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________________ जैनशासन १० ॥ तन ऊपर जम जोर है, 'जिनसो' जमहुं डराय । तिनके पद जो सेइये, जमकी कहा बसाय ॥ मेनासे तुम क्यों भए 'मैं' नासे सिध होय । 'मैं' नांहीं वह ज्ञान में, मैं न रूप निज जोय ॥११॥ ॥ जैनी जाने जैन ने जिन जिन जानी जैन | जेने जैजैन जनजाति लिने चार मांहि जौलों फिरे, धरे चारसों प्रीति । तौलों चार लखे नहीं, चार खूंट यह रीति ||१३|| जे लागे दस बीस सों, ते तेरह पंचास | सोलह बासठ कीजिये, छांड चार को वास || १४ || " मोहकी प्रगाढ निद्रामें मग्न संसारी प्राणीका कितना अंकित किया गया है भावपूर्ण चित्र यहाँ २७८ कलपना । " काया चित्रशाला में करम परजंक भारी, मायाकी संवारी सेज चादर शयन करे वेतन अचेतनता नींद लिए, मोहकी मरोर यहै लोचनको उदे बल जोर यह श्वासको शब्द विषय सुखकारी जाकी दोर ऐसे मूढ़ दशामें धावे भ्रम जाल में यह मगन रहे न पावे रूप सिंह उपना || घोर, सपना । काल 1 अपना ।। " संसार में धन, वैभव, विक्रम प्रभाव आदि संपन्न पुरुषको पूजा होती हैं, और ऐसी विशेषता समलंकृत व्यक्तिका सम्मान किया जाता है । आत्माका इससे कोई पारमार्थिक हित संपन्न नहीं होता । जीवका यथार्थ कल्याण उस संवर भावनासे होता है, जिसके द्वारा कर्म बन्धन नहीं होता। इसी कारण कविवर मुगल शासकको प्रणाम न कर ज्ञान सम्राट्की इन मार्मिक शब्दों द्वारा अभिवन्दना करते हैं: रह्यो गुमानी ऐसो, आ "जगत के मानी जीव असुर दुःखदानी महा भीम है । ताको परिताप खंडिको परगट भयो, धर्मको घरेया कर्म रोगको जाके परभाव आगे भागें नागर नवल सुख- सागर की हकीम है ॥ परभाव सब सीम है | r
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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