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________________ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल १७९ स्वातन्त्र्य-प्रेम, उत्कृष्ट देश भक्ति तथा त्यामका सजीव चित्र हृदय-पटल पर अंकित हुए बिना न रहेगा । जौहरबतके कारण पचिनी आदि हजारों वीरांगनाओं ने अपने हिलको अक्षुण्ण रखते हुए सती बनने का जो अभूतपूर्व त्याग किया है, वह कया भी स्परण-पथमें आकर पुरातन भारतकी पवित्र भावनाको जगाये बिना न रहगी । आजके राजनैतिक वातावरणसे प्रभावित व्यक्ति कदाचित् जालियाँवाला बागको देखने जाए, तो जनरल डायर क्रूर-कृत्य और पराधीन भारतीयोंकी बेबसीको स्मृति जागे बिना न रहेगी। इसी प्रकार आध्यात्मिक जागरण क्षेत्रमें साधक उन स्थलोका दर्शन करें और शान्तचित्त हो अपना कुछ समय बितावें, जहाँ तीर्थकर आदि महापुरुषोंने विश्वके वैभवका परित्याग कर साम्यभावकी प्राप्तिनिमित्त क्रोधादि रिपुओज संहार किया, तो उसको आत्मामें विशेष बल उत्पन्न होगा और वह पवित्रताके पथमें प्रगति करने के लिये पर्याप्त प्रेरणा प्राप्त करेगा। हमारा मस्तिष्क विभिन्न संस्मरणरूपो रेलवे लाइनोंके जंक्शन समान है । जिस ओरके रेल-पथपर स्मृत्तिके सहारे हमारे विचार-एजिनने अपनी गाड़ी खींचना आरम्भ किया, संस्मरण हमें उभी दिशामें बढ़ाते हुए ले जाते हैं । सिनेमाको राष्ट्र-भक्तिसे परिपूर्ण फिल्म देख दर्शकका हृदय देश-भक्ति भानोंसे परिव्याप्त होता है और किसी धार्मिक खेलको देख उसको आत्मा धार्मिकताके भावोंसे पूर्ण होगी । हमें बिहार प्रान्तमें गयाके पास नवादा स्टेशन के समीपवर्ती गुणावा नामक जैन-तीर्थ पर पहुँचनेका अवसर मिला। देनकी अनुकूलता न होने के कारण हमें अनिच्छापूर्वक भी कुछ समय वहाँ ठहराना पड़ा । पीछे यह भान हुआ कि वहां रुकना दुर्भाग्य नहीं, बड़े सौभाग्यको बात हुई। भगवान् महावीरके प्रमुख शिष्य तपस्वी-शिरोमणि इन्द्रभूति गौतम गणवरका उस भूमिसे संबंध था । उनके जीवनको दिव्य स्मृतिसे आत्माको बहुत प्रकाश और प्रेरणा प्राप्त हुई। मन-होमन में सोचने लगा, गौतम स्वामीका चरित्र बड़ा विचित्र है ! जो व्यक्ति कुछ समय पूर्व अन्य दर्शनोंका पारगामी पंडित हो महावोर-शासनका भयंकर विरोधी बन स्वयं भगवान्से शास्त्रार्थ में दिग्वजय पाने की नियत से प्रभुके समवशरणके समीप पहुँचा और भगवान्के योगबलसे प्रभावित मनोज्ञ मानस्तम्भकी विभूतिको देख मानरहित हुआ और प्रभुके समीप पहुंचते-पहुँचते उस एकान्तीको आत्मामें अनेकान्त-सूर्यको सुनहरी किरणोंने प्रवेशकर हृदयमें छिपे हुए मोह-मिथ्यात्पके निविड़ अन्धकारको दूर कर दिया, जिससे वह गौतम प्रभुका भक्त बन गया ! सम्पूर्ण परिग्रहका परित्याग कर दिगम्बरमुद्रा धारण को ! अनेक ऋद्धियां उत्पन्न हो गई ! मनःपर्यय नामक महान् ज्ञानका उदय हुआ और अल्पकालमें ही उस आत्माने इतनी प्रगति को, कि वह आत्मसाधकोंकी श्रेणी में प्रमुख अन श्रमण
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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