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________________ विश्व-निर्माता और यहाँ मैं तेरो खातिर काट रहा हूँ जीवन नाथ, हां, तेरे पथपर ही स्वामी घोर निराशाओं के साथ ।" विश्वका ऐसा अस्त-व्यस्त चित्र विन्तकको चकित बना कत्तृत्वकी ओरसे पराङ्मुख कर देता है। विहारकै भूकम्पपीडित प्रदेशमें पर्यटन द्वारा दुःखी व्यक्तियों का प्रत्यक्ष परिचय प्राप्तकर पंडित नेहरूजी लिखते है-''हमें इसपर भी ताज्जुब होता है, कि ईश्वर ने हमारे माय ऐसी निर्दयतापूर्ण दिल्लगी क्यों की कि पहिले तो हमको बुटियोंसे पूर्ण बनाया, हमारे चारों ओर जाल और गड्ढे free दिये, इपारे लिए कोर और द:खपूर्ण मंमारकी रचना कर दी, चौता भी बनाया और भेड़ भी । और हमको सजा भी देता है।" धर्म के विषय में नेहरू बोके विचारों से कितनी ही मतभिन्नता क्यों न हो, किन्तु निष्पक्ष विचारक पक्तिकी आत्मा उनके द्वारा आन्तरिक तथा सत्यतास पूर्ण विचारधाराका समर्थन किए बिना न रहेगा। देखिए, मृत्युकी गोदमें जाते-जाने पंजाय क्षेसरों लाला लापतराय कितनी सजीव और अमर बात कह गमे है-"क्या ममीबतों, विषमताओं और करताओंसे परिपूर्ण यह जगत् एक भद्र परमात्माकी कृति हो सकता है ? जब कि हजारों मस्तिष्कहीन, विचार तथा विधे कान्य, अनैतिक, निर्दय, अत्याचारी, जालिम, लुटेरे, स्वार्थी मनुष्य दिलासिसाका जीवन बिता रहे हैं और अपने अधीन व्यक्तियोंको हर प्रकारसे अपमानित, पद-दलित करते हैं और मिट्टी में मिलाने हैं, इसना ही नहीं, चिढ़ाते भी हैं। ये दुःखी लोग अवर्णनीय कष्ट, घृणा तथा निर्दयतापूर्ण अपमानसहित जीवन व्यतीत करते है, उन्हें जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक वस्तुएं भी नहीं मिल पाती । भल:, ये सच विषमताएँ क्यों है? क्या ये न्यायशील और ईमानदार ईश्वरके कार्य हो सकते है ।" आगे चलकर पक्षाब केसरी कहते हैं-'मुझे बतायो-सुम्हारा ईश्वर कहाँ है मैं तो इस निस्सार जगसमें उसका कोई भी निशान नहीं पासा' " 1. "Can this world full of miseries, inequalities, cruelities & barbar rities be the handiwork of a good God, while hundreds and thousands of wicked people, people without brains, without head or heart, immoral and cruel people, tyrant, oppressors, explor iters and selfish people living in luxury, and in every possible way insulting trampling under foot, grinding into dust and alsu mocking their victims, these latter are lives of untold misery, degradation, disgrace of sheer want? They do not
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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