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________________ १८० जैनशासन संघका अधिपति-गणघर बना और भगवान महावीरकी वाणीको विश्वमे सुनानेका तथा अनेकान्तको पताका सर्वत्र फहरानेधा सौभाग्य प्राप्त कर सका । तथा, अन्त में पूर्ण साधना होने पर भगवान् महावीर के समान मुक्तात्मा हो गया । हमें प्रतीत हुआ, यदि व्यक्ति गौतमके ममा हृदयसे प्रयत्न करे तो आज भी आत्मविकास के लिये ज्यापक क्षेत्र विद्यमान हैं। आचार्य कुन्दकुन्द्र कहते हैरत्नत्रयसे शुरु हो यदि कोई जीव आत्मकल्याण कर तो आज भी वह व्यक्ति लौकान्तिक देव आदिके श्रेष्ठ पदोंको प्राप्त करते हुए, फिरसे श्रेष्ठ मानवके रूपमें जन्म धारण कर तप साधनाके प्रभावसे निर्वाणको प्राप्त करेगा। जैन-आगम से ज्ञात होता है कि समर्थ-साधक मरणकर निर्याणके योग्य विदेह सदमा भूमिमें जा जन्म लेकर ७ वर्ष ३ माह अन्तमहतम कंवलज्ञानके लोकातिशामी आत्मभवको प्राप्त कर सकता है । गुणाधा शत्रने ऐसे बहुत से विचारों द्वारा हमारी आत्माको प्रबुद्ध किया- शान्ति प्रदान की । वे विचार अन्य स्थान पर नहीं मिले । वहीं उन विचारों पोषणयोग्य सामग्री थी। वातावरण यह विचार उत्पन्न करता था कि यह वही स्थान है, जहाँ योगियोंके द्वारा भी वन्दनीय घरपोरकानी गोने सपनो ..] सुमधु.. - निर्वाण प्राप्त किया था। इस प्रकार तीर्थकरोंके जीवनसे सम्बन्धित पवित्र स्थानोंकी मात्रा पुण्यसंघर्धन में निमित्त शना करती है। सागारधर्मामृतमें पंडित बाशापरजी गृहस्थको तीर्थ वन्दना निमित्त प्रेरणा करते हुए लिखते है "स्थूललक्ष: क्रियास्तीर्थयात्राद्या दृग्विशुद्धये।" -२१४४ गृहस्थ अपने तत्त्वज्ञानको विशुद्धि निमित्त तीर्घयादि क्रियाओंको करे । यहाँ 'दग्विशुद्धय' शम्द द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि, तीर्थ बन्दना आत्मनिर्मलताके प्रघान अंग सम्यग्दर्शनको परिपुष्ट करती है । समाधि-मरण के लिये उधत सावक श्रावक अथवा साघुको ऐसे स्थानका आथय लेनेको कहा है कि जो जिनेन्द्र भगवान्के गर्भ, जन्म, तप, कैवल्य तथा निर्माण इन पाँच कल्याणकोंसे पवित्र हुए हों। यदि कदाचित् उसका लाभ न हो तो योग्य मन्दिर-मठ आदि का आश्रय ले। कदाचित् तीर्थयात्राके लिए प्रस्थान करनेपर मार्ग में ही मृत्यु हो जाय तो भी उस आत्माके महान कल्याणमें बाधा नहीं पाती । क्योंकि उसको भावना तीर्थवन्दना द्वारा आत्माको पवित्र करने की थी। देखिये, पं० शायर जी क्या लिखते है १. "अज्ज वि सिरयणसुद्धा अप्पा झाकण लहदि इंदत्तं । लोमंतियदेवतं तत्य मा णिचुदि जति ।।" - मोक्षप्राभत ॥७॥
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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