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________________ २४४ जेनशासन मौर्या ईसाको छठवी सदी में था । भगवान् महावीरफे एकादश मुख्य शिष्यों में सातवें मुनि मौर्य पुत्र थे । मौर्यपुत्रस्तु सप्तमः (हरिवंशपुराण) बौद्धसाहित्य में मौर्य वंशवाले क्षत्रिय बताये गये हैं । अतः चंद्रगुप्त मौर्य क्षत्रिय थे यह सत्य शिरोधार्य करना उचित है। खेद है कि अब तक भी ऐसे महापुरूषके उच्च फुलको बदलकर उन्हें मुरा नाईनके गर्भसे उत्पन्न बताया जाता है, तथा सरकारी शालाओं तकमें ऐसा प्रचार किया जाता है। वृक्षधर्म भक्त रूपसे विख्यात धर्मप्रिय सम्राट अशोकके साहित्यको पढ़कर कुछ विद्वान् अशोकके जीवनको जनधर्मसे संबंधित स्वीकार करते हैं। प्रो० ककी धारणा है कि अहिंसाके विषयमें अशोक के आदेश बौद्धोंकी अपेक्षा जैनसिद्धान्त से अधिक मिलते हैं । आज जो मशीकका धर्मचक्र भारत सरकारने अपने राष्ट्रध्वज में अलंकृत किया है, उस चक्र-चिह्नमें बोधीस आरोंका सदभाव चौबीस तीर्थकरोंका प्रतीक मानना सम्पन प्रतीत होता है। स्वामी समन्तभाने चक्रवती शान्तिनाथ तीर्थकरके धर्मचक्रको नाणा की किरणोंने सुजिमा--'गाठी नितिगामसम्' कहा है । प्रत्येक तीर्थकरने अपनी करुणामयी प्रवृत्ति और साधनाके पश्चात् धर्मचक्रको प्राप्त किया है, अतः धर्मचक्रके . सच्चे अधिपति २४ तीर्थकरोंकी पवित्र स्मृतिका प्रतीक अशोक स्तंभका धर्मचक्र है । इसके विरुद्ध प्रबल तर्कपूर्ण सामग्रीका सदभाव भी महीं है | अशोकका जैनधर्मसे सम्बन्ध सिद्ध होनेपर धर्मचक्रके आरोंका उपरोक्त प्रप्तीकपना स्वीकार करना सरल हो जाता है। प्रतीत होता है, कि जैसे दिम्बसार श्रेणिकका जीवन पूर्वमें बौद्ध धर्माराधकके रूपमें था, और पश्चात् रानी चेलनाकै, जिसे विद्षी लोगोंने घुणित चित्रित किया है (देखो जयशंकरप्रसाधका चंद्रगुप्त नाटक), समर्थ प्रयत्नसे वह जैन धर्मावलम्बी हो गया और वह जैन संस्कृतिका महान् स्तंभ हुआ, ऐसी ही धर्म परिवर्तनकी बात अशोकके जीवनमें भी रही है। इस समन्वयात्मक दृष्टिसे अशोकको जैन तथा बौद्धधर्मके प्रचारकी बातोंका विरोध नहीं रहता है। 'राजावलिकथे' नामक कन्नष्ठ ग्रंथ अशोकको जैन बताता है 1 महाकार कल्हमने अपने संस्कृत ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में अशोक द्वारा 'कादमीर में जनघर्मक I. "His (Asoka's) ordinances concerning the sparing of animal life agrees much more closely with the ideas of heritical Jains than those of Buddhists"-Indian Antiquary Vol. V. p. 205. "यः शान्त मिनो राजा प्रपत्नो जिनशासनम् । पुष्कलेऽम्र वितस्तापी तस्तार स्तूपमण्डले ।।" राजतरंगिणी अ० १ ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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