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________________ १३२ जनशासन महत्ता प्रकट न करते तो हमलोग शायद आज भी पूर्ववत् अज्ञानके अन्धकारमें हो डूबते रहते।" गांधोजीने लिखा है "जिस प्रकार स्याद्वादको मै जानता है, उसी प्रकार में उसे मानता हूँ ! मुझे यह अनेकान्त बढ़ा प्रिय है।" श्रीयुत महामहोपाध्याय सत्यसम्प्रदायाचार्य पं० स्वामी राममिषमी शास्त्रीने लिखा है कि-"स्याद्वाद जैनधर्मका एक अभेद्य किला है, जिसके अन्दर प्रतिवादियोंकि मायामय गोले प्रवेश नहीं कर.. " अब हमें देखना है कि यह स्याद्वाद क्या है जो शान्त गम्भीर और असाम्प्रदायिकों की यात्माके लिए पर्याप्त भोजन प्रदान करता है । 'स्यात्' शब्द कञ्चित्। किसी दृष्टिसे (from some point of vicw) अर्थका बोधक है । 'वाद' शब्द कथनको बताता है। इसका भाव यह है कि वस्तु किसी दृष्टिसे इस प्रकार है, किसी दृष्टि से दूसरी प्रकार है। इस तरह वस्तुके शेष अनक धर्मों-गुणोंको गौण बनाते हुए गुणविशेषको प्रमुख बनाकर प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। स्वामी समन्तभद्र कहते हैं"स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः।" —आप्तमीमांसा १०४ । लषीयस्वयमें अकलंकदेव लिखते हैं-"अनेकान्तास्मकार्यकयनं स्यावावः"अनेकान्तात्मक-अनेक धर्म-विशिष्ट वस्तुका कथन करना स्यादाद है।" कथनके साथ स्यात् शब्दका प्रयोग करनेसे सर्वथा एकान्त दृष्टिका परिहार हो जाता है । स्याद्वादमें वस्तुके अनेक धोका कथन होने के कारण उसे अनेक धर्मवाद अथवा बनेकान्तवाद कहते हैं । जब अनन्त धर्मोपर दृष्टि रहती है तब उसे सकलादेशपरिपूर्ण दृष्टि कहते है । जब एक धर्मको प्रधान वना शंघ धर्मोको गोण बना दिया जाता है तब उसे विकलादेश-अपूर्ण दृष्टि कहते हैं। विकलादेशको नय-दृष्टि और सकलादेशको प्रमाण-दृष्टि कहते हैं । जीवमें ज्ञान दर्शन, सुरव, सक्ति आदि अनन्त गुण विद्यमान हैं । जन्न प्रतिपादककी विवक्षा-दृष्टि अनन्त गुणोंपर केन्द्रित रहती है तब स्यात शब्दके माथ 'जीव' पदका प्रयोग उसके अनन्त घोको सूचित करता है। इसलिए अकलंक स्वामीने लिखा है—'स्यात जीव एवं' ऐसा कथन होनेपर 'स्यात' शब्द अनेकान्त-अनेक धर्मपुञ्जको विषय करता है। "स्यात् अस्त्येव - - १. "उपयोगी श्रुतस्य द्वौ स्यावादनयसंज्ञितो। __ स्यावादः सकलादेशः नयो विकलमकथा ॥६२॥ --लघीयस्त्रय ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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