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________________ समन्वयका मार्ग - स्याद्वाद १३७ तत्वको एकान्ततः अनिर्वचनीय माना जाए, तो किस प्रकार दूसरेको उसका बोध कराया जाएगा। क्या मात्र अपने ज्ञानसे वाणीकी सहायता पाए बिना अन्यको ज्ञान कराया जा सकेगा ? इसलिए उसे कथञ्चित् अनिर्वचनीय कहना होगा । पदार्थको स्थूल पर्यायें शब्दोंके द्वारा कहने सुननेमें आती ही हैं । सत्त्व और असत्व, भाव बोर अभाव, विधि और प्रतिषेध तथा एक और अनेक रूप तत्वका एक समय में प्रतिपादन शब्दोंकी शक्तिके परे होने से कथञ्चित् अनिर्वचनीय धर्मका सद्भाव स्वीकार करना पड़ता है। इन तीन अर्थात् स्यात् बस्ति, स्याद् नास्ति स्यात् अवक्तव्य के संयोग से चार और दृष्टियों-भंगों का उदय होता है - ( १ ) अस्ति नास्ति ( २ ) अस्ति अवक्तव्य (३) नास्ति अवक्तव्य ( ४ ) अस्तिनास्ति अवक्तव्य । इन चार भंगका स्पष्टीकरण इस भाँति जानना चाहिए । अस्तित्व और नास्तित्वको क्रमपूर्वक ग्रहण करनेसे 'अस्ति नास्ति' अस्तित्वके साथ ही उभय धर्मों को ग्रहण करनेवाली दृष्टि समक्ष रखनेसे 'मस्ति - अवक्तव्य', नास्तित्व के साथ अवक्तव्य दृष्टिकी योजनासे 'नास्ति अवक्तव्य' तथा अस्ति नास्तिके साथ अवक्तव्यको योजना द्वारा 'अस्ति नास्ति अवस्तभ्य' भंग बनता है । इन सात भंगोंको सप्तभंगी न्यायके नाम कहते हैं । गणितशास्त्र of pratiknatio नुसार अस्ति नास्ति और अवक्तव्य इन तीन भंगोंसे चार संयुक्त मंग बनकर सप्तरंग दृष्टिका उदय होता है। नमक, मिर्च, खटाई इन तीन स्वादोंके संयोगसे चार और स्वाद उत्पन्न होंगे | नमक मिर्च -खटाई, नमक मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च- खटाई, नमक, मिर्च और खटाई इस प्रकार सात स्वाद होंगे। इस सप्तभंगी न्यायकी परिभाषा करते हुए जैनाचार्य लिखते हैं- "प्रश्न वशात् एकत्र वस्तुति अविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभ्यो ।" (राजवा० ११६ ) -- प्रश्न - यशसे एक वस्तुमें अविरोध रूपसे विधि-निषेध अर्थात् अस्ति नास्तिकी कल्पना सप्तभंगी कहलाती है । आचार्य विद्यावि अपनी अष्टसहस्री टोकामें बताते हैं कि सप्त प्रकारकी जिज्ञासा उत्पन्न होती है, क्योंकि सप्त प्रकारका संशय उत्पन्न होता है । इसका भी कारण यह है कि उसका विषयरूप वस्तु धर्म सुप्त प्रकार है । सप्तवि जिज्ञासाके कारण सप्त प्रकारके प्रश्न होते हैं । अनन्त धर्मोके सद्भाव होते हुए भी प्रत्येक धर्ममें विधि-निषेधको अपेक्षा अनन्त सप्तभंगिय अनन्त धर्मोको अपेक्षा माननी होंगी स्वेच्छानुसार जैसी लहर आई उसके अनुसार बस्ति नास्ति आदि भंग नहीं होते अन्यथा स्याद्वाद अव्यवस्थावादको प्रतिकृति बन जायेगा । इसीलिए सप्तभंगीकी पाख्या 'अविरोधेन' शब्द ग्रहण किया गया है।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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