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________________ २७६ जैनशासन "अरे मूड़! जगतिलक आत्माको छोड़कर अन्यका ध्यान मत कर। जिसने मरकतमणिको पहिचान लिया है यह क्या कांचको कोई गणना करता है । जो लोग को भोको चाहते हैं, वे असंभवको उपलब्धि के लिये प्रयत्नशील है। कवि सरल किन्तु मर्मस्पर्शी शैलीसे समझाते है - दो तरफ दृष्टि रखनेवाला पचिक मार्ग में नहीं बढ़ता है। दो मुखबाली सुई कंसा - जीर्णवस्त्रको नहीं सी सकती, इसी प्रकार इंद्रियसुख और मुक्ति साथ-साथ नहीं होती ।' भवन्त गुणभद्र एक हृदयग्राहो उदाहरण द्वारा उस तत्वको समझाते हैं कि साधक का सच्चा विकास परिषद् द्वारा नहीं होता- तराजू के नीचे ऊँचे पल यह स्पष्टतया समझाते हुए प्रतीत होते हैं, कि ग्रहण करने की इच्छा वालोंकी अधोगति होती है और अग्रहणकी इच्छा वालोंकी ऊर्ध्वगति होती है ।" कितना मार्मिक सर्वोपयोगी उदाहरण है यह तराजूका वजनदार पलड़ा नीचे नाता है, जो परिग्रहवारियो के अघोगमनको सूचित करता है और हल्का पलड़ा ऊपर उठता है, जो अल्पपरिग्रहालोंके गम की ओर संकेत करता है । गुणभद्र स्वामी उन लोगोंको भी आत्मोद्धारका सुगम उपाय बताते हैं, जो तप के द्वारा अपने सुकुमार द्वारीरको क्लेश नहीं पहुंचाना चाहते है, अथवा जिनका शरीर यथार्थ में कष्ट सहन करने में असमर्थ है। वे कहते हैं तू कष्ट सहन करने में असमर्थ हैं, तो कठोर तपश्चर्या मत कर; किन्तु यदि तू अपनी मनोवृत्तिके द्वारा वश करने योग्य क्रोधादि शत्रुओं को भी नहीं जीवता है, तो यह तेरी बेसमझी है ।" १. "अप्पा मिल्लिवि जगतिल मूढ म साथहि अणु । जि मरगज परियाणियउ तहू कि कच्चह्न गण्णु २२७१ ॥ " २. "बे पंचेहि ग गम्मइ बेमुह सूई ण सिज्जए कंथा । विणि ण हुंति अयाणा इंदियसोक्वं मोक्खं च ॥ २१३।। " - पाहु दोहा । "दो मुख सुई न सीवे कन्या । दो मुख पन्थी च न पन्था । यों व काज न होहिं सयाने विषय भोग अमोल पवाने || " ३. "अवो जिधूक्षणो यान्ति यान्त्यूर्ध्व मजिघृक्षवः । इस दन्तो वा नामोन्नामी सुलान्तयोः ॥११५४|| ४. "करोतु न चिरं घोरं तपः क्लेशासहो भवान् चित्तसाध्यान् कषायादीन् न जयेद्यत्तदज्ञता ॥ २१२ ॥ आत्मानुशासन ।
SR No.090205
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size7 MB
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