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________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २७७ वास्तवमें मानसिक विकारोंपर विजय हो सच्चा विकास और कल्याण है । मानसिक पत्रिका विशुद्ध जीवनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है | महाकवि बनारसीदासजी की वाणी कितनी प्रबोधपूर्ण है--- "समुझे न ज्ञान कहे करम किए सो मोक्ष, ऐसे जीव विकल मिध्यात की गहल में | ज्ञान पक्ष गहे कहे आतमा अवन्ध सदा, करते बुन्द डूे से महकमें जथायोग्य करम करें ममता न धरे, रहें सावधान ज्ञान ध्यानकी टहल में । सेई भव-सागर के ऊपर हुवै तरें जीव, जिन्हको निवास स्यादवादके महल में ।।" पावतीवाज में दोहे कितने सरल, सरस तथा शान्तिरस पूर्ण हैं ! कैसा भी मोहाकुल व्यक्ति हो, इनके द्वारा चैतन्यकी स्फूर्ति हुए बिना नहीं रहेगी | महाकवि आसवेवसे बात करते हुए ब्रह्मविलास में कहते है"चल चेतन तहं जाइये, जहाँ न राग विरोध । निज स्वभाव परकाशिये, कीजें आतम बोध ॥१॥ तेरे बाग सुज्ञान है, निज गुण फूल विशाल | साहि विलोकहु परम तुम, छाड़ि आल जंजाल ॥२॥ अहो जगत के राय, मानहु एती बीनती । त्यागहु पर परजाय, काहे भूले भरम में ॥३॥ तुम तो पुनो चंद, पूरन जोति सदा भरे । पड़े पराए फन्द, चेतन चेतन राय जु ॥४॥ निज चन्दाकी चांदनी, जिह घट में परकास । तिहि घटमें उद्योत ह्रय, होय तिमिरको नास ॥५॥ जित देखत तित चाँदनी, जब निज नयननि जोत ! नेन मिचत पेखे नहीं, कौन चांदनी होत ॥६॥ या मायासे रावके, तुम जिन भुलहु हंस | संगति यात्री त्यागके, चीन्हों अपनी अंस" कविका यह कथन कितना उपयोगी है J "रागन कीजें जगत् में राग किए दुःख होय | देखहु कोकिल पींजरें, गह् डारत लोय ||८|| त्याग बिना तिरबो नहीं, देखहुँ हिये विचार | तूंजी लेपहि त्यागती, तब तर पहुंचे पार 11
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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