर गम्भीर विचार न कर कृपमण्डकवत् संकीर्ण भावसे अपनेको ही यथार्थ समझ विरोधी दृष्टिको एकान्त असत्य मान बैठते हैं। दूसरा भी इनका अनुकरण करता है। ऐसे संकीर्ण विचारवालोंके संयोगसे जो संघर्ष होता है उसे देख साधारण तो क्या बडेरे साधचेतस्क व्यषित भो सत्य-समीक्षणसे दूर हो परोपकारी जीवन में प्रवृत्ति करने को प्रेरणा कर चुप हो जाते हैं। और, यह कहने लगते हैं-सत्य उलझनकी वस्तु है । उसे अनन्त कालतक सुलझाते जाओगे तो भी उलशन जैसी की तैसी गोरख-धन्धेके रूपमें बनी रहेगी। इसलिए थोडेसे अमूल्य मानव-जीवनको प्रेमके साथ व्यतीत करना चाहिए | इस दृष्टिवाले बुद्धिके धनी होते हैं, तो यह शिक्षा देते है "कोई कहें कछु है नहीं, कोई कहे कछ है। है औ नहींके बीच में, जो कुछ है सो है।" साधारण अनताकी इस विषयमें उपेक्षा दृष्टिको व्यक्त करते हुए कवि अकबरने कहा है "मजहबी बहस मैंने को ही नहीं फालतू अक्ल मुझमें थी ही नहीं।" ऐसी धारणावाले जिस मार्गमें लगे हुए चले जा रहे हैं, उसमें तनिक भी परिवर्तनको वे तैयार नहीं होते । कारण, अपने पक्षको एकान्त सत्य समझते रहनेसे सत्म-सिन्युके सर्वांगीण परिचयके सौभाग्यसे वे वंचित रहते हैं । एक शर एक विश्वधर्म सम्मेलनमें मुझे सम्मिलित होनेका सुयोग मिला । बौद्धधर्मका प्रतिनिधित्व करनेवाले दर्शन-शास्त्रके आचार्य एक डॉक्टर महानुभावने कहा पा कि-बुद्ध-देवने प्रपञ्चके विषयमें सत्य समीक्षणकी दृष्टि में अपने भक्तोंका कालक्षेप करना उचित नहीं समझकर लोक-सेवा, प्रेम, धर्म-प्रचार आदिको जीनोपयोगी कहा । इसलिए डाक्टर महाशयकी दृष्टि में दार्शनिकताका मार्ग कष्टक-मय और मृग-मरीचिकाका रास्ता था। उस समय जैन-धर्मको समन्वयकारी दृष्टिपर प्रकाश डालनेको चिन्तनामें मैं निमम्न था। जनधर्मके अपने भाषणके प्रारम्भमें मैंने बौद्ध प्रतिनिधिके प्रभावको ध्यानमें रखते हुए कहा कि-चार्वाकने तो पूर्वोक्त दृष्टिसे भी आगे बढ़ लोकोपयोगी आकर्षक युक्ति द्वारा विश्वकी समीक्षा को 'बालू पेलि निकालें तेल' जैसी सारहीन समस्या समझाया। देखिए वह स्मा कहता है-तकके सहारे सस्थको देखना चाहो तो वह हमारा ठीक मार्ग-दर्शन नहीं करता। जिस प्रकार तर्क एक पक्षके औचित्यको बतानेवाली सामग्री उपस्थित
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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